महेन्द्र भटनागर का कविता संग्रह – (7)

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  (पिछले अंक से जारी…)   (26) आज देखा है आज देखा है मनुज को ज़िन्दगी से जूझते, संघर्ष करते ! वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़ ...

mahendra bhatnagar1

 

(पिछले अंक से जारी…)

 

(26) आज देखा है

आज देखा है

मनुज को ज़िन्दगी से जूझते,

संघर्ष करते !

वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़

कानों ने सुनी है,

और पैरों को हुआ महसूस

धरती हिल रही है !

आज मन भी

दे रहा निश्चय गवाही

दु:ख-पूर्णा-रात काली

अब क्षितिज पर गिर रही है !

भूमि जननी को हुआ कुछ भास

उसकी आस का संसार

नूतन अंकुरों का

उग रहा अंबार !

सूखे वृक्ष के आ पास

बहती वायु कुछ रुक

कह रही संदेश ऐसा

जो नया,

बिलकुल नया है !

सुन जिसे खग डाल का

अब चोंच अपनी खोलने को

हो रहा आतुर,

प्रफुल्लित,

फड़फड़ाकर कर पर थकित !

छतनार यह काला धुआँ

अब दीखता हलका

नहीं गाढ़ा अंधेरा है

वही कल का !

1951

(27) मुझे भरोसा है

मैं क़ैद पड़ा हूँ आज

अंधेरी दीवारों में;

दीवारें -

जिनमें कहते हैं

रहती क़ैद हवा है,

रहता क़ैद प्रकाश !

जहाँ कि केवल फैला

सन्नाटे का राज !

पर, मैं तो अनुभव करता हूँ

बेरोक हवा का,

आँखों से देखा करता हूँ

लक्ष-लक्ष ज्योतिर्मय-पिण्डों को,

मुझको तो

खूब सुनायी देती हैं

मेरे साथी मनुजों के

चलते, बढ़ते, लड़ते

क़दमों की आवाज़ !

मेरे साथी मनुजों के

अभियानों के गानों की

अभियानों के बाजों की

आवाज़ !

मुझे भरोसा है

मेरे साथी आकर

कारा के ताले तोड़ेंगे,

जन-द्रोही सत्ता का

ऊँचा गर्वीला मस्तक फोड़ेंगे !

इंसान नहीं फिर कुचला जाएगा,

इंसान नहीं फिर

इच्छाओं का खेल बनाया जाएगा !

1951

(28) मुख को छिपाती रही

धुआँ ही धुआँ है,

नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अंगीठी जली हैं

व चूल्हे जले हैं,

विहग

बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !

निकट खाँसती है

छिपी एक नारी

मृदुल भव्य लगती कभी थी,

बनी थी

किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब

धुएँ में सराबोर है !

और मुख की ललाई

अंधेरी-अंधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से

न कोई शिकायत रही अब,

व जिसके लिए

है न दुनिया

भरी स्वप्न मधु से

लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से

धुएँ में नहाती रही है !

कि गंगा व यमुना-सा

आँसू का दरिया

बहाती रही है !

फटे जीर्ण दामन में

मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है

पूरब से आशा का सूरज,

कि आती है गाती किरन,

मिटेगी यह निश्चय ही

दुख की शिकन !

1951

(29) नया समाज

करवटें बदल रहा समाज,

आज आ रहा है लोकराज !

ध्वस्त सर्व जीर्ण-शीर्ण साज़,

धूल चूमते अनेक ताज !

आ रही मनुष्यता नवीन,

दानवी प्रवृत्तियाँ विलीन !

अंधकार हो रहा है दूर;

खंड-खंड और चूर-चूर !

रश्मियों ने भर दिया प्रकाश,

ज़िन्दगी को मिल गयी है आश।

चल पड़ा है कारवाँ सप्राण

शक्तिवान, संगठित, महान !

रेत-सा यह उड़ रहा विरोध,

मार्ग हो रहा सरल सुबोध;

बढ़ रहा प्रबल प्रगति-प्रसार,

बिजलियों सदृश चमक अपार !

देख काल दब गया विशाल,

आग जल उठी है लाल-लाल !

उठ रहा नया गरज पहाड़,

मध्य जो वह खा गया पछाड़ !

पिस गया गला-सड़ा पुराण,

बन रहा नवीन प्राणवान !

गूँजता विहान-नव्य-गान;

मुक्त औ' विरामहीन तान !

1949

(30) युगान्तर

आँधी उठी है समुन्दर किनारे

बढ़ती सतत कुछ न सोचे-विचारे,

लहरें उमड़तीं बिना शक्ति हारे

रफ्तार यह तो समय की !

मानव निकलते चले आ रहे हैं,

उन्मत्त हो गीत नव गा रहे हैं,

रंगीन बादल बिखर छा रहे हैं !

झंकार यह तो समय की !

जर्जर इमारत गिरी डगमगाकर,

आमूल विष-वृक्ष गिरता धरा पर,

बहता पिघल पूर्ण प्राचीन पत्थर,

है मार यह तो समय की !

रोड़े बिछे थे हज़ारों डगर में

नौका कभी भी न डोली भँवर में,

बढ़ती गयी व्यक्ति-झंझा समर में

पतवार यह तो समय की !

इंसान लेता नयी आज करवट,

सम्मुख नयन के उठा है नया पट,

गूँजी जगत में युगान्तर की आहट,

ललकार यह तो समय की !

1950

(31) छलना

आज सपनों की

नहीं मैं बात करता हूँ !

चाँद-सी तुमको समझकर

अब न रह-रह कर

विरह में आह भरता हूँ !

नहीं है

रुग्ण मन के

प्यार का उन्माद बाक़ी,

अब न आँखों में सतत

यह झिलमिलाती

तुम्हारे रूप की झाँकी !

कि मैंने आज

जीवित सत्य की

तसवीर देखी है,

जगत की ज़िन्दगी की

एक व्याकुल दर्द की

तसवीर देखी है !

किसी मासूम की उर-वेदना

बन धार आँसू की

धरा पर गिर रही है,

और चारों ओर है जिसके

अंधेरे की घटा,

जा रूठ बैठी है

सबेरे की छटा !

उसको मनाने के लिए अब

मैं हज़ारों गीत गाऊँगा,

अंधेरे को हटाने के लिए

नव ज्योति प्राणों में सजाऊँगा !

न जब तक

सृष्टि के प्रत्येक उपवन में

बसन्ती प्यार छाएगा,

न जब तक

मुसकराहट का नया साम्राज्य

धरती पर उतर कर जगमगाएगा,

कि तब तक

पास आने तक न दूँगा

याद जीवन में तुम्हारी !

क्योंकि तुम

कर्तव्य से संसार का मुख मोड़ देती हो !

हज़ारों के

सरल शुभ-भावनाओं से भरे उर तोड़ देती हो !

1952

(32) मत कहो

आज भय की बात मुझसे मत कहो,

आज बहकी बात मुझसे मत कहो !

प्राण में तूफ़ान-से अरमान हैं,

कंठ में नव-मुक्ति के नव-गान हैं !

ज्वार तन में स्वस्थ यौवन का बहा,

नष्ट हों बंधन, सबल उर ने कहा !

है तरुण की साधना, गतिरोध क्या ?

है तरुण की चेतना, अवरोध क्या ?

द्वंद्व भीषण, है चुनौती सामने,

बीज भावी क्रान्ति बोती सामने !

बद्ध प्रतिपग पर समस्त समाज है;

आग में तपना सभी को आज है !

आज जन-जन को शिथिलता छोड़ना,

है नहीं कर्तव्य से मुख मोड़ना !

इस लगन की अग्नि से जर्जर जले

रक्त की प्रति बूँद की सौगन्ध ले

प्राण का उत्सर्ग करना है तुम्हें,

विश्व भर में प्यार भरना है तुम्हें !

धर्म मानव का बसाना है तुम्हें,

कर्म जीवन का दिखाना है तुम्हें !

मर्म प्राणों का बताना है तुम्हें,

ज्योति से निज, तम मिटाना है तुम्हें !

विश्व नव-संस्कृति प्रगति पर बढ़ चला,

भ्रष्ट जीवन मिट समय के संग गला !

काल की गति, भाग्य का दर्शन मरण,

आज हैं प्रत्येक स्वर के नव-चरण !

जीर्णता पर हँस रही है नव्यता,

खिल रहीं कलियाँ भ्रमर को मधु बता !

ध्वंस के अंतिम विजन-पथ पर लहर,

सृष्टि के आरम्भ के जाग्रत-प्रहर !

जागरण है, जागते ही तुम रहो,

नींद में खोये हुए अब मत बहो !

आज भय की बात मुझसे मत कहो,

आज बहकी बात मुझसे मत कहो !

1950

(33) नया युग

ओ ! मनुजता की

करुण, निस्पंद बुझती ज्योति

मेरे स्नेह से भर

प्रज्ज्वलित हो जा !

निविड़-तम-आवरण सब

विश्व-व्यापी जागरण में

आ सहज खो जा !

हिमालय-सी

भुजाओं में भरी है शक्ति

जन-जन रोक देंगे आँधियों को,

फेंक देंगे दूर

बढ़ती ज्वार की लहरें !

नयी विकसित

युगों की साधना की फूटती आभा,

नयी पुलकित

युगों की चेतना की जागती आशा !

दलित, नत, भग्न ढूहों से

उठी है आज

नव-निर्माण की दृढ़ प्रेरणा !

धु्र्र्र्र्रव सत्य

होगी कल्पना साकार !

अभिनव वेग से

संसार का कण-कण

नया जीवन, नया यौवन, लहू नूतन,

सुदृढ़तम शक्ति का

संचार पाएगा !

नया युग यह

प्रखर दिनकर सरीखा ही नहीं,

पर, है पहुँच आगे बड़ी इसकी

घने फैले हुए जंगल

भयानक मत्त 'एवर-ग्रीन',

भूतल ठोस के नीचे,

अतल जल के

जहाँ बस है नहीं रवि का

वहाँ तक है

नये युग के विचारों का

अथक संग्राम !

कैसे बच सकोगे

ओ पलायन के पुजारी !

आज अपनी बुद्धि की हर गाँठ को

लो खोल,

बढ़कर आँक लो

नूतन सजग युग का समझकर मोल !

1950

(34) पदचाप

पड़ रहे नूतन क़दम

फ़ौलाद-से दृढ़,

और छोटी पड़ रही छाया

नये युग आदमी की आज !

धरती सुन रही पदचाप

अभिनव ज़िन्दगी की !

बज रही झंकार,

मुखरित हो रहा संसार,

नव-नव शक्ति का संचार !

परिवर्तन !

बदलती एक के उपरान्त

सुन्दरतर

जगत् की प्रति निमिष तसवीर,

घटती जा रही है पीर,

जागी आदमी की आज तो

सोयी हुई तक़दीर !

रुक गया

मेरे जिगर का दर्द,

बरसों का उमड़ता

नैन का यह नीर !

गीले नेत्र करुणा-पूर्ण

तुझको देखते विश्वास से दृढ़तर,

यही आशा लगाये हैं

कि जब यह उठ रहा परदा पुराना

तब नया ही दृश्य आएगा,

कि पहले से कहीं खुशहाल

दुनिया को दिखाएगा !

1949

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: महेन्द्र भटनागर का कविता संग्रह – (7)
महेन्द्र भटनागर का कविता संग्रह – (7)
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