चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (3)

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[हर जीवित वस्तु को जो पढ़ सकता हो, उसे इसे आवश्यक रूप से पढ़ना चाहिए…] चार्ल्स   डार्विन   की   आत्मकथा अनुवाद एवं प्रस्तुति ...

[हर जीवित वस्तु को जो पढ़ सकता हो, उसे इसे आवश्यक रूप से पढ़ना चाहिए…]
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

charls darwin

अनुवाद एवं प्रस्तुति :

 सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

 

(पिछले अंक से जारी…)


मैंने अपना कोई भी काम इतने तर्कपूर्ण ढंग से शुरू नहीं किया था जितना कि यह, क्योंकि समूचा सिद्धान्त दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर मूंगे की भित्ति देखने के बाद ही निर्धारित हुआ था। अब जीवित भित्तियों को देखकर इसमें कुछ सत्यापन और संशोधन बाकी थे। पर इसी बीच मैं दक्षिण अमरीका के भू-भाग के सविरामी उठान से वहाँ के समुद्र तट पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहा था। साथ ही, वनों के नष्ट होने और तलछट के जमाव का अध्ययन भी जारी था। इससे मैं प्रेरित हुआ कि अधोगमन के प्रभाव पर भी कुछ लिखूं, क्योंकि यह अनुमान लगाना आसान था कि मूंगों के ऊपर उठते जाने से तलछट पर मिट्टी जमती चली गयी होगी। इसके लिए मैंने उपरोधी भित्तियों और प्रवाल द्वीप (मूंगे के द्वीप) के निरूपण का सिद्धान्त व्यक्त किया था।

लन्दन में रहने के दौरान मैंने मूंगा भित्तियों के अलावा जिओलोजिकल सोसायटी में इरेटिक बाउल्डर्स ऑफ साउथ अमेरिका, भूकम्प और दि फार्मेशन बाय एजेन्सी ऑफ अर्थवार्म्स ऑप माउल्ड पर भी लेख पढ़े। मैं जूलॉजी ऑफ दि वायज ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की देखरेख भी कर रहा था। यही नहीं, ओरिजिन ऑफ स्पीशिज से जुड़े तथ्यों का संकलन भी मैंने रोका नहीं था। जब मैं बीमारी के कारण कुछ और नहीं कर पाता था तो बस यही करता रहता था।

सन 1842 की ग्रीष्म ऋतु में थोड़े अरसे के लिए शरीर में थोड़ी ताकत महसूस की तो नार्थ वेल्स की यात्रा पर निकल पड़ा ताकि यह जान सकूं कि बड़ी बड़ी घाटियों को पानी से भर देने वाले पुराने ग्लेशियरों का क्या प्रभाव पड़ा। फिलास्फिकल मैगजीन में जो लेख मैंने पढ़ा उस पर एक संक्षिप्त आलेख भी मैंने प्रस्तुत किया। इस यात्रा में किसी पर्वतमाला पर चढ़ने या घूमने का काम मैंने आखिरी बार किया क्योंकि इसके बाद मेरा शरीर इतना मज़बूत नहीं रह गया था कि भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के लिए ज़रूरी दूरियां तय कर सकूं या पहाड़ों पर चढ़ सकूं।

लन्दन में जितना जीवन मैंने गुज़ारा, उसके शुरुआती दिनों में शरीर में इतना दम-खम था कि मैं जनरल सोसायटी में जा सकूं। मैं कई वैज्ञानिकों तथा अन्य सुप्रसिद्ध या अल्प प्रसिद्ध लोगों से मिला। यहां मैं उनमें से कुछ का ज़िक्र करूंगा, हालांकि उनके विषय में ज्यदा कुछ नहीं कहना है।

अपनी शादी के पहले और बाद में मेरा लेयेल से सबसे ज्यादा मिलना-जुलना रहा। मुझे ऐसा लगता है कि उसका दिमाग काफी सुलझा हुआ था। उसकी स्पष्टतवादिता, सजगता, विवेकशीलता और उसके लेखों में मौलिकता, इन सबसे तो यही प्रकट होता था। मैं भूविज्ञान के बारे में जब भी उसके लेखों के बारे में कोई टीका टिप्पणी कर देता था तो वह तब तक चैन नहीं लेता था जब तक कि सारे मामले को फिर से न देख ले और कई बार मुझे भी पहले के मुकाबले अधिक ध्यान देते हुए देखना पड़ जाता था। वह मेरे सभी सुझावों पर हर सम्भव प्रतिवाद करता और सभी तर्क खत्म हो जाने के बावजूद काफी समय तक संदेह से घिरा रहता था। उसकी दूसरी विशेषता थी, अन्य वैज्ञानिकों के काम के साथ उसकी हार्दिक संवेदना।

बीगल की यात्रा से लौटने के बाद मैंने मूँगा भित्तियों के बारे में अपने विचार उसे बताये। हालांकि मेरे विचार उससे अलग थे, लेकिन जिस मनोयोग से उसने मेरी बातें सुनीं उस पर मैं हैरान था। विज्ञान में उसकी रुचि बड़ी प्रबल थी, और मानव-मात्र की प्रगति के बारे में उसके बड़े नेक विचार थे। वह बड़ा ही दयालु और धार्मिक विश्वासों या कुछेक अविश्वासों को लेकर पूरी तरह से उदार था; लेकिन था वह पक्का आस्तिक और बड़ा ही निष्पक्ष। लैमरिक के विचारों का विरोध करने के कारण उसे बड़ी ख्याति मिली थी। लेकिन ब़ुढ़ापे में उसने डीसेन्ट थ्योरी को अपनाया और अपने चरित्र की इसी विशेषता का परिचय दिया।

एक बार जब मैं उसके साथ इस बात की चर्चा कर रहा था कि भूवैज्ञानिकों का पुराना सम्प्रदाय उसके विचारों से सहमत नहीं है, तो इसी सिलसिले में मैंने कहा था कि, `क्या ही बेहतर हो कि प्रत्येक वैज्ञानिक साठ साल का होते ही चल बसे, क्योंकि इसके बाद वह हर नए सिद्धान्त का विरोध ही करता रहता है।' यही बात याद कराते हुए उसने मुझसे कहा कि अब उसे जीने की अनुमति दी जा सकती है।

भूविज्ञान अब तक हुए सभी वैज्ञानिकों का जितना ऋणी लेयेल का है, उतना शायद किसी और का नहीं, ऐसा मेरा मानना है। जिस समय मैं बीगल की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहा था, तो हेन्सलों उस समय अन्य भूवैज्ञानिकों की ही तरह से सोपानिक जल-प्रलय में विश्वास करते थे। उन्होंने मुझे सलाह दी थी कि मैं दि प्रिन्सिपल्स का पहला खंड पढ़ लूं, यह बस, तभी प्रकाशित ही हुआ था। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उस पुस्तक में बताए विचारों को मैं स्वीकार करूं, ये ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब देखें तो कोई भी दि प्रिन्सिपल्स के बारे में कितने अलग विचार व्यक्त करेगा। मुझे याद करके गर्व हो रहा है कि वेरदे अन्तरीप के द्वीप-समूहों में सेन्ट जेगो नामक जगह थी जिसका मैंने पहली बार भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण किया था, और इसी स्थान पर लेयेल के विचारों की अद्वितीय श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी थी। इस तरह के विचारों का समर्थन किसी और किताब में मुझे नहीं मिला।

लेयेल की कृतियों का जोरदार प्रभाव फ्रांस और इंग्लैंड में विज्ञान की अलग अलग प्रगति पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस समय एली डी ब्यूमान्ट की मूल कल्पना व्यक्त हुई थी, क्रेटर्स ऑफ एलिवेशन एन्ड लाइन्स ऑफ एलिवेशन (जिसके लिए सेडविक ने जिओलॉजिकल सोसायटी में तारीफों के पुल बांध दिए थे) में। आज इसे लगभग भुला दिया गया है, इसका श्रेय भी लेयेल को ही जाता है।

मेरा परिचय राबर्ट ब्राउन से भी था। होम्बाल्ड उन्हें प्रिन्सेप्स बोटानिकोरम की प्रतिकृति कहते थे। अपने अन्वेषणों की बारीकी और परिशुद्धता के लिए उनका बहुत नाम था। उनका ज्ञान बहुत ही व्यापक था, और सब कुछ उनके साथ ही काल के गर्त में समा गया, क्योंकि इस बात से वे बहुत डरते थे कि कहीं कोई गलती हो जाए। उन्होंने मुझ पर अपने ज्ञान की वर्षा बिना भेदभाव के की, लेकिन कई बातों में वे मुझसे ईर्ष्या भी करते थे। बीगल की यात्रा से पहले मैं तीन बार उनसे मिलने गया। एक बार उन्होंने मुझे सूक्ष्मदर्शी के नीचे कुछ दिखाया और पूछा कि मैंने क्या देखा। मैंने बता दिया कि क्या देखा और मुझे पूरा विश्वास है कि किसी वनस्पति कोशिका में प्राण द्रव्य की अनोखी धाराएं बह रही थीं। जब मैंने पूछा कि यह क्या था, तो वे बोले, `यह मेरा छोटा-सा रहस्य है।'

उनके क्रियाकलापों में भी उदारता झलकती थी। अपने बुढ़ापे में, जब वे दौड़-भाग के लायक नहीं रह गए थे तो भी (हूकर ने मुझे बताया था) वे काफी दूर रहने वाले अपने नौकर के पास जाकर (जो इन्हीं के सहारे था) उसका हालचाल पूछते और उसे कुछ कुछ पढ़कर सुनाते। यह किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक में हार्दिक कंगाली या ईर्ष्या पैदा करने के लिए काफी है।

मैं कुछ ख्याति प्राप्त लोगों का भी जिक्र करूँगा जिनसे मैं यदा-कदा मिलता रहता था, लेकिन उन सबके बारे में ज्यादा कुछ लिख पाऊंगा मेरे मन में सर जे हर्शेल के प्रति अगाध श्रद्धा थी। आशा अन्तरीप पर उनके सुन्दर घर और बाद में उनके लन्दन स्थित घर पर भोजन करके मैं अति प्रसन्न होता था। वे ज्यादा नहीं बोलते थे, लेकिन जितना भी बोलते थे वह सब सुनने लायक होता था।

एक बार मैं नाश्ते के समय सर आर मर्चिसन के घर पर मैं मशहूर हम्बोल्ड से भी मिला। उन्होंने भी मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर करके मुझे इज्जत बख्शी थे। मैं उन जैसे महान व्यक्ति से मिल कर थोड़ा निराश हुआ। शायद मैं कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठा था। अपनी इस मुलाकात के बारे में मुझे ज्यादा कुछ याद नहीं, बस इतनी ही बात याद है कि हम्बोल्ड बहुत खुश-मिजाज़ और बातूनी थे।

इससे मुझे याद आती है बंकल की, जिनसे मैं हेन्सलो वेजबुड के घर पर मिला था। बंकल ने तथ्यों के संग्रह का जो तरीका अपनाया हुआ था, उससे मैं काफी प्रभावित हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि जो भी किताब वे पढ़ते थे, उसे खरीद लेते थे और हरेक के साथ उन तथ्यों की सूची बना कर लगा देते थे जो उन्हें बाद में उपयोग में आने लायक लगते थे। उन्हें यहाँ तक याद रहता था कि किस किताब में उन्होंने क्या पढ़ा था। मैंने उनसे पूछा कि वे यह पता कैसे लगा लेते हैं कि कोई तथ्य बाद में उपयोगी रहेगा। इस पर उनका जवाब था कि उन्हें पता नहीं, लेकिन कोई नैसर्गिक प्रवृत्ति है जो उन्हें रास्ता दिखाती है। सूची बनाने की इस आदत के कारण वे सभी प्रकार के विषयों पर इतने उदाहरणों का उल्लेख कर देते थे कि हैरानी होती थी। हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन में यह देखा जा सकता है। यह किताब मुझे काफी रोचक लगी। मैंने इसे दो बार पढ़ा, लेकिन उन्होंने जो साधारणीकरण किया है, उसकी उपयोगिता पर मुझे संदेह है। बंकल अच्छे वक्ता थे। मैंने उनके व्याख्यान भी सुने थे, और मैं मंत्र मुग्ध-सा सुनता रह गया था, क्योंकि व्याख्यान में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसी बीच मिसेज फेरेर ने गाना शुरू कर दिया था, और मैं उनका गीत सुनने के लिए चल दिया। जब मैं चला गया तो वहीं बैठे अपने दोस्त से वे बोले (जिसे मेरे भाई ने सुन लिया) कि, `मिस्टर डार्विन की किताबें उनकी बातचीत से कहीं बेहतर हैं।'

अन्य महान साहित्यकारों में से एक बार मैं डीन मिलमैन के घर पर सिडनी स्मिथ से मिला। उनका बोला हुआ हर शब्द अकथनीय रूप से मनोरंजक था। शायद यह आनन्दित होने के कारण था। वे बुजुर्गवार लेडी कोर्क के बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि वह एक बार धर्मार्थ आयोजन में व्याख्यान दे रहे थे, और उस व्याख्यान से प्रभावित होकर उस महिला ने अपनी दोस्त से एक गिन्नी उधार लेकर कटोरे में डाली। फिर वे बोले, `आम तौर पर यही माना जाता है कि इन बुजुर्गवार लेडी कोर्क पर अभी तक उसकी नज़र नहीं पड़ी।' और यह बात उन्होंने इस ढंग से कही कि वहां मौजूद हरेक को तुरन्त यह पता चल गया कि उस बुजुर्ग औरत पर अभी शैतान की नज़र नहीं पड़ी है। उन्होंने यह किस ढंग से किया मुझे नहीं मालूम।

इसी प्रकार मैं एक बार लार्ड स्टैनहोप (इतिहासकार) के घर पर मैकाले से मिला। वहाँ भोजन पर एक और व्यक्ति भी था। मैंने वहां मैकाले की बातचीत सुनीं और वे बातें मुझे स्वीकार्य लगीं। वह बहुत बात नहीं करते थे। इस प्रकार के व्यक्ति अधिक नहीं बोलते। वे तो दूसरों को बार बार मौका दे रहे थे कि वे बातचीत का सूत्र अपने हाथ में भी लें, और उनकी अनुमति से दूसरे यही कर भी रहे थे।

लार्ड स्टैनहोप ने एक बार मुझे मैकाले की स्मरणशक्ति की सम्पूर्णता और परिशुद्धता का प्रमाण दिया था। लार्ड स्टैनहोप के ही घर पर मैं उनके इतिहासकार और अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मिला। इन्हीं में मॉटले और ग्रोटे भी थे। नाश्ते पानी के बाद मैं ग्रोटे के साथ शेवेनिंग पार्क के पास तकरीबन एक घंटे तक घूमता रहा। मैं ग्रोटे की बातचीत तथा उसकी सरलता से बहुत प्रभावित हुआ। उसके आचरण मैं बनावटीपन तो था ही नहीं।

बहुत पहले मैंने इन्हीं इतिहासकार के पिता बुजुर्ग अर्ल के साथ भी भोजन किया था। वे बड़े अजीब व्यक्ति थे, लेकिन जितना भी मैंने उन्हें जाना था उसके आधार पर मैं उन्हें बहुत पसन्द करता था। वे स्पष्टवादी, मज़े लेने वाले और खुशमिजाज़ थे। उनकी शक्ल सूरत काफी अलग थी। बादामी रंग का शरीर और ऊपर से नीचे तक बादामी रंग के कपड़ों में ढंके थे वे। जो दूसरों को अविश्वसनीय लगता था, उन्हें उस पर भी भरोसा था। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम यह भू-विज्ञान और प्राणि-विज्ञान की खुराफात को छोड़ कर गुह्य-ज्ञान की साधना क्यों नहीं करते? मेरे इतिहासकार मित्र लार्ड मेहोन उनकी यह बात सुनकर हतप्रभ रह गए और उनकी प्रसन्नवदना पत्नी तो और भी परेशान हो गयी।

इन लोगों में आखिरी नाम है कार्लाइल का, जिनसे मैं अपने भाई के घर पर भी आए। उनकी बातें बड़ी सरस और रोचक होती थीं। ठीक ऐसा ही लेखन भी था उनका; लेकिन कई बार वे विषय को काफी लम्बा खींच देते थे। एक बार मेरे भाई के घर पर डिनर में खूब मज़ा आया। वहाँ अन्य लोगों के अलावा बैबेज और लेयेल भी थे। दोनों आपस में बातें कर रहे थे। डिनर के दौरान कार्लाइल ने मौन की महानता पर ज़ोरदार तकरीर करते हुए लगभग सभी को चुप ही रखा। डिनर के बाद बैबेज ने बड़े ही विचित्र रूप से कार्लाइल का धन्यवाद किया कि उन्होंने मौन के बारे में बड़ा ही रोचक व्याख्यान दिया।

कार्लाइल ने लगभग सभी का मज़ाक उड़ाया। एक दिन मेरे घर पर उन्होंने ग्रोटे लिखित हिस्ट्री के लिए कहा,`एक बदबूदार दलदल जिसमें कुछ भी उपयोगी नहीं।' उनकी रेमिनिसेन्सेस प्रकाशित होने तक मैं यही समझता था कि उनके उपहास महज मज़ाक होंगे, लेकिन अब मुझे संदेह होने लगा था। उनकी अभिव्यक्तियाँ किसी निराश और हताश मन को प्रकट करती थीं, लेकिन वे बहुत दयालु भी थे और अपने छतफाड़ ठहाकों के लिए बदनाम थे। मुझे विश्वास है कि उनकी दयालुता वास्तविक थी जिसमें ज़रा भी ईर्ष्या नहीं थी। वस्तुओं और इन्सानों का चित्र बनाने में उनकी महारथ पर कोई शक नहीं कर सकता था। चित्रकारी में वे मैकाले से बहुत आगे थे। इन्सानों की ये तस्वीरें असल थीं या नहीं यह प्रश्न अलग है।

वे इन्सान के ज़ेहन पर बड़े ही ताकतवर तरीके से सच्चाई का असर डालते थे। दूसरी तरफ गुलामी प्रथा के बारे में उनके विचार बड़े ही घृणास्पद थे। उनकी नज़र में तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। मुझे लगता है, उनकी विचार धारा बड़ी संकीर्ण थी। यदि उनके द्वारा तिरस्कृत विज्ञान की सभी शाखाओं को अलग कर दिया जाए तो भी। यह मेरे लिए हैरत अंगेज बात थी कि किंग्सले ने उन्हें उच्चस्तरीय विज्ञान के लिए एकदम सही व्यक्ति बताया था। वह इस विचार को हंसी में उड़ा देते थे कि व्हीवेल जैसे गणितज्ञ भी प्रकाश के बारे में गोयथे के दृष्टिकोण पर कुछ विचार कर पाएंगे, जबकि मैं मानता था कि ऐसा हो सकता है। उनके विचार से यह बड़ा ही हास्यास्पद था कि कोई इस बात पर ध्यान दे कि कोई हिमनद तेजी से आगे बढ़ा या धीरे धीरे या फिर हिला भी नहीं। जहां तक मैं विचार करता हूं, तो मुझे वैज्ञानिक शोध को लेकर इतने बीमार दिमाग का कोई आदमी नहीं मिला। लन्दन में रहने के दौरान मैं विभिन्न वैज्ञानिक सोसायटियों की सभाओं में जितना जा सकता था गया, और जिओलॉजिकल सोसायटी के सचिव के रूप में भी काम किया। लेकिन इस दौड़-भाग ने और आर्डिनरी सोसायटी ने मेरी सेहत पर इतना उल्टा असर किया कि हमें शहर छोड़ कर ग्रामीण इलाके में बसना पड़ा। इसे हम दोनों ने स्वीकार किया और इस पर हमें कभी पछतावा भी नहीं हुआ।

डाउन में घर - 14 सितम्बर 1842 से लेकर वर्तमान 1876 तक

सर्रे और दूसरे स्थानों पर काफी खोजबीन के बाद हमें यह घर मिला और हमने खरीद भी लिया। चाक मिट्टी की बहुतायत वाले इलाके में पायी जाने वाली हरियाली चारों ओर थी, और मिडलैन्ड इलाके में जिस वातावरण का मैं आदी था, उससे अलग माहौल था, तो भी उस स्थान की अत्यधिक शान्ति और नैसर्गिकता से मैं अभिभूत था। जर्मन पत्रिकाओं ने मेरे घर के लिए लिखा था कि वहाँ केवल टट्टू ही पहुंच सकते थे, लेकिन मेरा घर इतने एकान्त और दुर्गम स्थान पर भी नहीं था। हम कितनी अच्छी जगह रह रहे थे इसका बेहतर जवाब हमारी संतानें दे सकती हैं, कि वहाँ बार बार जाना और पहुंचना कितना आसान था।

जितने एकान्त में हम रह रहे थे, कुछ लोग उससे भी ज्यादा एकान्त में जीवन बिताते हैं। फिर भी अपने रिश्तेदारों के घर और समुद्र किनारे या फिर एकाध और जगह जाने के अलावा हम कहीं नहीं गए। यहां निवास के पहले दौर में हम थोड़ा-बहुत सोसायटी में जाते थे और कुछ दोस्तों को बुला लेते थे। मेरी सेहत खराब रहती थी, मुझे बार बार दौरे पड़ते। भयंकर कंपकंपी होती और कई बार उल्टियां शुरू हो जाती थीं। इसलिए मैं कई बरस तक डिनर पार्टियों से दूर रहा, और इस तरह कई चीज़ों से वंचित भी रहा, क्योंकि ये पार्टियां मुझमें जोश भर देती थीं। इस कारण से मैं अपने घर पर भी बहुत कम वैज्ञानिक सभाएं करा सका।

सारी ज़िन्दगी मेरी खुशी का कारण और एकमात्र रोज़गार वैज्ञानिक लेखन ही रहा, और मैं ऐसे काम में कुछ इस तरह से डूबता था कि समय का भान ही नहीं रहता था। यही नहीं, मैं अपनी तकलीफ भी भूल जाता था। शेष बचे जीवन के लिए कुछ लिखने को नहीं, हां इतना ज़रूर है कि मेरी कुछ किताबों का प्रकाशन उल्लेखनीय है। मैं यह ज़रूर बताऊंगा कि मेरी कुछ किताबों की रूपरेखा कैसे बनी।

मेरे विभिन्न प्रकाशन : सन 1844 के पहले भाग में मेरे संस्मरण प्रकाशित हुए थे जो बीगल की यात्रा के दौरान देखे गए ज्वालामुखीय द्वीपों के बारे में थे। सन 1845 में काफी मेहनत करके मैंने जर्नल ऑफ रिसर्च के नए संस्करण का संशोधन किया। पहले यह 1839 में फिट्ज राय के लेखन के साथ प्रकाशित हो चुका था। मेरी इस प्रथम साहित्यिक कृति की सफलता मुझमें मेरी ही अन्य पुस्तकों के मुकाबले अधिक गर्व का संचार कर देती है। आज भी इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमरीका में इसकी काफी बिक्री होती है, और जर्मन में इसका दो बार अनुवाद तो हुआ ही, फ्रेन्च तथा अन्य भाषाओं में भी इसके अनुवाद प्रकाशित हुए। यात्रा वृत्तांत, खासकर वैज्ञानिक कोटि की पुस्तक के प्रथम प्रकाशन के इतने दिन बाद भी ऐसी बिक्री आश्चर्यजनक है। इंग्लैन्ड में दूसरे संस्करण की दस हजार प्रतियां बिक गयीं। सन 1846 में मेरी कृति जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स ऑन साउथ अमेरिका प्रकाशित हुई। मैं हमेशा एक डायरी लिखता था और उसमें यह दर्ज है कि मेरी तीनों जिओलॉजिकल पुस्तकों (कोरल रीफ्स् सहित) में साढ़े चार बरस की मेहनत लगी; और इंग्लैन्ड लौटे हुए मुझे दस बरस हो चुके हैं। कितना ही समय मैंने बीमारी में गंवाया। इन तीनों किताबों के बारे में मुझे और कुछ नहीं कहना। हां, इनमें से एक का नया संस्करण आ रहा है, इसकी हैरानी जरूर है।

अक्तूबर 1846 में मैं `सिरीपेडिया' (जलयान की तली में चिपके रहने वाले घोंघे) पर काम कर रहा था। चिली के समुद्र तट पर मुझे इसकी बड़ी ही अजीब किस्म मिली। यह कान्कोलेपास के खोल में घुसा हुआ था, और यह दूसरे `सिरीपेडिया' से इतना अलग था कि मुझे इसके लिए नया अनुक्रम बनाना पड़ा। बाद में पुर्तगाल के समुद्र तटों पर भी इसी प्रकार के समवर्गी शंख मिले। इस नए घोंघे की संरचना को समझने के लिए मुझे कई सामान्य प्रकार के घोंघों की चीरफाड़ करनी पड़ी और इससे मैंने क्रमश: एक नया समूह ही बना डाला। आने वाले आठ बरस तक मैं इसी विषय पर जी जान से जुटा रहा और अन्तत: दो मोटे खंड प्रकाशित कराए, जिनमें सभी जीवित प्रजातियों का विवरण था और दो छोटे प्रकाशन विलुप्त प्रजातियों के बारे में थे। मुझे संदेह नहीं कि सर ई लेट्टन बुलवर ने अपने एक उपन्यास में जिस प्रोफेसर लाँग का जिक्र किया है, वह मैं ही हूं। उपन्यास का प्रोफेसर भी चिपकू घोंघों के बारे में पुस्तकों के दो खंड लिखता है।

हालांकि मैं इस काम पर आठ बरस तक लगा रहा, लेकिन डायरी में मैंने बताया है कि दो बरस तो बीमारी की भेंट चढ़ गए। बीमारी के ही चलते मैंने 1848 में कुछ माह के लिए मेलवर्न में जाकर जलचिकित्सा से इलाज कराया, जिससे मुझे काफी फायदा भी हुआ। इसके बाद घर लौटते ही मैंने काम संभाल लिया। मेरी सेहत इतनी खराब थी कि 13 नवम्बर 1848 को पिताजी का देहान्त होने पर उनको दफनाने या बाद में वसीयत का हक लेने भी नहीं जा सका।

मैं समझता हूं कि सिरीपेडिया' के बारे में मैंने जो अध्ययन किया वह काफी मूल्यवान है, क्योंकि इसमें इस घोंघे के विभिन्न अंगों की सजातीयता का उल्लेख है। मैंने घोंघे के खोल बनाने वाले अंगों को खोजा, हालांकि खोल बनाने वाली ग्रन्थियों के बारे में मैंने बहुत बड़ी गलती की थी, और अन्तत: मैंने सिद्ध किया था कि घोंघों की कुछ नस्लों में सूक्ष्म नरों की विद्यमानता उभयलिंगियों की अनुपूरक और उन पर परजीवी होती है। मेरी अंतिम खोज की पूरी तरह से पुष्टि हो चुकी है, हालांकि एक समय ऐसा भी था जब एक जर्मन लेखक ने इस समूची खोज के बारे में कहा था कि यह सब मेरी कल्पना का विलास है। इस घोंघे की इतनी ज्यादा और अलग अलग प्रजातियां हैं कि सभी का वर्गीकरण करना बहुत कठिन है। मेरा यह काम उस समय मेरे बहुत काम आया जब मैंने `ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज' में प्राकृतिक वर्गीकरण पर विचार विमर्श प्रस्तुत किया। इस सबके बावजूद मुझे संदेह है कि इस काम में क्या इतना समय लगाना ठीक रहा।

सितम्बर 1854 से मैंने अपना सारा समय अपने नोट्स के ढेर को व्यवस्थित करने में लगाया, साथ ही जीव प्रजातियों की काया पलट के बारे में भी मैंने ध्यान दिया और कुछ प्रयोग भी किए। बीगल की यात्रा के दौरान मैंने पेम्पीयन संघटना के जीवाश्म खोजे थे, जो इस समय पाए जाने वाले आर्माडिलोस की भांति कठोर खाल से ढंके होते थे; दूसरी बात यह कि उसी महाद्वीप पर जैसे जैसे हम दक्षिण की ओर बढ़े तो बड़ी ही निकट सजातीयता वाले जीव एक दूसरे का प्रतिस्थापन करते दिखाई दिए। और तीसरी बात यह कि दक्षिण अमरीकी लक्षणों के मुताबिक गेलापेगोस द्वीप समूह के अधिकांश जीव जन्तु अलग ही थे। यही नहीं, प्रत्येक द्वीप पर वे अपने ही समूह के जीवों से थोड़ा-सा अलग थे; जबकि इनमें भूवैज्ञानिक दृष्टि से कोई भी द्वीप बहुत प्राचीन नहीं था।

यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार के और इसी तरह के अन्य तथ्यों की व्याख्या केवल इसी प्रत्याशा के आधार पर की जा सकती है कि जीव प्रजातियां धीरे धीरे बदलती चली जाती हैं और फिर इसी विषय ने मुझे विचलित किया। लेकिन साथ-साथ यह भी स्पष्ट था कि प्रत्येक प्रकार का जीव अपने जीवन की परिस्थितियों के प्रति बड़े ही सुन्दर ढंग से अनुकूलित होता है। ऐसे असंख्य मामले दिखाई देंगे, लेकिन इसमें परिस्थितियों या जीव की इच्छा (खासकर पौधों के बारे में) का कोई योगदान नहीं होता है। उदाहरण के लिए कठफोड़वा या पेड़ पर चढ़ने वाले मेंढक या कांटों या पिच्छपर्ण की सहायता से दूर-दूर तक पहुंचने वाले बीज। मैं इस प्रकार की अनुकूलताओं से हमेशा ही प्रभावित हुआ और मुझे लगता है कि जब तक इनकी व्याख्या नहीं हो जाती है अप्रत्यक्ष प्रमाणों से यह सिद्ध करना कि जीव प्रजातियों में परिवर्तन हुए हैं, निरर्थक प्रयास ही कहा जाएगा।

इंग्लैन्ड लौटने के बाद मुझे यह लगा कि भूविज्ञान में लेयेल के उदाहरण का अनुसरण करने और घरेलू या प्राकृतिक वातावरण में जीव जन्तुओं और पेड़ पौधों में बदलाव के बारे में जरा-सा भी सम्बन्ध रखने वाले सभी तथ्यों का संग्रह करने के बाद ही समूचे विषय पर शायद कुछ रोशनी पड़ सके। मेरी पहली नोटबुक जुलाई 1837 में शुरू हुई। मैंने पूरी तरह से बेकोनियन सिद्धान्तों पर कार्य करना शुरू किया और बिना किसी नियम को अपनाए बड़े पैमाने पर तथ्यों का संग्रह करता रहा। इसमें मैंने पालतू पशुओं में प्रजनन पर अधिक ध्यान दिया। इसके लिए मुद्रित पूछताछ सामग्री एकत्र करता था। कुशल प्रजनन कराने वालों और मालियों से बातचीत करता और खूब पढ़ता था। जिन किताबों को मैंने पढ़ा और उनमें से तथ्यों का संग्रह किया, उनकी सूची और जर्नलों तथा ट्रंजक्शन्स की समूची श्रृंखला पर नज़र डालता हूं तो अपनी मेहनत पर मुझे भी आश्चर्य होता है। जल्द ही मुझे यह आभास हो गया कि जानवरों और पौधों की उपयोगी नस्ल तैयार करने में मानव की सफलता की महत्त्वपूर्ण कुंजी है प्रजातियों का सही चयन। लेकिन प्रजातियों का यह चयन प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले जीव जन्तुओं में किस तरह होता होगा। कुछ समय तक यह तथ्य मेरे लिए रहस्य बना रहा।

मैंने पन्द्रह महीने बाद अक्तूबर 1838 में सूत्रबद्ध रूप से पूछताछ शुरू की। मैंने मनोरंजन के लिए माल्थस लिखित `दि पॉपुलेशन ' भी पढ़ा और जीव जन्तुओं तथा पौधों की आदतों पर लम्बे समय से लगातार ध्यान देते हुए ज़िन्दा रहने के संघर्ष की प्रशंसा भी करने लगा। इसी बीच मुझे अचानक ख्याल आया कि इन परिस्थितियों में अनुकूल विभेदों को संरक्षित करने और प्रतिकूल को नष्ट करने की प्रवृत्ति रहती है। इसके परिणामस्वरूप नई नस्ल का जन्म होता है। यहां आकर मुझे एक नियम मिला जिसके अनुसार मैं काम कर सकता था, लेकिन साथ ही मैं पूर्वाग्रहों से बचना चाहता था, इसलिए मैंने यह भी फैसला किया कि कुछ समय तक इसके बारे में लेशमात्र भी नहीं लिखूंगा। जून 1842 में मैंने अपने सिद्धान्तों का सारांश लिखने की शुरूआत की और लगभग 35 पृष्ठ पेन्सिल से लिखे; और 1844 की गरमियों तक मैंने 230 पृष्ठ लिख लिए। इसके बाद मैंने इनकी साफ साफ नकल तैयार की जो अभी तक मेरे पास है।

लेकिन उस समय मैंने एक महत्त्वपूर्ण समस्या की अनदेखी कर दी थी, और यह मेरे लिए अचरज की बात है, क्योंकि कोलम्बस और उसके अण्डे की कहानी वाली बात अलग थी, यहां मैंने अपनी समस्या और उसके समाधान दोनों की ही अनदेखी कर दी थी। समस्या यह थी कि जैसे जैसे संपरिवर्तन होता है तो एक ही वंशमूल के जीवों के लक्षणों में अन्तर आना शुरू हो जाता है। वे बड़े ही विशाल स्तर पर बंटते चले गए हैं। यह विभाजन इस रीति में भी प्रकट हो जाता है जिसके अनुसार सभी नस्लों को प्रजातियों, प्रजातियों को परिवारों, परिवारों को उप विभाजनों और इसी प्रकार आगे वर्गीकृत कर दिया गया है। मैं सड़क पर आज भी उस स्थान को भूला नहीं हूं, जहां पर मैं अपनी टमटम में बैठा था और अचानक ही मुझे इसका समाधान सूझ गया। यह बात डाउन आने के काफी बाद की है। मेरे मतानुसार समाधान यही है कि प्रकृति की गृहस्थी में सभी प्रमुख और वृद्धिशील नस्लों की संपरिवर्तित संततियां अनेक और अत्यधिक विभेदित स्थानों के अनुसार अपने आपको ढालती जाती हैं।

सन 1856 के प्रारम्भ में ही लेयेल ने मुझे सलाह दी कि मैं अपने दृष्टिकोण को विस्तारपूर्वक लिख डालूं, और मैंने तुरन्त ही तीन या चार गुणा बड़े पैमाने पर लेखन शुरू कर दिया जो मेरी पुस्तक दि ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज में भी दिखाई देगा। तो भी जितनी सामग्री मैंने बटोरी थी, उसका सारांश था इसमें। और इस रूप में मैं केवल आधा कार्य ही प्रस्तुत कर पाया। लेकिन मेरी योजना धरी रह गयी क्योंकि 1858 की गर्मियों की शुरुआत में ही मलय द्वीप समूह से मिस्टर वैलेस ने `आन दि टेन्डेन्सी ऑफ वैरायटीज टू डिपार्ट इन्डैफिनेटली फ्रॉम दि ऑरिजनल टाइप,' विषय पर एक निबन्ध भेजा। इस निबन्ध में वही सिद्धान्त थे जिनकी मैंने रूपरेखा बनायी थी। मिस्टर वैलेस ने लिखा था कि यदि मैं उनके निबन्ध को सही समझूं तो लेयेल के अवलोकन हेतु भिजवा दूं।

मैंने जर्नल ऑफ दि प्रोसीडिंग्स ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी, 1858, पृष्ठ ।45 पर उन परिस्थितियों का जिक्र किया है, जिनके कारण मैंने लेयेल और हूकर के इस अनुरोध को माना था कि मैं अपने संस्मरण वृत्तांत को 5 सितम्बर 1857 को एसा ग्रे के पत्र सहित भेजूं और वे भी वैलेस के निबन्ध के साथ ही छपें। पहले तो मैं सहमति देने का इच्छुक ही नहीं था, मुझे लग रहा था कि मिस्टर वैलेस मेरे इस काम को अन्यायपूर्ण मानेंगे, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि उनकी मनोवृत्ति कितनी उदार और दयालुतापूर्ण है। मेरे संस्मरण वृत्तांत और एसा ग्रे को लिखा पत्र दोनों ही को छपवाने का अभिप्राय तो था ही नहीं, और ये बहुत बेकार ढंग से लिखे हुए भी थे। दूसरी ओर मिस्टर वैलेस का निबन्ध बेहतरीन अभिव्यक्ति और स्पष्टता के साथ लिखा हुआ था। इसके बावजूद हमारे संयुक्त प्रकाशन ने बहुत कम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बारे में डबलिन के प्रोफेसर हॉटन ने ही एकमात्र समीक्षा प्रकाशित करायी थी, और कुल मिलाकर उनका फैसला यही था कि उन आलेखों में जो कुछ नया था वह असत्य था और जो कुछ सत्य था वह पुराना था। इससे यही सिद्ध होता है कि किसी भी नए दृष्टिकोण की व्याख्या काफी विशद होनी चाहिए ताकि उस पर लोगों का ध्यान भी जाए।

लेयेल और हूकर के काफी कहने पर सितम्बर 1858 में मैंने जीव प्रजातियों में तत्त्व परिवर्तन पर एक पुस्तक लिखने की तैयारी की। लेकिन सेहत ने बीच बीच में धोखा दिया। इस कारण मुझे मूर पार्क स्थित डॉक्टर लेन के सुन्दर जल चिकित्सा केन्द्र में भी जाना पड़ा। मैंने अपने वृत्तांत को 1856 में बड़े पैमाने पर शुरू किया था और अपनी पुस्तक को कुछ छोटा आकार देते हुए पूरा कर लिया। इसमें मुझे तेरह महीने और दस दिन मेहनत करनी पड़ी। नवम्बर 1859 में इसका प्रकाशन दि ऑरिजन ऑफ स्पीशेज के नाम से हुआ। यद्यपि बाद के संस्करणों में इसमें काफी कुछ जुड़ता गया और संशोधन भी हुए लेकिन पुस्तक का मूलरूप बरकरार रहा।

नि:सन्देह यह मेरे जीवन का प्रमुख कार्य रहा। यह पुस्तक प्रारम्भ से ही सफल रही। पहले संस्करण में छपी सभी 1250 प्रतियाँ पहले ही दिन बिक गयीं। इसके बाद जल्द ही दूसरे संस्करण की 3000 प्रतियाँ भी बिक गयीं। अब तक (1876) तक इंग्लैन्ड में इसकी सोलह हजार प्रतियाँ बिक चुकी हैं, और पुस्तक की जटिलता को देखते हुए यह संख्या काफी बड़ी है। इसका अनुवाद यूरोप की लगभग सभी जुबानों में हुआ, और स्पैनिश, बोहेमियन, पोलिश तथा रूसी भाषाओं में भी यह पुस्तक छपी। मिस बर्ड का कहना था कि इसका अनुवाद जापानी में हुआ और वहां भी काफी पढ़ी गयी। यही नहीं, हिब्रू भाषा में भी एक निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें यह कहा गया था कि यह सिद्धान्त तो ओल्ड टेस्टामेन्ट में भी है। इसकी समीक्षा भी जम कर हुई। ऐसा मुझे इसलिए मालूम है कि दि ऑरिजिन और मेरी अन्य किताबों के बारे में जो समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं, उनको मैं एकत्र कर लेता था। कुल समीक्षाओं की संख्या (अखबारों में छपी समीक्षाएं शामिल नहीं) 265 थी। बाद में मैंने यह काम छोड़ दिया, क्योंकि इसका कोई उपयोग लग नहीं रहा था। इस विषय पर अलग से अनेक निबन्ध और पुस्तकें भी छपीं, और जर्मनी में प्रतिवर्ष या हर दूसरे वर्ष डार्विनवाद पर पुस्तक या ग्रन्थसूची प्रकाशित होती थी।

मेरा विचार है कि दि ऑरिजन की सफलता का श्रेय काफी हद तक दो संक्षिप्त रूपरेखाओं को जाता है जो मैंने काफी पहले लिखीं थी। और उसके बाद काफी बड़ी तैयारी के साथ लिखी पाण्डुलिपि को जाता है, जो अपने आप में सारांश थी। इन उपायों से मैं अधिक प्रबल तथ्यों और निष्कर्षों का चयन करने लायक बना। विगत कई वर्ष तक मैंने एक स्वर्णिम नियम अपनाए रखा। वह यह कि जब भी मैं अपना कोई तथ्य प्रकाशित करता और जैसे ही कोई ऐसा विचार मेरे मन में आता जो उस सामान्य परिणाम का विरोधी होता तो मैं बिला नागा फौरन ही उसे याददाश्त के लिए लिख लेता था, क्योंकि अपने अनुभव से मैंने जाना था कि विरोधी तथ्य और विचार याददाश्त में से जल्दी निकल जाते हैं। इस आदत के चलते मेरे दृष्टिकोणों के विरोध में बहुत कम आपत्तियाँ हुई जिन पर मैंने ध्यान न दिया हो या जिनका उत्तर न दिया हो।

कई बार यह कहा जाता है कि दि ऑरिजिन की सफलता से यह सिद्ध हो जाता है कि, `इस विषय पर काफी कानाफूसी हुई,' या `लोगों का मन इसके लिए तैयार किया गया था।' लेकिन मैं इसे पूर्ण सत्य नहीं मानता, क्योंकि मैंने किसी भी मौके पर एक भी प्रकृतिवादी को इसकी भनक नहीं लगने दी, और किसी ऐसे व्यक्ति से मेरी भेंट भी नहीं हुई जो नस्लों के स्थायित्व के बारे में तनिक भी संदेह करता रहा हो। यहां तक कि लेयेल और हूकर जो बड़े मनोयोग से मेरी बातें सुनते थे, भी सहमत प्रतीत नहीं हुए। मैंने एकाध बार कुछ लायक लोगों को यह व्याख्या बताने का प्रयास भी किया कि प्राकृतिक चयन से मेरा आशय क्या है, लेकिन मैं असफल ही रहा। हाँ, मैं जो पूर्ण सत्य मानता हूं वह यह था कि सभी प्रकृतिवादियों के मन में सुविचारित तथ्यों की भरमार थी, और जैसे ही उन्हें पर्याप्त व्याख्या के साथ नियम मिला तो उनके असंख्य विचारों को एक दिशा मिल गयी। इस पुस्तक की सफलता का एक अन्य तत्त्व भी था। इसका सामान्य आकार, और मैं इसका श्रेय देता हूँ डॉक्टर वैलेस के निबन्ध को। यदि मैंने पुस्तक का आकार वही रखा होता जिस पर मैंने 1856 में लिखना शुरू किया था, तो यह ऑरिजिन जितनी बड़ी होती और बहुत कम लोगों में इसे पूरा पढ़ने का धीरज होता।

मेरी एक किताब की रूपरेखा 1839 से ही चल रही थी, लेकिन इसका प्रकाशन 1859 में हो पाया। इस देरी से मुझे भी फायदा ही हुआ, क्योंकि इतने समय में सिद्धान्त और भी स्पष्ट हो गया। इससे मुझे कुछ नहीं खोना पड़ा बल्कि इसमें कुछ लोगों ने मेरे या वैलेस के सिद्धान्तों में मूलरूप से योगदान ही दिया। वैलेस के निबन्ध ने तो मुझे इस सिद्धान्त को अपनाने करने में भी मदद की। मैंने केवल एक ही महत्त्वपूर्ण तथ्य के बारे में पूर्वानुमान लगाया था, जिसके लिए मेरा अन्तर्मन मुझे धिक्कारता भी रहा। वह तथ्य था दूरवर्ती पर्वत शिखरों और आर्कटिक प्रदेशों में एक ही नस्ल के पौधों और कुछ पशुओं की मौजूदगी हिमनद-काल के कारण है। इस दृष्टिकोण ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने इस पर विस्तारपूर्वक लिखा। मुझे यकीन है कि इस विषय पर ई फोर्ब्स के प्रसिद्ध संस्मरण प्रकाशित होने से काफी पहले ही हूकर मेरा लेख पढ़ चुके थे। मैं कुछ मुद्दों पर असहमत था, लेकिन मुझे लगता है कि मैं सही था। बेशक मैंने मुद्रित रूप में यह इशारा कभी नहीं किया कि मैंने इस दृष्टिकोण को स्वतत्र रूप से पोषित किया था।

दुनिया में कुछ नस्लें ऐसी हैं, जिनके वयस्कों और उन्हीं के भ्रूणों में काफी अन्तर होता है, और एक ही वर्ग के अलग अलग पशुओं के भ्रूणों में काफी समानता रहती है। इस स्पष्टीकरण ने मुझे इतना संतोष दिया, जितना अन्य किसी तथ्य ने नहीं दिया था। उस समय मैं ओरिजिन पर काम कर रहा था। जहाँ तक मैं समझता हूँ ओरिजिन की किसी भी समीक्षा में इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया गया था। मैंने एसा ग्रे को लिखे पत्र में इस बारे में हैरानी भी जाहिर की थी। कुछ ही वर्ष में विभिन्न समीक्षकों ने इसका पूरा श्रेय फिट्ज म्यूलेर और हेकेल को दिया, नि:सन्देह यही कार्य उन दोनों ने मेरी तुलना में अधिक व्यापक और सही रूप में किया था। इस बारे में पूरा अध्याय लिखने के लायक सामग्री मेरे पास थी, और मैंने विचारों को थोड़ा और विस्तार दिया होता तो बेहतर रहता। लेकिन यह तो स्पष्ट था कि मैं अपने पाठक को प्रभावित करने में असफल रहा और जो ऐसा करने में सफल हुआ, मेरे मतानुसार निश्चय ही श्रेय पाने का हकदार है।

मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि मेरे समीक्षकों ने मेरे कार्य को ईमानदारी से से जांचा परखा। इनमें वे पाठक शामिल नहीं हैं जिन्हें वैज्ञानिक ज्ञान नहीं था। मेरे विचारों को बहुधा पूरी तरह से गलत तरीके से पेश किया गया। बड़े ही तीव्र विरोध हुए और मज़ाक तक उड़ाया गया, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह सामान्यतया सद्भावना से किया गया। कुल मिलाकर मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मेरे कार्यों की तो कई बार ज़रूरत से ज्यादा तारीफ हुई। मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं कभी विवादों में नहीं पड़ा और इसका श्रेय लेयेल को जाता है, जिसने मेरे भूवैज्ञानिक लेखन के बारे में मुझे सख्त हिदायत दी थी कि कभी विवादों में मत पड़ो। इससे लाभ तो कुछ होता नहीं उल्टे समय और स्वभाव दोनों बिग़ड़ते हैं।

जब कभी भी मुझे लगा कि मैंने गलती की या मेरा काम दोषपूर्ण रहा, और जब भी बड़े ही अनादरपूर्वक मेरी आलोचना हुई या जब कभी अत्यधिक तारीफ के वशीभूत हुआ तो मैं अपने आप से बार-बार यही कह कर खुद को तसल्ली देता कि मैं जितनी मेहनत कर सकता था, मैंने की, जितनी शुद्धता ला सकता था, लाया, और दूसरा कोई भी इससे बेहतर नहीं कर सकता।' मुझे याद है जब गुड सक्सेस बे में, टियेरा डेल फ्यूगो में जब मैं सोच रहा था (मुझे याद है कि इसके बारे में घर पर खत भी भेजा था) कि प्राकृतिक विज्ञान में थोड़ा-सा योगदान करने से बढ़ कर मेरे जीवन का दूसरा उपयोग क्या हो सकता था। मैंने अपनी लियाकत के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ किया। आलोचक जो चाहें कहते रहें, लेकिन वे इस दृढ़ विश्वास को नष्ट नहीं कर सकते।

सन 1859 के आखिरी दो महीनों में दि ओरिजिन के दूसरे संस्करण की तैयारी कर रहा था और साथ ही प्राप्त हुए खतों के विशाल ढेर से भी निपट रहा था। पहली जनवरी 1860 को मैं अपने आलेखों को व्यवस्थित करके घरेलू वातावरण में पशुओं और पौधों में बदलाव के बारे में वेरिएशनस ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्टस अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्षक से लेखन की तैयार कर रहा था। लेकिन यह काम 1868 की शुरूआत में ही प्रकाशित हो पाया। इस देरी का कुछ कारण मेरी बार बार की बीमारी रही। एक बार तो मैं पूरे सात महीने बीमार रहा। इसका कुछ कारण यह भी रहा कि मुझे उस समय कुछ अन्य विषयों में रुचि हुई और मैं उन्हीं पर कुछ लिखने और प्रकाशित कराने को लालायित हो उठा।

सन 1862 में 15 मई को शतावरी में निषेचन प्रक्रिया के बारे में मेरी छोटी सी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था - फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड । इस पुस्तक में मेरी दस माह की मेहनत लगी थी। इसके अधिकांश तथ्यों का संग्रह विगत कई बरस में हुआ था। सन 1839 में ग्रीष्मऋतु के दौरान, और पिछली गर्मियों में मैंने कीट पतंगों द्वारा फूलों के संकर परागण पर ध्यान दिया था। इससे मैंने तो यही नतीजा निकाला था कि इस प्रकार का परागण विशिष्ट प्रकारों को स्थायी बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके बाद प्रत्येक ग्रीष्म ऋतु में मैं कमोबेश इसी काम पर लगा रहा। यही नहीं राबर्ट ब्राउन की सलाह पर मैंने सी के स्प्रेन्गेल की उत्कृष्ट पुस्तक दास एन्टडेक्टे गेहीम्निस डेर नेचुर मंगवा कर पढ़ी। इस पुस्तक को पढ़ कर मैं अपने इस काम में दूनी लगन से जुट गया। सन 1862 से पहले मैंने कुछ वर्ष तक अपने इस ब्रिटिश आर्चिड के परागण का अध्ययन किया था। इससे मुझे लगा कि मैं पौधों के समूहों पर बेहतर से बेहतर लेख तैयार करूं, बजाये इसके कि अन्य पौधों के बारे में धीरे-धीरे तथ्य बटोर कर उनके ढेर का प्रयोग करूँ।

मेरा संकल्प बुद्धिमानीपूर्ण सिद्ध हुआ, क्योंकि मेरी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद से सभी प्रकार के फूलों में परागण विधि के बारे में लेखों और शोध प्रबन्धों का तांता-सा लग गया। यह मानना पड़ेगा कि ये सभी मेरे कार्य की तुलना में काफी बेहतर थे। बेचारे स्पेन्गेल का जो काम काफी समय तक बेनामी के गर्त में पड़ा था, उसकी मृत्यु के कई वर्ष बाद अचानक ही सर्वमान्य हो गया।

इसी बरस मैंने दि जर्नल ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी में एक आलेख प्रकाशित कराया जिसका शीर्षक था आन दि टू फार्म्स ऑफ डायमोर्फिक कन्डीशन ऑफ दि प्रिमुला । इसके बाद आगामी पाँच वर्ष में उभयरूपी और त्रिरूपी पौधों पर पाँच अन्य आलेख प्रकाशित हुए। इन पौधों की संरचना का आशय निरूपित करने में मुझे जितना संतोष मिला, पूरे जीवन में किसी वैज्ञानिक कार्य से नहीं मिला।

सन 1838 या 1839 की बात है, जब मैंने अलसी की उभयरूपता पर ध्यान दिया। पहली बार तो मैंने सोचा कि यह मात्र असंगत अस्थिरता का मामला है, लेकिन प्राइमुला की सामान्य नस्लों की जाँच करने के बाद मैंने पाया कि इसकी दो किस्में अधिक नियमितता और निरन्तरता लिए हुए थीं। इसलिए मैं लगभग यकीन कर चुका था कि सामान्यतया पाए जाने वाले पीत सेवली और बसंत गुलाब दोनों ही ऐसे पौधे हैं जिनके नर और मादा फूल अलग अलग लगते हैं, यह भी कि एक किस्म में छोटे स्तरा केसर और दूसरी किस्म में छोटे पुंकेसर अवर्धन की ओर अग्रसर थे। इसलिए इन दोनों पौधों को इसी दृष्टिकोण के तहत परखा गया; लेकिन जैसे ही छोटे स्तरा केसर वाले फूलों में परागण के बाद प्रजनन हुआ तो उनसे अधिक बीज प्राप्त हुए। इतने बीज अन्य चार सम्भव परागणों में से किसी में भी नहीं मिले, लेकिन अवर्धन का यह सिद्धान्त एक सिरे से ही खारिज कर दिया गया। इसके बाद किए गए कुछ और प्रयोगों से यह प्रमाणित हो गया कि इसकी दोनों ही किस्मों में साफ तौर पर उभयलिंगी गुण थे। इसके बावजूद इनमें आपस में वैसे ही परागण होते थे जैसे सामान्य पशुओं के नर और मादा में संसर्ग होता है। रक्त कुसुम (लायथ्रम) के साथ प्रयोग तो और भी रोचक रहे। इसकी तीनों किस्मों में एक दूसरे का संयोग स्पष्ट था। बाद में मैंने पाया कि एक ही किस्म के दो पौधों के संयोग से होने वाली संतति भी संवृत और प्रबल सादृश्यता रखती है। यह सादृश्यता दो अलग अलग प्रजातियों के पौधों के संयोग से उत्पन्न संकर किस्मों जैसी ही होती है।

सन 1864 की शरद ऋतु में मैंने लताओं के बारे में एक विशद लेख लिखा जिसका शीर्षक था - क्लाइम्बिंग प्लान्ट्स। यह लेख प्रकाशन के लिए लेन्नियन सोसायटी को भिजवा दिया। इस आलेख के लेखन में चार माह लगे, लेकिन जब इसका प्रूफ मुझे मिला तो मेरी सेहत इतनी खराब थी कि मैं इसे ठीक नहीं कर पाया और कुछ गूढ़ बातों को सही तौर से समझा भी नहीं सका। इस आलेख पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन 1875 में जब इसी को संशोधित रूप में प्रकाशित कराया तो इसकी खूब बिक्री हुई। इस विषय की ओर मेरा रुझान एसा ग्रे के लेख को पढ़ कर हुआ था। यह लेख 1858 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने मुझे बीज भेजे और कुछ पौधे उगाने के बाद मैं पौधे के तने और लता तन्तुओं की घुमावदार बढ़ोतरी देखकर हैरान परेशान हो गया। यह बढ़ोतरी पहली नज़र में तो काफी जटिल प्रतीत हुई लेकिन वास्तव में काफी सरल थी। इसके बाद ही मैंने बहुत सी लताओं के पौधे लगाए और उनका अध्ययन किया। हेन्सलो ने अपने व्याख्यानों में जुड़वां बनते जाने वाले पौधों के बारे में जो व्याख्या दी थी उससे असन्तुष्ट हो कर मैं इस विषय की ओर और भी आकर्षित हुआ। उन्होंने कहा था कि इन पौधों की कोंपलों में ऊपर की ओर बढ़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की लताओं में भी अनुकूलन की प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार रोचक हैं, जिस प्रकार की प्रवृत्ति शतावरी में संकर परागण के दौरान दिखाई देती है।

वेरिएशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्ट अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्ष से मेरी पुस्तक की शुरुआत 1860 में ही हो चुकी थी, लेकिन इसके प्रकाशन का कार्य 1868 के शुरू में ही हो पाया। यह बहुत ही बड़ी पुस्तक थी। इसके लेखन में मुझे चार बरस और दो माह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। हमारे घरेलू वातावरण में जीव जन्तुओं और पौधों के परागण के बारे में विभिन्न स्रोतों से बटोरे गए तथ्यों को इस पुस्तक में मैंने विस्तार से प्रस्तुत किया है। पुस्तक के दूसरे खण्ड में परिवर्तनों के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम आदि पर विचार किया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि इस विचार विमर्श का दायरा उस समय उपलब्ध जानकारी के भीतर ही रहा। पुस्तक के अन्त में मैंने पेग्नेसिस के बारे में अपनी तथाकथित बदनाम परिकल्पना का जिक्र किया है। यह देखते हुए कि अप्रमाणित परिकल्पनाओं का कम या कोई मूल्य नहीं होता है, लेकिन इतना ज़रूर है कि यदि इन परिकल्पनाओं से प्रभावित होकर कोई भी व्यक्ति इन पर शोधकार्य करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है और इन्हें प्रमाणित करता है, तो मैं समझता हूँ कि मैंने अच्छा कार्य किया है। इस तरीके से बहुत सारे प्रछन्न तथ्यों को आपस में जोड़ते हुए उन्हें बुद्धिपरक रूप दिया जा सकता है। सन 1875 में इसका दूसरा और काफी संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी।

फरवरी 1871 में डीसेन्ट ऑफ मैन का प्रकाशन हुआ। सन 1837 या 1838 में मुझे यह आभास हुआ कि सभी प्रजातियों में विकार होते रहते हैं, तो इस नियम में मानव का भी तो समावेश होगा। बस इसी आधार पर मैंने अपने संतोष के लिए इस विषय पर तथ्यों का संकलन शुरू कर दिया, काफी समय तक इसे प्रकाशित कराने का मेरा कोई इरादा नहीं था। हालांकि ओरिजिन ऑफ स्पीशेज में किसी प्रजाति विशेष के मूल उद्भव पर विचार नहीं किया गया है, तो भी मैंने यह उचित समझा कि, `मानव के उद्गम और उसके इतिहास पर भी कुछ प्रकाश डाला जाए,' ताकि कोई सज्जन मुझ पर यह आक्षेप न लगाएँ कि मैंने अपने दृष्टिकोण को छिपाया है। यदि अपनी पुस्तक में मैं मानव के उद्गम के बारे में अपनी अवधारणा के समर्थन में कोई प्रमाण न देता, तो यह पुस्तक अनुपयोगी रहती, साथ ही सफल भी न हो पाती।

लेकिन जब मैंने पाया कि बहुत से प्रकृतिवादियों ने प्रजातियों के उद्विकास के सिद्धान्त को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है तो मुझे यह उचित प्रतीत हुआ कि मानव के उद्गम के बारे में मेरे पास जो सामग्री उपलब्ध है उसके आधार पर विशेष लेख प्रकाशित कराऊं। ऐसा करने में मुझे काफी खुशी हुई क्योंकि इसमें मुझे नर मादा के चयन पर पूरा विचार विमर्श करने का मौका मिला। इस विषय में मेरी रुचि भी थी। यह विषय और हमारे घरेलू वातावरण में पौधों, जीव जन्तुओं की संततियों में बदलाव के साथ-साथ परिवर्तन के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम और पौधों में संकर परागण मेरे एकमात्र विषय रहे, जिनके बारे में लिखते समय मैंने अपने पास एकत्र समस्त सामग्री का भरपूर उपयोग किया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन के लेखन में मुझे तीन वर्ष लगे। हमेशा की तरह बीमारी ने मेरा पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा। कुछ समय नए संस्करणों में और छिटपुट लेखन में भी लग गया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन का संशोधित द्वितीय संस्करण 1874 में प्रकाशित हुआ।

सन 1872 की शरद में मानव और पशुओं में मनोभावों का प्रकटीकरण के बारे में मेरी पुस्तक एक्सपेशन ऑफ इमोशन्स इन मैन एन्ड एनिमल प्रकाशित हुई। मेरा अभिप्राय तो यही था कि डीसेन्ट आफ मैन पर केवल एक अध्याय ही लिखूँ, लेकिन जब मैंने सभी नोट्स बटोरने शुरू किए तो मुझे लगा, इसके लिए अलग से प्रबन्ध लेख लिखना पड़ेगा।

मेरी पहली संतान का जन्म 27 दिसम्बर 1839 को हुआ था, और फौरन ही मैंने उसकी सभी अभिव्यक्तियों पर बारीकी से ध्यान देना शुरू कर दिया था, क्योंकि मुझे लगा कि जिन जटिल और उत्कृष्ट अभिव्यक्तियों को हम बाद में देखते हैं, उनकी बुनियाद तो जीवन की शुरुआत में ही पड़ जाती है और बाद में उनका क्रमिक तथा प्राकृतिक विकास होता चला जाता है। मैंने अभिव्यक्तियों के बारे में सर सी बेल का प्रशंसनीय लेख भी पढ़ा था, और इससे मेरी रुचि इस विषय में बढ़ी, लेकिन मैं उनकी इस धारणा से सहमत नहीं हो पाया कि अभिव्यक्ति के लिए शरीर में विभिन्न पेशियां खास तौर पर बनी हुई हैं। इसके बाद मैं कभी कभार मानव और पालतू जीवों के सम्बन्ध में इसी विषय को लेकर कुछ लिख-पढ़ लेता था। मेरी पुस्तक खूब बिकी। प्रकाशन के पहले ही दिन इसकी 5267 प्रतियां बिक गयीं।

सन 1860 की गरमियों में मैं हार्टफील्ड के निकट आराम करता रहा। वहाँ पर कीटाश (सनड्यू) के पौधों की दो प्रजातियाँ बहुतायत से थीं। मैंने यह भी ध्यान दिया कि इनके पत्तों में बहुत से कीट भी फंसे हुए थे। मैं कुछ पौधे घर पर लाया और उन पर फिर से कीट डालने के बाद मैंने देखा कि पत्तियों के रोमों में कुछ हलचल होने लगी थी। इसके आधार पर मैंने सोचा कि सम्भवतया यह पौधा कीटों को किसी खास मतलब से पकड़ता है। सौभाग्य से मैंने एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण भी किया। वह यह कि मैंने बहुत से पत्ते विभिन्न प्रकार के नाइट्रोजनयुक्त और नाइट्रोजन रहित घोल में डाल दिए। इन सभी घोलों का घनत्व एक समान था; इस परीक्षण से मैंने पाया कि केवल नाइट्रोजन सहित घोल में ही ऊर्जावान हलचल हुई। इससे इतना तो साफ ही था कि अन्वेषण का एक नया क्षेत्र सामने था।

बाद के वर्षों में जब भी मैं फुरसत में होता तो अपने प्रयोग शुरू कर देता था। और इस तरह कीट भक्षक पौधों पर मेरी पुस्तक इन्सेक्टीवोरस प्लान्टस् जुलाई 1875 में प्रकाशित हुई। यह प्रकाशन पूरे सोलह बरस बाद हुआ था। इस मामले में, और मेरी अन्य पुस्तकों के प्रकाशन में देरी से मुझे लाभ भी हुआ, क्योंकि इतने अन्तराल के बाद कोई भी अपने काम की आलोचना उसी तरह से कर सकता है, जैसे किसी दूसरे के काम की करता। उचित तरीके से उत्तेजित करने पर कोई पौधा ऐसा तरल पदार्थ भी निकालता है जिसमें अम्ल और खमीर हो। ऐसा तत्त्व किसी जीव के पाचकड रस की तरह होता है। इस तथ्य की खोज निश्चय ही उल्लेखनीय खोज है।

सन 1876 में मैंने वनस्पति जगत में संकर और स्व निषेचन के प्रभावों के बारे में इफेक्टस ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन इन दि वेजिटेबल किंग्डम, नामक पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बनाया है। यह पुस्तक फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड की अनुपूरक होगी, जिसमें मैंने यह दर्शाया था कि संकर निषेचन के उपाय कितने पारंगत थे, और इस पुस्तक में मैं बताऊंगा कि इनके नतीजे भी कितना महत्त्व रखते हैं। ग्यारह साल की इस अवधि के दौरान मैं ने जो विभिन्न प्रयोग किए उनका उल्लेख इस पुस्तक में है। वस्तुत: इस काम की शुरुआत महज संयोगवश हुई थी, और ऐसे कार्यों के लिए घटना भी मेरी आँखों के सामने ही हुई, जब मेरा ध्यान बहुत ही तेजी से इस ओर गया कि संकर निषेचन से पैदा हुए बीजों की नर्सरी के पौधों की तुलना में स्व निषेचित बीजों से तैयार नर्सरी के पौधे जल्दी कमजोर पड़ते हैं। मैं यह भी आशा कर रहा हूं कि आर्चिड के बारे में मैं अपनी पुस्तक का संशोधित संस्करण प्रकाशित कराऊँ। इसके बाद द्विरूपी और त्रिरूपी पौधों पर अपने आलेखों का प्रकाशन कराऊं। साथ ही इससे जुड़े कुछ और तथ्य भी प्रकाशित होंगे जिन्हें व्यवस्थित करने का समय मुझे नहीं मिला। यह भी लग रहा है कि अब कमजोरी बढ़ती जा रही है, और अब मैं किसी भी समय अल विदा कह सकता हूँ।

पहली मई 1881 को लिखा - इफेक्ट ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन का प्रकाशन 1876 की शरद में हुआ। इसमें प्राप्त परिणामों की व्याख्या की गयी है, और मेरा विश्वास भी है कि एक ही प्रजाति के पौधों में एक पौधे से दूसरे पौधे तक पराग कणों के अभिगमन में कितना सुन्दर क्रिया व्यापार निहित है। हालांकि इस समय मैं यह भी मानता हूं कि - खासतौर पर हर्मेन मुलेर को पढ़ने के बाद, मुझे स्व निषेचन पर बहुत सी अनुकूलताओं पर अधिक दृढ़तापूर्वक लिखना चाहिए था, हालांकि मैं बहुत सी अनुकूलताओं के बारे में जानकारी रखता था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का मेरा काफी बड़ा संस्करण 1877 में प्रकाशित हुआ।

इसी वर्ष फूलों की विभिन्न किस्मों के बारे में दि डिफरेन्स फार्म्स ऑफ फ्लावर्स का प्रकाशन हुआ और 1880 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया। इस पुस्तक में भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों पर विभिन्न आलेखों का संशोधित संग्रह था जो लिन्नेयन सोसायटी द्वारा प्रकाशित किए गए थे। पुस्तक में उस बारे में कुछ नई सामग्री भी जोड़ दी गयी थी, और कुछ ऐसे पौधों के बारे में भी निष्कर्ष दिए गए थे, जिनमें एक ही पौधे पर दो किस्म के फूल पैदा होते हैं। मैंने पहले भी यह उल्लेख किया है कि भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों की छोटी-सी खोज ने मुझे जितनी खुशी दी, उतनी और किसी बात ने नहीं दी। ऐसे फूलों के गलत ढंग से निषेचन के परिणाम भी काफी महत्त्वपूर्ण होंगे, क्योंकि इसका प्रभाव संकर किस्मों की अनुर्वरकता भी हो सकता है; हालांकि इस प्रकार के परिणामों पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है।

मैंने सन 1879 में डॉक्टर अर्न्स्ट क्राउज लिखित लाइफ ऑफ इरेस्मस डार्विन का अनुवाद प्रकाशित कराया। मेरे पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर मैंने उनके चरित्र और आदतों के बारे में भी एक रेखाचित्र इसी पुस्तक में जोड़ दिया। इस छोटी-सी जीवनी को पढ़ने में लोगों ने बहुत कम रुचि दिखायी। मुझे हैरत हुई कि इस पुस्तक की केवल आठ नौ सौ प्रतियाँ ही बिक सकीं।

पौधों में संचरण की शक्ति के बारे में मैंने (अपने पुत्र) फ्रैंक की मदद से 1880 में पॉवर ऑफ मूवमेन्ट इन प्लान्टस का प्रकाशन कराया। यह बहुत कठिन कार्य था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का जो सम्बन्ध क्रास फर्टिलाइजेशन से रहा था, वही कुछ सम्बन्ध इस पुस्तक और क्लाइम्बिंग प्लान्टस में था क्योंकि उद्विकास के सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न वर्गों में विकसित लताओं की उत्पत्ति असम्भव होती, यदि सभी पादपों में समवर्गीय प्रकार का मामूली-सा भी संचरण न होता। मैंने इसे सिद्ध किया और मैं एक नए ही प्रकार के सामान्यीकरण की तरफ आगे बढ़ गया। और यह तथ्य थे कि संचरण के बड़े और महत्त्वपूर्ण वर्ग, प्रकाश से उत्तेजन, गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव तथा अन्य। ये सभी परिवृत्ति के आधारभूत संचरण की ही परिवर्धित किस्में हैं। पौधों को भी जीवित प्राणी मानते हुए उसी प्रकार से उनका विश्लेषण मुझे प्रिय रहा है, और यह बताने में खुशी होती है कि किसी भी पौधे की जड़ के मूल में नीचे की ही ओर बढ़ते जाने की जो अनुकूलता है वह कितनी प्रशंसनीय है।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (3)
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (3)
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