सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (12) - विरहिणी ऊर्मिला

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कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 12. विरहिणी ऊर्मिला "मानस की पीड़ा" ...

कविता

मानस की पीड़ा

-सीमा सचदेव

(पिछले अंक से जारी...)

मानस की पीड़ा
भाग12. विरहिणी ऊर्मिला

"मानस की पीड़ा" के इस भाग में लक्ष्मण पत्नी ऊर्मिला की विरह व्यथा का वर्णन
करने का एक अति लघु प्रयास किया है | जो नव-विवाहिता हो कर भी चौदह वर्ष
तक अपने पति से अलग रही | वनवास तो माता सीता भी भुगत रही थी लेकिन
फिर भी वह तो खुशकिस्मत थी क्योंकि वह पति के साथ तो थी ,लेकिन ऊर्मिला
महलों में ही वनवासी बन कर रह गई | ऊर्मिला की विरह व्यथा को शब्दों में बयान
नहीं किया जा सकता , उसको महसूस करने का एक अति लघु प्रयास है |
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सीता सहित श्री राम लखन
रहने लगे थे जाकर वन

पर, ऊर्मिला लक्ष्मण पत्नी
बेचैन थी महलों में कितनी

हर जगह ही दिखता सूनापन
नहीं लगता कही अपनापन

हर स्वास लखन को पुकारती थी
कैसे वह समय गुजारती थी ?

भारी था उसका हर इक पल
मन निराश दिल में हलचल

वह फूलों सी नाज़ुक कली
चल रही थी अब विरह की गली

वह प्यारी सी कोमल काया
कैसा यह उस पर दिन आया

उतरी नहीं मेहंदी हाथों की
और खो गई नींद भी रातों की

कितने ही दिल में अरमाँ लिए
लक्ष्मण के संग में फेरे लिए

किस्मत ने क्या उपहार दिए
जिए, तो अब वह कैसे जिए

वह महलों की शहजादी
फूलों पर चलने की आदी

झञ्कार थी हँसी में वीणा की
महलों का उत्तम नगीना थी

रत्नों से सदा लदी रहती
ज्यों गहनों की गंगा बहती

कोमल से मुख मण्डल पर
मीठी मुस्कान सदा रहती

पर अब वह बन गई थी जोगन
विरह में बन गई थी रोगन

न स्वयं को अब वह सजाती है
न हार शृंगार लगाती है

बोझ लगे कपड़े तन के
कहाँ अच्छे लगे उसे अब गहने

रोती नहीं पिया को दिया वचन
सोचती रहती बस मन ही मन

परवाह नहीं है खाने की
सोचती है कभी वन जाने की

कभी याद करे बीती बातें
सुनहरे दिन औ शीतल रातें

हर पल उसे याद सताती है
पर नहीं किसी को बताती है

बस पति का चेहरा ही आँखों में
रख कर वह समय बिताती है

वह याद कर रही पहला मिलन
जब उसको देख रहा था लखन

आँखें थी उसकी झुकी हुई
पिया के पैरो पर रुकी हुई

क्या ही था वह मधुर मिलन
जब हर्षित था दोनों का मन

विधाता ने उन्हें मिलवाया था
सुन्दर संयोग बनाया था

दोनों में बना ऐसा बंधन
ज्यों नाता खुश्बू और चन्दन

था साथ लखन का सुखदाई
पर कैसी आँधी यह आई ?

एक दूजे से हुए दूर
विधाता भी बन गया था क्रूर

क्यों नहीं खुशी से रह पाई
जिस खुशी से ब्याह कर वह आई

कितनी मन में चाह होती थी
पिया की खातिर सजती थी

पिया खुश होंगे उसको देखकर
कितना शृंगार वह करती थी

पर अब तो मन भी नहीं मानता
क्या हाल है? कोई भी नहीं जानता

अन्दर ही घुटती रहती है
आँसुओं को पीती रहती है

पिया बसते है उसके दिल में
यह सोच-सोच के डरती है

कही निकल न जाएँ हलचल से
इस डर से आह न भरती है

कभी जाती है घर के उपवन
वह भी तो अब लगता है वन

वहाँ पर इक कुटिया बनाती है
फिर प्यार से उसे सजाती है

पिया रहते है ऐसी ही कुटिया में
और सोते है घास की खटिया पे

बस वही पे समय गुजारती है
पिया की सूरत को निहारती है

उसे फूल नहीं लगते सुन्दर
काँटे दिखते उसके अन्दर

काँटों को देखती रहती है
हर पल अहसास यह करती है

किस तरह से वह चलते होंगे
काँटे भी तो चुभते होंगे

तीनों ही कितने नाज़ुक है
कैसे यह दर्द सहते होंगे?

यह सोच के नहीं रह पाती है
कभी वह तस्वीर बनाती है

सीता के पैर लगा काँटा
श्री राम ने उसको है थामा

लक्ष्मण वह काँटा निकाल रहा
भाभी का पैर सहला ही रहा

पैरो में पड़े हुए छाले
कोई लाल तो कोई है काले

उस दर्द को कभी वह लिखती है
विरह की वीणा बजती है

महल नहीं भाता उसको
बगिया की कुटिया में रहती है

कहाँ भाते अब पकवान उसे
खाने की थी परवाह किसे

गम खाती औ आँसू पीती है
बस इक मकसद से जीती है

पिया मिलेंगे उसको कभी न कभी
यह सोच के जिन्दा रहती है

फिर से सुहाग सुख भोगेगी
यह सोच के माँग भी भरती है

पिया की तस्वीर बनाती है
वन में उसको दिखाती है

कैसे रहते है वन में पिया
फिर स्वयं उसे अपनाती है

खाती है बस फल औ पत्ते
वो पके है या फिर है कच्चे

इस बात की उसे परवाह नहीं
इस प्रेम की भी कोई थाह नहीं

कभी याद करे बचपन अपना
चारों बहनो का था सपना

वे रहे सदा ही साथ-साथ
चाहे दिन या चाहे हो रात

वह सपना भी पूरा हुआ
एक ही सबको ससुराल मिला

पर कहाँ साथ दीदी सीता
जिसके संग था हर पल बीता

जब कभी वाटिका में जाती
फूल सिया को दिखलाती

काँटे न हाथ में चुभ जाएँ
यह सोच के पीछे हट जाती

चल रही होगी शूलों पे सिया
जिसने जीवन महलों में जिया

जिसके आगे पीछे दासी
बन गई है आज वह वनवासी

जो पहनती रेशमी वस्त्र
आज पहनती केवल वल्कल

देख के चित्र में जानवर
मन ही मन जो जाती थी डर

वही जंगल में अब रहती है
जाने वह कैसे सहती है

जो मखमल पर सोती थी
जमी पर कदम न धरती थी

वह चलती है अब शूलों पर
और सोती है तीलों पर

किस्मत का खेल निराला है
कहाँ कोई समझने वाला है

ऊर्मिला की सोच गहरा ही रही
सुध-बुध अपनी वह खो ही रही

कभी सोचती है मन में
वह भी चली जाए अब वन में

जाकर वह पिया से मिल आए
विरह की पीड़ा बतलाए

जी भर के देखेगी पिया को
तभी समझा पाएगी जिया को

दूजे ही क्षण यह सोचती है
और स्वयं को रोकती है

पिया तो करम में अब रत है
क्यों मुझमें आया स्वार्थ है

नहीं करम में बाधा बन सकती
पिया को विचलित नहीं कर सकती

केवल अपने स्वार्थ के लिए
पिया पथ का पत्थर न बन सकती

फिर सोचती है वन में जाऊँ
पिया को बस देख के आ जाऊँ

दूर से देखूँगी पिया को
समझा लूँगी इस जिया को

पिया जाएँगे जिस पथ पर
वही पर बैठूँगी मैं छुपकर

उस धूल को मैं उठा लूँगी
और माँग में अपनी सजा लूँगी

माथे पे लगा के चरण रज
दुल्हन की सी मैं जाऊंगी सज

कभी सोचती है वहाँ पर जाए
उस पथ के काँटे चुन लाए

जिस पथ से पिया गुजरते है
नंगे ही पाँवों चलते है

उस पथ पे फूल बिछा आए
पिया के दर्शन भी कर आए

जा के दीदी की सेवा करे
उसका भी कुछ दुख दूर करे

रहकर वह भी पिया के साथ
सेवा में बँटाएगी उसका हाथ

नहीं वह कुछ किसी से बोलेगी
इक कोने में बैठी रहेगी

वह दासी बनकर ही रहेगी
और सबकी सेवा करेगी

पिया के भी चरण दबाएगी
तभी तो खुश रह पाएगी

सारे कष्टों को सह लूंगी
पर , पिया के साथ रहूंगी

कभी सखी को अपनी बताती है
विरह की पीड़ा सुनाती है

आँखों में तो आँसू नहीं आते
बेसुध हो कर गिर जाती है

 

स्वयं को समझाती है कभी
ऊर्मिला नहीं डोलेगी अभी

पिया के लिए वह रहेगी जिन्दा
नहीं विरह बन सकता फन्दा

कभी न कभी तो मिलेंगे हम
तब तक तो मैं रखूँगी दम

मैं पिया की राह निहारुँगी
उसके लिए खुद को सँवारुंगी

कभी दिल में धड़कन बढ़ जाती
यह सोच सोच के घबराती

कैसे बीतेंगे चौदह वर्ष
क्या कभी होगा जीवन में हर्ष

कभी सपने में ही डर जाती
भावुकता से भर जाती

पर वह तो कुछ नहीं कर सकती
न जिन्दा है न ही मर सकती

नहीं बीते समय बिताने से
यूँ हर पल घबराने से

लगता वक्त जैसे थम सा गया
सूर्य का रथ जैसे रुक सा गया

रात में चंदा को देखती
और कभी उससे यह पूछती

तुम मेरे पिया को देख रहे
तो बोलो ! वह क्या कर रहे?

कभी याद मुझे वे करते है
मेरे लिए आहें भरते है

क्या वह भी तुमको देखते है?
कभी मेरे लिए भी पूछते है?

मेरे पिया को यह बता देना
और अच्छे से समझा देना

जिन्दा है अभी उसकी ऊर्मिला
मुझे नहीं है उससे कोई गिला

मैं जैसी भी हूँ रह लूँगी
विरह की पीड़ा सह लूँगी

पर अपना करम तुम छोड़ना नहीं
प्रण लिया जो तुमने वह तोड़ना नहीं

मेरी परवाह नहीं करना
सेवा की राह नहीं तजना

नहीं बीच पथ में घबरा जाना
नहीं छोड़ के उनको आ जाना

श्री राम सिया को तेरा साथ
चाहिए ! बनो उनका दूजा हाथ

कभी मन में मैल नहीं लाना
न दिलवाना कोई उलाहना

कभी बोलती उर्मि तारों से
जाओ तुम सब वन में जाओ

जंगल की काली रातों में
पिया के पथ पर तुम बिछ जाओ

सिया राम तो सो ही रहे होगे
पिया बाहर ही बैठे होगे

वह मेरे लिए सोचते होगे
मन में बातें करते होगे

जा के तुम उनको समझा दो
और मेरी तरफ से बतला दो

कभी बीत जाएँगे चौदह साल
नहीं लाएँ मन में कोई मलाल

हर सुबह देखती सूर्य किरण
मेरी तरफ से छू दो पिया के चरण

कभी पक्षियों से करती बातें
न दिन ही न बीते रातें

कहती पक्षियों से! हे पक्षीगण
उड़ कर जाओ तुम उस वन

जहां पर रहते है पिया लखन
जाओ उन्हें न हो कोई उलझन

मेरा सन्देस बता देना
कोई प्यार का गीत सुना देना

जो सुन कर वह खुश हो जाएँ
कुछ समय तो मन को बहलाएँ

कभी आता है उसके मन में
पिया रहते हुए ही यूँ वन में

मुझको तो भूल गए होगे
कभी याद भी नहीं करते होगे

दूजे ही क्षण यह विचार करे
और स्वयं का ही बहिष्कार करे

ऐसा तो कभी नहीं हो सकता
मुझको नहीं कभी भुला सकता

वह फर्ज के हाथों बँधा है अभी
पर मिलेंगे मुझसे कभी न कभी

कभी तो हो जाएगा मिलन
मन में थी इक आशा की किरन

लिखती है कभी प्रेम पाती
फिर खुद ही उसे जला देती

कभी दूत को वह बुलाती है
उसको सन्देश सुनाती है

फिर स्वयं ही उसे रोक देती
और कभी उस से पूछती

तुम तो उसे मिलते रहते हो
सारे सन्देश जा कहते हो

बोलो कभी पिया ने की है बात
कैसे कटते है दिन औ रात

कभी मेरा नाम वो लेते है
क्या कोई सन्देश वो देते है?

सोचो में रहती थी गुम - सुम
आँखों में बसे थे पिया हरदम

मन मन्दिर में पिया को बसाए हुए
उसी की यादों में समाए हुए

रही काट समय जैसे तैसे
बस विरह में रहती ऐसे

धन्य वह भारत की नारी
जिसने अपनी ही खुशी वारी

कहे कैसे उस नारी की तड़प
कहने के लिए नहीं कोई शब्द

बस वह विरह में जलती रही
इन्तजार पिया का करती रही

***********************

(क्रमश अगले अंकों में जारी...)

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संपर्क:

सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी

7ए , 3रा क्रास

रामजन्य लेआउट

मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)

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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (12) - विरहिणी ऊर्मिला
सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (12) - विरहिणी ऊर्मिला
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