शिव अग्रवाल का आलेख : उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनों को तलाशती आंखे

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  उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनों को तलाशती आँखें…   -शिव अग्रवाल   उम्र के आखिरी पड़ाव पर उन बूढ़ी आंखों में अपनों की तलाश ठहरी हुई सा...

 

उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनों को तलाशती आँखें…

 

-शिव अग्रवाल

 

उम्र के आखिरी पड़ाव पर उन बूढ़ी आंखों में अपनों की तलाश ठहरी हुई साफ नजर आती है। हर आहट पर दरवाजे की तरफ उठने वाली निगाहों में अभी इस आस का दीप टिमटिमा रहा है कि शायद उनके जिगर के किसी टुकड़े को बचपन की कोई भूली-बिसरी याद ताजा हो गई हो और उनसे मिलने चला आया हो। वृद्धाश्रमों में आपस में बातें कर और अखबार पढ़कर ही जीवन के आखिरी पलों को बिता रहे हैं अपनों से तिरस्कृत बुजुर्ग।

आज की भागमभाग जिंदगी में किसी के पास इतना समय नहीं रह गया है कि एक दूसरे की समस्याओं को पास बैठकर सुने लेकिन यह अंतहीन दुखदायी तब हो जाता है, जब ऐसी मुश्किलों से परिवार के बुजुर्गों को दो चार होना पड़ता है। देहरादून तथा हरिद्वार के वृद्धाश्रमों में इसका उदाहरण देखने को मिल जाता है। वर्षों पहले कई बुजुर्गों के परिवार सदस्य उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ गये, लेकिन अब उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। वे दोबारा घर वापस न लौट आएं, इसके लिए समय पर उनकी वृद्धाश्रम की शुल्क की शुल्क की राशि भी भेज देते हैं। बहाना यह होता है कि तबियत खराब होने के कारण बुजुर्ग की देखभाल घर पर नहीं हो सकती है। इसलिए उन्हें वृद्धाश्रम भेजा जाता है, लेकिन तबियत ठीक होने के बाद भी उनकी कोई सुध लेने नहीं आता।

शुरू-शुरू में तो उनको लगता था कि बेटा या परिवार का कोई अन्य सदस्य उन्हें किसी न किसी दिन आकर वृद्धाश्रम से ले जाएगा। इस आस के चलते जब भी वृद्धाश्रम के गेट से आवाज आती है तो बुजुर्गों की आंखे उस और उठ जाती कि शायद कोई उन्हें लेने आया है लेकिन हर मर्तबा उन्हें दुःख के अलावा कुछ नहीं मिलता। एक दिन हमें मौका मिला कुछ बुजुर्गों की बातें जानने का तो उनका तर्क था कि बेटा अब हम अपने ही घर में पराये हो गये हैं। हमारे बच्चे इतने स्वतंत्र हो गये हैं कि वे अब हमें भी अपने से अलग रखना चाहते हैं और आज यही कारण है कि हमें आश्रम में रहकर अपना समय व्यतीत करना पड़ रहा है। मुझे उत्सुकता हुई कि अधिक से अधिक वृद्धों की समस्या जान सकूं तथा गहराई तक इस बात का अध्ययन किया जाए कि वास्तव में इस तिरस्कार का क्या कारण है। मैने देहरादून तथा हरिद्वार के वृद्धाश्रमों में अपनी जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की। मैंने देखा कि देहरादून में मोहिनी रोड स्थित प्रेमधाम वृद्धाश्रम में कुछ ऐसे भी वृद्ध हैं जिनके भरे-पूरे परिवार होने के बावजूद उन्हें वापस अपने घरों में जाने की कोई आस नहीं बची है। इसी वृद्धाश्रम में रहने वाले वृद्ध एन्थोनी परिवार की बात छेड़ने पर बताते हैं कि आगरा में उनका एक बेटा और एक बेटी है। दोनों बच्चों के जन्म के बाद उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। तब से उन्होने ही दोनों बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया। यह कहते-कहते वह उदास हो जाते हैं कि बेटा उन्हें अपने पास नहीं रखना चाहता है। जबकि बेटी अक्सर आकर उनका हाल-चाल अवश्य पूछ जाती है। विशेष बात यह है कि उनका बेटा और बेटी अभी अविवाहित हैं। उसके बावजूद उनके साथ ऐसा हो रहा है, लेकिन फिर भी वह अपने बच्चों को बुरा नहीं कहते हैं।

इसी तरह पत्नी के लकवे के शिकार होने के कारण हरनाम दास मिनोचा भी दस साल से उनके साथ वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। उनका मानना है कि पत्नी के बीमार होने के कारण घर में देखभाल होना मुश्किल था इसलिए वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। काफी कुरेदने पर भी वह अपने परिवार के सदस्यों के व्यवहार को उनके प्रति अच्छा बताते हैं परन्तु उनकी आंखे और चेहरा सारा दुःख बयां कर देती है। वह यह तो मानते हैं कि सामाजिक मूल्यों का बड़ी तेजी से ह्रास हुआ है। घरों में बुजुर्गों की इज्जत घट रही है। यदि ऐसा न हो तो वृद्धाश्रम की कोई जरूरत ही न पड़े। राजपुर रोड़ स्थित यंग वीमैंस क्रिश्चंयस एसोसिएशन; वाई डब्लू सी ए के वृद्धाश्रमों में भी वृद्धों की सेवा की जाती है। लेकिन यहां पर केवल दिन में ही रहने की व्यवस्था है। शाम के समय सभी वृद्ध अपने घरों को चले जाते हैं, लेकिन वहां भी उनका दर्द एक ही है। कोई अपने बेटे के व्यवहार से दुःखी है, तो किसी के घर में कोई इज्जत नहीं करता है। गृहक्लेश से तंग इन वृद्धों को यहां आकर समय बिताना उपयुक्त लगता है इस संस्था में आने वाले वृद्धों की स्थिति वास्तव में विकट है।

सत्तर वर्षीय शकुन्तला देवी कहती हैं कि उनका बेटा उनके साथ नौकरों जैसा बर्ताव करता है। वहीं एक अन्य वृद्धा शांती देवी आंखों में आंसू लिए कहती है कि जबसे उनके पति का स्वर्गवास हुआ उनका बेटा उन्हें नही पूछता, बहू भी खरी-,खोटी सुनाती है। अपनी अलग-अलग घरेलू समस्याओं से कुछ घंटों के लिए ही सही छुटकारा पाने के लिए ये यहां आना पसंद करते हैं। इस संस्थान में कुछ देने के बजाय हर माह इनको खर्चे के लिए पचास रूपये मिलते हैं और वृद्धाश्रम के कर्मचारी इनकी पूरी इज्जत करते हैं।

दूसरी तरफ राजपुर स्थित सीनियर सिटीजन होम कॉम्पलैक्स वेलफेयर सोसायटी में उच्च सेवानिवृत्त बुजुर्ग अपने-अपने कमरे खरीदकर मिल-जुलकर रहते हैं और उनके परिवार के सदस्य उनसे मिलने आते रहते हैं। हरसंभव प्रयास करते हैं परन्तु अतीत की स्मृतियां इनको ऐसा करने से बार-बार रोकती हैं। पंचपुरी में भी कुछ वृद्धाश्रम ऐसे हैं जिनमें वृद्धों को निशुल्क रखा जाता है तथा कुछ ऐसे हैं जिनमें सामर्थ्य है और वो पैसा खर्च कर यहां रहते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमने कभी सोचा है कि जो माता-पिता अपने बच्चों का लालन-पालन बड़े ही प्यार से करते हैं तथा उनकी हर सुविधा को ध्यान में रखते हुए उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाते हैं जहां से उन्हें अपना जीवन नये तरीके से शुरू करना होता है वही माता-पिता स्वयं के घर में अपने बच्चों से दूर हो जाते हैं। जो बच्चे उनकी आंख का तारा होते हैं उन्हीं बच्चों को वे कांटे की तरह खटकते हैं।

प्रत्येक माता-पिता की अभिलाषा होती है कि उनके बच्चे पढ़ लिखकर उन्नति करें। इसके लिए वह स्वयं भूखे रहकर अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर अपना सर्वस्व बच्चों पर लगा देते हैं। लेकिन शायद यह उनका दुर्भाग्य ही है क्योंकि जैसा वह सोचते हैं उसके अनुरूप नहीं हो पाता और वही बच्चे जो उनकी उंगली पकड़कर चलना सीखते हैं आज एकाएक इतने सामर्थवान हो जाते हैं कि उनको अपने बुजुर्गों की आवश्यकता नहीं रहती और बुजुर्गों की लालसा स्वयं में घुटकर रह जाती है।

इन सभी के पीछे क्या कारण है। क्यों हम इतने सीमित होते जा रहा हैं। पहले परिवार संयुक्त परिवार के रूप में रहा करते थे फिर भी उनका तालमेल अच्छा था। क्या बढ़ते आधुनिकीकरण से हमारी आंखों पर पर्दा पड़ गया है। आज परिवार की परिभाषा एकदम बदल गयी है, परिवार में अब केवल अपने बच्चों की गणना की जाने लगी है। भौतिक वस्तुओं की और बढ़ता आकर्षण तथा दिन-प्रतिदिन बढ़ती आवश्यकताओं का निदान बहुत कठिन है।

एक समस्या परिवार में स्वतंत्रता की भी पैदा हो गयी है प्रत्येक व्यक्ति की लालसा स्वच्छंद विचरण करने की होती है और यही कारण है कि उसे किसी की दखल पंसद नहीं होती है थोड़ी सी टोकाटोकी उसे स्वतंत्र जीने पर मजबूर कर देती है और परिणामतः वह अपने बुजुर्गों को अपने साथ रखने में कठिनाई महसूस करता है।

क्या हमने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है। क्यों हमारे बीच यह दरारें पैदा हो रही हैं। क्या इसका कारण हमारे परिवारों में बढ़ता तनाव है, जो हमारे बीच दरार पैदा कर रहा है।

आजकल का चलन है कि अपनी मनमर्जी के चलते बहू बेटे मां बाप की उपेक्षा कर अपनी जिन्दगी को न केवल अपने ढंग से जीना चाहते हैं बल्कि मां-बाप का उनके साथ रहना नागवार गुजरता है। मां-बाप चाहे कितने समझदार तथा कठोर दिल हो उनकी भीतरी पुकार जो अपने बच्चों पर ममता लुटाने को तड़पती है, को नहीं दबा पाते हैं।

बहू-बेटों के मन में अब प्यार ममता जैसी बातों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। आज की तेज रफ्तार वाली जिन्दगी में उन्हें पीछे नहीं रहना है। मां-बाप राह का रोड़ा बन जाते है। पीछे मुड़कर देखना आज की पीढ़ी की आदत नहीं, ऐसी सोच के चलते नैतिक मूल्य रसातल में जा रहे हैं और इन सबका दोष आज की सभ्यता टीवी फिल्मों पर डाल दिया जाता है। मां-बाप से घृणा करना मरने की कामना करना, आखिर क्यों पलने लगी है दिलों में नफरत का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। क्या इसके कीटाणु दूषित पर्यावरण की देन हैं या पर्यावरण के साथ मन का आंगन भी विषाक्त हो उठा है।

सेवानिवृत्ति के बाद बड़े अरमानों से मां-बाप कई बार अपना घर-बार बेचकर बहू-बेटे के पास रहने चले जाते हैं। बढ़ती उम्र, तरह-तरह की बीमारी, मौत का भय और गहरी असुरक्षा की भावना के चलते मां बाप कई बार आत्मसम्मान को ताक पर रखकर बहू-बेटे से दबते चले जाते हैं। बेइज्जती व अपमान सहकर भी उन्हीं के आसरे पड़े रहते हैं। सास बार-बार बहू के सामने मिमियाती रहती है ससुर गलत होता देख कई बार गुस्से से भर जाते हैं लेकिन पत्नी की आंखों की मूक दयनीय याचना उन्हें कुछ कहने करने नहीं देती।

मौत तो एक न एक दिन आनी है लेकिन यह पल-पल की मौत मरती जिन्दगी, ऐसी जिन्दगी से एक बारगी मौत ही क्या श्रेयस्कर नहीं। कोई इन बुजुर्गों से पूछकर देखे। उनकी लहूलुहान आत्मा का मूक क्रंदन सुने। इतना जीवन जी लेने के बाद भी कई मर्तबा ये बुजुर्ग नासमझी के चलते जीते जी अपना सबकुछ पुत्रों को देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। यह सब बातें और विकट तब हो जाती हैं जब जोड़े के टूटने के बाद वृद्ध महिला जो विधवा जीवन व्यतीत कर रही होती है तथा दूसरी और उसे अपने बच्चों पर आश्रित रहना पड़ता है।

एक समय था जब गुरू ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण की बातें करते थे। परन्तु इसके सर्वथा विपरीत अब हम उन मां बाप को मजबूर कर रहे हैं दर-दर की ठोकरें खाने के लिए जो बाप हमें हर प्रकार का माध्यम प्रदान करता है। वह मां हमारे लिए बोझ होती है जो बचपन में न जाने कितनी रातें बिना सोये गुजार देती है। उस मां का खर्च वहन करना हमें भारी दिखता है जो मां अपने बच्चों के साथ रात-रात भर गीले बिस्तर में गुजारती है। एक तरफ तो हम पाश्चात्य संस्कृति को निकृष्ठ मानते हैं और अपनी को श्रेष्ठ। क्या यही श्रेष्ठता का प्रमाण है। उनको निकृष्ट कहने से पहले यह सोचना चाहिए कि उनके पास तो इस प्रकार के संस्कार कभी रहे ही नहीं, हमारे पास तो थे परन्तु हमने खो दिए तो वास्तव में निकृष्ट कौन हुआ। बूढ़े का सहारा बुढ़ापे की लकड़ी यह तमाम बातें अब किताबी मालूम देती हैं। सारी उम्र संघर्ष के पश्चात यह लोग मजबूर हो जा रहे हैं, निम्नस्तर जीवन यापन के लिए। इनकी आंखों में अतीत के संघर्ष से लेकर वर्तमान स्थिति तक सब कुछ देखा जा सकता है। चकाचौंध को भूलकर इन्हें आवश्यकता है तो सिर्फ प्यार की। इन्हें आवश्यकता है तो सिर्फ अपनों की जो इनके खालीपन को दूर सके इनके अंधेरों में रोशनी ला सके। इनको जरूरत है अपनेपन की।

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रचनाकार: शिव अग्रवाल का आलेख : उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनों को तलाशती आंखे
शिव अग्रवाल का आलेख : उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनों को तलाशती आंखे
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