असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 9)

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उपन्यास   गरजत बरसत ----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- - -असग़र वजाहत तीसरा खण्ड ( पिछली किश्त   से आगे पढ़ें...)   .. ...

उपन्यास

 

गरजत बरसत

----उपन्यास त्रयी का दूसरा भाग---- -

-असग़र वजाहत

तीसरा खण्ड

(पिछली किश्त  से आगे पढ़ें...)

 

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कभी-कभी रात के विस्तार का कोई अंत नहीं होता। रात हमेशा साथ-साथ रहती है और अंधेरा कटे-फटे असंतुलित टुकड़ों में आसपास बिखरा रहता है।

. . .फिर हम लोग ताऊ के साथ गांव चले गये। हमें बस रुलाई आती थी। हम रोते थे. . . पापा तो इधर-उधर देखने लगते थे. . .मम्मी हमें समझाती थी कि देखो शादी नहीं हो रही है गौना हो रहा है. . .शादी तो बहुत बाद में होगी. . .गौना के बाद तुम हमारे साथ रहना. . .खूब पढ़ना . . . जो किताब लाओगी. . .ले आना. . . हम गांव पहुंचे. . .

“तुम्हारा गांव कहां है?”

“. . .कानपुर में है. . .”

“नाम क्या है?”

“लखनपुर. . .”

. . .तो हम गांव पहुंचे. . .वहां हमें बहुत-सी औरतों ने घेर लिया और सब कहने लगीं. . .दुल्हनिया आ गयी. . .दुल्हनिया आय गयी. . हम फिर रोने लगे. . . वे हंसने लगीं। कहने लगीं, काहे का रोवत हो, तुम्हार पति बहुत अच्छा है. . .तुमका खूब खिलाई-पिलाई. . .ध्यान राखी . . .हम कहने लगे, गौना नहीं करना हमें. . .हमें उबटन मलने नाइन आयी तो हमने सब फेंक दिया और कोठरी में जाकर अंदर से कुण्डी लगा ली. . .सब आये खोलने को कहा, पर हमने नहीं खोली. . .हम सोचते थे कोठरी में कुछ होता तो हम खा लेते. . .पर वहां गुड़ और अनाज भरा था. . .हम बोरे हटाने लगे. . .कहते थे कोठरी में सांप रहता

है. . .हमने सोचा सांप हमें काट ले तो अच्छा है. . .हम मर जायें. . .पर सांप नहीं था. . .बाहर से सब कह रहे थे. . .फिर पापा आये और बोले, “खोल दो अनु मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं. . .मेरी ऐसी बदनामी हो जायेगी कि किसी को मुंह दिखाने लायक न रह जाऊंगा. . .तब रोते हुए हमने कोठरी खोल दी. . .फिर सब मिलकर हमें उब्टन लगाने लगे. . हम रोते जाते थे. . .हमें पता था या पता नहीं था केवल लगता था कि हमारे साथ बहुत बुरा हो रहा है. . .फिर हमें सजाया गया. . .हमें समझाने फिर पापा आये. . .पापा को हम बहुत प्यार करते हैं. . .अभी भी बहुत प्यार करते हैं. . .पापा ने कहा अनु हम जो कुछ कर रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए कर रहे हैं. . .तुम हमारी बेटी हो. . .हमारी छोटी बहनें बहुत डर गयी थीं. . .वे भी डरी रहती थीं. . .पर ताऊजी और ताईजी बड़े खुश थे. . .

“तुम्हारे ताऊजी क्या करते हैं?”

“खेती करते हैं और रुपया उठाते हैं. . .बहुत पैसा है उनके पास. . .”

. . .लड़कियां और औरतों गाना गाती थीं पर हमें कुछ सुनाई नहीं देता था। हमें कुछ दिखाई भी नहीं देता था. . .हम बस बैठे रहते थे . . .फिर क्या-क्या हुआ हमें याद नहीं. . .हम कुछ नहीं जानते. . .

“गौने के बाद तुम दिल्ली आ गयीं?”

“हां. . .पर स्कूल छुट गया. . .हमें इतनी शरम आती थी कि हम घर से निकलते ही नहीं थे. . .हम बस गणित के सवाल लगाया करते थे और घर का काम करते थे। स्कूल से कोई लड़की हमसे मिलने भी नहीं आती थी. . .

“तो गणित ने तुम्हें बचाया।”

उधर से आवाज़ नहीं आई। अंधेरे की चादर तनी रही. . .फिर एक महीन पतली से “हां” उभरी।

बाहर हल्का-सा उजाला फैल रहा था। खिड़कियों के बाहर पेड़ों की काली छायाएं कुछ स्पष्ट हो रही थी। अनु उठी और बालकनी में चली गयी। हालांकि अभी सूरज नहीं निकला था, लगता था कि बस एक

दो क्षण की ही बात है। मैं भी बालकनी में आ गया। दूर तक फैले पहाड़ों पर टूटे-फूटे खण्डहर और प्राचीर के बीच में आधा गिरा हुआ फाटक और उसके कंगूरे नज़र जा रहे थे। क्या यहां रहने वालों ने कभी इस क्षण की कल्पना की होगी? कितना अच्छा है कि आदमी का ज्ञान सीमित है।

खण्डहरों के पीछे से लाली नमूदार हुई और लगा इतनी कम और कमज़ोर है कि शायद वहीं कहीं उलझ कर रह जायेगी. . .लेकिन धीरे-धीरे काले शताब्दियों पुराने पत्थरों को चमकाने लगी। पेड़ों के ऊपर चिड़ियों का शोर मच गया और विशाल पेड़ जैसे अंगड़ाई लेकर खड़े हो गये। हल्की नमी और रात वाली उदासी में भीगा दृश्य साफ होता चला गया। अनु खामोशी से देख रही थी। मैंने उसे देखा यारी और लाल आंखें धीरे-धीरे किसी बच्चे की आंखों जैसी हो गयी थी।

एक अजीब-सा रिश्ता बन रहा है मेरे और अनु के बीच न तो यह पूरी तरह दोस्ती का रिश्ता है, न यह पूरी तरह प्यार का रिश्ता है, न ये सम्मान आदर और औपचारिकता का रिश्ता है और न यह कोई कमज़ोर रिश्ता है। शायद हम दोनों एक-दूसरे को बहुत ही अलग एक नये धरातल पर तलाश कर रहे हैं और लगता है कि कहीं-न-कहीं हम एक दूसरे को पा लेंगे। धीरे-धीरे उसका आकर्षण, एक नयी तरह का आकर्षण मुझे यह सोचने पर मजबूर तो नहीं करता कि इतनी सालों की खाली जिन्दगी में एक औरत की कमी को अनु अजीब तरह से भर रही है। विश्वास उसका सहज स्वभाव है। मैं हैरान रह जाता हूं कि वह मेरी हर बात पर पूरी तरह विश्वास कर लेती है। इतना अधिक विश्वास जितना मैं खुद भी नहीं करता। कभी-कभी उसे बच्चों जैसी चपलता और जिज्ञासा से यह लगता है कि वह मेरी लड़की है. . .मेरी संतान है. . . मेरे उसके बीच इस रिश्ते का एक नया पहलू है. . .यह इस तरह संभव है कि मेरी और उसकी उम्र में वही अंतर है जो पिता और पुत्र में होता है। पचपन साल के आदमी की लड़की छब्बीस साल की तो हो ही सकती है।

आकर्षण की एक वजह यह भी थी कि मैं अनु को अब तक नहीं समझ पाया था। वह अपने ट्यूशन वगै़रा पढ़ाने के बाद शाम मेरे यहां चली आती थी। गुलशन के बच्चों को पढ़ाती थी। गुलसनिया के साथ गप्प मारती थी। दोनों अवधी में बातें करते थे। चाय पीती थी। मैं घर में होता तो मुझसे बातचीत होती। मेरे कम्प्यूटर में नये-नये प्रोग्राम डालती और आठ बजते-बजते घर चली जाती। एक साल या उससे ज्यादा वक्त हो गया था मैं यह नहीं समझ पाया था कि उसका “ऐजेण्डा” क्या है? कभी-कभी अपने पर शर्म आती थी कि यार हम ये समझते या मानते हैं कि जैसे हमारे “ऐजेण्डे” होते हैं, वैसे ही हर आदमी के होते होंगे। आजतक उसने मुझसे किसी “फेवर” के लिए कोई बात न की थी। उसे गणित के ट्यूशन करने से अच्छी आमदनी थी लेकिन कपड़े वैसे ही पहनती थी जैसे शायद बीस साल पहले पहनती होगी। मेकअप के नाम पर काजल लगाती थी लेकिन फिर भी उसका अपना आकर्षण था। यह शायद व्यक्तिगत आकर्षण था। उसके साथ जो त्रासदी हो चुकी थी उसके बाद तो उसमें बहुत “बिटरनेस” होना चाहिए थी लेकिन वह भी न थी।

गुलशन अनु को अनु दीदी कहता है। मैंने एक बार उसे प्यार से डांटते हुए कहा “अबे तू उसे दीदी क्यों कहता है. . .तू तो उसके बाप के बराबर हुआ?” गुलशन यह समझने लगा कि दिल्ली में “तू” प्यार की ज़बान है।

“अजी सब कहते हैं तो मैं भी कहता हूं।”

“सब कौन?”

“सब. . . सब बच्चे. . .”

मुझे हंसी आ गयी। वाह ये भी खूब है। बीस साल से दिल्ली में है लेकिन है पक्का केसरियापुर वाला उजड्ड किसान।

अनु के बारे में सोचते हुए और उससे अपने रिश्ते को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हुए कभी-कभी मुझे लगता है कि उसके प्रति मेरे मन में एक और भी आकर्षण है। अगर सच पूछा जाये तो तन्नो से मेरी शादी पांच-सात साल ही चली। उसके बाद वह मेरे लिए और मैं उसके लिए अजनबी होते चले गये। रिश्ता बना रहा क्योंकि बीच कड़ी हीरा बना हुआ है। तन्नो के बाद सुप्रिया मेरी जिंदगी में आई और कम से कम आठ साल तक उससे रिश्ता कायम रहा। अब पिछले सत्रह-अट्ठारह साल से मैं अकेला हूं। इतना झक्की और इतना सख़्त हो गया हूं कि उसके बाद मेरी जिंदगी में कोई औरत नहीं आयी। कौन आती? जो आदमी बात-बात पर खाने के लिए दौड़ता हो। जिसने सही और गल़त के पैमाने ढ़ाल लिए हो. . .जो उस “दुनिया” से नफ़रत करता हो जहां रहता है, उसके पास कौन आयेगी? लेकिन खाली जगह तो खाली ही रहती है? तो क्या इस खाली जगह को अनु भर रही है? एक ऐसी औरत के रूप में जिसने मेरे सामने “सरंडर” कर दिया है। वह मेरी बात नहीं काटती। वह मुझे सम्मान देती है। मेरा ध्यान रखती है। मेरी निगाह पहचान लेती है और वही करती है जो मैं चाहता हूं। वह पूरे समर्पण के साथ मेरे पास आती है। मैं जिस रूप में उसे संबोधित करूं वह जवाब देती है। तो क्या अनु उस जगह को भर रही है? और क्या आदमी ऐसी औरत चाहता है जो उसके कहने में रहे? जो उसे आदर्श माने? जो पूरी तरह समर्पण करे? जो आदमी की हर बार को अंतिम सच की तरह स्वीकार करे? अनु कभी विरोध नहीं करती। अनु कभी कुछ मांगती नहीं। कभी कुछ चाहती नहीं. . .सुख हमेशा उसके साथ रहता है। वह हर हाल में खुश है और संतुष्ट है।

अनु अब मुझे बहुत सुंदर लगती है। यह बड़ी अजीब बात है कि जब मैं उससे पहली बार मिला था तो बिल्कुल साधारण और सामान्य मध्यवर्गीय लड़की नज़र आती थी। उसकी शक्ल सल्लो से बेपनाह मिलती है इसलिए मैंने उसमें एक पुराना आकर्षण महसूस किया था। एक ऐसा पाठ जो दोहराया जा रहा हो। लेकिन इसके अलावा उसके शरीर और सुंदरता का कोई विशेष आकर्षण पैदा नहीं हो पाया था। पर अब समय के साथ-साथ सब बदल रहा है। मैं सोचता हूं क्या सुंदरता धीरे-धीरे विकसित होती है? क्या यह एक प्रक्रिया है? हां शायद यही है क्योंकि अनु का सामान्य चेहरा अब मेरे लिए सामान्य, सीधा, सरल, आकर्षणहीन नहीं रह गया है। जो हम करते और सोचते हैं वह चेहरे पर अंकित होता रहता है। रोचक शायद यह है कि एक ही चेहरा अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से दिखाई देता है। यानी सिक्के के सिर्फ

दो पहलू नहीं होते बल्कि अनगिनत पहलू होते हैं। पता नहीं किस चेहरे की सुंदरता कोई कैसे देखता है। पता नहीं कौन-सा चेहरा किस चेहरे के सम्पर्क में आकर किस तरह बदलता है। मुझे लगता है मुझे मिलने-जुलने के कारण अनु का चेहरा मेरे लिए बदल गया है और शायद इसी तरह मेरा चेहरा उसके लिए वह न होगा जो था। यह प्रक्रिया अनजाने में न जाने कहां से शुरु होती है और फिर कहां से कहां से होती कहां जाती है? कभी ठहरती तो क्या होगी क्योंकि जब तक जीवन है यह गतिशील रहती होगी और मरने के बाद?

अपने आपसे बिल्कुल बेपरवाह अनु चाहे जितनी सादगी से रहे और चाहे जितना कम प्रदर्शन करे पर उसका शरीर कम आकर्षक नहीं है। ये वही बिल्कुल सल्लो वाला मामला है। एक साधारण लड़की जब चांदनी रातों में निर्वस्त्र हुआ करती थी तो पता चलता था कि नारी शरीर का सौंदर्य किसे कहते हैं। यही बात अनु के साथ इस तरह लागू होती है कि उठते-बैठते, चलते-फिरते, बात करते, हँसते उसके शरीर की झलकियां मिलती हैं वे सम्मोहित करने के लिए पर्याप्त हैं। एक बार अचानक ही गाड़ी में जब मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया था तो वह सहम गयी थी। लेकिन रात में अपनी कहानी सुनाते हुए वह सहजता और आत्मीयता से निकट आ गयी थी। उस क्षण शायद सेक्स नहीं दुख उसे शक्ति दे रहा था। एक विश्वास उसे मेरे निकट ला रहा था और मैं उस विश्वास का पूरा सम्मान कर रहा था।

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“सलाम भइया!” मजीद ने मुझे सलाम किया। मजीद को देखते ही बुआ की याद आयी जो जिंदगी पर मल्लू मंजिल में खाना पकाती रहीं और यही मरीं। मजीद को मैं बचपन से देख रहा हूं। अब उसकी जवानी का उतार है।

“सलाम।”

“कहां बैठेंगे. . .बाहर डाल दें कुरसी मेज़।”

उसने कपड़े वाली फोल्डिंग कुर्सियां बाहर सायबान में लगा दीं और मैं बैठ गया।

“देखो सब कमरे खोल दो।”

“सब कमरे?”

“हां सब कमरे, कोठरियां. . .बावरचीखाना. . .हम्माम सब खोलो. . .खिड़कियाँ भी खोल देना. . .और सफाई तो कर दी है न?”

“अतहर भइया ने जैसे बताया. . .आप आ रहे हैं तो पूरे घर की सफाई करा दी है।”

“पिछला आंगन. . .”

“वहां बड़ी घास थी भइया. . . मजूर लगा के कटा दी है. . .अब साफ है।”

“ऊपर वाला कोठा?”

“साफ है।”

अब्बा और अम्मां के करने के बाद जानबूझकर घर में कोई बदलाव नहीं किए गये हैं। जो चीज़ जैसी थी वैसी ही है और वही पर है। बैठक में वही पुरानी कपड़े की फोल्डिंग कुर्सियां, बेंत का सोफा सेट,

बीच में गोलमेज़ और एक तरफ तख्त़ों का चौका है। दीवारों पर भी वहीं तुगऱे हैं। वही पुराना कलण्डर है जो अब्बा के इन्तिकाल के साल लगा था। पुराने ग्रुप फोटो भी वहीं है। एक अब्बा के कालिजवाला ग्रुप है। दूसरी तस्वीर उनके स्कूल का ग्रुप फोटो है। मेरी एम.ए. की डिग्री भी फ्रेम की लगी है। ताक में पुराने गुलदान है और कागज़ के नकली फूल हैं। अल्मारियां भी पुराने रिसालों और किताबों से पटी पड़ी हैं। कुछ हटाया नहीं गया है। अंदर के कमरे में भी चारपाइयां हैं, तख्त़ हैं, नमाज़ की चौकी है। मुंह हाथ धोने के लिए बड़े-बड़े टोटी वाले लोटे हैं, घिड़ौंची है, घड़े हैं, बावरचीखाना भी वैसा ही है। बस गैस का चूल्हा ज़रूर नया है लेकिन चूल्हा हटाया नहीं गया है। बरतन वही पुराने हैं। चीनी के बर्तन अल्मारियों में बंद हैं। फुंकनी, चिमटा, करछा, तवा सब कुछ सलामत हैं।

मैं पिछले आंगन में आ गया। दीवारों पर हरी काई और जमीन पर नयी कटी घास के निशान देखता उस तरफ बढ़ा जिस कमरे की छत गिर गयी है। धिन्नयों से पटे इन दो कमरों और एक कोठरी की छत कच्ची है।

“इनमा स्लैप डलवा देव”, मजीद बोला।

“और यहां रहेगा कौन?” मैंने उससे पूछा।

“आप आके रहो।”

“हां. . .मुझे यही काम बचा है न?” कहने को तो मैं कह गया पर लगा सच नहीं बोल रहा हूं। फिर ख्य़ाल आया क्यों न इस पिछले हिस्से में एक नये तरह का मकान बनवाया जाये। एक “आधुनिक मकान। धीरे-धीरे मकान का नक्शा दिमाग में उभरने लगा। लेकिन मैंने उसे एक फटके के साथ निकाल फेंका। एक और मुसीबत खड़ी करने से क्या फायदा।

मजीद को मालूम है कि मैं जब सालों बाद यहां आता हूं तो क्या होता है। उसने शाम होने से पहले ही बैठक की सारी कुर्सियां और बेंत का सोफा झाड़ पोंछकर बाहर लगा दिये हैं। मेज़ बीच में रख दी है। मुझसे पैसे लेकर चाय की पत्ती, दूध, चीनी ले आया है।

शहर छोड़ने के चालीस साल बाद भी अगर यहां लोग मुझसे मिलने और बात करने आते हैं तो यह मेरे लिए गर्व की नहीं संतोष की बात है कि वे मुझे अपने से अब भी, मेरे कुछ न किए जाने के बावजूद , मुझे अपना शुभचिंतक मानते हैं और यह समझते हैं कि मुझसे जितना हो सकेगा में यहां के लोगों के लिए करूंगा। पुराने दोस्तों के अलावा युवा पत्रकार और छात्र आ जाते हैं जिन्होंने मेरी किताबें या लेख पढ़े हैं। कभी-कभी कोई छोटा-मोटा अधिकारी भी आ टपकता है जिसे पत्रकारों से लगाव या थोड़ा भय होता है।

यहां की मुख्य समस्याएँ क्या है? गरीबी, गरीबी और गरीबी । क्योंकि रोजगार नहीं है। भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार। क्योंकि भ्रष्टाचार शक्तिशाली लोग करते हैं और उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। जातिवाद और साम्प्रदायवाद- ये दोनों हथियार यहां के नेताओं को मिले हुए हैं जिससे वे एकछत्र राज्य करते हैं। इन स्थितियों में सामान्य आदमी का जीवन नरक बना हुआ है और उसके सामने कोई रास्ता भी नहीं है।

साधारण लोग इस अमानवीय जीवन को सहे जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है लोगों का कष्ट सहने और बच्चे पैदा करने में कोई जवाब नहीं है। शायद संसार के किसी भी दूसरे देश के लोग इतनी सहजता और ढिटाई से गरीबी, अत्याचार, अपयान, शोषण, हिंसा, अराजकता नहीं बर्दाश्त कर पायेंगे और साथ ही साथ इतने बच्चे नहीं पैदा कर पायेंगे जितना यहां के लोग करते हैं। संभवत: इन दोनों में भी रिश्ता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

“मेरे हाथ खून से रंगे हुए हैं”, पटनायक ने विस्की का चौथा पैग खाली करके गिलास मेज़ पर रखते हुए कहा “मैं तो आपसे वैसे भी मिलना चाहता था. . .मैंने आपकी किताब “अकाल की राजनीति” पढ़ी है और चाहता था कि कभी दिल्ली में आपसे मुलाकात हो।”

मैं अपने शहर से वापसी के चरण में था। तीन-चार दिन में मेरे पास इतने लोगों के इतने काम जमा हो गये थे कि कलक्टर से मिलना ज़रूरी हो गया था। बताया गया था कि मिस्टर पटनायक बहुत पढ़े-लिखे और सज्जन कलक्टर हैं। मैंने फोन किया था और उन्होंने रात के खाने पर बुला लिया था।

शहर के बाहर खुले में पतली कोलतार वाली सड़क पर कलक्टर के विशाल बंगले में घुसते ही मुझे कुछ नया लगा था। बंगला वही था, अंग्रेज़ों के ज़माने का बनाया हुआ. . .विशाल गोल खंभों वाला बरामदा. . .सीढ़ियां. . .बड़े-बड़े दरवाजे, पोर्टिको. . .लेकिन कम्पाउण्ड में बायीं तरफ सागवान के विशाल पेड़ गा़यब थे। मैंने मिस्टर पटनायक से पहला सवाल यही पूछा था और उन्होंने एक छोटी-सी कहानी सुनाई थी। कितनी अधिक कहानियां बिखर गयी हैं हमारे चारों तरफ।

मिस्टर पटनायक ने बताया था कि एक कलक्टर साहब ने कुछ कागज़ और फाइलें इस तरह चलाई कि सागवान के उन विशाल पेड़ों को काटने की अनुमति मिल गयी। पेड़ नीलाम किए गये जिसमें बोली कलक्टर साहब के ही एक आदमी के नाम छुटी और फिर. . .कहानी में कई मोड़ थे. . .अंत यह था कि लकड़ी कितनी मंहगी बिकी और कलक्टर साहब आगरा में जो विशाल इमारत बनवा रहे थे उसमें किस तरह खपकर गायब हो गयी. . .

पटनायक मुझे उन दुर्लभ आई.ए.एस. अधिकारियों जैसे लगे थे जिनकी अंतरात्मा “बेशरम” और इसलिए आज भी जिंद़ा है।

“हां तो मैं उससे कह रहा था अली साहब. . .मेरे हाथ ख़ून से रंगे हुए हैं. . .सुनिए फिल्मी कहानी न लग तो कहिएगा. . .मैं ज़िले का कलक्टर था। नाम नहीं बताऊंगा. . .फ़र्क़ भी क्या पड़ता है। अकाल की सूरत पैदा हो गयी। कहा गया कि तीन साल से बारिश नहीं हो रही है. . . केन्द्र में मंत्री भी थे मुझसे कहा कि केस तैयार करो, जिले को “ड्राटप्रोन एरियाज़ प्रोग्राम” के तहत राहत दिलाना है। मैं खुश हो गया। सोचा आख़िरकार मंत्री महोदय को अकल आ गयी है। रात-दिन की कठिन मेहनत के बाद फाइल तैयार हो गयी। मंत्री जी अपने साथ ले गये। कई चक्कर लखनऊ और दिल्ली के काटे. . .आखिरकार ग्राण्ट मिल गयी. . .एक करोड़ से कुछ ज्यादा. . .अब दो हज़ार लाल कार्ड बांटने थे. . .प्रभावित लोगों को मुफ्त राशन मिलने की योजना के तहत. . . मंत्री जी ने कहा “लाल कार्ड उनके कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिये जायें. . .वे बांटेगे? मैंने थोड़ा ना-नुकुर किया तो मंत्री जी ने साफ-साफ कहा मुझसे भिड़ोगे तो पछताओगे।” उसके बाद लाल कार्ड बाजार में बिक गये। राशन का भुगतान हो गया. . .गांव से अकाल में मरने वालों की खबरें आने लगीं लेकिन मंत्री महोदय के प्रताप से कोई अखबार नहीं छाप रहा था. . .लगातार लोग मरते रहे. . .समझे आप. .इसके अलावा सारे ठेके. . .ट्रांसपोर्ट का काम. . . योजना पर मंत्री महोदय की जाति बिरादरी वालों का कब्ज़ा हो गया। रिलीफ के कामों में जो मज़दूर भर्ती किए गये वे मंत्रीजी की जाति के थे। काम करते थे दलित और उन्हें चौथाई पैसा मिलता था. . .इस तरह. . .” पटनायक हांफने लगे। मैंने उन्हें दिलासा दिया और कहा कि आप एक जगह की बात कर रहे हैं. . .मैंने यह पूरे देश में देखा है।

कोठी के सेण्ट्रल हाल का फर्नीचर पूरी तरह “कालोनियल ब्रिटिश स्टाइल” का था। ऊंची छतें, ऊपर रोशनदान और छत से लटकते लंबे-लंबे पंखे। इतने बड़े-बड़े सोफे कि एक सोफे पर तीन आदमी बैठ जाये। तरह-तरह की कुर्सियां, कालीन, झाड़ और फानूस. . .ये अच्छा था कि किसी कलक्टर के दिमाग में इसे “आधुनिक बनाने का ख्य़ाल नहीं आया था।

पटनायक मुझे स्कॉच विस्की पिला रहे थे। कट ग्लास के शानदार गिलासों में दौर पर दौर चल रहे थे। मेज़ तरह-तरह सूखे मेवों, कबाबों और पकौड़े से भरी पड़ी थी। दो नौकर लगातार गर्म कबाब और पकौड़े ला रहे थे।

इस बातचीत के बीच एक दो बार श्रीमती पटनायक उड़ीसा की बेशकीमती साड़ी में पधारी थीं और यह पूछकर कि “स्नैक्स” ठीक बने हैं या नहीं चली गयी थीं। उन्होंने बच्चों के बारे में बताया था बड़ा लड़का कहीं से “बायो-साइंस” में डिग्री कर रहा था। छोटी लड़की नैनीताल के किसी स्कूल में थी।

“देखिए हमने आज़ादी के बाद क्या किया है? जितने पब्लिक

सर्विस “इंस्टीट्यूशन्स” थे सब चौपट हो गये हैं, मैं. . .यहां के गवर्नमेंट इण्टर कॉलेज में पढ़ा हूं. . .आज उसकी क्या हालत है? यहां का अस्पताल चरमरा कर टूट गया है। नगरपालिका पर गुटबंद गिरोह कब्ज़ा कर चुके हैं. . .शहर में नागरिक सुविधाओं का अकाल है. . .”, मैंने उनसे कहा।

“शायद आज़ादी के बाद सबसे बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस के शासन संभाल लेने के बाद “सिविल सोसाइटी” से उनकी भूमिका खत्म हो गयी. . .आज क्राइसिस ये है कि देश के इस हिस्से में सिविल सोसाइटी नहीं है. . .” वे बोले ।

“इस बारे में ये भी कहना चाहूंगा कि “एडमिनिस्ट्रेशन” का रोल भी बदला या बिगड़ा है. . .ब्रिटिश ढांचा वहीं का वहीं है और उसमें चुनाव की राजनीति का घालमेल हो गया है।” “देखिए हम लोग. . .तो बेपेंदी के लौटे हैं. . .हमें तो राजनेता जिधर चाहें. . .आईमीन वी आर हेल्पलेस. . .”, पटनायक बोले।

“लेकिन “एक्सेप्शन” हैं. . .और अगर आप लोग चाहें तो “करप्शन” के बारे में कुछ कर सकते हैं।”

पटनायक ने आंखें सिकोड़ी और बहुत सफाई से बोले “हम कुछ नहीं कर सकते अली साहब. . .पूरा सिस्टम पचास साल में “करप्शन” की मशीन बन चुका है. . .पहले भी था. . .लेकिन अपने आपको मतलब “स्टेट” को “डिफीट” देने वाला “करप्शन” नहीं था। मतलब अंग्रेज़ अगर कोई सड़क बनना चाहते थे तो सड़क बनती थी। कुछ परसेंट पैसा इधर-उधर होता था. . .आज तो “सड़क” ही नहीं बनती. . .ये अपने “सिस्टम को डिफीट” देने वाला करप्शन है।”

“सड़कें तो बनती हैं मिस्टर पटनायक. . .लेकिन दिल्ली में”, मैंने कहा और पटनायक हंसने लगे।

“हां ये आपने ठीक कहा।”

“दरअसल एक अजीब तरह का “साम्राज्यवाद” चला रखा है हम लोगों ने. . .किसकी कीमत पर कौन आगे बढ़ रहा है, यह देखने की बात है” मैं बोला।

“आपने तो रुरल रिर्पोटिंग बहुत की है. . .इस “स्टेट” में तो कोई बड़ा “ट्राइबल एरिया” या आबादी नहीं है लेकिन जो कुछ पढ़ने में आता है. . .उससे. . .।”

“अब वह सब कुछ पढ़ने में भी नहीं आयेगा जो पहले आया करता था”, मैं उनकी बात कर बोला।

“क्या मतलब?”

“अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी अपने रोल तय कर लिए हैं. . .वह शहर के लोगों के लिए हैं या आदिवासियों के लिए? विज्ञान देने वाली ऐजेन्सियां अपना सामान शहर में बेचती हैं, आदिवासी क्षेत्रों में नहीं बेचती. . .इसलिए मीडिया सब कुछ शहर के चश्मे से देखता है. . .करोड़ों रुपये लगाकर जो चैनल खोले जाते हैं उनका पहला मकसद व्यापार होता है और दूसरा कुछ और. . .”

“मतलब सब कुछ पैसे की जकड़ में आ गया”, पटनायक बोले और उन्हें ध्यान से देखने लगा। सोचा, यार यह आदमी जिस पीड़ा से गुज़र रहा होगा उसका अंदाज़ा कौन कर सकता है?

----३१----

टेलीफोन धमाके की तरह कान में फटा था। यकीन नहीं आया कि ये हो सकता है। शकील तीन बार वहां से एम.पी. का इलेक्शन जीत चुका है जिले पर उसकी गहरी पकड़ है। आमतौर पर सब उसे मानते और सम्मान करते हैं फिर ये उसकी “कन्टेसा” पर ए.के. ४७ से जानलेवा हमला करने वाले कौन हैं? वह भी दिन दिहाड़े जब वह अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा कर रहा था। उसके दो बॉडीगार्ड और ड्राइवर मौके वारदात पर ही मर गये थे। शकील को भी मरा हुआ मानकर कातिल चले गये थे क्योंकि जीप पर लगातार गोलियों की बौछार की गयी थी और निशाने पर शकील ही था इसलिए हमलावर “श्योर” थे कि वह तो मारा ही जा चुका है। शकील के छ: गोलियां लगी थी लेकिन खुशनसीबी से कोई गोली सिर या सीने में नहीं लगी थी। उसकी हालत गंभीर लेकिन ख़तरे से बाहर बतायी जा रही थी।

हमला तीन बजे दिन में हुआ था। चार बजे मेरे पास फोन आया था। उसके बाद “ब्रेक्रिंग न्यूज़” की तरह यह समाचार सभी चैनलों पर चलने लगा था। शाम के बुलेटिन में पूरा समाचार, स्थानीय संवाददाता की रिपोर्ट और शकील का “विजुअल” भी दिया गया था।

मैं और अहमद सुबह चार बजे निकले थे। हमें उम्मीद थी कि दोपहर तक पहुंच जायेंगे लेकिन यह था कि कहीं शकील को गोरखपुर के अस्पताल में लखनऊ न शिफ्ट कर दिया जाये या दिल्ली ही आ जाये। यही वजह थी कि हम भाभी से फोन पर सम्पर्क बनाये हुए थे और अब तक डॉक्टरों की यह राय थी कि शकील को कहीं और ले जाने की जरूरत नहीं है।

“ये तो हो ना ही है यार. . .पहले पॉलिटिक्स के साथ पैसा जुड़ा, यानी करोड़ों, खरबों आ गये और जाहिर है जहां इतना पैसा होगा वहां “क्राइम” भी होगा ही. . .पैसा और क्राइम का तो अटूट रिश्ता है।” अहमद ने कहा।

“लेकिन शकील दूसरे पॉलिटीशियन्स के मुकाबले काफी क्लीन माना जाता है।”

“ये तो उसकी खूबी है कि ऐसी “इमेज” बना ली है. . .लेकिन देखो इलेक्शन में कितनी बड़ी “फौज काम करती है? उसका पेट कैसे और कौन भरता है? उनकी ज़रूरतें कौन पूरी करता है. . . .अहमद बोला।

“लेकिन शुक्र करो कि बच गया।”

“मोजज़ा हुआ है. . .बचने के चांस तो ज़ीरो थे। तुम सोचो दोनों तरफ से गाड़ी पर गोलियों की बौछार हो रही हो और कोई गाड़ी के अंदर बच जाये।”

“लेकिन ये साला प्रापर सिक्योरिटी क्यों नहीं लेता था?”

“ओवर कान्फीडेन्स. . .और क्या कहोगे।”

अस्पताल में बड़ी भीड़ थी। पुलिस भी बड़ी तादाद में थी। हमें कमाल मिल गया। वह सीधा हमें लेकर आई.सी.यू. में गया था। शकील को डाक्टरों ने सुला दिया। यह बताया कि अगर वह दो-तीन घण्टे सो ले तो अच्छा है।

हम कमाल के साथ सर्किट हाउस आ गये थे जहां शकील की बीवी और दूसरे रिश्तेदार ठहरे हुए थे।

कमाल को मैं बहुत साल से देख रहा हूँ। उसका चेहरा सख्त़ हो गया था। हल्की सी खसखसी दाढ़ी, भरी-भरी-सी सफ्फ़ाक आंखें और पतले होंठों ने उसके चेहरे को कठोर और ज़िद्दी आदमी का चेहरा बना दिया था। वह सफेद खड़खड़ाता कुर्ता और पायजामा पहने था।

हमले के बारे में जब बातचीत हुई तो वह बोला “अब्बा, अपने दुश्मनों को तरह दे जाते हैं. . .यही वजह है कि दुश्मन सिर पर चढ़ जाते हैं. . .अब मैं देखता हूं कि इन सबको. . .इनसे तो मैं ही निपटूंगा.

. .और किसी एक को नहीं छोड़ूंगा. . .इन्हें पता चल जायेगा अब्बा पर हमला करने का नतीजा।” वह चबा-चबाकर बोल रहा था। उसके लहजे में घृणा, हिंसा और ताकत भरी हुई थी। मैं उसे देखकर डर गया। अहमद का भी शायद यही हाल हुआ था।

हमारे समझाने पर वह बोला था “अंकिल आप लोग नहीं जानते. . .ये लोकल पॉलीटिक्स है. . .यहां जो दबा वह मरा. . .मैं जानता हूं अब्बा पर ये हमला किसने कराया है. . .पूरा शहर जानता है. . .लेकिन बोलेगा कोई कुछ नहीं. . .”

हमें लगा कमाल गैंगवार की तैयारी करना चाहता है। वह जानता है कि एक दो या दस हत्याएं कर देने के बाद भी अपराधी पकड़ा नहीं जा सकता। बमुश्किल अगर पकड़ भी लिया गया तो बीसियों साल मुकदमे चलेंगे। गवाह टूटेंगे. . .पैसा अपना खेल दिखायेगा. . .ये सब होता रहेगा. . .और दुश्मनों से छुट्टी मिल जायेगी। असली बात ये है कौन इस धरती पर बचता है, कौन जिंदा रहता है और कौन मरता है।

कमाल के आसपास जिन लोगों को हमने देखा वे भी अपनी दबंगई और “क्रिमिनल रिकार्ड” के खुद गवाह लगे। उन लोगों के बारे में हमें बताया गया कि ये लोग शकील या हाजी शकील अहमद अंसारी के बिल्कुल ख़ासमख़ास हैं। मुझसे ज्यादा अहमद चकित और परेशान था क्योंकि मैं तो किसी न किसी रूप में इन इलाकों से जुड़ा रहा हूं लेकिन अहमद के लिए ये बिल्कुल नया था।

हम लोग अगले दिन शकील से मिले। वह पूरे होशो-हवास में था। उसके ज़ख्म़ बहुत गहरे न थे। बस एक गोली कमर से निकाली गयी थी। लेकिन शकील हमें बेहद डरा हुआ लगा। बेतरह डरा हुआ नज़र आया। ये ठीक भी था। जिस पर जानलेवा हमला हो चुका हो और बाल-बाल बचा हो उसका डरना वाजिब है।

जिले में शकील का सबसे बड़ा दुश्मन पाटा पहलवान है जिसे अब हाजी पाटा कहा जाने लगा है। बीस साल पहले यह आदमी शकील का ख़ासमख़ास हुआ करता था। इसका जग-ज़ाहिर धंधे ने पाल से हशीश की तस्करी था। इसके अलावा यह मुंबई में “शूटर” भेजने का काम भी करता था। इलाके के छोटे-मोटे बदमाशों के साथ मिलकर पाटा पहलवान ने एक “बिल्डर हाउस” भी बनाया था जिसका काम गरीबों की ज़मीनें या सार्वजनिक ज़मीनों पर कब्जा करके बेचना हुआ करता था। आज हाजीपाटा के पास उ.प्र. में सौ करोड़ ज़मीनें हैं और वह बहुत बड़े बिल्डरों में गिना जाता है। कोई पांच सात पहले पता नहीं क्यों वह शकील से अलग हो गया था और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विधानसभा पहुंच गया था। कयामत हाजी पाटा की तरफ ही इशारा करके कह रहा था कि पूरा शहर यह बात जानता है कि शकील पर किसने हमला कराया है।

चलते वक्त कमाल ने बड़े फिल्मी और नाटकीय ढंग से कहा था कि उसे हम लोगों की दुआ और “स्पोर्ट” चाहिए। उसने यह भी कहा था कि अब शकील का कोई बाल बांका नहीं कर सकता। इस तरह उसने यह भी जता दिया था कि वह अपने अब्बा से ज्यादा सक्षम और समर्थ है।

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अनु अपनी दास्तान का एक छोटा- सा हिस्सा सुनाकर सो जाया करती थी और मैं देर तक जागता रहता था। पता नहीं क्यों मुझे और उसे साथ-साथ घूमना इतना रास आने लगा था कि हम महीने में एक बार दिल्ली से बाहर निकल जाते थे। सड़क किनारे बने ढ़ाबों में तन्दूरी पराठा खाते, चाय पीते. . .स्टेट टूरिज्म के होटलों में खाना खाते और रात बिताते हम आगे बढ़ते जाते और फिर सोमवार की सुबह लौट आते।

नैनीताल के “व्युक्लासिक होटल” के इस कमरे में जो बड़ी खिड़की है उससे झील दिखाई पड़ती है। रात में झील पर चमकती बिजली के खंभों की रौशनी और दूर ऊपर पहाड़ पर जाने वाली सड़क पर जलती रौशनियां कमरे में आ रही हैं। कमरे में इतना अंधेरा है कि चीजें परछाइयों के रूप में दिखाई पड़ती है। अनु मेरे बराबर लेटी है, उसने चादर अपने ऊपर खींच रखी है। कुछ देर पहले वह बता चुकी है कि अब वह वही करती है जो उसे अच्छा लगता है, बस, यह भी कह चुकी है कि वह दूसरों का कहा बहुत कर चुकी है और हाथ क्या लगा?

. . .एक साल के बाद वे लोग हमें लेने आये। हम सुन्न पड़ गये थे। हमारे साथ जो हो रहा था हमें पता नहीं चलता था। लगता था यह सब किसी और के साथ हो रहा है. . .हम रोते थे तो लगता था किसी और के लिए रो रहे हैं. . .विदाई के समय. . .मम्मी बहुत रोयी. . . पापा की आवाज़ भी भर्रा गयी। ताईजी ने कहा “अब वहीं तुम्हारा सब कुछ है।” वे लोग हमें लेकर चले. . .हम पत्थर जैसे हो गये. . .समझ में कुछ नहीं आ रहा था। न भूख लग रही थी. . .न प्यास लग रही थी, न कुछ देख रहे थे, न सुन रहे थे. . .

. . .हमें कुछ साफ-साफ याद नहीं. . .कुल देवता की पूजा हुई थी. . .और हमारे साथ जो आदमी बैठा था उसे भी हमने नहीं देखा था। वही हमारा पति था। पूजा के बाद हमें पूरा घर दिखाया गया. . .कमरे-कमरे में ले जाया गया. . .फिर सब घरवालों, रिश्तेदारों को चिन्हाया गया। हमें कुछ याद नहीं. . .कौन-कौन था। हमें पता नहीं चला था। फिर हमें रसोई में ले जाया गया। हमसे कहा गया खाना छू दो। हमने खाना छू दिया. . .बड़ी आवाजें आ रही थीं पर कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था. . .

“हमें प्यास लग रही है”, वह कहते-कहते ठहर गयी। मैं उठा जग से पानी गिलास में डाला। उसने बैठकर पानी पिया और फिर लेट गयी। अंधेरे में थोड़ी देर के लिए उसकी आंखें चमकीं और फिर गा़यब हो गयीं। आधी रात बीत चुकी थी और लगता था निर्जीव चीजें भी सो गयी हों।

. . .रात में हमें एक बड़े कमरे में ले जाकर मसहरी पर बैठा दिया गया। जब सब चले गये तो हमने देखा, कमरे में दो तरफ खिड़कियां थी। खुली हुई अल्मारियों में डिब्बे और शीशियां रखी थीं। कुछ अल्मारियों में किताबें भरी हुई थीं। बड़ी ताक में भगवान जी ने सामने बिजली का छोटा-सा बल्क जल रहा था। दीवार पर शीशा लगा था और कंघे, तेल की शीशियां रखी थी। कमरे का रंग गहरा हरा था जो हमें अच्छा नहीं लगा। दो लोहे की बंद अल्मारियां भी थीं। कोने में दो कुर्सी और एक छोटी मेज़ रखी थी। उसके पास दो मुगदर भी रखे थे। मुगदर हमने जीवन में पहली बार देखे थे तो हमें पता न था कि क्या है. . .बाहर से लगातार आवाजें आ रही थीं. . .सब मिली-जुली आवाजें. . .हम नहीं समझ पा रहे थे कि कौन क्या बोल रहा है. . .हम बैठे-बैठे पता नहीं कब सो गये. . .पता नहीं कैसे? हम सोना तो बिल्कुल नहीं चाहते थे लेकिन अपने ऊपर ज़ोर ही न चला. . .हम सो गये. . .हम चीख मारकर जाग गये. . .किसी ने हमारी बांह पकड़कर घसीटा था. . .हमने देखा एक आदमी हमें घसीट रहा है. . .उनके लंबी-सी नाक थी. . .गाल की हड्डियां उभरी हुई थी। आंखें अंदर को धंसी-सी थी. . .रंग बिल्कुल गोरा था. . .दुबला-पतला था हम अपने को छुड़ाने लगे. . .उसने हमें जोर से घसीटा तो हम मसहरी से गिर पड़े. . .

“सोने आई है यहां?” उसने कहा। हम उठने लगे। उसने कहा, “बड़े लाट साहब की बेटी है न? देख हम सब जानते हैं. . .तेरे पिताजी जैसे दो-चार सौ तो हमारे अण्डर में होंगे जब हम आई.ए.एस हो जायेंगे।”

हमें कुछ नहीं मालूम था कि आई.ए.एस. क्या होता है पर हमारे पापा को बुरा कहा तो ये हमें अच्छा नहीं लगा। हम समझ गये कि यही हमारा पति है।

वह फिर हमारा हाथ पकड़कर घसीटने लगा। हम छुड़ाने लगे। उसे गुस्सा आ गया बोला “ठीक है तू सो जा. . .देखे कब तक सोती है। जा उधर सो जा. . .कमरे के कोने में एक दरी बिछी थी. . .हम दरी पर जाकर बैठ गये वह जूते उतारने लगा।”

“देख यहां रहना है तो ढंग से रहना पड़ेगा. . .लाट साहबी नहीं चलेगी. . .हम बड़े टेढ़े आदमी हैं. . .अच्छे-अच्छों को ठीक कर दिया है. . .अब हमारी सेवा करना ही तेरा धर्म है. . .समझी।”

हम सुनते रहे। वह उठा शीशियों वाली अल्मारी के पास गया। पता नहीं क्या-क्या दवा पीता रहा। हम बैठे रहे। वह बोला “चल लेट जा वहीं. . . .समझी. . .” हम लेट गये। पता नहीं कब सो गये।

अनु बताये जा रही थी और मैं सुन रहा था, सोच रहा था, मेरी

आंखों के सामने अनु नहीं आठवीं-नवीं क्लास में पढ़ने वाली एक लड़की थी जिसे तरह-तरह से अपमानित किया जा रहा था। जिसका कोई न था. . .ये सब क्या है? क्यों है? ये आज़ादी और मुक्ति की शताब्दी है. . .

. . .एक बड़ा कमरा था जिसमें मेरे पति रामवीर सिंह रहते थे। पीछे एक तरफ गली थी। गली से अंदर आने के लिए दरवाज़ा था। उसके बराबर बाथरूम था। फिर एक टीन की छत वाला बरामदा था जहां सूखी लकड़ियां, फव्वे, फावड़ा, रस्सी और न जाने क्या-क्या रखा रहता था। यहीं नमिता अपनी साइकिल खड़ी करती थी। नमिता हमारी ननद थी। वह कामर्स में एम.ए. कर रही थी।

बड़े कमरे के सामने बरामदा था। फिर मिली हुई दो कोठरी जैसे कमरे थे। एक में सामान भरा रहता था, दूसरी में नमिता और माताजी मतलब हमारी सासजी रहते थे। बायीं तरफ आंगन था। जहां मोटे तार की दो अलगनियां बंधी थी। आंगन के एक कोने से सीढ़ियां ऊपर जाती थीं। यहां हमारे जेठ जी डॉ. आर.एन. सिंह और उनकी पत्नी डॉ. तुलसी सिंह रहते थे। इन लोगों ने अपने हिस्से में गमलों में तरह-तरह के पौधे लगा रखे थे। बेलें चढ़ाई हुई थी। एक भफूला भी लगा रखा था। उनके कमरे में डबलबेड, सोफासेट, टी.वी. वगै़रा सब था। जेठ जी यूनीवर्सिटी में पढ़ाते थे। जिठानीजी नगरपालिका बालिका महाविद्यालय में पढ़ाती थी। उनका बेटा रोहित किसी इंग्लिश स्कूल में जाता था। ये दोनों अपने बेटे से हमेशा अंग्रेज़ी में बात करते थे।

सबका खाना नीचे ही पकता था। मेरा एक काम यह भी था कि मैं ऊपर जेठजी के यहां खाना पहुंचाया करूं। मैं पूरा खाना और बर्तन ऊपर ले जाती थी। जेठ जी प्यार से बात करते थे। कभी कुछ चाहिए होता था तो अच्छी तरह मांगते थे। जैसे कहते थे “बहू अगर नींबू मिल जाता तो मज़ा आ जाता।” हम भागते हुए नीचे जाते थे और नींबू ले आते थे। जिठानी जी प्यार से कुछ नहीं कहती थीं, आर्डर देती थीं, जाके आम की चटनी पीस ला. . .” रोहित हमसे बात नहीं करता था। वह हमेशा मुंह फुलाये रहता था और नख़रे दिखाया करता था।

हम कभी-कभी शाम को जिठानी जी के यहां चित्रहार देखने चले जाते थे। पहली बार हम गये और सोफे पर बैठ गये तो उन्होंने इशारा किया कि वहां दरी पर बैठो। हमें बुरा लगा लेकिन हम उठे और दरी पर बैठ गये। जेठजी होते तो शायद जिठानी जी ऐसा न कहती। जेठ जी के बाल आधे काले और आधे सफेद थे। उम्र चालीस के आसपास रही होगी। बहुत अच्छे लगते थे। बहुत मीठा बोलते थे. . .हमें पक्की उम्र के लोग अच्छे लगते हैं. . .पक्की उम्र के लोग अच्छे होते हैं। हमारे ससुर जी के बाल बिल्कुल सफेद थे। चेहरे पर बहुत सी लकीरें थीं। हमेशा कुर्ता पजामा और वास्कट पहनते थे। दुबला-पतला शरीर था। महराजगंज के डिग्री कॉलिज में हिंदी पढ़ाते थे। रहते वहीं थे। महीने में एक बार घर आ जाते थे। जब आते थे तो कुछ न कुछ ज़रूर लाते थे। हमसे अच्छी तरह बात करते थे। एक बार हमने उनसे चक्रवर्ती की गणित की किताब भी मंगवाई थी। दूसरी किताबें भी देते थे। हमारे पढ़ने का भी ध्यान रखते थे। कहते थे कि प्राइवेट बी.ए. तक करा देंगे। जब वे घर आते थे तो हम उनके लिए कढ़ी ज़रूर बनाते थे और उन्हें लहसुन की चटनी बहुत पसंद थी. . .हमारा बड़ा ध्यान रखते थे। एक बार हमारे माथे पर चोट का निशान देख लिया था तो बहुत दुखी हो गये थे. . .

- चोट? हां, रामवीर ने हमें मारा था।. . . पूरे दिन में वह सबसे अच्छा समय हुआ करता था जब दोपहर के समय नमिता दरवाज़े के बाहर से साइकिल की घंटी बजाती थी कि दरवाजा खोल दिया जाये। हम किचन में चाहे जो कर रहे हों, उठकर भागते हुए जाते थे और दरवाज़ा खोल देते थे। नमिता साइकिल अंदर ले आती थी. . .नमिता से हमारी पक्की दोस्ती थी और है. . .एक दिन हमने नमिता से कहा था “हम तुम्हारी साइकिल साफ कर दिया करें?”

“हां. . .हां. . .”, वह समझ नहीं पाई थी।

“बस वैसे ही. . .हमें अच्छा लगता है. . .तुम कॉलिज जाती हो न? हमें बहुत अच्छा लगता है. . .हम तुम्हारी साइकिल साफ कर दिया करेंगे. . .देखना कल से चमकेगी तुम्हारी साइकिल. . .”

हम नमिता की साइकिल साफ करने लगे। वह हमारे लिए गणित

की किताबें ले आती थी। कहती थी तुम्हारा भी अजीब शौक है. . .लड़कियां उपन्यास पढ़ती हैं, पत्रिकाएं पढ़ती हैं और तुम गणित के सवाल हल करती हो।”

हम हंसते थे। भला हम क्या बता सकते थे कि उसमें हमें क्यों मज़ा आता है. . .रामवीर ने एक किताब फाड़ डाली थी. . .उसके पैसे देने पड़े थे. . .फिर नमिता डर गयी थी और किताबें लाना बंद कर दिया था। रामवीर मुझे नमिता से बात करते देख लेते थे तो बहुत नाराज़ होते थे। कहते थे उसके पास न फटका करो. . .कॉजिल-वालिज मुझे पसंद नहीं. . .कॉलिज की लड़कियां तो. . .नमिता बहुत अच्छी थी। मेरे लिए रोती थी. . .चुपचाप मुझे पेन दे देती थी। एक छोटी-सी डायरी दी थी मुझे. . .पर छिपकर. . .मैं यह सब छिपाकर रखती थी. . .अलमारी के कागज़ के नीचे. . .बिल्कुल नीचे. . .।

उसकी आवाज़ मद्धिम होने लगी. . .वाक्य अधूरे छूटने लगे. . . “पाज़” लंबे होने लगे. . .वह धीरे-धीरे सो गयी। रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी. . .सोते में चेहरे अपने प्राकृतिक रूप में आ जाते हैं. . .सब कुछ चेहरों पर सिमट आता है. . .दुख और सुख की छाया. . .अतीत का दुख और भविष्य का भय. . .सब कुछ चेहरे पर नुमाया हो जाता है. . .उसके चेहरे पर शांति थी. . .मैं उसे देखता रहा. . .मेरे लिए उसका जीवन अब भी अविश्वसनीय था. . .

मैं धीरे से उठा। उसका हाथ अपने सीने के ऊपर से उठाया। चश्मा लगाया। आदतवश मोबाइल जेब में रख लिया और काटेज के बाहर आ गया। चारों तरफ पेड़ों का साम्राज्य था और अंधेरा उनसे जूझ रहा था। आसमान पर तारे नहीं थे। कुछ मलगिजी-सी रौशनी थी। सामने झील का पानी चांदी हो गया था। घास पर नमी थी और हवा में थोड़ी सर्दी. . . अचानक मोबाइल बज उठा।

“मैं. . .यहीं हूं. . .बाहर. . .कॉटेज के बाहर. . .”

“अंदर आइये. . .मुझे डर लग रहा है।”

मैं अंदर आया। अनु पानी पी रही थी।

----३२----

जी.टी. रोड पर दोनों तरफ धन के लहलहाते खेत देखकर ऐसा लग रहा था जैसे पता नहीं इन खेतों से कितना पुराना रिश्ता है जो ये ऐसी खुशी दे रहे हैं। इमारतें और आबादियां आनंद से इस तरह विभोर नहीं करते जैसा प्रकृति करती है। वजह साफ है कि प्रकृति का प्रकृति के प्रति आकर्षण है। मनुष्य प्रकृति का एक शाहकार है और प्रकृति की विराटता, सुंदरता और सौम्यता में उसे सार्थकता मिलती है।

“तुम्हें दिल्ली पहुंचने की कोई जल्दी तो नहीं”, मैंने अहमद से कहा।

“मैं तो दिल्ली पहुंचना ही नहीं चाहता”, अहमद दुखी स्वर में बोला।

“अरे ऐसा क्या है?”

“इतमीनान से बताऊंगा. . .तो तुम क्या रात में कहीं ठहरना चाहते हो?”

“यार यहां एक बड़ा शानदार मोटेल है. . .बिल्कुल धान के खेतों के बीचों-बीच. . .सोच रहा हूं वहां चले. . .शाम को बियर पियें. . .कुछ अच्छे से खाने का आर्डर करें. . .और रात में जम के सोयें. . .सुबह-सुबह यानी ट्रैफिक से पहले दिल्ली पहुंच जायें।”

“आइडिया तो बुरा नहीं है। मैं ज़रा फोन किए देता हूं”, उसने मोबाइल निकाला। वह शूजा को फोन करके अपना प्रोग्राम बताने लगा। बातचीत में मुझे अंदाज़ा हुआ कि वह काफी उकताया हुआ है। चाहता है बात जल्दी से जल्दी ख़त्म हो जाये लेकिन उधर से सवालों पर सवाल हो रहे थे।

“तुम कहो तो साजिद से तुम्हारी बता करा दूं”, वह चिढ़कर बोला।

समझने में देर नहीं लगी कि शूजा यह समझ रही है कि अहमद किसी लड़की के साथ रात बिताना चाहता है।

“ठीक है. . .तो कल सुबह आठ बजे तक।”

फोन बंद करके वह बाहर देखने लगा।

“तुम्हारे ऊपर निगाह रखी जाती है?”

“हां यार. . .बड़ी शक्की है शूजा।”

“और तुम बड़े मायूस हो. . .”, मैंने कहा और वह हंसने लगा।

“उसे यार रौशन वाली बात पता लग गयी है।”

“रौशन. . .याद नहीं यूनीवर्सिटी में. . .”

“अच्छा. . .अच्छा जिससे तुम्हारा बड़ा जबरदस्त इश्क चला था और फिर उसकी शादी किसी डिप्लोमैट के साथ हो गयी थी. . .”

“हां वही।”

“तो क्या हुआ. . .यार बिल्कुल अचानक इतने साल बाद पिछले महीने वह “मौर्या शैरेटन” में मिल गयी. . .”

“आहो।”

“कुछ दिन के लिए दिल्ली आयी हुई थी. . .उसके हस्बेण्ड को मास्को में जाकर चार्ज लेना था. . .”

“आजकल तो “एम्बेसडर” होगा।”

“हां है।”

“तो क्या हुआ।”

“यार देखते ही लिपट गयी और रोने लगी. . .बुरी तरह रोने लगी।”

“अच्छा. . .फिर. . .?”

“हम काफी शॉप आये. . .वह लगातार मेरे हाथ पकड़े थी बातें किए जा रही थी. . .दो बार हमारी कॉफी ठण्डी हो गयी. . .उसने सब बताया कि कैसे उसे मजबूर किया गया कि वह शादी कर ले. . .यह भी बताया कि वह मुझे अपना सब कुछ मान चुकी थी. . .उसकी जिंदगी

में किसी और आदमी के लिए कोई जगह नहीं थी. . .लेकिन शादी हो गयी. . .बच्चे हो गये. . .लेकिन वह मुझे ही अपना सब कुछ मानती रही. . .”

“काफी रोमाण्टिक. . .”

“सुनो यार. . .तुम सबको अपने चश्मे से क्यों देखते हो?” वह झल्लाकर बोला।

“सॉरी. . .बताओ।”

“रौशन ने कहा कि मैं रात उसके कमरे आऊं. . .वह उस रिश्ते को मुकम्मिल करना चाहती है जिसे उसने जिंदगी भर माना है. . .और आज भी मान रही है. . .मैं तैयार हो गया. . .अब सवाल ये था कि शूजा को क्या बताऊंगा. . .वह साथ रहती है. . .नहीं भी रहती तो मेरे हर लम्हे की खबर रखती है. . .उन लोगों से बहाना बनाना बड़ा मुश्किल होता है जो आपको बहुत अच्छी तरह जानते हैं. . .ख़ैर मैंने बहाना ये बनाया कि लखनऊ से ज़माने का कोई बहुत पुराना और अज़ीज़ दोस्त न्यूयॉर्क से आ रहा है और मैं उसे लेने एयरपोर्ट जा रहा हूं।”

“झूठ तो बड़ा “सॉलिड” बोला”। मैंने कहा।

“नहीं यार. . .तुम शूजा को नहीं जानते. . .उसने इंटरनेशनल एयरपोर्ट फोन करके पता लगा लिया कि न्यूयॉर्क से कोई “लाइट दो बजे रात को नहीं. . .मुझे मोबाइल पर फोन किया। मैं रौशन के साथ कमरे में था और मोबाइल ऑफ था। शूजा लगातार फोन करती रही। रातभर फोन किए और मोबाइल बंद रहा।”

“फिर क्या हुआ।”

“उसने पुलिस को मेरी गाड़ी का नंबर दे दिया. . .पता चल गया कि मौर्या शेरेटन की पार्किंग में गाड़ी खड़ी है।”

“अरे बाप रे बाप. . .इतनी धाकड़ है।”

“सुबह जब घर पहुंचा था वहां शूजा मौजूद थी. . .मुझसे पूछने लगी. . .यार मैंने सब कुछ सच-सच बता दिया. . . क्या करता।”

“हां, ये सही किया।”

“ये भी कहा कि ये एक बिल्कुल “स्पेशल केस” था. . .ऐसा

नहीं है कि अय्याशी कर रहा था।”

“फिर?”

“फिर क्या. . .अभी जब मैंने कहा कि कल सुबह आऊंगा तो शक करने लगी. . .तब ही मैंने कहा कि साजिद से बात करा दूं?”

“यार ये बताओ. . .ये बैठे बिठाये शूजा तुम्हारी अम्मां कैसे बन गयी?”

“मैं भी यही सोचता हूं. . .और यार अब उससे पीछा छुड़ाना ही पड़ेगा।”

“हां तुम उस्ताद आदमी हो कर लोगे।”

वह हंसने लगा।

“रौशन का क्या हुआ?”

“वह अगले दिन चली गयी. . .मास्को में होगी।”

“क्या कह रही थी।”

“यार ये औरतें भी अजीब होती हैं।”

“क्यों?”

“कह रही थी. . .अब तुम चाहे मिलो या न मिलो. . .मुझे कोई अफसोस नहीं होगा. . .मैं चाहती थी कि उस आदमी के साथ पूरे रिश्ते बनें जिससे और सिर्फ जिससे मैंने प्यार किया है. . .तो रिश्ता बन गया है. . .मुझे न तो शर्म है, न अफसोस है. . .काश मैं ये पूरी दुनिया को बता सकती।”

“हां मामला तो अजीब है।”

“दो बच्चे हैं उसके। लड़की लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में है. . .लड़का ऑक्सफोर्ड में है।”

“तुम उससे फिर मिलना चाहते हो?”

“कह नहीं सकता यार”, अहमद बोला।

एक बियर पी लेने के बाद अहमद अपनी गाँठें खोलने लगा। उसने बताया कि शूजा ने पूरी तरह उस पर अपना कब्जा जमा रखा है। उसका पूरा प्रोग्राम शूजा तय करती है। हफ्ते के हर दिन का प्रोग्राम पहले से बना रहता है। बस उसी पर अमल करना पड़ता है। जैसे इतवार के दिन सुबह

“फेस मसाज एक्सपर्ट” आती है। एक कमरे में फर्श पर बिछी चटाइयां पर शूजा और अहमद लेट जाते हैं। मसाज़ एक्सपर्ट पहले तरह-तरह की क्रीमें, तेल चेहरों पर लगाती है। उसके पास पिंडोल मिट्टी का मोटा घोल चेहरे पर पोता जाता है। पहले चेहरे पर सफेद मलमल का रुमाल डाला जाता है जिसमें आंखों और नाक के आकार के छेद कटे होते हैं। इस कपड़े पर पिंडोल मिट्टी का घोल चिपकाया जाता है। इस बीच कमरे में रविशंकर का सितार बजता रहता है। घोल चेहरे पर लगाकर लड़की काफी पीने किचन में चली जाती है। तीस मिनट के बाद वह आती है और धीरे-धीरे कपड़ा हटाती है जिससे मिट्टी की परत भी हट जाती है। उसके बाद जैस्मीन के तेल से चेहरे की मसाज करती है। दोनों सोना बाथ लेते हैं और उसके बाद “ब्रंच” करते हैं। ब्रंच का मीनू पहले से ही तय रहता है। शूजा करती है पिंडोल मिट्टी वाली मसाज से चेहरे की ताज़गी बनी रहती है और झुर्रियां नहीं पड़ती है। इतवार की शाम को दोनों स्वीमिंग करने जाते हैं। रात का खाना मौर्या में खाते हैं और इस डिनर में शूजा अक्सर किसी वी.वी.आई.पी. को बुला लेती है।

हफ्ते में तीन बार बॉडी मसाज करने के लिए एक “फीज़ियोथेरेपिस्ट” भी आता है। पच्चीस-छब्बीस साल के खूबसूरत से इस लड़के को शूजा बहुत पसंद करती है। टिंकू पहले शूजा की मसाज करता है। शूजा अपना कमरा अंदर से बंद कर लेती है ओर कोई डेढ़ घण्टे तक मसाज सेशन चलता रहता है। उसके बाद नहाती है और टिंकू अहमद की मसाज करता है। उसके मसाज का तरीका वैज्ञानिक है, उसने कोई कोर्स किया है।

इसी तरह हफ्ते में चार बार लाइट एक्सरसाइज़ कराने के लिए एक मास्टरजी आते हैं। शूजा सितार भी बजती है। सितार उस्ताद बुधवार और शुक्रवार को सुबह आते हैं।

“यार ये सब खर्च तुम्हारी तन्ख्व़ाह से पूरे हो जाते हैं? यहां तो तुम्हें फारेन एलाउंस न मिलता होगा।” मैंने अहमद से पूछा।

“ये सब खर्च शूजा उठाती है। उसके पास बहुत पैसा है. .लेकिन आज तक न उसने बताया है और न मैंने पूछा है कि पैसा कैसे

आया? कहां “इन्वेस्ट” किया है? कितनी आमदनी होती है? वगैरा वगैरा।”

“फिर भी?”

“यार कुछ इंटरनेशनल मार्केटिंग चेन्स के लिए यहां पी.आर. एजेण्ट है शायद. . .पता नहीं. . .इसका भी अंदाज़ा ही लगा सकता हूं।”

“वैसे कहती क्या है कि इतना पैसा उसके पास कहां से आया।”

“कभी-कभी बातचीत में बताती है कि पैसा उसके डैडी का है जो वे उसके नाम कर गये थे. . .कभी कहती है नेहरु प्लेस में बड़ी ऑफिस स्पेस का किराया आता है।”

“तो तुम्हारी चैन से कट रही है”, मैंने कहा।

वह घबराकर बोला “यार क्यों मज़ाक करते हो. . .मैं तो निकलना चाहता हूं इस सब से।”

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“ऐम्स” की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके हम दोनों प्राइवेट वार्ड की तरफ भागे थे। नवीन की सांस फूलने लगी थी। मुझे एहसास हुआ तो मैंने रफ्तार धीमी कर दी। हम दोनों खामोश थे। कुछ बोलना कितना दुखदायी होगा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

वार्ड के बाहर सरयू मिल गया। वह गैलरी के एक कोने में गुमसुम खड़ा था। हमें देखकर आगे आया।

“क्या हाल है?”

“वही हाल है. . .रात में दो बजे भर्ती करया था. . .डॉक्टर पूरी कोशिश में लगे हैं. . .”

हम अंदर आ गये। सामने बेड पर रावत लेटा था। उसकी आंखें बंद थी। चेहरा लाल था। सांस बहुत तेज़ी से आ जा रही थी। सीना धौंकनी की तरह चल रहा था। कुछ नलियां उसकी नाक में लगी थीं। पास उसकी पत्नी बैठी थी। वह जड़ लग रही थी। मुझे रावत की बात याद आ गयी थी। उसने कहा था कि मेरा कोई नहीं है। न भाई, न चाचा, न मामा. . .मैं अकेला हूं. . .बिल्कुल अकेला।

रावत बेहोश है पर उसे देखना मुश्किल है। इतनी तेज़, तकलीफ देह, और भरी सांसें ले रहा है कि मन सिहर उठता है।

“चिंता मत करो भाभी जी. . .सब ठीक हो जायेगा।” नवीन ने रावत की पत्नी से कहा।

वह कुछ नहीं बोली। कुछ लम्हों के लिए हमारी तरफ देखा और फिर शून्य में घूरने लगी।

मेरे पास एक बजे के करीब भाभी का फोन आया था. . .मैं गाड़ी लेकर कोई बीस मिनट में पहुंच गया हूंगा। उस वक्त हालत ज्यादा खराब

थी और लग रहा था पता नहीं कब सांस का यह दबाव . . .यहां इमरजेंसी में ले गये. . .वही मर्ज. . .हाई ब्लड प्रेशर. . .डॉक्टर ने ब्लड प्रेशर लिया तो? ? ? .निकला तब से ट्रीटमेंट चल रहा है. . .पर अभी तक. . कोई सुधर. . .

तीनों खामोश हो गये। अब रावत की आलोचना करने से भी कोई फायदा न था। अब क्या कहा जा सकता है कि ऐसा कर लिया होता तो ये न होता. . .ये हो जाता तो “वो” न होता लेकिन बात करने के कुछ तो चाहिए ही होता है।

“यार मैं तो शुरु से ही कह रहा था कि सरकारी नौकरी इसके बस की बात नहीं।” नवीन ने कहा।

कोई कुछ नहीं बोला।

“भाभी से कहो घर चली जायें. . .हम लोग यहां हैं।” मैंने कहा।

“मैं दस बार कह चुका हूं. . .नहीं जा रही हैं. . न कुछ खा रही हैं, न पी रही हैं. . .मैं तो यार. . .” सरयू ने कहा।

“ऐसा कैसे चलेगा?”

“तुम समझाकर देखो।”

भाभी से कहा तो लगा कि वे सुन ही नहीं रही हैं वे ऐसी स्थिति में पहुंच गयी थीं जहां आदमी जीवित तो होता है पर सारे सेन्स ख़त्म हो जाते हैं।

कई बार कहने पर से बोली -”“नहीं. . .”

कितने हज़ार साल बाद एक घुमंतू कबीले से एक लड़का निकलकर बाहर आता है. . .अपने आपमें कमाल की बात है . . . चमत्कार है. . .क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा समाज कितना यथास्थितिवादी है. . . जो जहां है, वहां रहे. . .आगे बढ़ना, पीछे हटना अपराध है. . .और. . .

हम गैलरी में खड़े थे। भाभी जी ने नाश्ता करने से भी इंकार कर दिया था। पता नहीं उनके मन में कितना भय था।

नवीन मेरी बात काटकर बोला, “मुझे तो लगता है यार संस्कार।”

सरयू ने उसे घूरकर देखा “कैसे संस्कार. . .ये तू क्या उल्टी सीधी बातें करने लगा है बुढ़ापे में।”

“यार, पूरी बात तो सुन लो।”

“सुनाओ।”

“रावत के मध्यवर्गीय संस्कार नहीं थे।”

“अरे भाई जब वह था ही नहीं मध्यवर्ग का तो संस्कार कैसे हो जायेंगे?”

“देखो सच्चाई यह है कि उनके ऑफिस के “पावरफुल लोगों” ने उसे सीधा जानकर उस पर निशाना साध है। वे नहीं चाहते कि कोई “अन्य” ऊंचे पद पर पहुंचे. . .”

“यार ये हर जगह तो नहीं होता।” नवीन बोला।

“ये कौन कहता है, हर जगह होता है।”

रावत पचपन घण्टे मौत से जूझता रहा। अगले दिन सुबह चार बजे उसकी हात बिगड़ने लगी और वह ख़त्म हो गया।

उसकी अर्थी पर मंत्रालय की ओर से फूलों का बुके आया था। उच्च अधिकारी शमशान घाट में मौजूद थे।

भेड़ियों से संघर्ष करते हुए एक बहादुर की मृत्यु हो गयी थी।

रावत के न रहने ने हमें हिला दिया था। यह वैसी मौत नहीं थी जो आसानी से भुलाई जा सकती हो। मैंने लंदन फोन करके नूर को बताया था। हीरा को बताया था। मुझे याद है कि नूर कहा करती थी रावत में कुछ मौलिक है जो उसे दूसरे लोगों से अलग करता है। भावनाओं की वह ताज़गी जो रावत में है, कम ही दिखाई पड़ती है।

हम लोग मंत्री महोदय से मिले थे। शकील से फोन भी कराया था। मंत्री महोदय ने तुरंत आदेश दिया था कि रावत की विधवा को योग्यता के अनुसार कोई उचित पद दिया जाये तथा जिस सरकारी मकान में परिवार रहता है, उससे ने लिया जाये।

मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे

ज़मीं खा गयी आस्मां कैसे कैसे

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पुराने दोस्त पुश्तैनी मकान जैसे होते हैं। उनके कोने खतरे तक देखे हुए होते हैं। अलग-अलग मौसमों में मकान कैसा लगता है? कौन-सी छत बरसात में टपकती है। किस तरफ जाड़ों में धूप आती है। जब पुरवा हवा चलती है तो कौन-सी खिड़की खोलना चाहिए। किस छत की कौन-सी धिन्नयां बदली जायेंगी।

काफी हाउस वाली मण्डली सिमटते-सिमटते सरयू और नवीन की शक्ल़ में मेरे पास बची है। सरयू उन बहुत कम लोगों में हैं जो जानते हैं कि तीस साल पहले मैं कहानियां लिखा करता था।

तो पिछले तीस-पैंतीस साल के गवाह से मिलना हमेशा अच्छा रहता है क्योंकि शब्दों की बचत होती है। आप एक वाक्य बोलते हैं और वे पूरा पैराग्राफ समझ लेते हैं। आप एक शब्द बोलते हैं तो वे उससे वही अर्थ ग्रहण करते हैं जो आप चाहते हैं। उनके साथ आपको सतर्क रहने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि वे आपको अंदर से बाहर तक जानते हैं। यानी दाई से पेट नहीं छिपाया जा सकता. . .और फिर पुराने दोस्तों से मुलाकात अपने आपसे मुलाकात का एक बहाना होती है। इसमें अपनी अनगूंजे भी सुनाई देती हैं।

हालांकि रात ज्यादा हो चुकी थी लेकिन हम अभी ये मानने के लिए तैयार नहीं थे। गुलशन खाना-वाना मेज पर लगाकर जा चुका था। हो सकता है सो गया हो. . .हम दोनों खाने की मेज़ से कुछ उठा-उठाकर खा रहे थे, पी रहे थे और बातचीत कर रहे थे।

कमरे में रौशनी कम थी और दो कोने में जलते लैम्पों के अलावा कोई बल्ब नहीं जल रहा था जिसकी वजह से कमरा बदला हुआ ओर चीजें अजीब तरह की लग रही थीं। उनके आकार बदल गये थे ये वही हो गये थे जो होने चाहिए थे।

“तुम्हें सच बताऊं. . .मैं तो आज भी उसी उधेड़-बुन में लगा हूं. . .”, मैं बोला।

“कैसी उधेड़-बुन?”

“यार, तुम्हें याद होगा हम लोग जब जवान थे तो कुछ करना चाहते थे. . .कुछ ऐसा जो देश को बदल दे. . .लोगों का बदल दे।”

“हां. . .मतलब . . .क्रांति. . .”

“क्रांति तो नहीं हुई. . .और अब लगता है जल्दी होगी भी नहीं और ये भी लगता है कि अगर हुई तो पता नहीं कैसे होगी. . . हम कुछ नहीं जानते. . .कुछ नहीं कह सकते।”

“हां. . .अब तो स्थितियां और भी जटिल हैं”, सरयू बोला।”

“क्या हम ये न सोचे कि इन हालात में हम क्या करें? ऐसा क्या करें जो हमें यह सुख दे कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह अच्छा है, हम वही करना चाहते थे।”

“इससे क्या मतलब है तुम्हारा?”

“देखो हम तुम नौकरी करते हैं। हमें कोई तकलीफ नहीं है, हम तुम इस देश के एक प्रतिशत या उससे भी कम लोगों को जो सुविधाएं मिलती हैं उन्हें भोगते हैं. . .हमसे जो हो सकता. . .मतलब जो अच्छा हो सकता है या जहां तक हमें करने की इजाज़त है हम करते हैं. . . क्या यही पर्याप्त है? क्या इससे हम खुश हैं? यह हम यही करना चाहते थे या हैं?”

“पता नहीं. . .लेकिन ये काफी तो नहीं है. . . हम आपकी भूमिका नहीं निभा रहे हें ये तो मुझे भी लगता है।”

“क्या होनी चाहिए हमारी भूमिका?”

“कोई एक नहीं हो सकती. . .सबकी भूमिकाएं अलग-अलग होंगी।”

“तुम्हारी क्या होगी?”

“मैं. . .मैं. . .सच पूछा तो इस सवाल से आंखें चुराता रहा हूं।” वह सफाई से बोला।

“मैं भी यही करता रहा हूं. . .पर ये सोचो क्या हम ऐसा आगे भी करते रहेंगे और क्या हम ये कर पायेंगे? क्या जब हमारे हाथ पैर जवाब दे जायेंगे तब हमें यह ख्य़ाल नहीं आयेगा? और अगर आया तो उसका क्या असर होगा हमारे ऊपर?”

“तो ये जो कुछ तुम करना चाहते हैं वह इसलिए कि कहीं “गिल्ट” न रह जाये।”

“यह एक बड़ी वजह हो सकती है”, मैं बोला।

“देखो, इस देश में सेकुलर और डेमोक्रेटिक मूल्यों के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा है”, वह बोला।

“जिसके नतीजे हमारे सामने हैं”, मैंने व्यंग्य से कहा “यार अगर ऐसा होता तो फिक्र की क्या बात थी। पर अफसोस कि ऐसा नहीं है. . .खासतौर पर यहां मतलब हिंदी क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए कि हमारे तुम्हारे जैसे ये पचास साल पहले भी मान रहे थे कि इस देश में सेकुलेर और डेमोक्रेटिक मूल्यों के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा है. . .मतलब हम अपने को धोखा देते आये हैं और आज भी दे रहे हैं”, मैं गुस़्से में आ गया।

वह खामोशी से पीता रहा। मेरा गुस्सा उफनता रहा।

ये भी अजीब मज़ाक है कि राष्ट्रीय स्तर पर झूठ बोले जा रहा है, सब सुन रहे हैं, कोई कुछ नहीं कहता. . ..चापलूसी और “साइकोफैन्सी” का ऐसा माहौल बन गया जैसा मध्यकाल में हुआ करता था. . .न तो न्याय बचा है और न व्यवस्था. . .पूरा समाज और देश आत्म-प्रशस्ति में लीन है. . .देश प्रेम, राष्ट्रीय गौरव क्या है? तुम दिल्ली के राजमार्गों पर हर साल होने वाले भोंडे शक्ति और संस्कृति प्रदर्शनों को देश-प्रेम कहोगे पर क्या ग्रामीण क्षेत्रों में अकाल, बाढ़ और बीमारियों से मर जाने वालों की बढ़ती संख्या से कोई रिश्ता नहीं है? क्या उन लोगों का यह देश नहीं है?”

उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, तुम ज्यादा पी गये हो. . .लेकिन जो कुछ कह रहे हो उससे किसे इंकार है. . .अब सवाल ये है कि हमारे तुम्हारे जैसे लोग क्या करें? यार हम लोग तुम बुरा न मानों तो कहूं बुद्धिजीवी हैं. . .हमारा रोल सीमित है. . .हम “एक्टिविस्ट” नहीं हूं. . . हमसे जो हो सकता है वो करते हैं।

“क्या वह काफी है?”

“काफी तो बिल्कुल नहीं है।”

“फिर?”

“क्या कोई “पॉलीटिकल एक्टिविटी” करना चाहते हो? देखो कि

साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति ने हमारे लिए कितनी जगह छोड़ी है? आज तुम क्षेत्र मे जाओ. . .तुम्हें दस वोट नहीं मिलेंगे. . .क्योंकि पूरा समाज धर्म ओर जाति के नाम पर बंट चुका है या बांट दिया गया है, हमारे तुम्हारे लिए वहां अब कुछ नहीं है. . .हर जाति की सेना हैं, गुण्डे हैं, अधिकारी हैं, व्यापारी हैं, माफिया हैं”, वह चुप हो गया।

“चलो खाना खा लो।”

“अब क्या खायेंगे यार. . .कबाब से पेट भर गया है. . .तुम खा लो।”

“नहीं अब तो मैं भी नहीं खाऊंगा. . .दो बज रहा है।”

“अरे दो. . .चलो मुझे घर छोड़ दो”, वह खड़ा होता हुआ बोला।

सरयू को छोड़कर लौटा तो नींद पूरी तरह उड़ चुकी थी। सोचा क्या किया जाये? क्या कर सकता हूं? सोचा चलो बहुत दिनों से लंदन बात नहीं हुई है। हीरा को फोन मिलाया। वह खुश हो गया। उसने बताया कि पिछले ही हफ्त़े मैक्सिको से लौटकर वापस आया है और वहां की राजनीति में “मल्टीनेशनल” की भूमिका पर पेपर लिख रहा है।

उसके अपने कैरियर को लेकर देर तक बातें होती रहीं, वह कह रहा था कि इन गर्मियों में मैं लंदन क्यों नहीं आ जाता। उसने मुझे लुभाने के लिए यह भी कहा कि “योरोप सोशलिस्ट फ़ोरम” का बड़ा प्रोग्राम भी हो रहा है और “ग्रीन पीस” वाले भी एक सप्ताह का कार्यक्रम कर रहे हैं।

(क्रमशः जारी अगले अंकों में...)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. Asgar ji bhee abhijat ho gaye hain,lokpriya sanskriti toh jaise inhe choo jayegi toh ,mano ye achoot ho jayenge,,,,,,,,,,,,,,
    mujhe iska khaid hai.....Aam admi ki baat karnein ke liye mr.sudheesh pachauri ji se kuch seekh leni chahiye..........

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रचनाकार: असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 9)
असग़र वजाहत का उपन्यास : गरजत बरसत (किश्त 9)
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