कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे

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यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 5 कहो जी तुम क्या-क्या खरी...


यात्रा वृत्तांत


आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)


(अनुक्रम यहाँ देखें)


- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


5 कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे1

अमरीका में बाज़ार और खरीददारी का अनुभव भारत के अनुभव से बहुत भिन्न है. न यहां वैसी भीड़-भाड़ है, न चिल्ल-पों, न लम्बे-चौड़े वादे, न मोल भाव! लेकिन जो है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है.

अमरीका में दुकानों/स्टोर्स का आकार भारत की दुकानों की तुलना में काफी बड़ा होता है. इतना बड़ा कि लोग दुकान के भीतर तिपहिया स्कूटर चला कर भी खरीददारी करते हैं. ये स्कूटर खुद दुकान वाले ही निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं. दुकानों में सामान चुनने के लिये गाड़ियां (carts) तो होती ही हैं. दुकानें प्रायः बेचे जाने वाले सामान या सामान-समूह के अनुसार होती हैं, मसलन कपड़ों की, फर्नीशिंग की, ग्रॉसरी की, इलेक्ट्रॉनिक सामान की, खिलौनों की, आदि. इनमें कई बार बड़े सूक्ष्म विभाजन भी होते हैं जैसे शिशुओं के कपड़ों की दुकान अलग और बच्चों के कपड़ों की अलग. ब्राण्ड शॉप्स भी खूब हैं, यानि ऐसी दुकानें जहां किसी एक ही ब्राण्ड के उत्पाद मिलते हैं. अमरीका में दुकानों की श्रृंखलाओं (Chains)का बड़ा प्रचलन है. यानि एक ही कम्पनी/नाम की दसियों, बीसियों, सैंकड़ों, हज़ारों दुकानें. ये दुकानें/स्टोर कपड़ों, खाद्य सामग्री, उपभोक्ता सामग्री, आम ज़रूरत की चीज़ों से लेकर रेस्तरां और किताबों तक की हैं. यहां तक कि सेण्डविच(सबवे), फलों के रस (जाम्बा ज्यूस),वीडियो लाइब्रेरी(ब्लॉकबस्टर) और नाई की दुकान(सुपर कट्स) तक की श्रृंखलाएं हैं. कुछ श्रृंखलाओं से तो हम भारत में भी परिचित हैं,जैसे मैक्डोनल्ड्स, पिज़्ज़ा हट, केण्टुकी फ्राइड चिकन (KFC) वगैरह. इन श्रृंखलाबद्ध दुकानों में वर्गभेद भी कम नहीं है. वाल मार्ट की दुकानें अपेक्षाकृत गरीब लोगों के लिये हैं तो बोन मेसी, जे सी पेनी या नॉर्डस्ट्रोम की अमीरों के लिये. कोस्टको की श्रृंखला बहुत लोकप्रिय है क्योंकि यहां थोक माल अपेक्षाकृत कम मुनाफे पर बेचा जाता है. कई स्टोर अपने मेम्बर्स को कुछ अतिरिक्त छूट देकर अपनी ओर खींचने का प्रयास करते हैं. यह मेम्बरशिप कहीं सशुल्क होती हैं, कहीं निःशुल्क. स्टोर्स का आकार चकित कर देने वाली हद तक बड़ा होता है. फ्रेड मायर, जे सी पेनी, वालमार्ट, कोस्टको आदि के स्टोर में अगर आप केवल घूमना ही चाहें तो 2-3 घण्टे चाहियें. फ्राय'ज़ का इलेक्ट्रॉनिक शो रूम (रेडियो,टीवी,कम्प्यूटर,कैमरे,फ्रिज, संगीत,फिल्म,दूरबीन,गेम्स वगैरह वगैरह) किसी छोटे-मोटे शहर से कम नहीं. मुझे तो इलेक्ट्रॉनिक शो-रूम की अवधारणा ही भारत से भिन्न लगी. हमारे यहां एक ही दुकान में इतने विविध उत्पाद नहीं रखे जाते. अलबत्ता अब इस तरह के स्टोर आने लगे हैं, पर यह फ्राय'ज़ आकार में दुकान नहीं शहर के निकट बैठता है.

दुकानों/स्टोर्स के समूह का नाम है मॉल. अब तो भारत में भी शॉपिंग मॉल्स उभर रहे हैं, लेकिन अमरीका के मॉल्स में जो भव्यता,विराटता, चमक-दमक, शानोशौकत है वह अभी हमारे यहां कल्पना ही है. मॉल्स में सामान अपेक्षाकृत महंगा होता है पर वहां का शॉपिंग अनुभव अलग ही तरह का होता है. आप कुछ भी न खरीदें तो भी मॉल्स आपको एक अलग तरह की खुशी तो देती ही हैं. मॉल्स में खरीददारी करने वालों के लिये बैठने, खाने-पीने व मनोरंजन का भी पूरा प्रबंध होता है. अक्सर संगीत के कार्यक्रम चलते रहते हैं. अवसरानुकूल सजावट होती है. जैसे क्रिसमस पर क्रिसमस ट्री बनाये जाते हैं जिनकी छटा देखते ही बनती है. नितांत साफ-सुथरे रेस्ट रूम्स होते हैं जिनमें बच्चों के डायपर बदलने के लिये भी अनिवार्यतः समुचित प्रबंध होता है. विकलांगों के लिये कहीं भी जा सकने की अलग, सम्मानजनक, सुविधापूर्ण , उत्तम व्यवस्था होती है. यहां तक कि इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वे अपनी व्हील चेयर सहित ही रेस्ट रूम के भीतर तक आ जा सकें. जो लोग धूम्रपान करना चाहें उनके लिये मॉल के प्रवेश द्वार के पास एक निर्धारित स्थान होता है. कहना अनावश्यक है, मॉल के भीतर धूम्रपान नहीं किया जा सकता. पूरा का पूरा मॉल शीतताप नियंत्रित जो होता है.

सभी दुकानों/स्टोर्स/शोरूम्स में स्वयमसेवा पद्धति होती है, यानि आप सामान देखें, पसन्द करें, उठा कर अपने कार्ट में रख लें. अगर कुछ जानना चाहें तो सेल्सपर्सन से पूछ लें. यह नहीं कि सेल्सपर्सन आकर आपसे उत्पाद की धुंआधार तारीफ (जिसमें बहुत कुछ मिथ्या ही हो) करना शुरू कर दे. आप पूछेंगे तभी वह बतायेगा. पूरी प्रामाणिकता और ईमानदारी के साथ. अगर उसे पता नहीं होगा तो ऐसे व्यक्ति को बुला देगा जिसे पता हो. या फिर साफ कह देगा कि इस बारे में जानकारी सुलभ नहीं है, पर गलत जानकारी कभी नहीं दी जाएगी. हम लोग एक माइक्रोवेव अवन (Microwave Oven) खरीदना चाहते थे. अमरीका में विद्युत उपकरण 110 वोल्ट पर चलते हैं जबकि भारत में 230 पर चलते हैं. हमने कम से कम दस स्टोर्स पर पूछा होगा, पर सभी पर सेल्सपर्संस ने यही कहा कि कनवर्टर पर अवन ठीक से नहीं काम करेगा. भारतीय सेल्समेन कभी ऐसा नहीं कहता. उसकी कोशिश यही होती कि आप एक बार तो खरीद ही लें.

बहुत बड़े, भरे-पूरे स्टोर्स या शो रूम्स, पर स्टाफ बहुत कम. वस्तुतः यहां हर आदमी हर काम निस्संकोच कर लेता है. यह नहीं कि मैनेजर है तो सामान नहीं उठाएगा. ग्राहकों की चौकीदारी भी, कम से कम दिखाई देती हुई तो नहीं. होती तो है ही. सुरक्षा कैमरे भी लगे होते हैं और प्रवेश द्वार पर बाकायदा यह सूचना प्रदर्शित की जाती है कि यहां सुरक्षा कैमरे लगे हुए हैं. यह सूचना इसलिये भी कि कहीं न कहीं इससे आपकी निजता (Privacy) तथा व्यक्तिगत स्वाधीनता (जो अमरीका में सर्वोपरि है) का हनन होता है. एक दूसरी व्यवस्था मुझे ज़्यादा मज़ेदार लगी. हर उत्पाद पर एक बार कोड (Bar Code) लेबल लगा होता है. जब आप कोई सामान खरीद कर चैक आउट करते हैं तो उस बार कोड को स्कैन कर लिया जाता है. इसीसे बिल भी बन जाता है. जब आप सेंसर(Sensor)लगे दरवाज़े से बाहर निकलने लगते हैं तो वहां लगे सेंसर्स यांत्रिक रूप से ही यह पड़ताल कर लेते हैं कि आप कोई बगैर चैक आउट कराया सामान लेकर तो नहीं निकल रहे हैं. अगर आपके पैकेट/कार्ट में ऐसा कोई सामान हुआ तो तुरंत सायरन बज उठेगा. यदा-कदा गलती से भी सायरन बज जाता है. पर तब आपसे पूरी विनम्रता से क्षमा-याचना कर ली जाती है. ऐसी गलती होती कम ही है.

दुकानों में मूल्य प्रणाली वैसी है जिसे भारत में हम बाटा कीमत के नाम से जानते हैं. सभी चीज़ों की कीमत 99 (सेण्ट/डॉलर) पर समाप्त होती है, जैसे 3.99 या 999. ज़ाहिर है, इसका एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है. आप हज़ार डॉलर का नहीं नौ सौ निन्नानवे डॉलर का माल खरीदते हुए नौ सौ पर ध्यान देते हैं. लेकिन इस मूल्य व्यवस्था के ज़िक्र के साथ यह बताना आवश्यक है कि दुकानदार आपको एक सेण्ट (डॉलर का सौंवा भाग) भी लौटाता है. 'खुल्ला नहीं है' का बहाना कोई नहीं करता.लेकिन यह बात ग्राहक पक्ष पर भी उतनी ही लागू होती है. ‘ऊपर के पैसे तो छोडने ही हैं’ का आग्रह भी कोई नहीं करता. इसलिये एक तरह से मामला बराबर रहता है.

'सेल' तो यहां चलती ही रहती है. अवसर आते रहते हैं. जैसे मेमोरियल डे, इण्डिपेंडेंस डे, वैलेण्टाइन डे, हैलोवीन, थैंक्स गिविंग डे, पैरेण्टस डे, फ्रैण्डशिप डे, वगैरह. क्रिसमस और न्यू ईयर तो सेल के सबसे बड़े अवसर हैं ही. अगर कुछ नहीं तो वीक एण्ड सेल ही सही, या फिर मौसम बदलने पर स्टॉक क्लियरेंस सेल. पर खास बात यह कि ये सेल फर्ज़ी नहीं होती. यानि दाम वाक़ई घटाये जाते हैं. दरअसल यहां नए का क्रेज़ इतना ज़्यादा है कि चीज़ें जैसे ही थोडी पुरानी होती हैं उनके दाम घटाकर उन्हें निकालकर नए के लिये जगह बनानी पडती है. आज जो ड्रेस एक सौ डॉलर में मिल रही है, अगर आप एक-डेढ़ माह प्रतीक्षा करें तो वही आपको 25 डॉलर में मिल जाएगी. ज़्यादातर स्टोर्स यह भी दावा करते हैं कि उनके दाम बाज़ार में सबसे कम हैं, और इस दावे पर खरा उतरने के लिये वे इतना तक करते हैं कि अगर वही उत्पाद आपको कहीं भी उससे कम दाम पर मिल जाये तो आप अंतर की राशि वापस ले लें, या माल लौटा दें. बड़े स्टोर्स अपना माल बेचने के लिये कई तरह के प्रयास करते हैं. इनमें से एक प्रयास का ज़िक्र करना चाहूंगा. वह है मेल-इन-रिबेट (Mail in rebate). प्रचारित किया जाता है कि अमुक माल 50 डॉलर का है पर उस पर 30 डॉलर की मेल-इन-रिबेट है, इस तरह वह माल आपको 20 डॉलर में ही मिल रहा है. आप 50 डॉलर चुका कर वह चीज़ खरीदते हैं और उसके बाद कुछ फॉर्म/कूपन निर्दिष्ट पते पर भेजते हैं. दो-एक महीने में 30 डॉलर की रिबेट का चैक आपके पते पर आ जाता है. अब होता यह है कि कई ग्राहक मेल-इन-रिबेट के लालच में माल खरीद तो लेते हैं पर व्यस्तता या भूलवश बाद की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाते है, और कम्पनी उन्हें रिबेट देने से बच जाती है. इस स्कीम के पीछे एक सोच यह भी है कि मेल-इन- रिबेट दो महीने बाद दी जानी है, तब तक तो वैसे भी वह माल सेल पर आ जाना है. मनोवैज्ञानिक सोच का उपयोग कर आपको वह माल आज ही बेच दिया जाता है जो आप अन्यथा दो माह बाद खरीदते (क्या पता तब तक आपका इरादा बदल ही जाता !). बहुत सारे स्टोर्स कुछ खास उत्पादों के लिये कूपन भी बांटते हैं. कूपन देने पर कुछ छूट मिल जाती है. मज़े की बात यह लगी कि आप चाहें तो स्टोर पर से ही कूपन उठाएं और छूट का लाभ ले लें. पर इस के पीछे भी दूर दृष्टि काम करती है. आप छूट के लालच में स्टोर में जाएंगे तो और भी कुछ खरीद लेंगे. ‘एक के साथ एक फ्री’ जैसी स्कीम्स तो चलती ही रहती हैं.

यहां के बाज़ार में सबसे महत्वपूर्ण बात मुझे यह लगी कि दुकानदार ग्राहक पर पूरा विश्वास करता है. कैसे ? आपने कोई चीज़ खरीदी, एक महीना उसे काम में लिया, उससे संतुष्ट नहीं हुए. दुकान पर जाएं, चीज़ लौटाएं. पूरा पैसा तुरंत वापस. दुकानदार कभी आपसे कोई सवाल नहीं करेगा, कोई झिकझिक नहीं करेगा, ज़रा भी आपत्ति नहीं करेगा. यानि गारण्टी की अवधारणा यहां पूरी ईमानदारी से लागू की जाती है. हम लोगों ने एक सोफा सेट खरीदा. तीन-चार माह उसे बरता. लगा कि उसके स्प्रिंग दबते जा रहे हैं. लौटाया और नया ले आये. भारत में यह बात कल्पनातीत है. आशंका यह भी होती है कि कोई इस सुविधा का दुरुपयोग कर ले तो? आप एक टीवी खरीद कर लाएं, दो-तीन महीना देखें, और फिर लौटा दें. यहां कोई ऐसा करता ही नहीं. जो ईमानदारी दुकानदार में है वही ग्राहक में भी है. तभी यह व्यवस्था चल पाती है. दुकानदार की ईमानदारी के तो यहां हमें अनेक अनुभव हुए. एक अनुभव तो मैं ताज़िन्दगी नहीं भूलूंगा. बात बहुत छोटी है. उतनी ही बड़ी भी. अपनी पिछली अमरीका यात्रा में हम क्रेटर लेक घूमने गए थे. यह स्थान निकट के राज्य ओरेगॉन में है. बहुत लम्बी कार-यात्रा थी. रात्रि विश्राम किसी मोटल में किया. सुबह फिर चल पड़े. भूख लगी तो किसी बहुत छोटे-से गांव के मामूली से रेस्टोरेण्ट में गए. अब, यहां शाकाहारी लोगों के लिए मुश्किल रहती है. खास तौर पर छोटी जगहों पर. हमें अपने खाने योग्य एक ही चीज़ नज़र आई. ब्रेड. उसमें कोई फिलिंग लेने से हमने मना कर दिया क्योंकि कोई वेज (Vegetarian) फिलिंग उपलब्ध थी ही नहीं. हम ब्रेड खाना शुरू करने ही वाले थे कि काउण्टर पर जो महिला थी वह हमारे पास आई और क्षमा-याचना करती हुई बोली कि जो ब्रेड हम लाए हैं वह बासी है, कल की बनी हुई है. हमने उसे अपनी शाकाहारी विवशता बताई. उसने रेस्टोरेण्ट मालिक से विमर्श किया और फिर आकर हमें अपना फैसला सुनाया. एक तो हमने बासी ब्रेड ली है, दूसरे कोई फिलिंग भी नहीं ली है, इसलिये हमसे कोई पैसा नहीं लिया जाएगा. मुझे तो उसी वक़्त लगा कि मैं खड़ा हो जाउं और ज़ोर से कहूं : “सलाम अमरीका !” यह अनुभव तो हमें एकाधिक बार हुए हैं कि किसी रेस्टोरेण्ट में गए हैं, कोई खास डिश हमें अच्छी नहीं लगी है, हमने वेटर से अनायास ही इसका ज़िक्र कर दिया है; जब बिल आया है तो पाया है कि उस डिश को बिल में शामिल नहीं किया गया है. क्या आप भारत में इस बात की कल्पना कर सकते हैं? एक औसत, आम दुकानदार की पहली कोशिश ही बासी, पुराना, खराब माल निकालने की होती है. हममें से हरेक के स्मृति कोष में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब दुकानदार ने अपने माल की खराबी स्वीकार करने की बजाय हमीं को गलत ठहराया है. ‘कस्टमर इज़ आलवेज़ राइट’ तो किताबों और दीवारों पर लिखी जाने वाली इबारत है. और अगर ग्राहक विदेशी हो तो फिर कहना ही क्या ! सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी बार-बार हाथ थोड़े ही आती है. उसे तो एकदम से हलाल कर ही देना है. लेकिन अमरीका में यह शायद सार्वजनिक (और निजी भी) जीवन की नैतिकता है कि कोई आपको ठगने की चेष्टा नहीं करता. मुझे तो बार-बार यही खयाल आता रहा कि अगर हम एक विदेशी के रूप में भारत घूमने आये होते तो हमें जो अनुभव होते, उनसे ये अनुभव जो एक भारतीय के रूप में अमरीका घूमते हुए हो रहे थे, कितने भिन्न और विपरीत हैं. चाहें तो यह बात और जोड़ लें कि भारत में विदेशी, गोरी चमड़ी वगैरह के प्रति अतिरिक्त सम्मान-भाव के बावज़ूद विदेशियों से दुर्व्यवहार होता है और उनको ठगा जाता है, जबकि दुनिया में अपनी चौधराहट के लिए कुख्यात इस देश में हम तो, तीसरी दुनिया के नागरिक होने के बावज़ूद, ये अच्छी यादें बटोर रहे हैं.

व्यापारिक नैतिकता का एक और नमूना यहां इस बात में भी देखने को मिला कि अगर किसी कम्पनी को पता चलता है कि उसका कोई उत्पाद त्रुटिपूर्ण था तो वह बाकायदा विज्ञापन देकर उस उत्पाद को वापस लेती (Recall) है. हमने ऐसे कई विज्ञापन देखे जिनके द्वारा किसी खास बैच के उत्पाद को निर्माता ने अपने खर्च पर वापस मांगा. लोग लौटाते भी हैं. एक उदाहरण तो यह लेख लिखते लिखते ही मिला. साइकिलों के ताले बनाने वाली एक प्रसिद्ध कम्पनी को यह शिकायत मिली की उसके ताले महज़ बॉल पॉइण्ट पेन की पतली प्लास्टिक बॉडी से ही खोल लिये जा सकते हैं. कम्पनी ने पड़ताल की और शिकायत को सही पाया. कम्पनी ने उन तालों का सारा स्टॉक बाज़ार से उठा लिया है और यह सूचना प्रसारित की है कि जिन लोगों ने वे ताले खरीदे हैं वे उन्हें लौटा कर रिप्लेसमेण्ट प्राप्त कर लें. क्या मेरे आदरणीय पाठकों को अपने भारत का भी कोई ऐसा उदाहरण याद आता है?

और जब भारत का ज़िक्र आ ही गया है तो दो एक बातें इसी क्रम में भी कर ही लूं. अमरीका के बाज़ारों में घूमते हुए मैंने यह नोट किया कि ‘मेड इन अमरीका’ उत्पाद तो बहुत ही कम हैं. लगभग सारी ही दुनिया में निर्मित उत्पाद हमें देखने को मिले. वस्तुतः अमरीकी कम्पनियां भी अपने उत्पाद और-और देशों में ही बनवाना ज़्यादा फायदेमन्द पाती हैं, बावज़ूद इस बात के कि यह आउटसोर्सिंग यहां का एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा है. ‘मेड इन अमरीका’ उत्पाद तलाश करने निकलेंगे तो वह प्रसिद्ध विज्ञापन पंक्ति ही याद आएगी: ‘ढूंढते रह जाओगे’. सस्ती सामग्री (केवल सस्ती ही नहीं, बहुत महंगी और हाई-टेक भी) सर्वाधिक चीन निर्मित मिलती है. ऐसी सामग्री जिस पर ‘मेड इन इण्डिया’ का लेबल हो, बहुत ही कम देखने को मिली. भारत निर्मित कपडे ही ज़्यादातर यहां देखने को मिले, बस! इतना विशाल देश, इतने प्राकृतिक संसाधन, पर विश्व बाज़ार में उपस्थिति नगण्य ! क्यों? इस क्यों का जवाब कहीं हमारे उत्पादों की 'गुणवत्ता' में तो नहीं छिपा है. या राजनीति में? या कहीं और? कहां? हमें चिंतित होना चाहिये.

भारत से जुड़ी एक और बात.

जिन शहरों में भारतीय नागरिक बड़ी संख्या में हैं, जैसे इस सिएटल में, वहां ऐसी भी कुछ दुकानें खुल गई हैं जो सारा भारतीय सामान रखती हैं. सिएटल में मयूरी’ में जाकर हमें सदा यही लगा कि हम भारत में ही हैं. हल्दीराम की भुजिया, बेडेकर का अचार, एमडीएच के मसाले, बीकानेर के पापड, पार्ले जी के बिस्किट और ऐसी ही तमाम चीज़ें. सारे भारतीय मसाले. क्या नहीं था वहां? सारी भारतीय फिल्में, उनका संगीत! और हमारे देखते ही देखते इस मयूरी ने एक चाट भण्डार भी खोल कर रही-सही कमी भी पूरी कर दी. दुकान के बाहर खड़े हो जाएं तो केवल भारतीय ही नज़र आएं. कभी-कभार अमरीकी भी. आखिर भारतीय व्यंजन उन्हें भी तो पसन्द आते हैं. इस शहर में ऐसे अनेक रेस्टोरेण्ट भी हैं जो प्रामाणिक भारतीय व्यंजन परोसते हैं, और वे खचाखच भरे रहते हैं. एक मूवी थिएटर केवल हिन्दी फिल्में ही दिखाता है. वैसे यहां हिन्दी फिल्में लगभग उसी दिन देखी जा सकती हैं जिस दिन वे भारत में रिलीज़ होती हैं. उनकी वैध डीवीडी (DVD) आसानी से उपलब्ध होती हैं.

बहुत छोटी दुकानों जैसी कोई चीज़ हमें यहां देखने को नहीं मिली. जैसे हमारे यहां के पान के गल्ले, या चाय की थड़ी. बल्कि कई बार तो यह अखरा भी कि सड़क पर रुक कर पान खाने की न सही (भई, अमरीका है, यहां पान कहां?) सिगरेट पीने की सुविधा (वह भी एक सिगरेट खरीद कर) यहां नहीं है. और न ही है किसी मुड़िया पर बैठ कर चाय पीने का सुख मयस्सर है. सिगरेट पीनी है तो पूरा पैकेट (मूल्य 4 डॉलर=200 रुपये) खरीदिये, स्मोकर्स ज़ोन में जाइये; ज़्यादातर दुकानें ,स्टोर,मॉल वातानुकूलित जो हैं. जो नहीं हैं वहां भी धूम्रपान तो वर्जित ही है. चाय का प्रचलन यहां कम है. खास तौर पर उस चाय का जिसे पीने के हम आदी हैं. अलबत्ता यहां एक भिन्न तरह की बगैर दूध चीनी की चाय मिल जाती है, पर उससे हमारी तलब पूरी नहीं होती. कॉफी की अनेकानेक किस्में हैं. कॉफी शॉप्स तो खूब हैं ही, किसी भी बडी दुकान में, अस्पताल तक में कॉफी की वेण्डिंग मशीन तो होगी ही. शीतल पेय की भी. सिक्का डालिये, माल हाज़िर. हम जिस सिएटल में करीब छह माह रहे वहां की दुनिया को देन लाटे कॉफी भी है. स्टारबक्स नामक कॉफी श्रृंखला की गणना अमरीका के बहुत बड़े प्रतिष्ठानों में होती है. यह प्रतिष्ठान सिएटल का ही है.

अमरीका के बाज़ार की चर्चा करूं और किताब की दुकान का ज़िक्र न करूं, यह कैसे सम्भव है? बार्न्-स एण्ड नोबल तथा बोर्डर्स यहां की दो प्रसिद्ध और बहुत बड़ी पुस्तक विक्रय श्रृंखलाएं हैं. नेट आधारित अमेज़न डॉट काम तो है ही. आप किसी भी पुस्तक दुकान में जाएं, किताबें विषयानुसार जमी मिलती हैं, न केवल विषयानुसार, उसमें भी तरह-तरह के सूक्ष्म वर्गीकरण. साहित्य-कविता-प्रगतिवादी-निराला की कविता, इस तरह से. किताबों को, खास तौर पर नव प्रकाशित किताबों को, डिस्प्ले भी बहुत आकर्षक तरीके से किया जाता है. खूब प्रचार होता है. लेखक जगह-जगह जाकर पुस्तक पर हस्ताक्षर करता है, पाठकों से चर्चा करता है. किताब की दुकान में कॉफी शॉप तो होती ही है. किताब की दुकान एक तरह से लाइब्रेरी भी होती है. आप किसी भी किताब को वहां बैठकर कितनी भी देर तक पढ सकते हैं. चाहें तो खाते-पीते हुए भी. मैंने कई दुकानों में बच्चों की किताबों के सेक्शन में माताओं को ज़मीन पर बैठकर अपने शिशुओं/बच्चों को दुकान की किताब से कहानी/गीत/कविता पढकर सुनाते देखा. किताब की दुकान में संगीत (अर्थात कैसेट, सीडी,डीवीडी आदि) भी अनिवार्यतः मिलता है. यों यहां श्रव्य पुस्तकों (Audio Books) का भी काफी चलन है. थोड़ी बहुत स्टेशनरी भी हर दुकान पर मिलती ही है. अनेक दुकानें ऐसी हैं जो आधे मूल्य पर या एक निश्चित मूल्य पर - जैसे एक डॉलर में-किताबें बेचती हैं. प्रकाशन के एक आध माह बाद ही पुस्तक घटी कीमत पर मिलने लग जाती है. मज़े की बात यह कि आम ज़रूरत का सामान रखने वाली दुकानों व स्टोर्स में भी किताबों का एक खण्ड अवश्य होता है. यह अलग बात है कि वहां गम्भीर किताबें कम और बेस्टसेलर नुमा किताबें ज़्यादा मिलती हैं. नेट आधारित अमेज़न डॉट काम पर तो आप दुनिया की किसी भी किताब का ऑर्डर कर सकते हैं.

वस्तुतः धीरे-धीरे इण्टरनेट एक अलग ही बाज़ार का रूप लेता जा रहा है. आपको कुछ भी खरीदना है, नेट पर ऑर्डर कर सकते हैं. नेट पर ऐसी भी अनेक साइट्स हैं जो वस्तुओं के बारे में विस्तृत जानकारी, समीक्षा, यहां तक कि विभिन्न दुकानों पर का उनका तुलनात्मक मूल्य भी उपलब्ध कराती हैं. आप देखें, परखें, चुनें और ऑर्डर कर दें. माल आपके पास पहुंच जाएगा. आपको तो अपनी टेबल से भी नहीं हटना है.संतुष्ट न हों तो माल लौटा तो सकते ही हैं. असल में इस तरह का व्यापार एक नैतिक समाज में ही पनप सकता है, और अब तो यह कह कर मैं अपने को दुहरा ही रहा हूं कि अमरीका में दुकानदार की विश्वसनीयता सन्देह से परे है. ग्राहक की भी. इसीलिये यहां इण्टरनेट आधारित व्यापार तेज़ी से फैलता जा रहा है.

अमरीका में भुगतान के लिए क्रेडिट कार्ड का बहुत ज़्यादा उपयोग होता है. ऐसा लगता है कि इसने एक हद तक पेपर करेंसी को विस्थापित कर दिया है. इण्टरनेट पर खरीददारी के लिये तो इसका उपयोग होता ही है, लगभग हर स्टोर, हर रेस्टोरेण्ट, हर सेवा क्रेडिट कार्ड स्वीकार करती है. हमने कोई ऐसी जगह नहीं देखी जहां क्रेडिट कार्ड स्वीकार नहीं किया जाता हो. यहां तक कि सरकारी महकमे भी क्रेडिट कार्ड से भुगतान स्वीकार करते हैं. अगर आप नकद भुगतान करते हैं तो कैशियर यह बोलता है कि आपने उसके हाथ में कितनी मुद्रा थमाई है. इसके बाद अगर उसे आपको कुछ राशि लौटानी है तो लौटाते वक़्त वह फिर से यह बोलता है कि कितनी राशि लौटाई जा रही है. इससे पारदर्शिता बढती है. पहले ही कह चुका हूं कि शेष राशि लौटाने में, चाहे वह कितनी ही तुच्छ (1 सेण्ट भी) क्यों न हो कोई कोताही नहीं होती. दुकानदार विदा के वक़्त ‘ हैव अ नाइस डे’ जैसा वाक्य कहने से कभी नहीं चूकता. अगर आप किसी छोटी दुकान में भी प्रवेश करते हैं तो वहां उपस्थित कर्मचारी मुस्कान के साथ आपका स्वागत करते हुए यह पूछना नहीं भूलता कि क्या वह आपकी सहायता करे. आशय यह कि अगर आप कोई खास चीज़ तलाशने में उसकी मदद चाहते हैं तो वह हाज़िर है, अन्यथा ‘नो, थैंक्स’ कह कर आप अपने आप अवलोकन कर सकते हैं.

सामान्यतः चीज़ें अंकित/मुद्रित मूल्य पर मिलती हैं. अमरीका में भारत की तरह एम आर पी (MRP) का चलन नहीं है. चीज़ों पर स्टोर वाले ही मूल्य अंकित करते हैं और ये मूल्य अलग-अलग स्टोर्स में अलग-अलग भी हो सकते हैं. कभी-कभी चीज़ों पर दिखाई देने वाला मूल्य अंकित नहीं होता अर्थात बार कोड की कूट लिपि में ही अंकित होता है. बड़े स्टोर्स में तो ऐसे यंत्र लगे होते हैं जहां आप यह अदृश्य मूल्य पढ सकते हैं. चाहें तो सेल्स पर्सन से पूछ सकते हैं. ऐसे में मोल-भाव की तो सारी स्थितियां ही खत्म हो जाती हैं. लेकिन हमें इसी अमरीका में एक अलग तरह का अनुभव भी हुआ. अब तक तो मैं छोटी चीज़ों की खरीददारी के अनुभव आपसे बांट रहा था. अलग अनुभव का ताअल्लुक बडी खरीद से है. हमारे दामाद मुकेश को एक नई कार खरीदनी थी. एक खासी बड़ी कार इन लोगों के पास थी लेकिन अब नव्या के पदार्पण के बाद और बड़ी कार की ज़रूरत महसूस होने लगी थी. यों भी अमरीका में ‘जितने प्राणी उतनी कारें’ वाली स्थिति आम है. इन लोगों के ऑफिस में फ्लेक्सिबल वर्किंग ऑवर्स (Flexible working hours) वाली व्यवस्था है, यानि जब आपकी इच्छा और सुविधा हो दफ्तर आ जाएं. तो इस सुविधा का उपयोग भी करना था कि चारु और मुकेश दोनों अलग-अलग समय पर ऑफिस जाएं ताकि कोई एक बच्ची के साथ घर पर रह जाए. मुकेश ने इण्टरनेट पर खासी पड़ताल कर एक खास ब्राण्ड और मॉडल चुना. बहुत महंगा. लगभग 40 हज़ार डॉलर (यानि 20 लाख) का. कम्पनी के शो रूम पर जाने पर भिन्न तरह के अनुभव हुए. ऐसे अनुभव कि हमें अपने जयपुर का बापू बाज़ार - नेहरू बाज़ार याद आ गया, जहां दुकानदार अपनी बताई कीमत से तभी पीछे हटता है जब आप उसकी दुकान छोड़ कर आगे निकल जाएं. यहां भी हम कोई तीन चार बार शो रूम से उठकर चल दिये. हर बार लगा कि अब तो वार्ता भंग हो गई. लेकिन अंततः मुकेश काफी दाम कम कराने में सफल रहे. इससे पता चला कि मोल-भाव यहां भी उसी तरह होता है जैसे भारत में होता है.

अमरीका में रहते हुए मेरा ध्यान कुछ खास बातों पर बार-बार गया. एक यह कि यहां चीज़ों की पैकिंग पर बहुत ध्यान दिया जाता है. बाह्य पैकिंग पर न केवल सारी जानकारी मुद्रित की जाती है, पर्याप्त सुरक्षा चेतावनियां भी अनिवार्यतः अंकित की जाती हैं. इस बात पर बहुत ध्यान दिया जाता है कि पैकिंग को खोलने में आपको कम से कम असुविधा हो. हमने देखा कि दवा की पैकिंग में यह ध्यान बहुत ज़्यादा रखा जाता है, जैसे अगर दवा जोड़ों के दर्द की है तो उसकी पैकिंग इस बात को ध्यान में रख कर की जाती है कि इस रोग का मरीज़ भी उसे आसानी से खोल सके. खाद्य पदार्थों की पैकिंग पर न्यूट्रीशन विषयक पूरी जानकारी अंकित होना ज़रूरी है.

एक बहुत बड़ी बात मुझे यह लगी कि यहां अपनी कला-संस्कृति का भरपूर व्यावसायिक दोहन किया जाता है. मैं यह बात प्रशंसा के तौर पर कह रहा हूं. मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि गर्भवती माताओं और नवजात शिशुओं तक के लिए मोत्ज़ार्ट, बीथोवन, बाख, हेण्डेल्स, विवाल्डी, ब्राह्म्स आदि का संगीत इस प्रचार के साथ बेचा जाता है कि इससे शिशु के मानसिक विकास की गति तीव्र होती है. शिशुओं के लिए लोरियां इन महान संगीतकारों के सृजन पर आधारित होती है. शिशु और बाल पुस्तकों तक में पश्चिम के महानतम कलाकारों की कृतियों का उपयोग किया जाता है. महत्वपूर्ण बात यह कि यह सारी सामग्री सुलभ है. इसका बड़ा फायदा मुझे यह लगा कि इस तरह न केवल माता-पिता, बल्कि शिशु भी अपनी विरासत के उत्कृष्ट के सम्पर्क में आता है. मैं सोचता रहा कि शिव कुमार शर्मा का संतूर सुनने से गर्भवती मां पर वही असर क्यों नहीं हो सकता जो बीथोवन का संगीत सुनने से होता है, या राग भैरवी पर आधारित लोरी (जिसे किशोरी अमोनकर ने गाया हो) सुनने से शिशु को मीठी नींद क्यों नहीं आ सकती? व्यवसाय के पीछे भी कलात्मक सोच हो सकता है, बल्कि होना चाहिये- यह मैंने यहां आकर देखा समझा.

भारत में अमरीका की तीखी आलोचना आम है. पूंजीवाद की सारी क्षुद्रताओं को हम घर बैठे ही अमरीका पर चस्पा कर देते हैं. पर यहां आकर जो अनुभव होते हैं वे बहुत भिन्न हैं. बाज़ार तो पूंजीवाद का मूर्त्त रूप है, पर यहां का बाज़ार जो अनुभव देता है वे आम तौर पर मीठे हैं. निश्चय ही बाज़ार का मूल मंत्र मुनाफा है. जो कुछ भी होता है निर्माता और विक्रेता के लाभ के लिये ही होता है. लेकिन यह तो जीवन चक्र की अनिवार्यता है. इसे स्वीकार करने में संकोच क्यों हो? देखने की बात यह है कि कोई अपना लाभ कमाने की प्रक्रिया में आपको नुकसान तो नहीं पहुंचा रहा है, और उसका लाभ कमाना आपके कष्ट का कारण तो नहीं बन रहा है? अमरीका के बाज़ार में मुझे सर्वाधिक प्रशंसनीय यही लगा कि यहां हर सम्भव प्रयास किया जाता है कि आपका बाज़ार अनुभव सुखद हो. तभी तो आप बार-बार बाज़ार आएंगे. खरीदना न खरीदना आपकी ज़रूरत और इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है. साहिर लुधियानवी की पंक्तियां 'कहो जी तुम क्या क्या खरीदोगे, यहां तो हर चीज़ मिलती है' अमरीका के बाज़ार में कानों में गूंजती रहती हैं.

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1. शीर्षक साहिर लुधियानवी रचित एक फिल्मी गीत से, साभार.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी....)

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