चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (1)

SHARE:

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा [“एक ही बैठक में आद्योपांत पठनीय” पिछले दिनों रचनाकार में सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित चार्ली चैप्लिन ...

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

charls darwin

[“एक ही बैठक में आद्योपांत पठनीय”

पिछले दिनों रचनाकार में सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा सिलसिलेवार प्रकाशित हुई थी व बाद में उसका ईबुक भी प्रकाशित किया गया जिसे पाठकों ने हाथों हाथ लिया था. इसी क्रम में प्रस्तुत है चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा. इसका अनुवाद भी सूरज प्रकाश ने के पी तिवारी के साथ मिलकर किया है.

चार्ल्स डार्विन को कौन नहीं जानता? पृथ्वी पर जीवन-विकास के सिद्धान्त के प्रतिपादक के रूप में वे जाने जाते हैं. प्रस्तुत आत्मकथा रोचक व बेहद जानकारी परक तो है ही, सूरज प्रकाश और के पी तिवारी के अनुवाद ने इसे बेहद पठनीय बना दिया है – एक ही बैठक में आद्योपांत पठनीय. हर जीवित वस्तु को, जो पढ़ सकता हो, उसे चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा अवश्य पढ़नी चाहिए.]

 

 

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

 

अनुवादक की बात

महान प्रकृतिविज्ञानी चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (12 फरवरी 1809-19 अप्रैल 1882) को प्रजातियों के विकास की नयी अवधारणाओं के जनक के रूप में जाना जाता है। वे आधुनिक विज्ञान के भी जनक हैं। सबसे पहले उन्होंने ही ये सिद्धांत दिया था कि प्रजातियों का उद्भव विकासात्मक परिवर्तनों के कारण हुआ और यह वैज्ञानिक थ्योरी भी सबसे पहले उन्होंने ही दी थी कि प्राकृतिक चयन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से इस तरह के परिवर्तन होते हैं।

उन्होंने चिकित्सा शास्त्र, भूविज्ञान, जीव विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आदि विषयों का गहरा अध्ययन किया और कई नयी अवधारणाएं दीं। उन्होंने अपनी खोजों के लिए लम्बी लम्बी यात्राएं कीं और शोध किये। बीगल जहाज पर उन्होंने पांच वर्ष की लम्बी यात्राएं कीं और इन यात्राओं के अनुभवों को विभिन्न खोजों और प्रयोगों के रूप में वे सामने लाते रहे।

1859 में लिखी अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पेशीज से जहां एक ओर उन्हें मानव विकास की अपनी नयी अवधारणाओं से विश्व प्रसिद्धि मिली और वे महानतम वैज्ञानिकों की श्रेणी में गिने जाने लगे, वहीं दूसरी ओर, उन्हें अपने नये और धार्मिक विचारों के कारण चर्च की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी। रूढ़िगत समाज को डार्विन साहब के मानव विकास के सिद्धांत मान्य नहीं थे। चर्च को लगता था कि डार्विन की थ्योरी मानव और पशुओं के बीच के महत्वपूर्ण फर्क को ही खत्म कर देगी। लेकिन डार्विन अपनी खोजों में लगे रहे और हर बार नये शोध पत्रों, पुस्तकों और आलेखों के माध्यम से अपनी बात कहते रहे।

डार्विन साहब आजीवन बीमार ही रहे और हर तरह के इलाज आजमाते रहे। लेकिन बार बार हमला करने वाली और लम्बी बीमारियों ने उनके हौसलों पर कोई असर नहीं डाला और वे मरते दम तक अपने शोधों मे लगे रहे। संयोग से उन्होंने अपनी ही कज़िन एम्मा वेजवुड से शादी की थी। पत्नी ने आजीवन उनकी सेवा की और उन्हें हर तरह संकटों से दूर रखने का प्रयास किया। लेकिन शायद बहुत नजदीकी खून के रिश्ते में शादी करने का खामियाजा उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ा कि उनकी सारी संतानें हमेशा बीमार रहीं।

आधुनिक विज्ञान को उन्होंने बहुत कुछ दिया। बेशक जीते जी वे समाज के, गिरजाघर के और दूसरे वर्गों के हमले झेलते रहे, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि समाज को उनकी देन बहुत बड़ी है। अपने अकेले के बलबूते पर उन्होंने प्राकृतिक और जीव विज्ञान की सभी शाखाओं को समृद्ध किया और मानव विकास की विचार धारा को एक नयी सोच दी।

उन्होंने अपनी आत्म कथा अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही लिखी थी लेकिन उनके बेटे फ्रांसिस डार्विन ने पिता के जीवन के अनछुए पहलुओं को सामने लाने के मकसद से इस आत्म कथा में अपनी ओर से अंश जोड़े हैं जिनसे इस पुस्तक का महत्व और भी बढ़ जाता है और हम एक पुत्र की नज़र से एक महान पिता के जीवन में झांकने का एक और मौका पाते हैं।

इसी पुस्तक के तीसरे हिस्से में डार्विन साहब के धर्म पर अलग अलग मंचों से और निजी पत्रों में व्यक्त किये गये विचारों को शामिल किया गया है। उनके ये विचार भी उनके वैज्ञानिक शोधों जितने ही महत्वपूर्ण हैं और हमारी सोच को आज भी एक नयी दिशा देते हैं।

हिन्दी पाठकों के सामने ये आत्म कथा पहली बार लाते हुए हम गर्व का अनुभव कर रहे हैं और विश्वास करते हैं कि आपको हमारा ये प्रयास अच्छा लगेगा।

सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

 

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

[मेरे पिता के आत्म कथ्यात्मक संस्मरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ये संस्मरण उन्होंने अपने घर परिवार और अपने बच्चों के लिए लिखे थे, और उनके मन में कत्तई यह विचार नहीं था कि कभी इन्हें प्रकाशित भी कराया जायेगा। बहुत से लोगों को यह असम्भव लग रहा होगा, लेकिन जो लोग मेरे पिता को जानते थे, वे समझ जाएंगे कि यह न केवल सम्भव था, बल्कि स्वाभाविक भी था। उनकी आत्मकथा का शीर्षक था मेरे मन और व्यक्तित्व विकास के संस्मरण और ये वाली अन्तिम टिप्पणी दर्ज की गयी थी 3 अगस्त 1876 को,"मेरे जीवन का यह रेखाचित्र होपडेन में शायद 28 मई को शुरू हुआ और उसके बाद से मैंने लगभग प्रतिदिन दोपहर एक घण्टा लेखन किया।"

यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आत्मकथा बहुत ही व्यक्तिगत और प्रगाढ़ सम्बन्धों को बताते हुए, अपने परिवार के लिए लिखी गयी थी, लिहाजा इसमें ऐसे अन्तरंग विवरण भी थे, जिन्हें प्रकाशित किया जाना उचित नहीं था। मैंने हटाए गए वर्णनों का जिक्र भी नहीं किया है। बहुत ही ज़रूरी होने पर ही क्रियापदों की चूक वग़ैरह को ठीक किया है, लेकिन इस तरह का बदलाव भी कम ही किया है - फ्रांसिस डार्विन]

एक जर्मन सम्पादक ने मुझे लिखा कि मैं अपने मन और व्यक्तित्व के विकास के बारे में लिखूँ। इसमें आत्मकथा का भी थोड़ा-सा पुट रहे। मैं इस विचार से ही रोमांचित हो गया। शायद यह मेरी संतानों या उनकी भी संतानों के कुछ काम आ जाए। मुझे पता है जब मैंने अपने दादाजी की आत्मकथा पढ़ी थी तो मुझे कैसा लगा था। उन्होंने जो सोचा और जो किया, तथा वे जो कुछ करते थे, वह सब पढ़ा तो लेकिन ये सब बहुत संक्षिप्त और नीरस-सा था। मैंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, वह इस तरह से लिखा है जैसे मैं नहीं बल्कि परलोक में मेरी आत्मा मेरे जीवन और कृत्यों को देख देखकर लिख रही हो। मुझे इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं आयी। अब तो जीवन बस ढलान की ओर बढ़ रहा है। लेखन शैली पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया है।

मेरा जन्म 12 फरवरी 1809 को श्रूजबेरी में हुआ था। मुझे सबसे पहली याद उस समय की है, जब मैं चार बरस से कुछ महीने ज्यादा की उम्र का था। हम लोग समुद्र तट पर सैर-सपाटे के लिए गए थे। कुछ घटनाएँ और स्थान अभी भी मेरे मन पर धुंधली-सी याद के रूप में हैं।

मैं अभी आठ बरस से कुछ ही बड़ा था कि जुलाई 1817 में मेरी माँ चल बसीं, और बड़ी अजीब बात है कि उनकी मृत्यु शैय्या, काले शनील से बने उनके गाउन, बड़े ही जतन से सहेजी सिलाई कढ़ाई की उनकी मेज के अलावा उनके बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं।

उसी साल बसन्त ऋतु में मुझे श्रूजबेरी के एक डे स्कूल में दाखिल करा दिया गया। उसमें मैं एक बरस तक रहा। लोग-बाग मुझे बताते थे कि छोटी बहन कैथरीन के मुकाबले मैं पढ़ाई-लिखाई में एकदम फिसड्डी था जबकि मैं तो मानता हूँ कि मैं काफी शरारती भी था।

इस स्कूल में जाने के समय तक प्राकृतिक इतिहास, और खास कर विभिन्न प्रकार की चीज़ों के संग्रह में मेरी रुचि बढ़ चुकी थी। मैं पौधों के नाम जानने की कोशिश करता, और शंख, बिल्लौरी पत्थर, सिक्के और धातुओं के टुकड़े बटोरता फिरता रहता। संग्रह करने का यह जुनून किसी भी व्यक्ति को सलीकेदार प्रकृतिवादी या कला पारखी ही नहीं, उसे कंजूस भी बनाता है। जो भी हो, यह जुनून मुझमें था, और यह सिर्फ मुझमें ही था, क्योंकि मेरे किसी भी भाई या बहन में इस तरह की रुचि नहीं थी।

इसी बीच एक छोटी-सी घटना मेरे ज़ेहन पर पुख्ता लकीर छोड़ गयी। मेरा विचार है कि यह मेरे ज़ेहन को बार बार परेशान भी कर देती थी। यह तो साफ ही था कि मैं अपने छुटपन में पौधों की विविधता में रुचि लेता था। मैंने अपने एक हम उम्र बच्चे (मैं यह पक्का कह सकता हूँ कि यह लेहटान था, जो आगे चलकर प्रसिद्ध शिलावल्क विज्ञानी और वनस्पति शास्त्री बना) को बताया कि मैं बहुपुष्पक और बसंत गुलाब को किसी खास रंग के पानी से सींचूंगा तो अलग ही किस्म के फूल लगेंगे। हालांकि यह बहुत बड़ी डींग हांकना था, लेकिन मैंने कभी इसके लिए कोशिश नहीं की थी। मैं यह मानने में संकोच नहीं करूँगा कि मैं बचपन में अलग ही तरह की कपोल कल्पनाएँ किया करता था, और ये सब महज एक उत्सुकता बनाए रखने के लिए करता था।

ऐसे ही एक बार मैंने अपने पिताजी के बाग में बेशकीमती फल बटोरे और झाड़ियों में छुपा दिए, और फिर हाँफता हुआ घर पहुँच गया और यह खबर फैला दी कि चुराए हुए फलों का एक ढेर मुझे झाड़ियों में मिला है।

मैं जब पहली बार स्कूल गया तो शायद बुद्धू किस्म का रहा होऊंगा। गारनेट नाम का एक लड़का एक दिन मुझे केक की दुकान पर ले गया। वहाँ उसने बिना पैसे दिए ही केक खरीदे, क्योंकि दुकानदार उसे जानता था। दुकान के बाहर निकलने के बाद मैंने उससे पूछा कि तुमने दुकानदार को पैसे क्यों नहीं दिए, तो वह फौरन बोला - इसलिए कि मेरे एक रिश्तेदार ने इस शहर को बहुत बड़ी रकम दान में दी थी, और यह शर्त रखी थी कि उनके पुराने हैट को पहनकर जो भी आए और किसी भी दुकान पर जाकर एक खास तरह से अपने सिर पर घुमाए तो इस शहर के उस दुकानदार को बिना पैसे माँगे सामान देना होगा।' इसके बाद उसने अपना हैट घुमाकर मुझे बताया। उसके बाद वह दूसरी दुकान में गया, वहाँ भी उसकी पहचान थी, उस दुकान में उसने कोई छोटा-सा सामान लिया, अपने हैट को उसी तरह से घुमाया और बिना पैसे दिए ही सामान लेकर बाहर आ गया। जब हम बाहर निकल आए तो वह बोला, `देखो अब अगर तुम खुद केक वाले की दुकान में जाना चाहते हो (मुझे सही जगह याद कहाँ रहने वाली थी) तो मैं अपना हैट दे सकता हूँ, और अगर तुम इसे सही ढंग से सिर पर हिलाओगे तो जो कुछ चाहोगे, बिना दाम लिए ले सकोगे।' इस दयानतदारी को मैंने फौरन मान लिया और दुकान में जाकर कुछ केक लिए, उस पुराने हैट को वैसे ही हिलाया जैसे बताया गया था, और ज्यों ही बाहर निकलने को हुआ, तो दुकानदार पैसे माँगते हुए मेरी तरफ लपका। मैंने केक को वहीं फेंका और जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा। जब मैं अपने धूर्त दोस्त गारनेट के पास पहुंचा तो उसे हँसते देखकर मैं चकित रह गया।

मैं अपने बचाव में कह सकता हूँ कि यह बाल सुलभ शरारत थी, लेकिन इस बात को शरारत मान लेने की सोच मेरी अपनी नहीं थी, बल्कि मेरी बहनों की हिदायतों और नसीहतों से मुझमें इस तरह की सोच पैदा हुई थी। मुझे संदेह है कि मानवता कोई प्राकृतिक या जन्मजात गुण हो सकती है। मुझे अण्डे बटोरने का शौक था, लेकिन किसी भी चिड़िया के घोंसले से मैं एक बार में एक ही अण्डा उठाता था, लेकिन एक बार मैं सारे ही अण्डे उठा लाया, इसलिए नहीं कि वे बेशकीमती थे, बल्कि महज अपनी बहादुरी जताने के लिए।

मुझे बंसी लेकर मछली मारने का बड़ा शौक था। किसी नदी या तालाब के किनारे मैं घन्टों बैठा रह सकता था और पानी की कल कल सुनता रहता था। मायेर में मुझे बताया गया कि अगर पानी में नमक डाल दिया जाए तो केंचुए मर जाते हैं, और उस दिन से मैंने कभी भी जिन्दा केंचुआ बंसी की कंटिया में नहीं लगाया। हालांकि, इससे परेशानी यह हुई कि मछलियाँ कम फंसती थीं।

एक घटना मुझे याद है। तब मैं शायद डे स्कूल में जाता था। अपने घर के पास ही में मैंने बड़ी ही निर्दयता से एक पिल्ले को पीटा। इसलिए नहीं कि वह किसी को नुक्सान पहुँचा रहा था बल्कि इसलिए कि मैं अपनी ताकत आजमा रहा था, लेकिन शायद मैंने उसे बहुत ज़ोर से नहीं मारा था, क्योंकि वह पिल्ला ज़रा-भी किंकियाया नहीं था। यह घटना मेरे दिलो दिमाग पर बोझ-सी बनी रही, क्योंकि वह जगह मुझे अभी भी याद है, जहाँ मैंने यह गुनाह किया था। उसके बाद तो जब मैंने कुत्तों से प्यार करना शुरू कर दिया तो यह बोझ शायद और भी बढ़ता गया, और उसके बाद काफी समय तक यह एक जुनून की तरह रहा। लगता है कि कुत्ते भी इस बात को जान गए थे क्योंकि कुत्ते भी अपने मालिक को छोड़ मुझे ज्यादा चाहने लगते थे।

मिस्टर केस के डे स्कूल में जाने के दौरान हुई एक घटना और भी है जो मुझे अब तक याद है, और वह है एक ड्रैगून सिपाही को दफनाने का मौका। अभी तक वह मंज़र मेरी आँखों के सामने है कि कैसे घोड़े पर उस सिपाही के बूट रख दिए गए थे और कारबाइन को काठी से लटका दिया गया था, फिर कब्र पर गोलियाँ चलायी गयीं। भीतर उस समय जैसे किसी सोये हुए कवि की आत्मा जाग उठी थी। इतना प्रभाव पड़ा उस दृश्य का।

सन 1818 की ग्रीष्म ऋतु में मेरा दाखिला डॉक्टर बटलर के प्रसिद्ध स्कूल में करा दिया गया। यह स्कूल श्रूजबेरी में था और सन 1825 तक सात साल मैंने वहीं गुज़ारे। जब यह स्कूल मैंने छोड़ा तो मेरी उम्र सोलह बरस की थी। इस स्कूल में पढ़ाई के दौरान मैंने सही मायनों में स्कूली बच्चे का जीवन बिताया। यह स्कूल हमारे घर से बमुश्किल आधा मील दूर रहा होगा, इसलिए मैं हाजिरी के बीच खाली समय और रात में ताले बन्द होने से पहले स्कूल और घर के कई चक्कर लगा लेता था। मैं समझता हूँ कि घर के प्रति जुड़ाव और रुचि को बरकरार रखने में यह काफी मददगार रहा।

स्कूल के शुरुआती दिनों के बारे में मुझे याद है कि मुझे समय पर पहुँचने के लिए काफी तेज दौड़ना पड़ता था, और तेज धावक होने के कारण मैं अक्सर सफल ही होता था। लेकिन जब भी मुझे संदेह होता था तो अधीरता से ईश्वर से प्रार्थना करने लगता था, और मुझे याद है कि अपनी कामयाबी का श्रेय मैं हमेशा ईश्वर को देता था, अपने तेज दौड़ने को नहीं, और हैरान होता था कि प्रभु ने मेरी कितनी मदद की है।

मैंने कई बार अपने पिता और दीदी को यह कहते सुना कि जब मैं काफी छोटा था तो संन्यासियों की तरह डग भरता था, लेकिन मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता है। कई बार मैं अपने आप में खो जाता था। ऐसे ही एक बार स्कूल से लौटते समय शहर की पुरानी चहारदीवारी पर चहलकदमी करता हुआ आ रहा था। चहारदीवारी को लोगों के चलने लायक तो बना दिया गया था, लेकिन अभी एक तरफ मुंडेर नहीं बनायी गयी थी। अचानक ही मेरा पैर फिसला और मैं सात आठ फुट की ऊँचाई से नीचे आ गिरा। इस दौरान मुझे एक विचित्र-सा अनुभव हुआ। अचानक और अप्रत्याशित रूप से गिरने और नीचे पहुँचने में बहुत ही थोड़ा समय लगा था, लेकिन इस थोड़े से समय के बीच ही मेरे दिमाग में इतने विचार कौंध गए कि मैं चकित रह गया, जबकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक विचार के लिए काफी समय लगता है, पर मुझे तो अलग ही अनुभव हुआ था, और मेरा ये अनुभव उनसे बिलकुल ही अलग था।

डॉक्टर बटलर के स्कूल में मेरे दिमाग का जो विकास हुआ उससे बेकार और वाहियात घटना दूसरी नहीं हो सकती। यह स्कूल पूरी तरह से पुरातन पंथी था। प्राचीन भूगोल और इतिहास को छोड़ कर कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता था। स्कूली तालीम के रूप में मेरे पास शून्य था। अपने पूरे जीवन काल में मैं किसी भी भाषा में महारथ हासिल नहीं कर पाया। कविता करने पर खास तौर से ज़ोर दिया जाता था, और इसमें भी मैं कोई तीर नहीं मार सका था। मेरे बहुत से दोस्त थे, और सबके पास देखें तो कुल मिला कर तुकबन्दियों का अच्छा संग्रह हो जाता था। बस, इन्हीं तुकबंदियों में जोड़ तोड़ करके, और दूसरे लड़कों की मदद से मैं भी इस विषय में थोड़ा बहुत हाथ साफ कर लेता था। स्कूल में ज्यादा ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि कल जो कुछ पढ़ा था उसे अच्छी तरह से घोंट कर याद कर लो, और यह काम मैं बखूबी कर लेता था। सुबह चैपल में ही मैं होमर या वर्जिल की चालीस पचास पंक्तियां याद कर लेता था। लेकिन यह कवायद भी एकदम बेकार थी, क्योंकि प्रत्येक पद्य महज अड़तालीस घण्टे में बिसर जाता था। मैं आलसी नहीं था, और पद्य रचना को छोड़ दें तो मैं शास्त्रीय पठन में निष्ठापूर्वक मेहनत करता था, सिर्फ तोता रटंत नहीं करता था। मुझे होरेस के मुक्तक बहुत पसन्द थे, और इस प्रकार के काव्य अध्ययन का एकमात्र आनन्द मुझे होरेस में ही मिला।

जब मैंने स्कूल छोड़ा तो मैं अपनी उम्र के मुताबिक न तो बहुत मेधावी था और न ही एकदम निखट्टू, लेकिन मेरे सभी मास्टर और मेरे पिता मुझे बहुत ही सामान्य लड़का समझते थे, बल्कि बुद्धिमानी में सामान्य पैमाने से भी नीचे ही मानते थे। एक बार पिताजी ने मुझसे कहा,`बन्दूक चलाने, कुत्तों और चूहों को पकड़ने के अलावा तुम्हे किसी काम की परवाह नहीं है। तुम खुद के लिए और सारे परिवार के लिए एक कलंक हो।' यह सुनकर मैं बहुत ही खिन्न हो गया। मैं एक बात और भी कहूँगा कि मेरे पिता बहुत ही दयालु थे, और उनकी याददाश्त का तो मैं कायल हूँ। शायद उस दिन वे बहुत ही गुस्से में थे, जो ऐसे कठोर शब्द उन्होंने मुझसे कहे।

स्कूली जीवन के दौरान अपने व्यक्तित्व निर्माण पर नज़र डालते हुए मैं कह सकता हूँ कि इस दौरान मुझमें कुछ ऐसे गुणों का भी विकास हो रहा था जो भविष्य की आधारशिला थे, जैसे कि मेरी रुचियाँ विविधतापूर्ण थीं। जिस चीज़ में मेरी रुचि होती थी उसके प्रति मैं उत्साह से भर जाता था, और किसी भी जटिल विषय या चीज़ को समझने में मुझे बहुत आनन्द आता था। मुझे यूक्लिड पढ़ाने के लिए एक प्राइवेट ट्यूटर आते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि रेखागणित के प्रमेय सिद्ध करने में मुझे बहुत आनन्द आता था। इसी तरह मुझे यह भी याद है कि जब मुझे अंकल (फ्रांसिस गेल्टन के पिता) ने बैरोमीटर के वर्नियर सिद्धान्त समझाए तो मैं कितना खुश हुआ था। विज्ञान के अलावा मेरी रुचि अलग अलग किताबों में भी थी। शेक्सपीयर के ऐतिहासिक नाटक लिये मैं स्कूल की मोटी दीवार में बनी खिड़की में बैठकर घन्टों पढ़ता रहता था। यही नहीं, मैं थामसन की `सीजन' और बायरन तथा स्कॉट की कविताओं का भी आनन्द लेता था। मैंने कविताओं का ज़िक्र इसलिए किया कि आगे चल कर शेक्सपीयर सहित सभी प्रकार के काव्य में मेरी रुचि खत्म हो गई। मुझे इस बात का दुख भी है।

काव्य से मिलने वाले आनन्द के बारे में एक घटना और बताता हूँ कि 1882 में वेल्स की सीमाओं पर हम घुड़सवारी करते हुए सैर कर रहे थे और दृश्यों में जो जीवन्त रंग काव्य ने भरा था वह मेरे मन पर किसी भी अन्य सौन्दर्यपरक आनन्द की तुलना में कहीं अधिक समय तक बना रहा।

स्कूली जीवन के शुरुआती दौर की ही बात है, एक लड़के के पास `वन्डर्स ऑफ दि वर्ल्ड' नामक किताब थी। मैं अक्सर वह किताब पढ़ता था और उसमें लिखी हुई कई बातों की सच्चाई के बारे में दूसरे लड़कों के साथ बहस भी करता था। मैं यह मानता हूँ कि यही किताब पढ़ कर मेरे मन में दूर दराज के देशों की यात्रा करने का विचार आया, और यह विचार तब पूरा हुआ जब मैंने बीगल से समुद्री यात्रा की।

स्कूली जीवन के बाद के दौर में मुझे निशानेबाजी का शौक रहा। मुझे नहीं लगता कि जितना उत्साह मुझे चिड़ियों के शिकार का रहता था, उतना कोई और किसी बड़े से बड़े धार्मिक कार्य में भी क्या दिखाता रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैंने कुनाल पक्षी का शिकार किया, तो मैं इतना उत्तेजित हो गया था कि मेरे हाथ काँपने लगे और बन्दूक में दूसरी गोली भरना मेरे लिए मुश्किल हो गया। यह शौक काफी समय तक बना रहा और मैं अच्छा खासा निशानेबाज बन गया। कैम्ब्रिज में पढ़ने के दौरान मैं आइने के सामने खड़ा होकर बन्दूक को झटके से कन्धे पर रखने की कवायद करता था, ताकि बन्दूक कन्धे पर एकदम सीधी रहा करे।

एक और भी खेल मैं किया करता था कि अपने किसी दोस्त को कह देता था कि वह मोमबत्ती जलाकर पकड़े, और फिर बन्दूक की नली पर डाट लगाकर गोली चलाता था, अगर निशाना सही होता था तो हवा के दबाव से छोटा-सा धमाका होता और नली पर लगी डाट से तीखा पटाखा बोलता था। मेरे एक ट्यूटर ने इस अजीब-सी घटना का जिक्र किया था कि लगता है मिस्टर डार्विन घन्टों अपने कमरे में खड़े होकर चाबुक फटकारते रहते हैं, क्योंकि मैं जब भी इनके कमरे की खिड़की के नीचे से गुज़रता हूँ तो चटाक चटाक की आवाज़ आती रहती है।

स्कूली लड़कों में मेरे बहुत से दोस्त थे, जिन्हें मैं बहुत चाहता था, और मुझे लगता है कि उस समय मेरा स्वभाव बहुत ही स्नेही था।

विज्ञान में मेरी रुचि बरकरार थी, मैं अब भी उसी उत्साह से खनिज बटोरता रहता था, लेकिन बड़े ही अवैज्ञानिक तरीके से। मैं सिर्फ इतना ही देखता था कि कोई नया खनिज है, तो रख लिया, लेकिन इनके वर्गीकरण की सावधानी मैं नहीं बरतता था। कीट पतंगों पर मैं तब से ही ध्यान देने लगा था, जब मैं दस बरस (1819) का था। मैं वेल्स के समुद्रतट पर स्थित प्लास एडवर्डस् गया था। वहाँ पर मैं काले और सिन्दूरी रंग के बड़े हेमिप्टेरस कीट, और जायगोनिया तथा सिसिन्डेला जैसे शलभ देखकर चकित रह गया। ये कीट श्रापशायर में दिखाई नहीं देते थे। मैंने फौरन ही अपना मन बना लिया कि जितने भी मरे हुए कीट बटोर सकूँगा, बटोरूँगा। मरे हुए कीट बटोरना मैंने इसलिए तय किया था क्योंकि मेरी बहन ने बताया था कि महज संग्रह के लिए कीटों को मारना ठीक नहीं। वाइट लिखित सेलबोर्न पढ़ने के बाद मैं पक्षियों की आदतों पर ध्यान देने लगा और इस बारे में खास खास बातों को लिखने भी लग गया। बड़े ही सामान्य भाव से मैं यह भी आश्चर्य करता था कि हर कोई पक्षी विज्ञानी क्यों नहीं बन जाता है।

मेरा स्कूली जीवन समापन की ओर था। इस बीच मेरे भाई रसायन विज्ञान में काफी मेहनत कर रहे थे। घर के बाग में बने टूलरूम को उन्होंने एक अच्छी खासी प्रयोगशाला में बदल दिया था। वहाँ पर तरह तरह के उपकरण जुटा लिए थे, और ज्यादातर प्रयोगों में मुझे उनके सहायक के तौर पर मदद की इजाज़त मिल गयी थी। उन्होंने सभी गैसें तैयार कर ली थीं और कई एक यौगिक रसायन भी बना लिए थे। मैंने भी रसायन पर कई किताबें पढ़ ली थीं, इनमें सबसे पसन्दीदा किताब थी, हेनरी और पार्क्स की कैमिकल कैटेकिस्म। इस विषय में मेरा मन बहुत रम रहा था, और हम दोनों भाई देर रात तक काम में जुटे रहते थे। स्कूली शिक्षा के दौरान यह समय मेरे जीवन का सर्कोत्तम काल था, क्योंकि इसी दौरान मैंने प्रयोगात्मक विज्ञान को व्यावहारिक रूप में समझा। हम दोनों मिलकर रसायनों पर प्रयोग करते हैं, यह बात न जाने कैसे स्कूल में फैल गयी। इस तरह का काम स्कूली लड़कों ने पहले कभी नहीं किया था, इसलिए सबने इसका मज़ाक उड़ाया और इसे नाम दिया - गैस। डॉक्टर बटलर हमारे हेडमास्टर थे। एक बार उन्होंने भी सभी के सामने मेरा अपमान करते हुए कहा कि मैं ऐसे वाहियात किस्म के विषयों पर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ। उन्होंने सबके सामने बेवजह ही मुझे एकान्तवासी संन्यासी कहा, उस समय तो मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया लेकिन इतना तो मैं जान ही गया था कि कुछ कड़वी बात कही गयी है।

यह देखते हुए कि मैं स्कूल में कुछ खास नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे पिता ने समझदारी दिखाते हुए मुझे कुछ पहले ही स्कूल से उठवा लिया और मुझे भाई के साथ (अक्तूबर 1825) एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी भेज दिया, जहाँ पर मैं दो बरस तक रहा।

मेरे भाई अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। हालांकि मैं जानता था कि डाक्टरी की प्रैक्टिस करने का उनका कोई इरादा नहीं था, और पिताजी ने मुझे इसलिए भेजा था कि मैं भी डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर सकूँ। इसी दौरान मुझे कुछेक छोटी मोटी घटनाओं से यह पता चल चुका था कि मेरे पिताजी मेरे लिए इतनी जायदाद छोड़ जाएँगे कि मैं आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकूँ। हालांकि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इतना धनवान हूँ, लेकिन जब मुझे अपनी हैसियत का पता चला तो इतना ज़रूर हुआ कि डाक्टरी पढ़ने की मेहनत के रास्ते में रुकावट आ गयी।

एडिनबर्ग में सारी शिक्षा लैक्चरों के जरिए दी जाती थी। लेकिन ये लैक्चर इतने उबाऊ और नीरस होते थे कि बस, पूछो मत। इनमें अगर कुछ अपवाद था तो रसायनशास्त्र के बारे में होप के लैक्चर। इस सबके बावजूद मेरे विचार से पढ़ने की तुलना में लैक्चरों से लाभ तो कुछ नहीं होता था, उल्टे इनके साथ हानियाँ कई एक जुड़ी हुई थीं। सर्दियों में सवेरे ठीक आठ बजे डॉक्टर डन्कन द्वारा मैटेरिया मेडिका पर दिए जाने वाले लैक्चरों की याद आज भी तन को झकझोर देती है। डॉक्टर मुनरो मानव शरीर शास्त्र पर उतने ही नीरस लैक्चर देते थे, जितने नीरस वे खुद थे, और यह विषय मुझे वैसे भी कोफ्त भरा लगता था। मेरे जीवन में यह तो एक बड़ी दुर्घटना के रूप में तो है ही कि मैं चीर-फाड़ की कला नहीं सीख पाया। यदि सीख लेता तो न केवल अपनी झुँझलाहट से बच जाता, बल्कि यह अभ्यास भविष्य में मेरी काफी मदद करता। इस कमी की तो भरपाई कभी भी नहीं हो पायी।

मुझमें एक और कमी भी थी कि मैं ड्राइंग भी नहीं बना पाता था। मैं अस्पताल में क्लीनिकल वार्ड में नियमित रूप से जाता था। कुछ मामले तो ऐसे थे जिन्हें देखकर मैं व्याकुल हो जाता था। कुछ तो ऐसे हैं जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर गहराई से छाए हुए हैं, लेकिन इन सबसे विचलित होकर मैंने कक्षाओं में अपनी हाजिरी कम नहीं होने दी। मुझे अभी भी यह समझ में नहीं आया है कि इस विषय की शिक्षा प्राप्त करने में मुझे रोचकता का अनुभव क्यों नहीं हुआ, क्योंकि एडिनबर्ग आने से पहले गर्मियों के दौरान श्रूजबेरी में मैंने कुछ गरीब लोगों का इलाज किया था, खासकर औरतों और बच्चों का। सभी रोगियों के मामलों में मैंने उनके सभी लक्षणों को विस्तारपूर्वक लिखा, फिर ये सभी पिताजी को सुनाए, उन्होंने कुछ और बातें भी पूछने के लिए कहा और मुझे दवाओं के बारे में भी बताया। ये दवाएं भी मैंने खुद ही तैयार कीं। एक बार में मेरे पास तकरीबन एक दर्जन बीमार आते थे और मुझे इस काम में काफी रुचि भी थी।

मैं जितने भी लोगों को जानता हूँ, उनमें मेरे पिताजी ही ऐसे थे जो व्यक्तित्व के गहरे रखी थे, और उन्होंने मेरे लिए एक दिन कहा था कि मैं एक सफल डाक्टर बन सकता हूँ, इसका मतलब तो बस यही होता था, ऐसा व्यक्ति जिसके पास ढेर सारे मरीज आएँ। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि सफलता का मुख्य तत्त्व है, आत्मविश्वास; लेकिन मेरी जिस बात ने उन्हें प्रभावित किया था वह यह कि मैं जो कुछ नहीं भी जानता था उस बात के प्रति भी अपने मन में आत्मविश्वास पैदा कर लेता था। मैं एडिनबर्ग में दो बार ऑपरेशन थिएटर में भी गया, और बहुत ही दर्दनाक ढंग से किए जा रहे दो ऑपरेशन भी देखे। इनमें से एक ऑपरेशन तो किसी बच्चे का था, लेकिन ऑपरेशन पूरा होने से पहले ही मैं बाहर निकल आया। इसके बाद मैं कभी भी ऑपरेशन कक्ष में नहीं गया।

यहाँ यह भी बता दूँ कि उन दिनों क्लोरोफार्म का उपयोग नहीं किया जाता था, इसलिए दोनों ही ऑपरेशन देखकर दिल दहल गया था। मन में एक बलवती इच्छा तो थी कि एक बार मैं फिर ऑपरेशन देखने जाऊँ, लेकिन कभी नहीं गया। लेकिन दोनों ऑपरेशनों के दृश्य मुझे काफी दिनों तक विचलित करते रहे।

मेरे भाई यूनिवर्सिटी में सिर्फ एक साल ही मेरे साथ रहे। दूसरे बरस तो सारे इन्तज़ाम मुझे खुद ही करने पड़े, और यह एक तरह से अच्छा भी रहा, क्योंकि इसी दौरान मैं ऐसे युवकों के सानिध्य में आया जो प्राकृतिक विज्ञान में रुचि रखते थे। इन्हीं युवाओं में एक थे, एन्सवर्थ, बाद में इन्होंने असीरिया की यात्रा का वृत्तांत भी प्रकाशित कराया। ये सज्जन वर्नेरियन भूविज्ञानी थे, और बहुत से विषयों की थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे। डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम एक अलग ही तरह के नवयुवक थे। बड़े ही विनम्र और नफासत पसन्द, बहुत ही धार्मिक और दयालु; बाद में इन्होंने प्राणिशास्त्र में कई बेहतरीन लेख प्रकाशित कराए। मेरा एक और युवा साथी था, हार्डी, आगे चलकर वह वनस्पति शास्त्री बना, लेकिन भारत प्रवास के दौरान बहुत कम उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी।

मेरे आखिरी दोस्त थे डॉक्टर ग्रान्ट। वैसे तो वे मुझसे कई बरस वरिष्ठ थे; उनके साथ मेरी घनिष्ठता कैसे हुई, मुझे नहीं मालूम। उन्होंने प्राणिशास्त्र में अतिश्रेष्ठ लेख प्रकाशित कराए थे, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में लन्दन आने के बाद उन्होंने विज्ञान में कुछ खास नहीं किया। यह बात ऐसी थी, जिसे मैं कभी समझ नहीं पाया। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था। उनका व्यवहार बड़ा ही नीरस और औपचारिक था, लेकिन इस बाहरी खोल के भीतर निहायत ही नेक दिल और उत्साही व्यक्ति छिपा हुआ था। एक दिन हम लोग साथ-साथ घूम रहे थे कि अचानक ही उन्होंने उद् विकास के बारे में लैमारेक के दृष्टिकोणों पर अपने विचार प्रकट करने शुरू कर दिए। मैं चकित होकर मूक श्रोता बना रहा, लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है, मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पहले मैंने अपने दादाजी की जूनोमिया पढ़ी थी। उसमें भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए थे और उनका भी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इसके बावजूद यह भी सम्भावना है कि जीवन के आरम्भ में ही इस प्रकार की विचारधारा को स्वीकार करता और उसकी प्रशंसा करता तो जिस प्रकार से उन्हीं विचारों को मैंने ओरिजिन ऑफ स्पेशीज़ में लिखा है, शायद उनका रूप कुछ और ही होता। इस समय मैं जूनोमिया की काफी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन दस या पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद दोबारा वही किताब पढ़ कर मैं काफी असन्तुष्ट रहा। तथ्यों और परिकल्पनाओं में बहुत ही अन्तर दिखाई दिया।

डॉक्टर ग्रान्ट और डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम, दोनों ही मैरीन जूलॉजी पर अधिक ध्यान देते थे। मैं भी यदा कदा डॉक्टर ग्रान्ट के साथ समुद्र किनारे चला जाता था और समुद्र में ज्वार के बाद किनारे रुके हुए पानी में जीव पकड़ता था। बाद में इन जीवों की मैं चीर-फाड़ भी करता था। न्यू हैवेन के बहुत से मछुआरों से मेरी दोस्ती हो गयी थी। जब वे सीपियाँ पकड़ने जाते तो मैं भी कई बार उनके साथ हो लेता था। इस तरह से मैंने कई नमूने एकत्र कर लिए थे। अब चीर-फाड़ का मुझे अधिक ज्ञान और अभ्यास भी नहीं था और मेरा सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी बस कामचलाऊ ही था। इन सब बाधाओं के कारण मैं इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं कर पाया।

इस सबके बावजूद मैंने छोटा किन्तु रोचक अन्वेषण किया और प्लिनियन सोसायटी के समक्ष एक छोटा-सा लेख भी पढ़ा। यह लेख फ्लस्ट्रा के डिम्बों के बारे में था। इसमें मैंने बताया था कि सिलिया के माध्यम से इसमें स्वतंत्र गति होती है, लेकिन बाद में पता चला कि वास्तव में ये लारवे थे। एक और लेख में मैंने दर्शाया था कि छोटे छोटे गोलाकार जीव, जिन्हें फ्यूकस लोरेस की आरम्भिक अवस्था कहा जाता है, वस्तुत: पोन्टोबडेला म्यूरीकेटा जैसे कृमियों के अण्डों का खोल थे।

मेरी जानकारी के मुताबिक प्लिनियन सोसायटी की स्थापना प्रोफेसर जेम्सन ने की थी और वही इसके प्रेरक भी थे, इस सोसायटी में कई छात्र भी शामिल थे और प्राकृत विज्ञान के बारे में लेख पढ़ने और विचार विमर्श के लिए यूनिवर्सिटी के एक तहखाने में इसकी बैठकें होती रहती थीं। मैं इनमें नियमित रूप से शामिल होता था, और मेरे उत्साह को बढ़ाने तथा मुझे नए किस्म की अंदरूनी नज़दीकी प्रदान करने में इन बैठकों का काफी योगदान रहा।

एक शाम की बात है, एक बेचारा युवक बोलने के लिए खड़ा हुआ किन्तु बहुत देर तक हकलाता रहा। वह भयातुर हो पीला पड़ गया। अन्त में वह किसी तरह बोला, `माननीय अध्यक्ष महोदय, मैं जो कुछ कहना चाहता था, वह सब भूल गया हूँ।' वह बेचारा पूरी तरह से भयभीत लग रहा था। सभी सदस्य हैरान, कोई भी यह समझ नहीं पा रहा था कि उस बेचारे की बौखलाहट पर क्या कहा जाए? हमारी सोसायटी में जो लेख पढ़े जाते थे वे मुद्रित नहीं होते थे, इसलिए मुझे अपने लेखों को मुद्रित रूप में देख पाने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन मुझे मालूम है कि डॉक्टर ग्रान्ट ने मेरी छोटी-सी खोज को फ्लास्ट्रा पर अपने अनुसंधान लेख में स्थान दिया था।

मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी का भी सदस्य था, और इसमें भी नियमित रूप से शामिल होता था। इसके सभी विषय पूरी तरह से मेडिकल से जुड़े थे, इसलिए मेरी रुचि अधिक नहीं रही। यहाँ तो सब ऊल-जलूल ही बातें होती थीं, लेकिन इसमें कुछ अच्छे वक्ता भी थे। इनमें सर जे के शटलवर्थ सर्वोत्तम थे। डॉक्टर ग्रान्ट मुझे यदा कदा वर्नेरियन सोसायटी की सभाओं में भी ले जाते थे। वहाँ प्राकृतिक इतिहास पर विभिन्न आलेखों का वाचन किया जाता था, विचार विमर्श होता और फिर उन्हें ट्रान्जक्शन्स में प्रकाशित किया जाता था। मैंने सुना था कि ऑडोबान ने दक्षिण अमरीकी पक्षियों की आदतों पर रोचक आख्यान दिया था। वाटरटन में बड़े ही अन्यायपूर्वक तरीके से उसका तिरस्कार हुआ। इस सबके बीच मैं यह भी बताना चाहूंगा कि एडिनबर्ग में एक नीग्रो रहता था, जिसने वाटरटन के साथ यात्रा की थी। मरे हुए पक्षियों में भुस भर कर वह अपना जीवन यापन करता था। इस काम में उसे महारथ हासिल थी। कुछ पैसे लेकर उसने मुझे भी यह काम सिखा दिया। अक्सर मैं उसके पास बैठता था। वह बड़ा ही खुशमिज़ाज और बुद्धिमान व्यक्ति था।

मिस्टर लियोनार्ड हार्नर एक बार मुझे रायल सोसायटी ऑफ एडिनबर्ग की सभा में भी ले गए। वहाँ मैंने सर वाल्टर स्कॉट को अध्यक्ष के रूप में देखा। सर स्काट इस बात के लिए माफी माँग रहे थे कि वे उस पद के लायक नहीं थे। मैंने उन पर और समूचे दृश्य पर हैरानी और श्रद्धापूर्वक निगाह दौड़ायी। मैं समझता हूँ इसका कारण यह था कि मैं वहाँ काफी युवावस्था में पहुंच गया था और मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी की सभाओं में जाता रहता था, लेकिन मुझे इस बात का गर्व था कि इन दोनों ही सोसायटियों ने कुछ ही बरस पहले मुझे अपनी सदस्यता प्रदान की थी, जो अपने आप में किसी भी सम्मान से कहीं अधिक था। यदि मुझे कभी बताया जाता कि मुझे यह सम्मान मिलेगा तो मैं कहता हूँ कि मुझे ही यह हास्यास्पद और असम्भव सा लगता, जैसे कि किसी ने मुझसे कह दिया हो कि `तुम्हें इंग्लैन्ड का राजा चुना जाना चाहिए'।

एडिनबर्ग प्रवास के अपने दूसरे बरस में मैंने भूविज्ञान और प्राणीविज्ञान पर जेम्सन के व्याख्यान सुने, पर ये बहुत ही नीरस थे। इनका मुझ पर जो समग्र प्रभाव पड़ा, वह यही था कि मैं ताज़िन्दगी भूविज्ञान पर कोई किताब पढ़ने का प्रयास न करूँ या फिर विज्ञान का अध्ययन ही न करूँ। तो भी इतना तो पक्का ही है कि मैं इस विषय पर दार्शनिक व्याख्यान के लिए तैयार था, क्योंकि श्रापशायर के निवासी एक बुज़ुर्ग मिस्टर कॉटन को चट्टानों की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ही दो तीन बरस पहले श्रूजबेरी शहर में पड़े एक शिलाखण्ड के बारे में बताया था। इस शिलाखण्ड को लोग बेलस्टोन कहते थे। इसके बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि कैम्बरलैन्ड या स्कॉटलैन्ड से पहले इस तरह की चट्टानें नहीं मिलती हैं। उन्होंने मुझे बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से बताया कि जिस जगह पर यह शिलाखण्ड पड़ा था, उस जगह तक यह कैसे पहुँचा, यह भेद तो शायद प्रलय के बाद भी नहीं खुलेगा। इसका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और मैं इस सुन्दर शिलाखण्ड के बारे में कई बार चिन्तन करता रहता था। इसी बीच जब मैंने यह वृत्तान्त पढ़ा कि किस प्रकार आइसबर्ग के माध्यम से बड़े बड़े शिलाखण्ड भी अपनी जगह बदल देते हैं, तो मैं पुलकित हो उठा, और मैं उन महाशय के भूविज्ञान के ज्ञान की दशा पर रीझ गया।

यह तथ्य भी मुझे उतना ही चमत्कारी लगा, जब सड़सठ वर्ष की अवस्था में मैंने सेलिसबरी क्रेग में एक प्रोफेसर से काले रंग की चट्टान के बारे में व्याख्यान सुना। हमारे आस पास तो ज्वालामुखीय चट्टानें हैं। उस परिवेश में बादामी आकार वाले किनारों और दोनों तरफ कठोर परत वाली इस चट्टान के बारे में उन्होंने कहा कि इसमें कोई दरार रही होगी जिस पर ऊपर से गाद भरती चली गयी। उपहासपूर्वक उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह कठोर परत तरल रूप में नीचे से घुसी हुई होगी। यह लैक्चर सुनने के बाद तो भूविज्ञान के व्याख्यान सुनने में अपने परहेज़ पर मुझे क़तई हैरानी नहीं हुई।

जेम्सन के व्याख्यान सुनने के बाद मैं मिस्टर मैकागिलिवरे से परिचित हुआ। ये एक संग्रहालय के क्यूरेटर थे। इन्होंने स्काटलैन्ड के पक्षियों पर एक बड़ी पुस्तक का प्रकाशन कराया। मैं उनके साथ प्राकृत इतिहास पर रोचक चर्चा करता रहता था, और वह मुझसे प्रसन्न भी रहते थे। उन्होंने मुझे कुछ दुर्लभ शल्क भी दिए। उस समय मैं समुद्री मोलस्कों का संग्रह कर रहा था, लेकिन इस संग्रह के लिए मुझ में कोई खास उत्साह नहीं था।

इन दोनों ही वर्षों में गर्मी की छुट्टियों में मैंने खूब मज़े मारे। हाँ, इतना ज़रूर था कि कोई न कोई पुस्तक मैं हमेशा पढ़ता रहता था। सन 1826 की गर्मियों में मैंने अपने दो दोस्तों को साथ लिया, अपने-अपने पिट्ठू थैले लादे और नॉर्थ वेल्स की सैर को पैदल ही निकल गए। एक दिन में हम तीस मील तो चले ही जाते थे। एक दिन हमने स्नोडान में पड़ाव भी डाला। एक बार मैं अपनी बहन के साथ घुड़सवारी करता हुआ नॉर्थ वेल्स की सैर को भी गया था। एक नौकर ने काठी वाले झोले में हमारे कपड़े संभाले हुए थे। पतझड़ का सारा मौसम निशानेबाजी में जाता था। यह समय मैं ज्यादातर वुडहाउस में मिस्टर ओवेन और मायेर में अंकल जोस के साथ बिताता था। निशानेबाजी का तो मुझ पर जुनून-सा सवार था। इतना कि जब मैं सोने के लिए जाता तो अपने शिकारी जूते भी पलंग के पास ही रख लेता था ताकि सवेरे उठते ही उन्हें पहन सकूँ और अपना एक मिनट भी बरबाद किए बिना तैयार हो जाऊँ।

एक बार 20 अगस्त को तो अपने इसी प्रिय खेल के चक्कर में मैं मायेर में काफी दूर तक निकल गया, और घने सरकण्डों तथा स्काटलैन्ड में पाए जाने वाले देवदार के पेड़ों के बीच सारा दिन गेमकीपर के साथ भटकता रहा।

पूरे मौसम में मैं जितने पक्षियों का शिकार करता था, उन सब का पूरा लेखा-जोखा रखता था। एक दिन वुडहाउस में मिस्टर ओवेन के ज्येष्ठ पुत्र कैप्टन ओवेन और उनके कज़िन मेजर हिल के साथ निशानेबाजी कर रहा था। यही मेजर हिल आगे चलकर लार्ड बेरविक के नाम से मशहूर हुए। इन दोनों ही से मेरी खूब छनती थी। इसी का फायदा उठाते हुए उस रोज़ दोनों ने मुझे खूब छकाया, क्योंकि जितनी बार मैं गोली चलाता और सोचता कि मैंने एक पक्षी मार लिया है तो फौरन ही दोनों में से कोई एक अपनी बन्दूक में गोली भरने का स्वांग करने लगता, और वहीं से चिल्लाता, `तुम उस पक्षी की गिनती मत करना क्योंकि उसी वक्त मैंने भी गोली चलायी थी'। और तो और, गेमकीपर भी उनके इस मज़ाक को समझ गया और उन्हीं का साथ देने लगा। कुछ घंटों के बाद जब उन्होंने इस मज़ाक के बारे में बताया, तो साथ ही यह भी बताया कि उस दिन मैंने बहुत से पक्षियों का शिकार किया था, लेकिन मुझे नहीं मालूम है कि कितने पक्षियों का, क्योंकि उनके मज़ाक के चक्कर में मैंने गिनती नहीं की थी। अमूमन ऐसा होता था कि अपने कोट के बटन के साथ मैं एक धागा लटका लेता था और जितने पक्षी मैं मारता था उतनी ही गाँठें उस धागे में लगाता जाता था, पर उस दिन मैं ऐसा नहीं कर पाया था। यह मेरे ठिठोलीबाज़ दोस्तों को मालूम था।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

---

tag – charls darwin, theory of evolution, origin of species,  charls darvin’s autobiography in hindi, suraj prakash, k p tiwari

COMMENTS

BLOGGER: 5
  1. समझ में नहीं आता टूकड़ों में पढ़ूं या एक साथ.

    जवाब देंहटाएं
  2. रवि जी, सूरज प्रकाश जी और तिवारी जी। मैं धन्य हो गया। इस आत्मकथा को हिन्दी में कर। चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त वह चीज है जिस ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। उस ने 14-15 वर्ष की आयु में मेरी सोच के सामने खड़े बहुत सारे प्रश्नों को तत्काल हल कर दिया था। उन का विकासवाद का सिद्धान्त वह चीज है जिस को पढ़ कर वैचारिक अंधता को रोशनी मिल सकती है।
    इस प्रकाशन के लिए बहुत बहुत आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. dhanyvad...
    suraj prakash va k p tiwari ne sarahneey kaam kiya hai- schmuch..
    anuvad ke liye kai bar credit line kyon diya gaya pata nahi.
    yah sundar nahi lagata.

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी11:29 pm

    me abhar karta hu jisne ye padneko chan6 dediya .padya bahut acha6a laga
    ---anabrat@yahoo.com
    chitwan nepal

    जवाब देंहटाएं
  5. बेनामी7:12 pm

    ye atam kathaa padkar apne din yad ate hai

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (1)
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (1)
http://lh6.ggpht.com/raviratlami/SMeQTM-K_KI/AAAAAAAADqY/oehNNgPSXKE/charls%20darwin_thumb.jpg?imgmax=800
http://lh6.ggpht.com/raviratlami/SMeQTM-K_KI/AAAAAAAADqY/oehNNgPSXKE/s72-c/charls%20darwin_thumb.jpg?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2008/09/1.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2008/09/1.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content