सफलता का मूलमंत्र-जो चाहा वो पाया

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रेडीमेड कपड़ों का जमाना है। फास्ट फूड खाना पसंद किया जाता है। हर एक को हर चीज में जल्दी है। यहां तक कोशिश की जाती है कि सर्दी-जुकाम भी हो त...

manoj singh रेडीमेड कपड़ों का जमाना है। फास्ट फूड खाना पसंद किया जाता है। हर एक को हर चीज में जल्दी है। यहां तक कोशिश की जाती है कि सर्दी-जुकाम भी हो तो जल्दी से जल्दी ठीक होकर इंसान भागने-दौड़ने लगे, फिर चाहे उसके लिए स्टिरायड ही क्यूं न खाना पड़े। पहली फिल्म आई नहीं कि ऐसा कुछ हो जाए कि स्टार बन जाएं। चर्चा में आने के लिए कोई विवाद भी खड़ा किया जा सकता है। राजनीति का छोटे से छोटा कार्यकर्ता सीधे मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री बनने के सपने देखता है। व्यवसायी ही नहीं, हर एक रातों-रात लखपति-करोड़पति बनना चाहता है। बंगला, मोटर, मोबाइल, मॉल, फाइव स्टार संस्कृति ख्वाब नहीं हर एक के जीवन की मूल चाहत बन चुकी है, और आधुनिक मानव इसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। महत्वाकांक्षी होना ठीक है मगर किसी के कंधे पर पैर रखकर चढ़ना अब ये भी गलत नहीं माना जाता। समय से अधिक तेज चलने की मांग है और यही आधुनिकता की देन और पहचान है।

इसी रफ्तार में मुझसे भी एक संपादक ने सवाल पूछ लिया, 'सफलता के पांच मूलमंत्र बताएं।` लेख के लिए समय कम दिया गया था। कुछ घंटों में लिखकर देना था। समाचारपत्र को अगले दिन छपना जो था। ठीक भी है, वैसे भी आजकल अधिकांश कॉलम फास्ट फूड की तर्ज पर ही कुक किए जाते हैं। और इसमें गलत भी क्या है, पत्रकारिता को जल्दी में लिखा गया साहित्य भी तो कहा जाता है। फिर आजकल हर अखबार में किसी न किसी चर्चित व्यक्ति के द्वारा कहे गए पांच बिंदु, अलग-अलग संदर्भ में रोज से छपे होते हैं, गोरे होने व हीरो बनने से लेकर पांच पसंदीदा व्यंजन, शहर, फिल्म वगैरह-वगैरह तो कभी सर्दी-गर्मी से बचने के पांच नुस्खे। इन सबको याद कर मुझे भी हिम्मत बंधी थी। ऊपर से सवाल देखने में साधारण और सुना व देखा हुआ महसूस होते ही लगा कि उत्तर भी सीधा होना चाहिए। सिर्फ मूलमंत्र ही तो चाहिए, वो भी सिर्फ पांच। तो फिर जवाब लिखना प्रारंभ करते ही सबसे पहले एक उदाहरण जेहन में आया, इसे गेस पेपर (कुंजी) की तरह बनाया जा सकता है। अर्थात जिसका घोटा लगाया और हो गये परीक्षा में पास। या फिर उसी तरह से जिस तरह से, भोजन बनाने के लिए पाक कला की किताबें बाजार में उपलब्ध हैं। वो दीगर बात है कि फिर जिसके द्वारा खाना तो बन सकता है मगर वो खाने लायक हो ये कोई जरूरी नहीं। मार्केट में और भी कई किताबें हैं- दोस्त कैसे बनाएं, हंसना सीखिए, व्यक्तित्व निखारने के नुस्खे, मैनेजमेंट फंडा और मात्र पंद्रह दिनों में अंग्रेजी बोलना सीखें। अब पता नहीं इन लाखों में बिक रही किताबों से कितने लोग हंस रहे हैं, भाषा सीख रहे हैं, सफल हो रहे हैं और खुद की रसोई में परिवार पका-खाकर खुशहाल हो रहे हैं। फिर ये कौन पूछे कि दुनिया में जितने भी महान लोग आज तक हुए हैं, क्या उन्हें ऐतिहासिक उपलब्धियां सिर्फ किसी किताब को पढ़ने से प्राप्त हुई थी? नहीं। मगर हां, उन पर सैकड़ों लेख जरूर लिख दिए जाते हैं। इतिहास बनने के नुस्खे किसी पुस्तक के अंदर उपलब्ध नहीं होते। जिन्होंने महान साहित्य की रचना की है उनको भी देखा जाए कि लिखने से पूर्व क्या उन्होंने किसी और के द्वारा लिखे हुए की मदद ली थी? यकीन से कह सकता हूं, नहीं। चूंकि मौलिकता के लिए नकल नहीं की जा सकती। फिर दूसरा अहम सवाल मैंने स्वयं से किया कि क्या मैं सफल हूं? संक्षिप्त में नहीं और हां कहना मुश्किल होगा। दृष्टि और दृष्टिकोण में मतभिन्नता हो सकती है। और फिर मन में तुरंत संशय उत्पन्न हुआ कि तो फिर जवाब लिखने का हक मुझे कैसे मिल सकता है? इसे यूं भी समझाया जा सकता है कि इन्हें जानकर-समझकर मैं खुद भी तो सफल हो सकता था।

खैर, बाजार में चर्चित लेखक बने रहने के लिए विश्लेषणात्मक विस्तृत लेख लिखना जरूरी था। कुछ प्रयास और थोड़े से आत्मचिंतन के बाद इस बिंदु पर पहुंचा कि सफलता के संदर्भ में दो प्रकार के मूलमंत्र हो सकते हैं, एक आंतरिक और दूसरा बाह्य। आंतरिक वो हैं जो प्रत्यक्ष होते हुए हमारे व्यक्तित्व और कर्म से संबंधित हैं, हमारे नियंत्रण में हैं और जिसे अधिकांश गुरु अपने व्याख्यान और लेख में बताते रहते हैं। और वो हैं परिश्रम, आत्मविश्वास, निरंतरता, आत्मविश्लेषण, फोकस। अब इसे संक्षिप्त में यूं भी कहा जा सकता है कि स्वयं का विश्लेषण कर कमजोरियां एवं गुणों का आकलन करते हुए लक्ष्य पर फोकस कर आत्मविश्वास के साथ निरंतर मेहनत करना सफलता का मूलमंत्र है। दूसरा खंड है बाह्य। जो आपके हाथ में नहीं, अप्रत्यक्ष मगर अधिक महत्वपूर्ण है। और वो है ईश्वर, भाग्य, परिवार, समाज व देशकाल। आधुनिक विज्ञानी मानव के लिए ये शब्द व्यर्थ के हो सकते हैं लेकिन ध्यानपूर्वक देखें तो जीवन के हर क्षेत्र, पक्ष, पहलू एवं मोड़ पर अधिक प्रभाव डालते हैं। कोई माने न माने इस पर हम अधिक निर्भर करते हैं। प्रथम दृष्टि में ये बड़े सामान्य लगते हैं परंतु हम इन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते। ये हमारे साथ जन्म से जुड़े रहते हैं और हम इनका चुनाव नहीं कर सकते।

जहां तक रही बात सफलता के पैमाने की तो कोई यकीन करे न करेंे, मगर प्रारंभ से ही प्रसिद्धि, पैसा और पॉवर के द्वारा ही इसे नापा-तौला जाता है। फिर चाहे वो लेखन का क्षेत्र हो, पढ़ाई का, पॉलीटिक्स, व्यवसाय, फैशन, संगीत या फिर कला। यहां तक कि सफल धर्म भी संख्या पर निर्भर करता है। गुरु भी वही सफल है जिसके पास अधिक शिष्य हैं। या यूं भी कहा जा सकता है कि जिनके सफल छात्रों की संख्या अधिक है। फिल्म वही सफल है जो बॉक्स ऑफिस पर हिट हो। करोड़पति, लखपति से अधिक सफल माना जाता है। अधिक अंक वाला विद्यार्थी होशियार माना जाता है तो आज के दौर में ज्यादा पैसा लेने वाला हीरो सबसे सफल नायक। मगर असल में यह पूर्णत: सत्य नहीं। यह निर्भर करता है कि आप किस दृष्टिकोण से देख रहे हैं, आपकी मंजिल क्या है। और निष्कर्ष निकलता है कि जो भी आप चाहते हैं उसे प्राप्त करना ही सफलता का प्रमुख पैमाना है और महत्वपूर्ण आधार भी। अंधा क्या मांगे? दो आंखें। इस कथन का भावार्थ अधिक रोशनी डाल सकता है। किसी उत्साही नवयुवक के लिए फिल्मी हीरो तो किसी के लिए सफल व्यवसायी आदर्श हो सकता है तो एक पढ़ाकू छात्र के लिए वैज्ञानिक। अंतिम सवाल पर तो मैं चौंक उठा था, सबसे सफल आदमी कौन? बिल गेट्स, बिल क्लिंटन, जार्ज बुश से लेकर तमाम चेहरे पहली नजर में ही नाकाफी लगे थे। विचारों में आत्ममंथन का सार निकला था कि सबसे सफल वही है जो संतुष्ट है, शांत है, खुश है, शारीरिक मानसिक रूप से स्वस्थ है और सबसे महत्वपूर्ण जिसका जीवन सुमधुर है। सफल वही है जो अपनी सफलता का उपयोग व उपभोग भी कर रहा है। फिर चाहे वो सांसारिक हो या आत्मिक। बात वही है जो जैसा चाहता है वैसा पाता है या नहींं। भोगी को विचारों से संतुष्टि नहीं और ज्ञानी को पैसे से तृप्ति नहीं। इसीलिए सिर्फ एक ही नारा बनता है जिसे मूल कह सकते हैं 'जो चाहा वो पाया`। जीवन की सफलता के जड़ में यही है। फिर आज के बिकने खरीदने के दौर में, जहां हर चीज दुकान पर उपलब्ध है और पैसा ही सफलता का पैमाना, उस बाजार में भी सामान छोड़ कुछ भी नहीं मिलता। कम से कम सफलता तो बिल्कुल नहीं।

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संपर्क:

मनोज सिंह

४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़

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