केदारनाथ अग्रवाल का आलेख : गीत और कविता

SHARE:

गीत भी कविता की अनेक विधाओं में से एक विधा है। इस विधा में व्यक्त हुई कविता गेय होती है। इसलिए गीत की पहचान उसकी गेयता में निहित होती है। इस...

गीत भी कविता की अनेक विधाओं में से एक विधा है। इस विधा में व्यक्त हुई कविता गेय होती है। इसलिए गीत की पहचान उसकी गेयता में निहित होती है। इसलिए गीत तभी गीत है जब वह गेय हो। इसलिए जो कविता गेय नहीं है वह गीत नहीं है। कविता के गेय होने का मतलब है कि उसमें गान के तत्त्व हैं और वह गायी जा सकती है।

गान के वह तत्त्व, जो कविता को गेयता प्रदान करते हैं, वह उसकी लय में प्रवाहित रहते हैं और लय में प्रवाहित रहना ही उनका अचूक धर्म और आचरण है। इसलिए बिना गान के तत्वों की लय की कविता गीत नहीं हो सकती। गान के वह तत्व-लय में प्रवाहित वह तत्त्व-गीत में सन्नद्व शब्दों की व्यवस्था कायम किये रहते हैं। वह व्यवस्था स्वर-मुखर व्यवस्था होती है। उस स्वर-मुखर व्यवस्था में व्यंजनों के उच्चारणों के रूप (आकार) प्रतिष्ठित रहते हैं।

उच्चारणों के इन्हीं रुपों की संहति लय का नाम पाती है। उस संहति में आदमी की साँस की एक निश्चित लम्बान-चौड़ान और ऊँचान-नीचान होती है। उस संहति में सन्नद्ध शब्दों के अक्षर-अक्षर के बीच का अन्तराल ह्रस्व और दीर्घ स्वरों से भरा रहता है और इसी प्रकार शब्द-शब्द के बीच का अन्तराल भी वैसे ही स्वरों के भराव से भरा रहता है। यदि स्वरों का भराव न हो तो अक्षर-अक्षर के बीच की दूरी तय करना कठिन होगा। ऐसे भराव के अभाव में शब्द-शब्द के बीच की दूरी भी तय करना कठिन होगा। इसलिए गेयता और कुछ नहीं, गीत की गतिमयता है।

गीत की यह गतिमयता जब स्वरों के भराव से एक सुनियोजित क्रम-बद्वता पा लेती हैं तब संगीतात्मक हो जाती है। संगीतात्मक हो जाने का मतलब है कि गीत को उसका सुनियोजित प्रवाह किया जाता है और वह गाया जा सकता है। कोई भी कभी उसे गाये तो उसे उसी प्रवाह से गाना होगा। उस प्रवाह की दिशा निर्धारित दिशा होती है।

निर्धारित दिशा से उच्चारित होकर ही गीत ग्रहणीय होता है और ग्रहण करने वाले पर अपना प्रभाव डालता है। लेकिन गीत मात्र-संगीत की अभिव्यक्ति या इकाई नहीं होता। जो गीत मात्र-संगीत की अभिव्यक्ति या इकाई होता है वह काव्य का गीत नहीं होता। वह तो मात्र ध्वनियों का नियोजित प्रवाह होता है। काव्य के गीत और संगीत के गीत का यह स्पष्ट अन्तर कभी भी अवहेलित करने योग्य नहीं है।

काव्य के गीत में कथ्य का होना अनिवार्य है। यह भी अनिवार्य है कि वह कथ्य शब्द और अर्थ की संश्लिष्ट और संयुक्त इकाई होकर दूसरों के लिए अभिव्यक्तिशील हो जाय। संगीतात्मकता काव्य के गीत की लय को अधिक स्वर-मुखर बनाती है और अपने सूक्ष्म अमूर्तन से कथ्य को अधिक स्पंदनशील कर देती है। यह नहीं, कथ्य को कविता के तत्त्वों के अलावा भी संगीत का एक और आयाम सुलभ हो जाता है।

उस आयाम से कविता का कथ्य गीत के रूप में ढल जाता है। ऐसे ढलने में-गीत का रूप पाने में-कविता में आकाश तत्त्व अधिक आ जाता है और इस तत्त्व के समाहित होने से वह, साधारण कविता से कहीं अधिक मात्रा में ध्वनिपरक होकर दूर-दूर तक देश-काल और मानव-मस्तिष्क में व्याप्त हो जाती है और अपना चेतन और अचेतन प्रभाव दीर्घकाल तक डाले रहती है। निश्चय ही गीत की गतिमयता का गेयता का संगीतमयता का यह तत्व गीत के कथ्य को व्यंजित करने वाले शब्दों के संघटन से निरुपित और निबद्ध होता है।

गीत के कथ्य को व्यंजित करने वाले शब्द भी उसकी गतिमयता-गेयता-संगीतमयता के तत्व से संघबद्व होने के लिए विवश होते हैं और समर्पित होते हैं और तब कहीं वह संघटन का कृतिरूप पाते हैं। मतलब यह कि गीत का कथ्य तत्त्व और गेय तत्त्व एक-दूसरे के नियामक और निर्धारक होते हैं। उनमें एक-दूसरे के प्रति प्रगाढ़ आत्मीयता होती है।

एक के बिना दूसरा जी नहीं सकता, पूरा विकास नहीं पा सकता। एक का पर्यवसान दूसरे का पर्यवसान होता है। इसलिए गीत के गेय-तत्त्व की, गीत से अलग, उसके कथ्य से अलग, व्याख्या करना मूलभूत भूल होगी। वैसे ही गीत के कथ्य-तत्व की, गीत से अलग, उसकी गेयता से अलग, व्याख्या करना मूलभूत भूल होगी। उन दोनों तत्वों का आकलन उनके संयुक्त और संपुष्ट रूप में ही करना होगा। गीत अपने जिस रूप और अर्थ में आज गीत स्वीकार किया जाता है अपने उस रूप औऱ अर्थ में वह पहले स्वीकार नहीं किया जाता था।

कारण यह था कि पहले कभी वह सम्भावनाएँ उत्पन्न नहीं हुई थीं जो सम्भावनाएँ आज उत्पन्न हो चुकी हैं और गीत को अपने अनुरूप गढ़ रही हैं। गीत भी अपने रूप और अर्थ के लिए उतना ही परिवेश पर निर्भर होता है जितना आदमी और आदमी के कर्म और भाव और विचार।

इतिहास की युगीन प्रवृत्तियाँ आदमी के युग-बोध को और उसकी कला-क्षमता को अधिक-से-अधिक प्रभावित करती हैं। गीतकार का व्यक्तित्व अपने युग के इतिहास की सीमाओं में बनता है। यदि गीतकार सशक्त और समर्थ हुआ तो उसका व्यक्तित्व भी अपने युग के इतिहास को बनाता है। वैसे, साधारणतया, वस्तु-स्थिति यही रहती है कि गीतकार अपने युग से प्रभावित रहा करता है और जो गीत वह देता है अपने युगबोध के अनुरूप ही देता है।

गीत के कथ्य और शिल्प दोनों ही युगबोध को ही रुपायित किये रहते हैं। पहले, यानी बहुत पहले, हिन्दी में कविता ही गायी जाती थी। वह कविता, चाहे मात्रिक हो या वर्णिक, इसका कोई असर उसके गाये जाने में नहीं पड़ता था। उसे संगीतज्ञ गाते थे। साधारणजन भी उसे अपनी क्षमता के अनुसार गाने की तरह गुनगुना लेते थे। वाद्ययंत्रों के साथ भी वह गायी जाती थी।

तब इस बात का भी ध्यान नहीं रक्खा जाता था कि गेय कविता को वर्णना-त्मक या तथ्यपरक न होना चाहिए बल्कि उसे आन्तरिक मनोवेगों की अभिव्यक्ति करना चाहिए। गायक का कंठ उन कविताओं को अपने संगीत से बाँध लेता था। वह ताल और तान से निबद्ध होकर गेयता का तत्त्व पा लेती थी। जब वह गायी नहीं जाती थी तब वह मात्र छंद रहती थी। कवित्त और सवैये भी बड़ी खूबी से संगीतपरकता पा लिया करते थे। तब छंदों से अलग गीत का अपना निजी अस्तित्व न था। यह भी होता था कि संगीत की रागिनियों में-रागों में कुछेक कुशल गायक कुछ कथ्य समाहित कर लेते थे और उन्हें ही संगीत की कृति के रूप में उनके अनुयायी शिष्य गा-बजा लेते थे।

तब भी लोक गीत थे। परन्तु वह काव्य के अन्तर्गत नहीं आते थे। काव्य की मान्यताएँ उनके प्रतिकूल थीं। अतएव वह लोक गीत जनसाधारण के दैनिक जीवन के विशेष अवसरों से जुड़ कर कंठ-कंठ से निकलते रहे और लोकमानस का मनोरंजन करते रहे। उन्हें तब तक साहित्यिक प्रतिष्ठा नहीं मिली थी। कविगण काव्य के सिद्धान्तों के आधार पर ही कविताओं का सृजन करते रहे। वह लोग लोक धुनें लेकर कविता की रचना करने में संलग्न नहीं हुए। वह कविताएँ देवी-देवताओं से सम्बन्धित हों या निराकार या साकार ब्रह्म से हों अथवा प्रेमी ईश्वर और प्रेयसी आत्मा से हों सब-की-सब काव्य की मूल मान्यताओं के मानदण्ड पर ही आधारित होती थीं।

"आल्हा" भी ढोलक और मृदंग के साथ गाँव-गाँव में गाया जाता था। वीर रस के निरूपण में छंद-के-छंद शब्दों की ध्वनियों से झनझना उठते थे। तेग-तलवार की चाल और चमक बिजली को भी मात करने में सक्षम होती थी। सेनाओं की उमड़-घुमड़ को और उनके वेग और बल को घनघोर बरसात के बादलों की घटा का घमंड भी नहीं लजा सकता था। वीर योद्धाओं की मूर्तियाँ ऐसी गढ़ी जाती थीं कि स्वयं वीर की मूर्ति तक तुच्छ जान पड़ने लगती थी।

युद्ध-स्थल के वर्णनों में भी अपरिमित काव्य-कौशल का परिचय दिया जाता था। वीर रस के कथ्य में यही सब व्यंजित होता था। उसके कथ्य के छंदों को चारण कवि और संगीतज्ञ गा-बजा कर गीत-जैसा अस्तित्व दे देते थे। रसराज श्रृंगार को प्रतिष्ठित किये छंद भी अपने कथ्य में अनेकानेक नायक-नायिकाओं की मुद्राओं को ही समाहित किये रहते थे। नायक लोभी, लालची, रूपासक्त, वासना-विलास -भोगी होते थे।

नायिकाएँ काम-कला की सार्थकता सिद्ध करने में अपने सम्पूर्ण आंगिक, वाचिक और मानसिक अस्तित्व का खुला कामुक प्रदर्शन करती थीं। छंद-के-छंद उनके देह-सौन्दर्य की यष्टि बन जाते थे। प्रकृति उनके रमण करने के लिए ही उद्दीपित दिखायी जाती थी। यह छंद भी बड़े चाव से सुमधुर कंठों से राजदरबारों में गाये-बजाये जाते थे।

इन छंदों के अतिरिक्त भी सूर, तुलसी, मीराँ और कबीर के पद भी गाये-बजाये जाते थे। वह सब अब भी लोक जीवन में, गाँव-गाँव में, मधुर स्वर से गूँजते पाये जाते हैं। इन पदों को ही आज के गीत का पूर्वज कहना न्यायसंगत होगा। वे ही तब गेय तत्वों को पाकर हवा में तैरते पाये जाते थे और वे ही नर-नारी (दोनों) के कंठों से निकल कर मन की व्यथा-मन का अनुराग-मन की दीनता-आत्मसमर्पण-आराध्य के प्रति आराधना-आदि सूक्ष्म मनो-भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे। वे भक्त को भगवान् से जोड़ते थे। वे दीन-हीन को जीने की आस्था देते थे। राम, रहीम और कृष्ण उनमें ही निरूपित हो-कर जन-मानस के ह्रदयेश्वर बन गये। उनकी लीलाओं से वलयित वे पद केवल गेय होकर ही देश-काल में गूँजते रहे।

पद वास्तव में, उस युग के गीत हैं। गेयता में उनकी बराबरी छंदों में लिखी और गायी गयी कविताएँ नहीं कर सकीं-नहीं कर सकीं। काव्य की पारम्परिक रुढ़ियाँ पदों में भी आयीं पर उस सीमा तक नहीं जिस सीमा तक वे और कविताओं में आयीं। पद फिर भी सहजता, स्वाभाविकता और निश्छलता से छलकते रहे। इसीलिए वे जनता के गले लगे रहे और आज भी गेय बने गुनगुनाये जाते हैं। गेय पद अगेय छंद-बद्ध कविताओं से कोई बातों में भिन्न और विशिष्ट होते थे। गेय पदों की बुनावट अन्य कविताओं की बुनावट से गझिन कम और आत्मपरक अधिक होती थी। गझिन कम की बुनावट के पद साधारणतया आदमी की सहज स्वाभाविक प्रवृत्तियों के पद होते थे। उनके बनाने वाले काव्य के सिद्धान्तों के आचार्य नहीं होते थे।

पदों के रचयिता जीवन भोगते थे और अपने भोगे हुए जीवन को जीवन की वाणी में व्यक्ति करते थे। इसके विपरीत काव्य की रीतियों के अनुगामी कवि जीवन को उन रीतियों के सन्दर्भ में देखते, सुनते, समझते और पकड़ते थे और उन्हीं के सन्दर्भ में उसे विशिष्ट बना कर कविता का रूप देते थे। इस वजह से गेय पदों में जीवन की झाँकी कुछ और ही होती थी और अगेय छंद-बद्ध कविताओं में कुछ और ही होती थी।

काव्य की रीतियाँ, काव्य के सिद्धान्त, काव्य के अलंकरण, काव्य के संस्कार-सब कुछ आदमी की सहज वृत्तियों की प्राकृत स्थिति में मूलभूत परिवर्तन कर देते थे। परिणाम यह होता था कि आदमी की सहज वृत्तियाँ व्यक्त होकर आदमी की सहज बोधगम्यता से दूर चली जाती थीं और विशिष्ट व्यक्तियों की सम्प्रेषणीयता पा लेती थीं। तभी अगेय छंद-बद्ध कविताओं की सम्प्रेषणीयता गुणज्ञ सामाजिकों की रुचि को तुष्ट करती थी। पदों की सम्प्रेषणीयता जन-साधारण की रुचि को पुष्ट करती थी।

जब राज-दरबार में काव्य-गोष्ठी होती थी तब वाणी का वैभव-विलास राजा की राजकीय मनोवृत्तियों की पुष्टि के लिये होता था। उस राज-दरवार का सम्पर्क जनता के जीवन से नहीं होता था। अतएव पदों का वाचन और पाठन राज-दरबारों में नहीं होता था। अतएव पदों के नायकों को राज-दरबार का कवि नहीं बनाया जाता था। जनता ही-राज-दरवर से बाहर-उन पदों के गायकों को आश्रय देती थी और उसी में रह कर उसी के सुख-दु:ख में वह डूबे रहते थे। हाँ, मंदिरों के प्रांगणों में भी उन्हें अपने पद गाने का सुअवसर सुलभ होता था।

जब पद-गायक किसी देवस्थान से सम्बद्ध हो जाता था तब उसके पदों में धर्म-विशेष की छाप भी पड़ने लगती थी और तब ऐसी स्थित में उसके पदों से मानवीय प्राकृत सहजता विलुप्त होने लगती थी। चाहे राज-दरवार हो-चाहे देवस्थान-वहाँ पहुँच कर कवि सहज स्वाभाविक वृत्तियों का कवि नहीं रह जाता था। इसीलिए गेय पदों में भी बहुत-से ऐसे पद मिलेंगे जो धर्म के संस्कारों से संस्कृत हो चुके हैं और अपने मूल-गेय स्वरूप से दूर पहुँच चुके हैं।

धार्मिकता पदों की गेयता को धार्मिक संस्थानों की अपनी मान्यताओं से दूसरे प्रकार की गेयता में बदलती देखी गयी है। उस बदली गेयता में जो मानवीय प्रवृत्तियाँ व्यंजित होती देखी गयी हैं वह उदात्त भले ही रही हों-दैवी भले हों-मानव-मानव के जागतिक सम्बन्धों की व्यंजक होती कदापि नहीं देखी गयीं। उस गेयता से मानव से मानव जुड़ता नहीं देखा गया। उस गेयता का प्रमुख लक्ष्य रहा है कि वह धर्म की ध्वनि से, मानव को मानव की हैसियत से नहीं, बल्कि एक धार्मिक को दूसरे धार्मिक से जोड़ती रहे। यही उसने किया भी। उस किये का परिणाम यह हुआ कि गेय पदों के विभिन्न धार्मिक गेय स्वरूप हुए।

कभी-कभी यह भी हुआ कि भिन्न धर्मावलम्बियों के गेय पद एक-दूसरों से टकराये और त्याज्य भी समझे गये। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि आदमी जीवन जीने के बजाय धर्म जीने लगा था। ऐसी दशा में पदों के सहज स्वर का धार्मिक स्वर हो जाना स्वाभाविक था। कुछ हद तक तो ऐसे होने की विवशता थी। उस विवशता से इनकार नहीं किया जा सकता।

लेकिन जब धार्मिक प्रवृत्तियाँ रूढ़ हो जाती हैं और उनकी रूढ़िवादिता सहज मानव के मन को दबोच लेती हैं। और उस पर भरपूर हावी हो जाती हैं तब इस रूढ़िवादिता से पदों की गेयता में भी भारी अन्तर आ जाता है और यह अन्तर इतना स्पष्ट हो जाता है कि गेय पद भी अगेय कविता की तरह के हो जाते हैं। वह गाये भले ही जायें लेकिन उनकी गेयता सहज स्वाभाविक मानवीय गेयता नहीं होती। काव्य का इतिहास इसे प्रमाणित कर चुका है।

धार्मिक मानव की मानवीयता सहज मानव की मानवीयता से अलग रूप और प्रकार की होती देखी गयी है। तभी तो जो सहज मानवीयता मीराँ और सूर के पदों में गेय होकर व्यक्त हुई है वह अधिक बोधगम्य, सम्प्रेषणीय और संवेदनशील है बजाय उस मानवीयता के जो अन्य धर्मानुयायी कवियों ने अपने धार्मिक पदों में गेय बना कर प्रस्तुत की थी।

मतलब यह कि पदों की गेयता वास्तव में सहज मानव के जागतिक सम्बन्धों की गेयता होती है जो आगे चल कर आज के युग के गीत की गेयता में परिणत हो जाती है।

 -----

(टीडीआईएल के हिन्दी पाठ कार्पोरा से साभार)

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. इस महत्वपूर्ण लेख को यहां प्रस्तुत करने का धन्यवाद रवि जी.

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी9:08 pm

    केदार जी का लेख प्रकाशित कर आपने बहुत अच्छा काम किया है. धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: केदारनाथ अग्रवाल का आलेख : गीत और कविता
केदारनाथ अग्रवाल का आलेख : गीत और कविता
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2008/06/blog-post_30.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2008/06/blog-post_30.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content