सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (14) - चित्रकूट में

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कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 14. चित्रकूट में नहीं मिटता है सन्ताप...

कविता

मानस की पीड़ा

-सीमा सचदेव

(पिछले अंक से जारी...)

मानस की पीड़ा
भाग14. चित्रकूट में

नहीं मिटता है सन्ताप कभी
करते रहते है विलाप सभी

दशरथ का दुख सब भूल जाते
जो राम को महलों में पाते

कौन सा दुख दोनों में बड़ा
कष्टों का भी भरा हुआ था घड़ा

नहीं स्वयं को कोई समझा सकता
नहीं दर्द कोई बतला सकता

महलों में तो हर जन था दुखी
नहीं अवध की प्रजा भी थी सुखी

नहीं कोई रौशन करता था घर
घुट घुट कर ही सारे रहे मर

अब सोचता था भरत मन मे
क्यों न वह भी जाए वन मे

वह भी रहेगा अब राम के संग
विरह की नहीं लड़ी जाती जंग

वन जाने को तैयार हुआ
बेगाना था घर-बार हुआ

बोली उससे थी कौशल्या
मेरा नहीं लगे यहां पे जिया

मैं भी तेरे संग जाऊंगी
तभी मैं सुत से मिल पाऊंगी

देखी माँ सुमित्रा की आँखें
वह भी तो भरत से यही माँगे

छुपी खड़ी थी लखन पत्नी
उसके मन में आशा कितनी

बोला यूँ भरत से शत्रुघ्न
हम चलेंगे, हमारा भी होगा मिलन

कैकेई ने नहीं जुबां खोली
सब चले तो सबके साथ हो ली

निकले जब महलों से बाहर
चला साथ में पूरा ही अवध नगर

जा रहे सब वन के पथ पर
पर नहीं बैठा था भरत रथ पर

जिस पथ पर राम के चरण पड़े
उस पथ के तो है भाग्य बडे

केवट भी मिला वन की राह में
वह चला सत दर्शन चाह में

हुआ साथ जो रस्ते में आया
वन का मार्ग भी बतलाया

माता पिता थे सिया के भी साथ
चल रहे बेशक वन में थी रात

जा रहे श्री राम को याद करते
पीड़ा में सभी आहें भरते

पहुँचे सब उस वन की कुटिया
जहां पर थी घास की पड़ी खटिया

लखन बना रहा धनुष वाण
पूजा में व्यस्त थे तब श्री राम

सिया फुलवारी से फूल चुनती
पति के चरणों पर आ धरती

क्या स्वर्ग बनी थी वह कुटिया
जहां जनक की प्यारी सी बिटिया

चित्रकूट की वह घाटी
पावन हो गई उसकी माटी

जहां रहते है सिया राम लखन
पावन हो गया कितना वह वन

जैसे ही दिखा था वह पर्वत
धरती पे हो जैसे कोई स्वर्ग

जहां जनक दुलारी है बसती
वहां तो प्रकृति भी हँसती

देखी कितनी वहाँ चहल पहल
उस जंगल में भी था मंगल

उस पर्वत की शोभा के सम्मुख
फीके थे सारे ही राजमहल

चारों ही तरफ फैली थी सुगन्ध
और समीर चलती मन्द मन्द

वृक्षों की ऐसी घनी छाया
लगे स्वर्ग है चल के यहाँ आया

पक्षी थे चहक रहे ऐसे
गीत सुनाते हो कोई जैसे

प्रकृति ने छेड़ा था साज़
धन्य थी पर्वत घाटी आज

दूर से दिखे भाई राम लखन
जा भरत ने पकड़े राम चरण

आँखों से बह रहा अश्रुजल
धुल गए थे राम के चरण कमल

यह देख के भावुक राम का मन
रो रहे देख के उन्हें लखन

सीता तो सबसे लगी मिलने
सबके ही नैना लगे रोने

माताओं का देखा विधवा रूप
हमें छोड़ के चले गए है भूप

आँखें उनकी पथराई हुई
और मन में भी घबराई हुई

यह देख के राम लखन रोए
उन्होने अपने है पिता खोए

हुए क्या वे दोनों घर से दूर
विधाता भी हो गया क्रूर

नहीं बोलने को रहे कोई शब्द
प्रकृति भी देख के हुई स्तब्ध

थम गई थी सारी चन्चलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता

फिर राम ने सबको समझाया
नियम प्रकृति का बतलाया

जो आया है वो जायेगा
यहाँ कोई भी नहीं रह पाएगा

इक दिन तो जाना है सबको
अब समझाना होगा मन को

यह कुदरत का नियम अटल
मृत्यु आएगी हमें इक पल

कैकेई खड़ी सिर को झुकाए हुए
हाथों से मुँह को छुपाए हुए

हृदय में था बस पछतावा
और पीड़ा का रिसता लावा

आँखों में आँसू नहीं रहे
पछतावे में सारे ही बहे

और जुबां भी हुई मूक
हुई क्यों उसी से ऐसी चूक

राम ने देखी छोटी माँ
पत्थर सी खड़ी थी वह भी वहाँ

आँखें सूखी उतरा चेहरा
दिल पर लिए घाव गहरा

दुख से दोनों जोड़े हाथ
जुबां नहीं दे रही साथ

लिए पकड़ राम ने माँ के चरण
नहीं करो वो बीती बातें स्मरण

तुम वही हो छोटी माँ मेरी
मुझे आज भी चाहिए गोदी तेरी

सच्च कहता हूँ , मैं खुश हूँ वन में
नहीं रखो कोई तुम दुख मन में

पर गोदी मैं तेरी नहीं भूला
फिर से माँ मुझे वैसे ही सुला

मैं सब कुछ छोड़ के रह सकता
पर तेरा यह रूप न सह सकता

जो माँ सदा हँसती रहती
और घर में सबसे कहती

जीना है तो हँसते हुए जीना
उपहार में सबको हँसी देना

कितना ही रोई है वह माँ
रो रो कर सूख गई अंखियाँ

अब इसके बाद नहीं रोना
रो रो के न दृष्टि खो देना

अब धीरे से कैकेई बोली
और मुश्किल से जुबान खोली

मैंने तुम पर है किया जुल्म
नहीं इन जख्मों का कोई मरहम

क्षमा के तो मैं नहीं काबिल
पर कहती हूँ आज भरी महफिल

वापिस लेती हूँ अपना वचन
चलो महल में छोड़ के अब यह वन

नहीं मैं वियोग अब सह सकती
तुम्हें बिन देखे नहीं रह सकती

सबका दुख नहीं देखा जाता
कर जोरि तुम्हें यह कहे माता

सदा माना , अब भी मानो
मेरा कहना सच्चा जानो

मैंने जो किया जीवन में पाप
हो सकता वह तभी माफ

जो तुम घर वापिस आओगे
और अवध राज्य अपनाओगे

नहीं ,नहीं माँ यह नहीं हो सकता
अब राम तो यह नहीं कर सकता

दिया मैंने पूज्य पिता को वचन
चौदह वर्ष तक रहूंगा वन

उस वचन को अब न तोड़ सकता
नहीं रघुकुल रीति छोड़ सकता

बिताने होंगे मुझे चौदह वर्ष
तभी पिता की आत्मा होगी खुश

वादा जब वापिस आऊंगा
तो अवध राज्य अपनाऊंगा

यह देख के बोला भरत भाई
नहीं मेरी दृष्टि ललचाई

नहीं राजा बनने की कोई इच्छा
समझो इस भाई को सच्चा

मैं नज़र भी नहीं मिला सकता
नहीं किसी के सामने आ सकता

कुछ नहीं चाहिए तुम से बढ़कर
तुम आओ घर यह अति सुन्दर

पिता का वचन निभाना है
किसी को वन में रहना है

मैं भी तो उनका बेटा हूँ
तेरी जगह मैं वन में रहता हूँ

यहाँ पूरी अवधि बिताऊंगा
नहीं बीच में वापिस आऊंगा

तुम जाओ लखन सिया भाभी के संग
भर दो अवध में खुशी के रंग

मैं अकेला यहाँ रह जाऊंगा
सच्च कहता हूँ वचन निभाऊंगा

पर राम कहाँ मानने वाले
वह तो बस प्रण पालने वाले

नहीं मानी कोई भरत की बात
रहेगी चौदह वर्ष यह रात

बोली कौशल इक काम करो
मुझे भी अपने साथ रख लो

नहीं जानते तुम , क्या सुत वियोग
माँ के लिए सबसे बड़ा रोग

तेरे साथ तो मैं खुश रह लूँगी
वन के कष्टों को सह लूँगी

श्री राम से बोला शत्रुघ्न
मुझे भी तुम संग रहना है वन

जाओ वापिस तुम भाई लखन
मेरा वहाँ पर नहीं लगता मन

सुमित्रा बोली ,बेटी सीता
तुमने तो सबका मन जीता

तुम चलो वापिस यही होगा उचित
लक्ष्मण यहाँ राम की सेवा में रत

जानकी से बोला जनकराज
अब आ के रहो तुम मेरे पास

पर नहीं माने सिया राम लखन
अब उन तीनों को प्रिय है वन

वहाँ सारे ही बतियाने लगे
श्री राम के दर्शन पाने लगे

सब जन प्रतीत करे ऐसे
सिया राम है उनके साथ जैसे

कोई बेटा मित्र कोई भाई
जैसी जिसकी भावना आई

श्री राम का दिखा वही रूप उन्हें
प्रिय लगता था जैसा रूप जिन्हें

सीता ने देखी बहन ऊर्मिला
जल रही जो विरह की ज्वाला

चेहरे पे लिए थी बस उदासी
लग रही थी वह भी वनवासी

वही रूप तो उसने बनाया था
जो रूप पिया ने अपनाया था

देख के यह उर्मि का प्यार
हुआ सीता को गर्व अपार

ले गई उसे पास अपनी कुटिया
जहां पर थी घास की बनी खटिया

साथ में श्रुतकीर्ति , माण्डवी
तीनों बहने सिया की लाड़ली

सिया प्यार से गले लगाती है
और तीनों को समझाती है

पति प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं
इस सा कोई जग में सच्च भी नहीं

रहना जीवन में तुम वैसे
पिया रखेंगे तुमको जैसे

जानती हूँ कितना व्यथित भरत
शत्रुघ्न भाई की सेवा में रत

ऐसे में बरतना समझदारी
पति की तुम पर जिम्मेदारी

पति की हालत को समझ लेना
नहीं देना कोई उलाहना

पति के दुख में साथी बनकर
देना साथ सदा संग में चलकर

वही होती है सच्ची अर्धांगिनी
जो बनी रहे पिया की संगिनी

सुख दुख में जो साथ निभाती है
वही तो पत्नी कहलाती है

और क्या कहूँ मैं तुमसे ऊर्मिला
तुम्हें तो भाग्य में विरह मिला

मैं पति संग नहीं कोई दुख है
पति सम्मुख यह अनुपम सुख है

नहीं तुमसा दुखी है आज कोई
उसे देख के सीता भी रोई

पर तुम हो जानकी की बहन
और तुमसे मेरा है यह वचन

इक दिन मिलेगी तुम्हें खुशी अनन्त
तेरे कष्टों का होगा अन्त

तब तक जैसे भी सह लेना
पिया की यादों में रह लेना

विरह से नहीं डोले यह मन
तेरा है , तेरा रहेगा लखन

मिली लखन से ऊर्मिला जब वन में
कितने दोनों व्याकुल मन में

फिर भी ऊर्मिला ने कहा प्रिय
नहीं छोड़ना यह उत्तम कार्य

कहा लखन ने, उर्मि न घबराना
इक दिन मिलन होगा अपना

मन में यह अब विश्वास रखना
और आँखों में रखना सपना

यूँ ही समझते-समझाते
कितने ही दिन वन में बीते

श्री राम ने सोचा अब मन में
ऐसे नहीं जाएँगे सब वन से

भरत को राम ने समझाया
और यह आदेश भी सुनाया

जा कर के रहो अब राज महल
देखो अवध राज जो नहीं जंगल

बिन राजा के राज्य कैसा
बिन पानी मछली जैसा

समझो तुम वह जिम्मेदारी
जहाँ रहती है प्रजा सारी

घर जाने की नहीं थी इच्छा शेष
क्या करे? भाई का था आदेश

बोला ! मैं वापिस जाऊंगा
पर राजा नहीं बन पाऊंगा

मुझे यह चरण पादुका दे दो
मुझ पर इतना उपकार कर दो

राज्य में यही विराजेगी
राजा की जगह पर साजेगी

पहनाई केवट ने राम चरण
जब आया था श्री राम शरण

वह चरण पादुका लिए सिर पर
जा रहा था भरत अयोध्या नगर

रो रो कर सारे विदा लेते
अच्छा होता वही पर रहते

पर क्या करे ? राम नहीं माने
दुखी मन से वापिस लगे जाने

जैसे सब जन थे अवध को चले
सिया राम लखन वन से निकले

छोड़ी वह चित्रकूट घाटी
हो गई पावन वहाँ की माटी

उस घाटी ने देखे कितने दर्द
धन्य उस चित्रकूट की धरती

उस माटी ने कितने ही आँसू पिए
जो एक इतिहास बन के रह गए

गवाही देता उसका कण -कण
यहाँ पड़े थे सिया राम के चरण

देखा यहाँ भरत राम सँयोग
फिर हमने सहा श्री राम वियोग

हम वही है उस घाटी की धूल
सिया राम चरण नहीं सकते भूल

कितना पावन है वह पर्वत
जहां लखन,राम सेवा में रत

ऐसी भूमि को कोटि नमन
जहाँ बसते है सिया राम लखन

इसकी रज जो मस्तक पे लगे
तो सोए हुए भाग्य भी जगे

 

********************************

(जारी क्रमशः अगले अंकों में....)

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संपर्क:

सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी

7ए , 3रा क्रास

रामजन्य लेआउट

मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)

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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (14) - चित्रकूट में
सीमा सचदेव की कवितावली : मानस की पीड़ा (14) - चित्रकूट में
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