शौकत थानवी का व्यंग्य: नेता

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व्यंग्य नेता - शौकत थानवी डॉक्टर अंसारी के व्याख्यान का सबसे अधिक प्रभाव भाई मकसूद पर हुआ कि हम लोग हाय-हाय करते रह गए और वह तीर की...

व्यंग्य

नेता

- शौकत थानवी

डॉक्टर अंसारी के व्याख्यान का सबसे अधिक प्रभाव भाई मकसूद पर हुआ कि हम लोग हाय-हाय करते रह गए और वह तीर की तरह मंच पर पहुँचकर टोपी, शेरवानी, कुर्ता आधि उतार-उतार कर फेंकने लगे और एक खद्दर की धोती बांधकर पाजामा फी तुरंत उतारकर फेंक दिया, क्योंकि वह भी विदेशी कपड़े का बना हुआ था. इसके पश्चात् उन्होंने एक विशेष भाव के कारण बड़ा प्रभावशाली लेक्चर दिया था जिसका केवल यह अंश हमको अब भी स्मरण है:

‘मैं केवल कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए एक आदर्श बना हूँ. वह मुझको देखकर शिक्षा ग्रहण करें और स्वदेशी की उन्नति में अपने कर्तव्यों पर विचार करें.'

अब हर समय भाई मकसूद खद्दर प्रचार करते. विशेष रूप से हमसे नाराज थे कि उनके बार-बार कहने के पश्चात् भी हम खद्दर नहीं पहनते थे. कुछ भी हो किंतु वह अब एक राष्ट्रीय मनुष्य बन गए थे और हमारे अनुमति के अनुसार तो उन्हें कांग्रेस का सभापति होना चाहिए था और वास्तव में यह उनका बलिदान था कि वह अपने होते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉक्टर अंसारी और श्रीमती सरोजनी नायडू आदि को सभापति होता हुआ देखते थे और चुप थे.

उनकी इस राष्ट्रीय-निमग्नता की यह दशा थी कि सवेरे आँख खुलते ही इन्कलाब जिंदाबाद का नारा लगाते थे और आवश्यकताओं से निपटने के पश्चात् तुरंत ही चर्खा लेकर बैठ जाते थे और इस स्वदेशी तपस्या में दोपहर कर देते थे. फिर कॉलेज जाते थे और वहाँ पढ़ने के स्थान पर स्वदेशी प्रचार करते थे.

एक दिन जब हम पुस्तक लेकर बैठे तो उन्होंने चर्खा चलाते हुए कहा, ‘क्या पढ़ रहे हो?'

हमने कहा, ‘हाँ, फिर'

विषैली हँसी के साथ कहा, ‘कुछ नहीं, किंतु मैं यह पूछता हूँ कि इस व्यर्थ शिक्षा का क्या फल हुआ?'

मैं इस सागर की भांति विशाल विवाद के विषय को गागर में भरकर कहा, ‘परीक्षा का समय निकट है.'

कहने लगे, ‘मान लिया कि आप परीक्षा में सफल भी हो गए तो क्या कीजिएगा.'

मैंने कहा, ‘डिप्टी कलेक्टरी और इसके पश्चात् अपने न्यायालय में तुमको फौजदारी के अपराध में छः मास की कड़ी सज़ा और सौ रुपया दंड अथवा सौ रुपए न देने के रूप में तीन महीने की और अधिक जेल करूंगा.'

कहने लगे, ‘तुमको अपने इन शब्दों पर लज्जा से डूब मरना चाहिए तथा मुझको गर्व करना चाहिए कि मैं अपनी जननी की सेवा में जेल जाऊंगा तथा देश एवं राष्ट्र के लिए दुःख सहूंगा.'

मैंने कहा, ‘तो मेरी समझ में नहीं आता कि आप कॉलेज में क्यों समय नष्ट कर रहे हैं. गांधी जी के आश्रम जाकर चर्खा चलाइए अन्यथा ताड़ी की दुकान पर धरना देकर जेल जाइए ठाठ के साथ.'

कहने लगे, ‘सच कहते हो पर मैं अपने माता-पिता को अभी तक नहीं मना सका हूँ और विश्वास रखो कि जिस दिन उनको समझाने में सफल हो गया उसी दिन मैदान में आकर तुमको दिखा दूंगा कि स्वतंत्रता के प्रेमी दुःखों को खेल समझते हैं.'

मैंने विनती करते हुए कहा, ‘तो कम-से-कम उस समय तक तो मुझको भी स्वतंत्रता से पढ़ लेने दो. मेरे माता पिता तो मुझको घर से निकाल देंगे.'

कहने लगे, ‘नहीं तो तुमको पढ़ने से नहीं रोकता.'

यह कहकर वह चरखा चलाने में लगे और मैंने पढ़ना प्रारंभ किया. अभी एक पृष्ठ भी न पढ़ा होगा कि आपने गाना प्रारंभ कर दिया-

चर्खा कातो तो बेड़ा पार

हां गोइयाँ ... चर्खा'

मैंने पुस्तक तो उठाकर एक ओर फेंक दी और यह सोचकर कि अभी दूसरे कमरे में रहने का प्रबंध करूंगा स्वयं बाहर निकल आया. सारे विद्यार्थी पुस्तकें चाटने में लगे हुए थे और मैं था कि शरण ढूंढता हुआ इधर-उधर मारा-मारा फिर रहा था. ऐसा बहुमूल्य समय और मैं... जी करता था कि इसको गोली मारकर फांसी पर चढ़ जाउँ. हमें कौन अपने कमरे में जगह देता और कौन भाई मकसूद के संग रहने पर राज़ी होता.

सारांश यह कि हमें जगह न मिली किंतु शाहिद ने केवल इतना ही कहा कि वह भाई मकसूद को समझाएंगे पर समझाने गए तो स्वयं विपत्ति में घिर गए. उन्होंने कहा-

‘यह क्या बेहूदगी है.'

उत्तर में भाई मकसूद ने अपनी प्रारंभ कर दी, ‘यह तो सब कुछ बेहूदगी है किंतु आपको लज्जा आनी चाहिए. आप विलायती कपड़ा पहन कर अपने देश को दासता की शृंखला में जकड़ रहे हैं.'

शाहिद ने कहा, ‘भाई मैं तो विलायती नहीं, देशी कपड़ा पहने हूँ'

कहने लगे, ‘यह कुछ नहीं, हाथ का कता और हाथ का बुना हुआ कपड़ा होना चाहिए.' शाहिद के मुँह से निकल गया, ‘यह तुम्हारा कट्टरपन है.'

इसके उत्तर में भाई मकसूद ने वह धुँआधार लेक्चर दिया कि आस-पास के कमरों से सारे लड़के निकलकर हमारे कमरे में इकट्ठे हो गए और उनको देखकर भाई मकसूद ने और भी भावपूर्ण लेक्चर दिया. सबको यह तय करना पडा कि आज ही दोपहर के पश्चात् छात्रावास में एक सभा की जाए जिसमें भाई मकसूद स्वदेशी के प्रचार पर व्याख्यान दें. कुछ हिचर-मिचर करने के पश्चात् भाई मकसूद भी इस पर तैयार हो गए.

निश्चित समय पर जब सारे लड़के जमा हो गए तो भाई मकसूद को बुलाया गया जो अपने मोटे से खद्दर के कपड़ों में चप्पलें पहने हुए श्रीमान् या नेता बल्कि महात्मा बने हुए पहुँचे और सबने खड़े होकर ‘मौलाना मकसूद जिंदाबाद', ‘महात्मा मकसूद की जय', ‘वंदेमातरम्', ‘इंकलाब जिंदाबाद', ‘टूडी बच्चा हाय हाय' के गगनभेदी नारों से आपका स्वागत किया और सबको प्रणाम करते हुए मंच पर पहुँच गए. मुझे सभापति बनाया गया भाई मकसूद को तथा मुझे मकसूद ने एक हार पहनाया और फिर नारे लगाए गए. जब लोग कुछ शांत हुए तो आपने गला साफ करके कहा:

श्रीमान् सभापति एवं प्रिय मित्रो!

इससे पहले कि मैं स्वदेशी के विषय पर कहूँ, मुझको आपको धन्यवाद देना चाहिए कि आपने मुझ जैसे अयोग्य मनुष्य का यह आदर किया. मुझे आशा है कि आपके भीतर वह स्पिरिट जल्दी ही उत्पन्न हो जाएगी जो आपको राष्ट्र तथा देख के लिए उपयोगी बना सके और आप देश की सेवा के लिए मैदान में आएंगे. रह गया मैं, तो मेरा तो लक्ष्य यही है:

शोल-ए-आह से एक आग लगाना है मुझे

खुद भी जलता हूँ कफस को भी जलाना है मुझे.

किंतु मैं आप लोगों से भी यही कहता हूँ कि:

खेतों को दे लो पानी अब बह रही है गंगा

कुछ कर लो नौजवानो, उठती जवानियां हैं.

आप नवयुवक हैं. देश का भविष्य आपके हाथ में है. आप ही देश को दासता की शृंखला से छुड़ाएंगे. मैं जानता हूँ कि आप विद्यार्थी हैं अतः मैं यह नहीं चाहता कि आप नमक बनाएँ, जेल चले जाएँ. मैं चाहता हूँ कि आप विदेशी वस्तुओं को त्याग दें. और उनके स्थान पर स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करें और इस प्रकार अपने देशी उद्योग धंधों को उन्नति दें.

दर्शक दीर्घा में से एक चिल्लाया - ‘किंतु क्या आप जानते हैं कि यदि आप विलायती कपड़ा न पहने तो आपको ज्ञान है क्या हो, विलायती कारखाने टूट जाए, विलायती मजदूर जो हमारे विश्व कुटुम्ब के भाई हैं, मर जाएँ, इंगलैंड में प्रलय मच जाए, सरकार भूखों मर जाए, पार्लियामेंट के मेंबर कौड़ी-कौड़ी मांगते फिरें और न जाने क्या-क्या हो जाए...'

इसी बीच में होस्टल के वार्डन साहब ने आकर सारा मजा किरकिरा कर दिया. न जाने क्या होता वह तो वार्डन साहब कुछ समझ ही न सके.

हमारे विचारानुसार अब इसके बताने की आवश्यकता ही नहीं कि भाई मकसूद परीक्षा में बैठकर फेल हुए और हमको अपने ऊपर अचंभा है कि क्योंकर प्रमोशन कर सके. भाई मकसूद ने अपनी शिक्षा चर्खे की भेंट चढ़ा दी और निष्ठुर आकाश ने उनको हमसे छीन कर छुड़ा दिया:

खाक ऐसी जिंदगी पर हम कहीं और तुम कहीं'

(कुछ अरसे बाद की खबर : भाई मकसूद कबीना मंत्री हो गए हैं और हम उनके प्रोटोकॉल अफसर यानी कि उनके आने जाने का हिसाब रखने वाले सरकारी सेवक डिपुटी कलेक्टर हैं.)

साभार: श्रीमती जी, व्यंग्य संकलन, लेखक शौकत थानवी, जनवाणी प्रकाशन, 30/22 ए, गली नं 9, विश्वास नगर शाहदरा दिल्ली 110032.

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी7:12 am

    गहरा व्यंग्य है.


    मुझको आपको धन्यवाद देना चाहिए कि आपने मुझ जैसे अयोग्य मनुष्य का यह आदर किया.


    --यह तो आज के लिये मुझ पर फिट हो रहा है. :) :)

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: शौकत थानवी का व्यंग्य: नेता
शौकत थानवी का व्यंग्य: नेता
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