चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (4)

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चार्ल्स   डार्विन   की   आत्मकथा अनुवाद एवं प्रस्तुति :   सूरज प्रकाश   और के पी तिवारी   (पिछले अंक से ...

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

charls darwin

अनुवाद एवं प्रस्तुति :

 सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

 

(पिछले अंक से जारी…)

केंचुओं द्वारा मिट्टी खोद खोदकर ढेर बनाने से वनस्पति गुच्छों के निरूपण के बारे में मैंने अब (पहली मई 1881) को प्रकाशक के पास एक पाण्डुलिपि भेजी है, जिसका शीर्षक है - दि फार्मेशन आफ वेजिटेबल माउल्ड थ्रू एक्शन ऑफ वार्म्स। वैसे तो यह मामूली-सा विषय है और मुझे नहीं मालूम कि यह किसी पाठक को रुचिकर लगेगी, लेकिन यह विषय मुझे रोचक लगा। चालीस वर्ष पहले मैंने जिओलाजिकल सोसायटी के समक्ष एक आलेख पढ़ा था, उसी की पूर्णता इस पुस्तक में हुई। इसमें प्राचीन भूवैज्ञानिक विचारों को ही पुन: प्रस्तुत किया गया है।

इस समय तक मैंने अपनी सभी प्रकाशित कृतियों का जिक्र कर दिया है। ये पुस्तकें मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण सोपानों में से हैं, इसलिए अभी कुछ और भी कहने को बाकी है। पिछने तीस साल के दौरान मेरे दिमाग में हुए बदलाव के बारे में मैं सतर्क नहीं हूं। सिर्फ एक ही तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि कोई विशेष बदलाव तो नहीं हुआ, हां, सामान्य-सी घिसावट ज़रूर हुई। मेरे पिताजी तिरासी साल तक जीवित रहे और उनके दिमाग में वही सतर्कता बरकरार थी जो शुरू में थी। उनके सोचने विचारने, चलने फिरने, यूँ कहिए दिमाग का हर हिस्सा जागरुक था; और मेरा विश्वास है कि मैं अपने दिमाग की सजगता में कमी आने से पहले ही चल बसूंगा। मैं समझता हूं कि मैं सभी स्पष्टीकरणों के बारे में अनुमान लगाने और प्रयोगात्मक परीक्षण में और भी दक्ष हो गया हूं, लेकिन शायद यह अभ्यास करते करते और ज्ञान की बढ़ोतरी से ऐसा हो गया होगा। मैं अपनी बात को स्पष्ट और सतर्क रूप में प्रस्तुत करने में हमेशा ही कठिनाई महसूस करता रहा हूं, और इस कठिनाई के चलते मेरा काफी समय भी बरबाद हुआ; लेकिन बदले में मुझे यह लाभ भी हुआ कि मैं प्रत्येक वाक्य के बारे में अधिक सजगतापूर्वक सोच सका, और इस प्रकार मैं वितर्क में गलतियों और अपने तथा दूसरों के निष्कर्षें में हुई चूक पर भी ध्यान दे सका।

मुझे ऐसा भी लगता है कि मेरे दिमाग में कुछ खराबी भी थी, जिसके कारण मैं पहले तो किसी कथन या तर्क वाक्य को गलत रूप से या बेतरतीब ढंग से प्रस्तुत करता था। शुरुआत में तो मैं अपने वाक्य लिखने से पहले सोचता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने पाया कि पूरा पृष्ठ बहुत ही तेजी से और शब्दों को अर्धरूप में लिखते जाने में काफी समय बचता है, और बाद में इनका संशोधन करना आसान रहता है। इस तरीके से लिखे गए वाक्य सोच समझकर लिखे गए वाक्यों की तुलना में कहीं बेहतर होते थे।

अपनी लेखन विधि के बारे में बताने के बाद अब मैं यह बताऊंगा कि अपनी बड़ी पुस्तकों में विषय की सामान्य व्यवस्था में मैंने काफी समय लगाया। सबसे पहले मैं दो या तीन पृष्ठों में मोटी-सी संक्षिप्त रूपरेखा तैयार करता था, और फिर व्यापक रुपरेखा जो कई पृष्ठों की होती थी। इसमें कुछ शब्द या कई शब्द समूचे विचार विमर्श या तथ्यों की श्रृंखला को प्रकट करने वाले होते थे। इनमें से प्रत्येक शीर्षक को और विस्तार देता था या फिर व्यापक रूप से लिखने से पहले कई बार शीर्षक बदलता भी था। मेरी विभिन्न पुस्तकों में दूसरों के द्वारा अनुभूत तथ्यों का व्यापक उपयोग हुआ है और यह भी कि एक ही समय में मैं कई कई विषयों पर काम करता था। इन सबको व्यवस्थित रखने के लिए मैं तीस या चालीस पोर्टफोलिया रखता था और इन्हें जिस कैबिनेट में रखता था उसके खानों पर लेबल लगा रखे थे। इनमें मैं अलग-अलग सन्दर्भ या स्मरण नोट तुरन्त रख लेता था। मैंने बहुत-सी पुस्तकें खरीदी भी थीं, और उनके अंत में अपने काम से सम्बन्धित तथ्यों के बारे में सूची बना कर लगा रखी थी। अगर मैं किसी से मांगकर किताब लाता था तो अलग से सारांश लिखकर रख लेता था और इस तरह के सारांशों से मेरी बड़ी दराज भर गयी थी। किसी भी विषय पर लिखना शुरू करने से पहले मैं सभी छोटी विषय सूचियों को निकालता और एक सामान्य तथा वर्गीकृत विषय सूची बनाता था। इस प्रकार एक या अधिक सही पोर्टफोलियो में मुझे प्रयोग के लिए संगृहीत सारी जानकारी मुझे मिल जाती थी।

मैं कह चुका हूं कि पिछले बीस या तीस बरस में मेरा दिमाग एक तरीके से बदल गया है। तीस बरस की उम्र तक या इसके कुछ बाद भी मैं मिल्टन, ग्रे, बायरन, वर्डस्वर्थ, कॉलरिज और शैली की रचनाओं के रूप में काव्य में रुचि लेता था। इन रचनाओं में मुझे काफी आनन्द भी मिला, स्कूली जीवन में तो मुझे शेक्सपीयर पसन्द था, उसके ऐतिहासिक नाटक तो मुझे खास तौर पर पसन्द थे। मैं यह भी कह चुका हूं कि पहले मुझे चित्रों में काफी और संगीत में बहुत ज्यादा आनन्द आता था। लेकिन अब कई बरस से मैं कविता की एक लाइन पढ़ना भी गवारा नहीं कर सका हूं। मैंने जब दोबारा शेक्सपीयर पढ़ना शुरू किया तो यह इतना नीरस लगा कि मैं बेचैन हो गया। चित्रों और संगीत के प्रति मेरी रुचि मर चुकी है। आम तौर पर संगीत के सहारे अब मुझे आनन्द तो कम मिलता है। जिस विषय पर काम कर रहा होता हूं, उसके प्रति अधिक ऊर्जावान ढंग से सोचने लगता हूं। मुझमें प्राकृतिक दृश्यों के लिए कुछ रुचि है लेकिन यह पहले जितनी प्रखर नहीं रह गयी है। दूसरी ओर, कोरी कल्पना के आधार पर लिखे गए उपन्यास कई बरस से मेरे लिए राहत और आनन्द का सबब रहे हैं, इसके लिए मैं सभी उपन्यासकारों को दुआ देता हूं। हालांकि ये उपन्यास बहुत उच्च कोटि के नहीं होते थे। मुझे बहुत से उपन्यास पढ़ कर सुनाए गए, मैं सामान्य तौर पर अच्छे और सुखांत उपन्यास पसन्द करता हूं। दुखांत उपन्यास के खिलाफ तो कानून बनना चाहिए। मेरी रुचि के मुताबिक कोई उपन्यास तब तक प्रथम कोटि का नहीं है जब तक कि इसमें कोई ऐसा चरित्र न हो जिसे आप खूब चाहें और खूबसूरत औरत का जिक्र भी हो तो क्या कहने।

उच्चस्तरीय सौन्दर्यपरक रुचि का अभाव मेरे लिए खेद का विषय है, क्योंकि मेरी रुचि हमेशा से इतिहास, जीवनी और यात्रा वृत्तांत (उनमें कोई वैज्ञानिक तथ्य हो या नहीं तो भी) और सभी विषयों पर लिखे गए निबन्धों में ही अधिक रही। मुझे लगता है कि मेरा दिमाग एक मशीन बन गया है जो तथ्यों के विशाल संग्रह का मंथन करके सामान्य नियमों को निकालता है, लेकिन मैं यह समझ नहीं पाता हूं कि इससे दिमाग का वही हिस्सा क्यों प्रभावित हुआ, जिसमें उच्च स्तरीय रुचियां जागृत होती हैं। मैं यह समझता हूं कि मेरे जैसे व्यवस्थित और सुगठित दिमाग वाले व्यक्ति को इस तरह की कमी का सामना नहीं होना चाहिए; अगर मुझे दोबारा जीवन मिले तो मैं एक नियम बना दूं कि सप्ताह में एक बार कुछ काव्य पढ़ना और कुछ संगीत सुनना ज़रूरी है, इससे मेरे दिमाग का जो हिस्सा विकसित नहीं हो पाया, शायद इस उपयोग से कुछ सक्रिय हो जाए। इस प्रकार की रुचियों का नष्ट होना बुद्धि के लिए ही नहीं शायद नैतिक चरित्र के लिए भी घातक भी है। इससे हमारी प्रकृति का संवेदनात्मक हिस्सा कमज़ोर होता चला जाता है।

मेरी पुस्तकें ज्यादातर इंग्लैन्ड में बिकीं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ, और विदेशों में भी इनके कई संस्करण बिके। मैंने सुना है कि किसी भी लेखन कार्य का विदेशों में सफल होना ही स्थायी मूल्यवत्ता है। लेकिन मुझे संदेह है कि यह सब विश्वास योग्य भी है; लेकिन यदि इसी आधार पर देखा जाए तो लोगों को मेरा नाम कुछ ही वर्षों तक याद रहेगा। इसलिए उचित तो यही होगा कि मेरी दिमागी गुणवत्ता और उन परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाए जिन पर मेरी सफलता निर्भर रही; यद्यपि मैं जानता हूं कि कोई भी यह कार्य सही रूप में नहीं कर सकता है। बुद्धिमान लोगों में विचारों को तेजी से समझने की ताकत या प्रज्ञा काफी मुखरित होती है, जैसे हक्सले। लेकिन मैं किसी आलेख या पुस्तक को पहली बार पढ़ता हूं तो मैं तुरन्त ही प्रशंसा करने लग जाता हूँ, उसके कमज़ोर पहलुओं पर काफी विचार करने के बाद ही मेरा ध्यान जाता है। विचारों की अमूर्त और अटूट श्रृंखला मेरे मन में बहुत कम चल पाती है; और यही वजह रही कि मैं मेटाफिजिक्स या गणित में कभी सफल नहीं हो पाया। मेरी स्मृति काफी विशाल लेकिन धुंधली है।

मेरे कुछ आलोचकों ने कहा है, `अरे! वह तो अच्छे हैं, लेकिन उनमें तर्कशक्ति नहीं है।' मैं ऐसा इसे नहीं सोचता कि यह सत्य है, क्योंकि दि ओरिजिन ऑफ स्पीशिज शुरू से आखिर तक एक बड़ा तर्क ही तो है, लेकिन इसे बहुत से धुरंधर लोग भी समझ नहीं सके। यदि तर्कशक्ति बिल्कुल भी न होती तो कोई कैसे इस प्रकार की किताब लिखता। मुझमें अन्वेषण बुद्धि भी है और सामान्य या विवेक बुद्धि भी काफी है। इतनी बुद्धि तो है ही कि मैं सफल वकील या डाक्टर बन सकता था, लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि इससे अधिक मेधावी मैं नहीं हूं।

यदि बुद्धि के ही तराजू को देखा जाए तो एक बात मेरे पक्ष में जाती है जो सामान्यतया लोगों में नहीं होती है, और वह है चीज़ों को ध्यान से देखना। ऐसी चीज़ें जिन पर आम तौर पर लोगों की नज़र ही नहीं पड़ती है। और पड़ती भी है तो वे सावधानीपूर्वक नहीं देखते हैं। तथ्यों को ध्यान से देखने और तथ्यों के संकलन में मेरी कर्मठता गजब की है। एक बात और भी महत्त्वपूर्ण है कि प्राकृतिक विज्ञान के प्रति मेरा लगाव बहुत ही प्रगाढ़ और सतत है।

मेरे साथी प्रकृतिवादियों ने इस शुद्ध लगाव का समर्थन करके इसमें बढ़ावा किया है। थोड़ी-सी सज्ञानता आते ही मेरी यह आदत बन गई थी कि मैं जो कुछ भी देखता था उसे समझने या समझाने की तीव्र इच्छा रहती थी। इसे यूँ समझिए कि सभी तथ्यों को एक सामान्य नियम के तहत सूत्रबद्ध करने की आदत-सी हो गई है। इन्हीं सब कारणों ने मिल कर मुझमें ऐसा धीरज पैदा कर दिया कि किसी भी व्याख्या रहित समस्या का समाधान तलाशने में मैं कई कई बरस तक जुड़ा रह सकता था। जहाँ तक मैं अपने आप आप को समझ पाया हूं तो वह यह कि मैं दूसरे लोगों के दिखाए मार्ग पर आंख मूंद कर चल पड़ने का आदी नहीं रहा। मेरा हमेशा यही प्रयास रहा है कि मैं अपने दिमाग को आज़ाद रखूं ताकि मैं प्रिय से प्रिय परिकल्पना को भी (क्योंकि मैं प्रत्येक विषय पर कुछ न कुछ विचार संजोए रखता हूं) उस समय त्याग दूं, जब कोई ऐसा तथ्य मुझे बताया जाए जो मेरी परिकल्पनाओं का विरोधी हो। यदि मूंगा भित्तियों के बारे में लिखी किताब दि कोरल रीफ्स् को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो मुझे अपनी एक भी ऐसी परिकल्पना याद नहीं आती है, जिसे मैंने कुछ समय बाद बदल या पूरी तरह से छोड़ न दिया हो। स्वाभाविक रूप से मैंने मिश्रित विज्ञान में निगमागम के रूप में तर्क करने से स्वयं को दूर ही रखा। दूसरी ओर मैं बहुत हठधर्मी भी नहीं हूं, और मेरा विश्वास है कि यह हठधर्मिता विज्ञान की प्रगति के लिए घातक है। हालांकि वैज्ञानिक में सकारात्मक किस्म की हठधर्मिता होनी चाहिए, ताकि समय की अधिक बरबादी न हो, (लेकिन) मैं कुछ ऐसे लोगों से भी मिला हूं, और मुझे पक्का पता है कि इसी कारणवश वे ऐसे प्रयोगों या अवलोकनों से वंचित रह गए जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उनके लिए काफी उपयोगी होते।

इसके उदाहरण के रूप में मैं एक बहुत पुरानी बात बताता हूं जो मुझे अभी भी याद है। पूर्ववर्ती काउन्टियों से किसी सज्जन ने मुझे लिखा (बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि वे अपने इलाके में अच्छे वनस्पतिशास्त्री थे) कि सामान्य तौर पर पायी जाने वाली सेम की फलियों में इस वर्ष सभी स्थानों पर फलियां उल्टी तरफ लगी हैं। मैंने तुरन्त लिखा तथा उनसे कुछ और जानकारी भी मांगी क्योंकि मैं उनकी समस्या समझ नहीं पा रहा था, लेकिन उनसे काफी समय तक कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद दो अखबारों में, जिनमें से एक कैन्ट से छपा था तथा दूसरा यार्कशायर से, यह खबर छपी थी कि यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य रहा कि `इस वर्ष सेम की फलियाँ गलत दिशा में लगीं।' इसलिए मैंने सोचा कि इस प्रकार के सामान्य कथन की तह में कुछ तो असलियत होगी। यह सब पढ़ कर मैं अपने बूढ़े माली के पास गया, जो कैन्ट का निवासी था, और उससे पूछा कि, `क्या तुमने इस बारे में कुछ सुना है?' उसने जवाब दिया कि, `नहीं साहब, कुछ गलती हुई होगी क्योंकि केवल लीप वर्ष में ही फलियां गलत दिशा में लगती हैं।' फिर मैंने उससे पूछा कि बाकी के वर्ष में वे किस तरह लगती हैं, और लीप वर्ष में किस तरह से लगती हैं। लेकिन जल्द ही मुझे पता चल गया कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानता है, पर वह भी अपने विश्वास पर अड़ा रहा।

कुछ समय बाद मुझे उस व्यक्ति का भी पत्र मिला जिसने सबसे पहले मुझे यह जानकारी दी थी। उसने माफी मांगते हुए लिखा था कि अगर यही बात उसने समझदार किसानों से न सुनी होती तो वह मुझे खत में इस बारे में न लिखता। अब उसने लगभग सभी से वही बात दोबारा पूछी तो उनमें से कोई भी यह नहीं बता सका कि आखिर इस बात का मतलब क्या था। इस प्रकार बिना किसी पुख्ता प्रमाण के एक विश्वास पूरे इंग्लैन्ड में फैल गया। यदि बिना किसी स्थायी विचार के इसे विश्वास कहा जा सकता हो तो ही इसे विश्वास मानेंगे।

मेरे जीवन के दौरान केवल तीन ही ऐसे झूठे वक्तव्य मिले जो जानबूझ कर फैलाए गए थे, और इनमें से एक तो पूरी तरह से कपट था (और इस तरह के बहुत से वैज्ञानिक कपट होंगे) जो कि अमरीकी कृषि जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया था कि बोस (मुझे मालूम है कि इनमें से कुछ तो पूरी तरह से बधिया होते हैं) की ही एक किस्म से हालैन्ड में एक नई नस्ल का साँड तैयार किया गया है। यही नहीं लेखक ने यह भी दावा किया था कि उसने मेरे साथ पत्राचार भी किया था, और मैं उसके नतीजों के महत्त्व से काफी प्रभावित हुआ था। यह लेख किसी इंग्लिश जर्नल के सम्पादक ने मेरे पास भिजवाया था और इसे पुन: प्रकाशित करने से पहले वे मेरा अभिमत जानना चाहते थे।

एक और प्रकरण में लेखक ने दावा किया था कि उसने प्राइमुला की कई प्रजातियों से अलग अलग किस्में पैदा की थीं, यद्यपि मूल पादपों को सावधानीपूर्वक कीटों की पहुंच से दूर रखा गया था तो भी सभी में भरपूर बीज भी हुए। यह लेख तब प्रकाशित हुआ था, जब मैंने विषमलिंगी पादपों के बारे में ठीक से जानकारी प्राप्त नहीं की थी। यह समूचा व्याख्यान ही एक धोखाधड़ी था, या फिर कीटों को दूर रखने में थोड़ी बहुत असावधानी हुई जिस पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया।

तीसरा मामला तो अधिक जिज्ञासापूर्ण था, मिस्टर हथ ने अपनी पुस्तक कन्सेनजीनियस मैरिज में किसी बेल्जियमवासी लेखक के उदाहरण दिए थे कि उसने खरगोशों की कई पीढ़ियाँ बड़े ही निकटतापूर्ण ढंग से तैयार की थीं, जिनमें घातक प्रभाव रहे ही नहीं। यह विवरण रॉयल सोसायटी ऑफ बेल्जियम के सम्माननीय जर्नल में प्रकाशित हुआ, लेकिन मैं संदेह प्रकट करने से बाज नहीं आया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कोई भी दुर्घटना क्यों नहीं हुई, जबकि पशुओं के प्रजनन में अपने अनुभव से मैं यही सोचने लगा कि यह असम्भव है।

इसलिए मैंने काफी संकोच के साथ प्रोफेसर वान बेनेडेन को लिखा और पूछा कि क्या लेखक भरोसे के लायक है। इसके प्रति उत्तर में मुझे यही पत्र मिला जिसमें लिखा था, `यह जान कर सोसायटी को आघात लगा है कि यह समूचा लेख एक प्रपंच था। इसके लेखक को जर्नल में ही खुलेआम चुनौती दी गयी कि वह यह बताए कि प्रयोग के दौरान खरगोशों के बड़े झुंड को उसने कहाँ और कैसे रखा, क्योंकि इसमें कई साल लग गए होंगे, पर उस लेखक से कोई उत्तर नहीं मिला।

मेरी आदतें बड़ी ही सिलसिलेवार हैं और जिस तरह का मेरा काम है उसके लिए बहुत कम उपयोगी हैं। अन्त में मैं यह भी कहूंगा कि मुझे अपना पेट पालने के लिए कहीं नौकरी नहीं करनी पड़ी, यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। यही नहीं, खराब सेहत के कारण मेरे जीवन के कई साल बेकार गए। लेकिन इसका यह फायदा हुआ कि मैं समाज में मन बहलाव और मनोरंजन के प्रति आकर्षित नहीं हुआ।

इसलिए मैं कह सकता हूं कि एक वैज्ञानिक के रूप में मेरी सफलता चाहे जितनी भी रही हो, पर जितना मैं समझ पाया हूं मेरे जटिल और विविधतापूर्ण मानसिक गुणों के कारण पूरी तरह से सुनिर्धारित थी। इन गुणों में कुछ प्रमुख थे - विज्ञान के प्रति लगाव, किसी भी विषय पर लम्बे समय तक सोचते रहने का असीम धैर्य, तथ्यों के अवलोकन और संग्रह का परिश्रम, और अन्वेषण के साथ साथ सामान्य बुद्धि का भी योगदान रहा। मेरे लिए यह आश्चर्य की बात है कि बस इन्हीं सामान्य सी योग्यताओं के बल पर मैंने कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर वैज्ञानिकों के विश्वास को काफी हद तक प्रभावित किया।


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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (4)
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (4)
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