मु. फ़ीरोज़ ख़ान का आलेख : दुर्दशा से लड़ती मुसलमान औरतें

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आलेख दुर्दशा से लड़ती मुसलमान औरतें - मु. फ़ीरोज़ खान नारी परम्पराओं, सिद्धान्तों और नियमों की बेड़ी में बंधी है। विशेषकर मुस्लिम परिवारों...

आलेख

दुर्दशा से लड़ती मुसलमान औरतें

- मु. फ़ीरोज़ खान

नारी परम्पराओं, सिद्धान्तों और नियमों की बेड़ी में बंधी है। विशेषकर मुस्लिम परिवारों में नारी की स्थिति अत्यंत पिछड़ी एवं दयनीय है। बेटी जिसका वजूद जाहिलियत के दौर में बोझ समझा जाता था, इस्लाम में वही बेटी जन्नत हासिल करने का जरिया बन गयी। इस्लाम में माँ के पैरों के नीचे जन्नत है और उसकी नाफरमानी बहुत बड़ा गुनाह है और बहन की शक्ल में उसकी आबरू की खातिर भाई की जान कुर्बान हो सकती है और बीबी की शक्ल में वह मर्द के लिए सबसे कीमती तोहफा है। परन्तु इस सबके बाद वह पुरुष की आश्रिता ही रह गयी। इस्लाम के अधिकांश नियम एवं कानून यद्यपि नारी की सुरक्षा का विचार कर बनाए गए थे यही नहीं बल्कि उनकी दयनीय स्थिति के पीछे कार्यकारी शक्तियों पर पर्याप्त रूप से विचार भी किया गया है और कारणों को स्पष्ट किया गया परन्तु उसका अर्थ बदल गया। प्रश्न उठता है कि यदि शिक्षा की कमी, बेरोजगारी, पर्दा, पिछड़ापन तथा अन्य बहुत-सी कमियाँ भारतीय मुस्लिम समाज में बंटवारे में साठ वर्ष बाद दूर हो गई हैं तो फिर औरत की स्थिति (दशा) एक प्रश्न क्यों बन गई है।

मुसलमान कट्टरपंथियों ने यह भी मान लिया कि 'तुम गरीब औरत को उस पहलू में मर्द के मुकाबले पर लाते हो जिसमें वे कमजोर हैं। इसका अनिवार्य परिणाम यही होगा कि औरत सदा मर्दों से हीन दशा में रहेगी। तुम चाहे कितना भी उपाय कर लो, संभव नहीं होगा कि औरतों में से अरस्तु, इब्नेसिना, कांट, हींगल, शेक्सपियर, सिकन्दर, निपोलियन और तूसी की टक्कर का एक व्यक्ति भी पैदा हो सके।' मौलाना सैय्यद अब्दुल आला मौदूदी 'औरत और प्राकृतिक नियम' में यह लिख कर औरत के अस्तित्व को चुनौती देते समय यह भूल गए कि इन हस्तियों की पहली शिक्षिका माता के रूप में औरत ही थी। इस्लाम की सर्वाधिक सम्माननीया जनाबे फ़ातिमा की अक्लमंदी के हजारों उदाहरण मिलते हैं। इतना ही नहीं आज नारी उन सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता सिद्ध कर चुकी है जिसमें पुरुष अपने आपको दक्ष मानता था। मौलाना मौदूदी का यह कथन कि अरस्तु, कांट, नैपोलियन जैसी हस्तियाँ औरत जात में नहीं हो सकती, मिथ्या सिद्ध होता है। मुसलमानों में नारी को परिवार की परिधि में मर्यादाओं एवं नियमों में बांधकर उसके विकास को रोक दिया गया है, यही कारण है कि मुसलमानों की सोच चार दीवारी में सिमट कर रह गई है। आर्थिक रूप से पुरुष पर आश्रित औरतें घुटन में सांसें ले रही हैं। शिक्षा एवं तकनीकी के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली नारियों में मुसलमान लड़कियों की संख्या मुश्किल से 15 प्रतिशत होगी। आज भी अधिकांश मुसलमान अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं। यही कारण है कि यहाँ स्त्रियों की दशा और भी दयनीय है।

शिक्षित सुसंस्कृत नारी की विडम्बना यह है कि वह इतना पढ़ लिखकर भी पम्परा एवं मर्यादा के मोह से मुक्त नहीं हो सकी है। परिणामस्वरूप उसका निर्णय कभी पिता और कभी पति की पसंद-नापसंद पर निर्भर करता है। ऊँचा पद पाकर भी पति की नापसंदगी पर छोड़ देने वाली लड़कियाँ उस समाज में अब भी हैं। मानसिक पराधीनता के कारण नारी शिक्षित होकर भी सदियों पीछे है। नारी की सर्वाधिक दयनीय दशा वैवाहिक जीवन में देखने को मिलती है, जहाँ वह बहू अथवा पत्नी रूप में शोषित, पीड़ित एवं उपेक्षित दिखाई पड़ती है। अल्लाह ने बार-बार अपने पवित्र ग्रन्थ में कहा है, 'स्त्री पर अत्याचार न करो क्योंकि स्त्रियाँ तुम्हारी प्रतिष्ठा की धरोहर हैं' में विशेषकर ग्रामीण जीवन जी रही नारियों की दशा अत्यधिक दयनीय है।

'काला जल' उपन्यास में शानी ने मुसलमान परिवार में बहू पर होने वाली शब्द बाणों की वर्षा का उल्लेख किया है। 'अपने माँ-बाप के यहाँ से दहेज में एक लौंडी ले आती है और रहती रानी की तरह। घर गिरस्ती में तो काम-धाम चलता ही, और कौन ऐसे धन्ना सेठ की बेटी हो कि घर में नौकर चाकर से काम चलाती थी। हमसे क्या छिपा है घर में उधर फाके मस्त रहते थे, यहाँ आकर चर्बी चढ़ रही है।' नारी की यह समस्या अधिकांश मुस्लिम परिवारों में है। मुस्लिम परिवारों में पत्नी के रूप में नारी अपने असुरक्षित अस्तित्व का बोझ ढोती दिखाई पड़ती है। कारण वैवाहिक जीवन की कमजोर बागडोर जिसका स्वामित्व पुरुष के हाथ में है। (निकाह की गिरह उसके हाथ में है, अलबकर 31) मुसलमान नारियों का घर की दहलीज में ही पैदा होना और दम तोड़ देना उसका अशिक्षित होना तथा आर्थिक रूप से आश्रित होना है। आर्थिक रूप से आश्रित और अपने वैवाहिक जीवन को जो तीन शब्दों पर टिका है, सुरक्षित रखने के लिए सब कुछ सहने को तैयार है। आज मुसलमानों के पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण उस समाज की औरतों का पिछड़ापन ही है। तलाक के वास्तविक अर्थ सही नियमों एवं शर्तों को भली-भाँति समझे बिना ही पुरुष वर्ग ने अपने चातुर्य से अपने माफिक तमाम नियमों को चुनकर उन्हें मान्य बना लिया तथा अपनी शक्ति का प्रयोग करने लगा। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' उपन्यास में श्रमिक मुसलमान परिवारों का चित्रण खींचा है, वहाँ नारी की जो वास्तविक दशा है तथा पुरुष इस्लाम के नियमों का सहारा लेते हुए नारी के प्रति जो मानसिकता रखता है, उसे अभिव्यक्ति प्रदान की है, 'औरत जात की आखिर हैसियत ही क्या है? औरत का इस्तेमाल ही क्या है? कतान फेरे, चूल्हा-हांड़ी करे, साथ में सोये, बच्चे जने और पाँव दबाये। इनमें से किसी काम में कोई हीला हवाली करे तो कानून इस्लाम का पालन करो और बोल दो कि मैं तुम्हें तलाक देता हूँ। तलाक, तलाक, तलाक।'

नारी इस्लाम में दिए गए अपने अधिकारों से अनभिज्ञ है। जहाँ पुरुष की यातनाओं को सहना भी गुनाह माना गया है। परिवार की इज्ज़त, माँ-बाप की इज्ज़त, नैतिकता एवं आदर्शों का भारी भरकम बोझ ढोने वाली नारी अपनी ऑंखें खोलना ही नहीं चाहती और पुरुष प्रधान समाज, गरिमा, प्रतिष्ठा, मर्यादा के लबादे डालकर पुरुष स्वार्थ सिद्ध करने वाले पक्षों का सहारा लेकर उसके पर कतरता रहता है। तलाक के अधिकार का दुरुपयोग पिछड़े मुसलमानों में बड़ी संख्या में देखने को मिलता है। तलाक के अधिकार का प्रयोग करने वाला पुरुष अल्लाह की कही इस बात को क्यों नज़रअंदाज करता है, जहाँ लिखा है कि 'अल्लाह के नजदीक हलाल कार्यों में सबसे अप्रिय कार्य तलाक है।' तलाक के साथ जुड़ी शर्तें यद्यपि अत्यंत कठिन हैं, पर उन शर्तों पर कम पढ़ा-लिखा वर्ग ध्यान नहीं देता और औरत अपने अधिकारों से अनभिज्ञ है। सैयद मौलाना मौदूदी ने 'इस्लाम में पति-पत्नी के अधिकार' में लिखा है। पुरुष को दंड देने के लिए इस्लाम में विधान है कि तीन तलाक के बाद औरत दुबारा शौहर के निकाह में नहीं आ सकती है। जब तक कि किसी और मर्द से उसका निकाह होकर जुदाई न हो जाए। साथ ही दूसरा मर्द उससे शारीरिक सम्बन्ध बनाकर राजी खुशी से उसे तलाक न दे दे। यह दंड पुरुष के लिए उसके अहम् पर प्रहार करने के लिए है। इसका उल्लेख भी 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' उपन्यास में मिलता है। 'कमरून को जब से छोड़ा है परेशान रहता है। जब तक हलाला न हो जाए दुबारा लतीफ के साथ वह नहीं रह सकती। अब तो यही उपाय है कि कमरून का निकाह किसी और से हो जाए और वह एक रात को अपने साथ रखकर उसे तलाक दे दे तब जाकर लतीफ के साथ निकाह हो सकेगा।' परन्तु परोक्ष रूप से देखा जाए तो इसके मध्य पिसती नारी दिखाई पड़ती है जो एक तरफ पति द्वारा दिए गए तलाक का अपमान झेलती है, दूसरी तरफ दूसरे पुरुष के साथ सहवास का दंड। भारतीय समाज में जी रही संवेदनशील नारी अपने पुरुष के प्रति एकनिष्ठ आस्था रखती है। यातनाएँ झेलकर भी उसका प्रेम कम नहीं होता, ऐसे में अपने तलाक देने वाले पति के प्रति यदि उसका प्रेम है और वह वापस उस तक जाना चाहती है तो उसे पर पुरुष को भोगना होगा। 'सात नदियाँ एक समन्दर' उपन्यास में खालिद कहते हैं कि 'इन औरतों की बातें समझ में नहीं आतीं। जुल्म सहेंगी मगर जालिम को जालिम नहीं कहेंगी। जो मूर्ति इनके मन में किसी की बन जाती है वह जिन्दगी भर बनी रहेगी।' नारी स्वतंत्रता का नारा लिखित रूप में कितना ही बुलन्द किया जाता रहे लेकिन भारत में अभी भी किसी हद तक परिवार में नारी की स्थिति मध्य युगीन नारी की सीमा रेखा से बाहर निकल नहीं पायी है। इस्लाम में एक से अधिक विवाह किए जाने के अधिकार का प्रयोग करने वाले पुरुषों का कई स्त्रियों से संबंध देखने को मिलता है और औरतों ने भी इससे समझौता कर लिया है। राही मासूम रज़ा ने 'आधा गाँव' में लिखा है, 'मर्द हैं तो ताक-झांक भी करेंगे, रखनियां भी रखेंगे।' एक से अधिक औरतों के साथ संबंध रखना मर्दानगी समझने वाले पुरुष की दृष्टि इस्लाम की इस शर्त पर क्यों नहीं पड़ती, दूसरा विवाह करने की इजाज़त पहली पत्नी से लेना अनिवार्य है और पहली पत्नी के मान-सम्मान एवं अधिकार में कोई कमी न आये इसका भी ध्यान रखना होगा। औरत के लिए इस्लाम ने जो मर्यादाएँ तथा सीमा निर्धारित की हैं उसको आचरण में रखते हुए भी विकास के पथ पर बढ़ा जा सकता है। शर्मोहया को औरत का आभूषण माना गया है और पर्दे की बात कही गयी है। आवश्यकतानुसार वह अपने अधिकार का प्रयोग करें यही उचित भी है, भावनाओं एवं विचारों पर नियंत्रण ही सबसे प्रतिबंध है जिसे नारी स्वयं पर लागू कर सकती है। मुसलमानों की स्थिति में सुधार लाना आवश्यक है और मुसलमानों की स्थिति में तभी सुधार संभव है जब नारी की दशा में सुधार आएगा। आज अपनी स्थिति में समुचित सुधार की मांग कर रही है मुस्लिम समाज की नारी।

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संपर्क:

डॉ. फ़ीरोज़ अहमद

संपादक वाङमय

ई-3, अब्दुल्ला क्वार्टर्स, अमीर निशा,

अलीगढ़, उप्र भारत - 202001

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रचनाकार: मु. फ़ीरोज़ ख़ान का आलेख : दुर्दशा से लड़ती मुसलमान औरतें
मु. फ़ीरोज़ ख़ान का आलेख : दुर्दशा से लड़ती मुसलमान औरतें
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