ऊंचाई की तन्हाइयां

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- मनोज सिंह पहाड़ों पर जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते हैं ऑक्सीजन की मात्रा घटती चली जाती है, वायुमंडल का दबाव भी कम होता चला जाता है, फलस्वरूप...



- मनोज सिंह

पहाड़ों पर जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते हैं ऑक्सीजन की मात्रा घटती चली जाती है, वायुमंडल का दबाव भी कम होता चला जाता है, फलस्वरूप सांस लेने में तकलीफ होने लगती है, और यही कारण है जो ऊंचे पर्वतों की चढ़ाई कठिन मानी जाती है। पर्वतारोही को प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ता है। चोटी पर पहुंचते-पहुंचते तो आदमी अधमरा ही हो जाता है। अकसर रास्ते में साथी छूट जाते हैं और अधिकांश घबराकर वापस लौट जाते हैं। कम ही होते हैं जो अंतिम मुकाम तक पहुंचने में सफल होते हैं। चूंकि शिखर पर जगह कम होती है, और कहीं-कहीं तो अकेले खड़ा होना भी बड़ा मुश्किल होता है। अत: नये के आ जाने पर या तो पुराने को उतरना पड़ता है या फिर समय के द्वारा जबरन उसे उतार दिया जाता है। और मंज़िल पर पहुंचने वाले को विजयी हीरो घोषित कर दिया जाता है। इस हकीकत की, सफल नायकों के जीवन के साथ गजब की समरूपता है, समानता है। ऐसा ही समाज के हर एक क्षेत्र में होता है।

पर्यटक को पहाड़ सदा आकर्षित करते हैं और वह वहां जाने के लिए सदैव लालायित रहता है। एक बार यात्रा प्रारंभ होने के बाद तो मंज़िल पर अतिशीघ्र पहुंचने की इच्छा तीव्र हो जाती है और यात्री जल्द से जल्द वहां पहुंचना चाहता है। कुछ इसी तरह की अभिलाषा हर आदमी की अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचने की होती है। वह भी तेज़ी से आगे बढ़ना चाहता है। मगर वो भूल जाता है कि जिस तरह पहाड़ पर तेजी से दौड़ने पर सांस चढ़ जाती है और जल्दी थककर आदमी परेशान हो उठता है, कई बार शारीरिक हानि तक हो जाती है, पैर फिसलने पर नीचे गङ्ढे में गिरने का भय रहता है उसी तरह उसे भी संयम रखना चाहिए। साथ ही कुशल पर्वतारोही की तरह धैर्य रखते हुए सावधानीपूर्वक चढ़ना चाहिए और अपनी कमजोरियों को ध्यान में रखना चाहिए। जीवन के हर क्षेत्र में संघर्षरत युवक को ऐसा ही करना चाहिए। परंतु अकसर वह ऐसा नहीं करता। ऊपर से इस बात से तो बिल्कुल भी इत्ताफाक नहीं रखना चाहता कि चोटी पर पहुंचकर उसे किन-किन अनचाही परेशानियों का अतिरिक्त सामना करना पड़ सकता है। उलटे वह तो इन ऊंचाइयों को छूने के लिए निरंतर पागलपन की हद तक प्रयास करता रहता है। अब वह भी क्या करे, हमारी सारी शिक्षा, विचारधारा, आदर्श, धर्म एवं ज्ञान का मार्गदर्शन, प्रेरणा और प्रवचन, इसी बात पर केंद्रित रहते हैं कि आगे बढ़ते रहने के लिए कर्म करते रहना चाहिए। महत्वाकांक्षा, लगन, संघर्ष, जोश की बातें की जाती हैं। और आधुनिक वैज्ञानिक काल में तो उसे तेजी से दौड़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाता है।

मगर जिस तरह से पहाड़ की अपनी मुश्किलें हैं वहां रहने वाले को तकलीफ होती है, ऐसा ही कुछ शीर्ष पर पहुंचने वाले सफल लोगों के साथ भी होता है। पहाड़ों पर आबादी कम होती है चोटी पर तो नगण्य। ठीक इसी तरह चर्चित व्यक्ति भी जाने-अनजाने दुनिया से दूर हो जाता है। चाहे-अनचाहे चोटी पर अकेलापन, एक बेहद दु:खद एहसास है। इन हस्तियों के साथ अनुकूल अवस्था में ही लोग नजदीक रहते हैं वे स्थायी दोस्त नहीं होते। वे चढ़ते सूरज को सलाम करते हैं। सुविधा का संबंध होता है। वे दूर रहने पर फायदे के लिए ललचाई नजरों से देखते जरूर हैं मगर पास आकरर् ईष्या करने लगते हैं। ऐसा कम ही होता कि जब आपको घेरे हुए लोग आपकी उंचाइयों को नि:स्वार्थ स्वीकार करें, आपकी प्रशंसा करें, आपसे प्रभावित हों, आपसे प्रेरित हों, आपको दिल से चाहें। और इसीलिए आपके शीर्ष से उतरते ही वे दूर हो जाते हैं। यह एक नग्न सत्य है। और इससे बड़ा सच है कि दोस्त तो कोई होता नहीं ऊपर से दुश्मनों की संख्या बेवजह असंख्य हो जाती है। राजनीति, खेल, ग्लैमर, लेखन, धर्म ही नहीं समाज के किसी भी क्षेत्र को देख लें, यहां तक कि स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों का उदाहरण ले लें, शीर्ष पर बैठे लोगों का, प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले छात्रों का, कोई अपना नहीं होता। वे बेहद अकेले होते हैं। और यह अकेलापन ऊँचाई की अपनी व्यवस्था है, यह सफलता का आवश्यक पैमाना है, प्रतिफल है, अनचाहा पहलू है। इन बड़े लोगों की जय जयकार करने वाले चाटुकार तो हो सकते हैं, चमचे हो सकते हैं, लोभी हो सकते हैं, उनके आकर्षण से अपने मतलबों को साधने वाले स्वार्थी हो सकते हैं मगर हमराज नहीं हो सकते।

क्या आपने कभी किसी राजा के दोस्तों के बारे में सुना-देखा है? कहने के लिए, किस्से-कहानी में तो यह हो सकते हैं, लेकिन वास्तविकता में स्वाभाविक रूप से उनका पाया जाना मुश्किल है। प्रजा के अतिरिक्त वो दरबारी हो सकता है, प्रशंसक हो सकता है, गुलाम हो सकता है, सेनापति-मंत्री हो सकता है। यही नहीं परामर्शदाता हो सकता है, कलाकार हो सकता है, सहयोगी हो सकता है लेकिन हमसफर नहीं हो सकता। और फिर यह संभव भी कैसे हो सकता है। राजा को राज चलाना है दोस्ती थोड़ी निभानी है। यहां तक कि उसे अपनो से भी बचकर रहना पड़ता है चूंकि नाते-रिश्तेदार भी स्वार्थी होते हैं महत्वाकांक्षी होने पर अंदर ही अंदरर् ईष्या से ग्रसित होने लगते हैं, जो फिर षड्यंत्र का सूत्रधार बन जाते हैं। इतिहास में किसी भी तख्ता पलटने वाले विद्रोह की समीक्षा कर लें इसके नींव में कोई न कोई नजदीकी अवश्य होगा। कई बार राज चलाने के लिए न्याय, राजनीति व व्यवस्था के मद्देनजर, अनुशासित करने के उद्देश्य से की गयी सख्ती के कारण प्रताड़ित किया गया सामान्य जन कभी-कभी दुश्मन, भेदिया व जासूस बन जाता है जो फिर बेहद घातक हो सकता है। जहां तक रही बात दो राजाओं के बीच के संबंधों की तो उसमें में भी एक अप्रत्यक्ष स्वार्थ छिपा होता है। एक अनकहा समझौता होता है, संधि के माध्यम से समझ पैदा की जाती है, कई बार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तालमेल रखा जाता है अन्यथा एक राजा दूसरे शासन को अपने अधीन करने की महत्वाकांक्षा जरूर पाले रखता है।

'घर का जोगी जोगड़ा बाहर का जोगी सिद्ध' या 'घर की मुर्गी दाल बराबर' कहावत का जिक्र यहां किया जा सकता है। इनके भावार्थ के मूल में है अपनों से ईर्ष्या, उनके महत्व को कम आंकना। औरतें बेवजह बदनाम है आदमी भी इस अवगुण में कम नहीं। असल में प्रतिस्पर्धी कभी साथी नहीं हो सकते। उलटे प्रतिस्पर्धा के कारण आगे बढ़ने वाले को देखकर लोग जल कर राख हो जाते हैं और दुश्मन जरूर बन जाते हैं। वह इस ताक में रहते हैं कि किस तरह से सफल होने वाले को नीचा दिखाया जा सके, कैसे उसे आगे बढ़ने से रोका जा सके, टांग खींची जा सके। मोहल्लों, कॉलोनी, कार्यालय में साथ के लोगों के बीच इस तरह की बातें होना सामान्य बात है। लोकप्रिय बड़े से बड़े लोगों का उदाहरण देख लें, अकसर उनके अड़ोसी-पड़ोसी उन्हें स्वीकार नहीं करते। असल में उनके मन में भावना होती है कि अगर वो पहुंच सकता है तो मैं क्यूं नहीं? और फिर उनकी पीठ पीछे बुराई की जाती है, राजनीति की जाती है, जोड़-तोड़ होता है और चुगलखोरी की जाती है। फिर इस चक्रव्यूह से बचने के लिए शीर्ष पर बैठा आदमी अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर लेता है, एक किले में कैद हो जाता है। इसी कारण से वह असुरक्षित भावना से सदा ग्रसित होता है। आशंकित, डरा हुआ, अंदर से कमज़ोर हो जाता है। अपने-पराये की पहचान नहीं कर पाता और शुभचिंतकों से संपर्क टूट जाता है, सही गलत का फैसला नहीं कर पाता और एकदम अकेला हो जाता है। इन ऊंचाइयों पर बैठे लोगों को नज़दीक से देखें, मुस्कुराते चेहरे के पीछे ग़म की लंबी तसवीर मिलेगी। वो तन्हा मिलेंगे।

अत: अगर आप तेजी से ऊपर बढ़ रहे हैं तो सावधान, आगे दु:खों का अम्बार मिल सकता है।

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रचनाकार - मनोज सिंह की हिन्दी कई पुस्तकें, व रचनाएँ प्रकाशित. नारी-समस्या प्रधान उपन्यास कश्मकश शीघ्र प्रकाश्य. संप्रति बीएसएनएल में डीजीएम हैं.

जाल स्थल :

http://www.manojsingh.com/

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी11:25 pm

    बधाई मनोज जी !!

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  2. अरे, वाह, मनोज जी को यहाँ देखकर बड़ी खुशी हुई. मनोज जी हमारे समय में जबलपुर टॆलीफोन्स में ही थे. मुझे इनके साहित्यिक रुझान की जानकारी नथी. बहुत उम्दा, बधाई.

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: ऊंचाई की तन्हाइयां
ऊंचाई की तन्हाइयां
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