यही सच है

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  यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 16 - यही सच है ? 1  ...

 

यात्रा वृत्तांत


आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)

(अनुक्रम यहाँ देखें)

- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

16 - यही सच है ?1

 

अमरीकी लोगों के शिष्टाचार, शालीनता, सद्व्यवहार ने मुझे बहुत प्रभावित किया है. आप पैदल सड़क पार कर रहे हैं तो गाड़ी में बैठा व्यक्ति आपको तसल्ली से सड़क पार करने देगा, आप दरवाज़ा पार कर रहे हैं तो आपसे आगे वाला व्यक्ति आपके लिये दरवाज़ा थामे रहेगा, अपरिचित भी आपसे दृष्टि सम्पर्क होते ही मुस्कुराकर हैलो कहेगा, अगर किसी को ज़रा भी ऐसा लगा कि उसके कारण आपको असुविधा हुई है तो वह आपसे क्षमा याचना करेगा....वगैरह. मैं वाणिज्यिक और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की चर्चा यहां जान बूझकर नहीं कर रहा हूं, हालांकि प्रभावित वहां भी कम नहीं हुआ हूं. किसी भी दुकान का सेल्समेन या वुमन, हालांकि आपको उनसे सम्पर्क का अवसर (भारत की तुलना में) कम ही मिलता है, शालीनता की प्रतिमूर्ति ही होता/होती है. जिस अस्पताल में हमारी बेटी प्रसव के लिये भर्ती थी वहां की नर्सों के लिये तो एक दिन बेसाख्ता मुंह से निकल गया कि ये तो हमें डायबिटीज़ कर के ही मानेंगी. पर यह चर्चा ज़्यादा इसलिये नहीं कि व्यावसायिक-वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों (और अस्पताल भी उन्हीं में से एक है) से तो यह अपेक्षित है ही. आखिर इस व्यावसायिक समाज में अपनी जगह बनाये रखने के लिये यह तो करना ही होग! कोई तो यहां तक कह रहा था कि इन लोगों को बाकायदा सद्व्यवहार का प्रशिक्षण दिया जाता है. अगर यह सच है तो भी अच्छा ही है. काश ! हमारे भारत में भी ऐसा ही हो, जहां खास तौर पर सरकारी दफ्तर में तो लगता है कि हर कोई कटखना ही है. तो जब मैं अमरीकी लोगों के सद्व्यवहार से अभिभूत हो रहा था, तभी एक ज़ोर का झटका (धीरे से नहीं, पूरे ज़ोर से) लगा.

मैं यहां 'सिएटल टाइम्स' नियमित रूप से पढता हूं, और क्योंकि फुरसत कुछ ज़्यादा है, ज़्यादा ही डूब कर पढता हूं. एक और कारण डूब कर पढने का यह भी है कि इस अखबार की विषय वस्तु मुझे अमरीकी समाज को समझने में मददगार लगती है. जिस झटके का ज़िक्र मैंने किया वह मुझे एक ही दिन (20 मई 2004) के अखबार की सामग्री से लगा.

क्या थी वह सामग्री?

ज्युडिथ मार्टिन नाम की एक महिला 'मिस मैनर्स' नाम से एक साप्ताहिक कालम लिखती हैं. इस कालम में वे पाठकों के शिष्टाचार (एटीकेट) विषयक सवालों के जवाब देती हैं. अब यह तो बहुत अच्छी बात है कोई समाज शिष्टाचार को इतनी अहमियत दे. अक्सर लोगों के सवाल उनकी सम्वेदनशीलता का ही परिचय देते हैं. किसी आयोजन में किस-किस को बुलाया जाए, यदि निमंत्रण स्वीकार न कर पाएं तो क्या करें, कैसा उपहार दें, आदि. लेकिन इस अखबार में मिस मैनर्स से जो तीन जिज्ञासाएं की गई हैं, ज़रा उनकी बानगी देखें.

एक महिला ने लिखा है कि जब वे कीमोथैरॉपी (केंसर उपचार) कराकर घर लौटती हैं तो घर पर नर्स उनसे कहती हैं कि वे अपने पति की मां जैसी दिखती हैं. वे यह भी लिखती हैं कि जब से वे बीमार हुई हैं कईयों ने उन्हें कहा है कि वे अपने बेटे की दादी-मां जैसी लगती हैं. उनकी एक मित्र अक्सर उनसे बीमारी, इलाज़, वज़न आदि की अप्रीतिकर चर्चा कर उन्हें आहत करती हैं...

एक अन्य महिला ने हालांकि प्रश्न तो एटीकेट विषयक किया है, पर जो बात उन्होंने लिखी है वह मुझे कुछ ज़्यादा ही अजीब लगी. उन्होंने लिखा है कि वे अपने पति के साथ एक उम्दा रेस्टोरेण्ट में डिनर के लिये गईं. वहां उन्हें एक बड़ी ब्रेड परोसी गई जिसे उन्ही लोगों को एक बड़ी छुरी से काटना था. लगभग आधा खाना खा चुकने के बाद, इस ब्रेड को काटते हुए उनके पतिदेव अपना अंगूठा भी काट बैठे. बहते खून को बन्द करने के लिये इन भद्र महिला ने अपने पर्स से बैण्ड एड निकाल कर पतिदेव को दी और पतिदेव उसे लेकर पुरुषों के रेस्टरूम (यहां 'प्रसाधन' को रेस्टरूम कहा जाता है) में चले गए. उन्हें भीतर गये कुछ मिनिट ही हुए थे कि इस महिला की इच्छा ब्रेड खाने की हुई.(हाय रे पेट की अगन !). छुरी अभी भी ब्रेड में ही धंसी थी. पतिदेव का स्लाइस आधा कटा था. पत्नी जी ने पति का स्लाइस उठा कर उनकी प्लेट में रखा, फिर अपने लिए एक स्लाइस काटा. यहां वे यह बताना नहीं भूली हैं कि न तो छुरी पर और न ही ब्रेड पर कोई खून का दाग था. अब, पत्नी जी ने जानना चाहा है कि अलबत्ता उनके पति को उनके व्यवहार से कोई शिकायत नहीं थी, क्या उन्होंने पति की इस संक्षिप्त अनुपस्थिति में ब्रेड काट कर किसी मर्यादा का उल्लंघन किया है?

निश्चय ही ये प्रसंग मेरी भारतीय सम्वेदना के लिये कुछ अलहदा और अप्रीतिकर हैं. खास तौर पर इसलिये और भी कि मैं तो अमरीकी लोगों की शालीनता पर लगभग मुग्ध ही हूं. हमने अस्पताल में जब नर्स को उसकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता स्वरूप चॉकलेट का एक छोटा-सा डिब्बा दिया तो उसने जिस मधुरता से हमारे इस (अकिंचन!) उपहार की सराहना की वह मेरे मन में हमारे देश की याद ताज़ा करने को पर्याप्त था जहां आप टेलीफोन उपकरण लगाने आने वाले सरकारी कर्मचारी को पचास रुपये दें तो वह आपको खा जाने वाली निगाहों से ताके बगैर न रहे, और जहां बख्शीश भी दादागिरी से मांगी जाती है (दिल्ली हवाई अड्डे पर मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ, पर उसकी चर्चा अभी नहीं.वैसे भी ऐसे अनुभव हम सबको होते ही रहते हैं.). तो, ऐसे शिष्ट-शालीन समाज में यह बात कि किसी बीमार को बार-बार ठेस पहुंचाना या किसी औरत का उस वक़्त अपनी भूख पर सब्र न कर पाना जब उसका पति अपने ज़ख्म से जूझ रहा हो और फिर इस बात को लेकर नहीं बल्कि मर्यादा विषयक सूक्ष्म सवाल पर परेशान होना - ये तो अलग ही छवियां हैं. क्या ताल-मेल है इन भिन्न छवियों में?

इसी अखबार में एबिगेल वान ग्यूरेन का भी एक कालम छपता है - डियर एबी. यह कॉलम काफी लोकप्रिय है. इस कालम में पाठक-पाठिकाएं अपनी मनोव्यथाएं उजागर करते हैं. आज ही के अखबार में एबी ने एक तेरह वर्षीय लड़की के उस पत्र की चर्चा की है जो उन्होंने कुछ सप्ताह पहले प्रकाशित किया था और जिस पर उन्हें पूरे देश से प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं. आज भी उन्होंने एक सीनेटर और एक स्टेट ट्रेज़रर की प्रतिक्रियाएं छापी हैं. इस तेरह वर्षीय लड़की ने उन्हें लिखा था कि जब एक दिन उसने अपनी कक्षा में यह कह दिया कि वह अपने देश की राष्ट्रपति बनने का सपना देखती है तो उसके सहपाठियों तथा शिक्षकों ने उसका खूब उपहास किया. सीनेटर महोदय ने इस लड़की को लिखा है कि उसका उपहास करने वाले भूल गये हैं कि हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां हर बच्चे को - चाहे वह लड़का हो या लड़की- पलने बढ़ने के समान अवसर प्राप्त हैं और वे बिना किसी भेदभाव के राष्ट्रपति, अध्यापक,डॉक्टर, सीईओ या दुकानदार बन सकते हैं. सीनेटर महोदय ने गर्व से लिखा है कि ऐसा दुनिया में केवल इसी देश में सम्भव है. (सारे जहां से अच्छा वाला भाव कहां नहीं होता?)

जैसे ये प्रसंग काफी न हों. आज ही के अखबार में डेल्टा एयरलाइंस विषयक एक समाचार और इसी लिहाज़ से गौरतलब है. समाचार यह है कि इस एयरलाइंस की अल्पमोली सेवा सांग (Song) ने अपने उन यात्रियों को जो एक दूसरे के प्रति सद्व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, अनेक छूटें देने की घोषणा की है. सांग वायुसेवा के सीईओ जॉन सेल्वागियो ने यह कहकर अपनी पीठ थपथपाई है कि जो लोग दूसरों के लिए कुछ करते हैं उनके लिये कुछ करते हुए उन्हें प्रसन्नता है. इस कुछ में शामिल है 5000 मुफ्त टिकिट. समाचार में ही सांग वायुसेवा की इस पहल पर विश्लेषणात्मक टिप्पणियों का समापन एक वायुसेवा विश्लेषक रे नायडल के इस कथन से किया गया है : मैं कामना करता हूं कि दुनिया में ज़्यादा भले लोग न हों. वायुसेवाओं की माली हालत पहले से ही खस्ता है!

क्या एक पूंजीवादी समाज की अच्छाई का यही सच है?

हो सकता है रे नायडल की यह प्रतिक्रिया महज़ एक चुहल भरी टिप्पणी हो. इसे गम्भीरता से न भी लें तो सांग वायु सेवा की पहल पर तो विचार करना ही होगा. क्या वाकई इस वायु सेवा के यात्रियों में सद्व्यवहार दुर्लभ हो चला है? और इसी वायु सेवा के यात्रियों में क्यों ? इस बात को पिछले कुछ प्रसंगों से जोड़कर देखें तो जो तस्वीर बनती है वह निश्चय ही एक आदर्श समाज की तो नहीं है. उस समाज की भी नहीं जिस पर मैं मुग्ध हुआ था. कभी-कभी मुझे लगता है कि मनुष्य व्यवहार भला अलग-अलग देशों में अलग-अलग हो भी कैसे सकता है? मनुष्य की कमज़ोरियां तो सर्वभौमिक ही हैं न!

मैं खुद कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा हूं.

एक मन कहता है कि भीतर से अमरीकी और भारतीय सब समान हैं. अलग जो है वह मुलम्मा है, यानि मेकअप. अमरीका एक पूंजीवादी देश है. यहां पैकेजिंग का महत्व पूरी तरह समझ लिया गया है, जबकि हमारे यहां, भारत में चीज़ें अभी भी बहुत कुछ अपने प्रकृत रूपों में ही हैं. यही कारण है कि भारत में बहुत विकृतियां, विरूपताएं, बद्तमीज़ियां, अशालीनताएं नज़र आती हैं. हमें शानदार पैकेजिंग जो नहीं आती. ये लोग बहुत उन्नत हैं. इन्होंने अपने व्यवहार पर शालीनता की बहुत उम्दा परत चढ़ा ली है. किसी उम्दा ब्यूटी पार्लर से प्रसाधन करा कर निकली महिला को देखें और फिर उसी को बगैर मेक अप के देखें. मुझ जैसे भारतीयों को अमरीका को जितना और जैसा देखने का मौका मिलता है उससे जो छवि मन पर अंकित होती है, वह अपनी तरह से स्वाभाविक है. आम तौर से हमारा सम्पर्क व्यावसायिक लोगों से ही तो होता है, और या फिर नागरिकों से ऐसी स्थितियों में जहां उनका प्रकृत रूप सामने नहीं आ पाता.

लेकिन एक और मन है मेरा जो कहता है कि नहीं ऐसा नहीं है. यह समाज कुछ मानों में निश्चय ही बेहतर है. इन्हीं प्रसंगों को इस नज़र से देखता हूं तो पाता हूं कि ये बातें इस समाज की गम्भीर चिंताओं को ज़ाहिर करती हैं. क्या हम ऐसी बातों पर प्रश्नाकुल होते हैं? अगर ये लोग इन बातों की चिंता कर रहे हैं तो यह तो इनकी सम्वेदनशीलता का द्योतक है. क्या हम ऐसी छोटी-छोटी बातों को अहमियत देते हैं? आखिर सोचना करने की पहली सीढ़ी ही तो है. जिन कॉलमों का हवाला मैने दिया उनमें ऐसे-ऐसे सूक्ष्म मुद्दे उठाये जाते हैं कि मैं तो चकित रह जाता हूं. एक दिन एक भद्र महिला ने अपनी एक बहुत ही खास समस्या की चर्चा की. वे अंग्रेज़ी के साथ-साथ फ्रेंच भी बोलती हैं और अपनी बेटी को भी उन्होंने इन दोनों भाषाओं में प्रवीण किया है. बेटी से वे फ्रेंच में ही बात करती हैं. इस भद्र महिला का आजकल एक ऐसे सज्जन से प्रणय-प्रसंग चल रहा है जिनके तीन बेटियां हैं. ये लोग केवल अंग्रेज़ी बोलते हैं. भद्र महिला ने जानना चाहा है कि इन लोगों के सामने मां-बेटी का आपस में फ्रेंच में बतियाना इन्हें आहत तो नहीं करता होगा? है ना सूक्ष्म सम्वेदनशीलता की बात !

क्या बात है कि हम भारतीय इस तरह की सूक्ष्म बातों पर चिंतित नहीं होते, ये अमरीकी होते हैं? यही तो फर्क़ है. मैंने अपने शहरों में विदेशी पर्यटकों से अक्सर दुर्व्यवहार ही होते देखा है, जबकि यहां न हमने कभी किसी भी तरह के दुर्व्यवहार का अनुभव किया, न किसी अन्य भारतीय से ऐसा एक भी अनुभव सुना. हमें अपने देश में अपने देशवासियों से भी प्राय: ऐसा व्यवहार नहीं मिलता कि जिसकी तारीफ में कुछ कहा या लिखा जाए, जबकि यहां हर जगह हर प्रसंग काबिले-तारीफ ही मिला. दुकानदार ‘हैव अ नाइस डे’ कहेगा ही, सॉरी और थैंक्स का उदारतापूर्ण प्रयोग आम है. कोई अजनबी भी आपसे दृष्टि सम्पर्क होते ही मुस्कुराये बगैर नहीं रहेगा, आपको किसी तरह की असुविधा न हो, इसका ध्यान हर कोई रखता ही है. क्या इन बातों को एकदम ही नज़रअन्दाज़ कर देना युक्तिसंगत होगा?

आप क्या सोचते हैं?

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1. शीर्षक के लिये मन्नू भण्डारी की प्रसिद्ध कहानी (यही सच है) के प्रति आभारी हूं.

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(क्रमशः जारी अगले अंकों में...)

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रचनाकार: यही सच है
यही सच है
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