नरेन्द्र निर्मल का आलेख : उग्रवाद हथियार से नहीं, बदलाव से खत्म किया जा सकता है

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  आतंकवाद दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है, जिससे अबतक कोई भी देश अछूता नहीं रहा है। फिर चाहे शक्तिशाली अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर का गिरा...

 

आतंकवाद दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है, जिससे अबतक कोई भी देश अछूता नहीं रहा है। फिर चाहे शक्तिशाली अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर का गिराना हो या भारतीय संसद में हुआ हमला। हर देश हर प्रांत आज इसकी चपेट में है। आतंकवाद का शिकार आज हर इंसान है। फिर चाहे इसे शह देने वाला पाकिस्तान ही क्यों न हो। आखिरकार बेनजीर भुट्टों जैसी शख्सियत जो पूर्व प्रधानमंत्री रहने के साथ-साथ पाकिस्तान में बीते चुनाव की प्रधानमंत्री की प्रमुख दावेदार थी, इसकी शिकार बनी।

भारत आतंकवाद से कई सालों से इस आग में झुलस रहा है। प्रतिवर्ष आतंकवाद के इशारों पर आतंकियों द्वारा भारत में छिपे कुछ गद्दारों से मिलकर अक्सर देश के विभिन्न प्रांतों में हमला करते रहते हैं। खासकर वे हमले ऐसे मौके पर करते हैं जिससे हमारे धर्मनिर्पेक्ष तानेबाने को तोड़ा जा सके। फिर चाहे राजस्थान, गुजरात का संकट मोचन मंदिर पर हमला करना हो या अजमेर शरीफ और हैदराबाद की मस्जिद पर बम विस्फोट। दरअसल आतंकवाद का उद्देश्य केवल मात्र दो धर्मों के बीच बने हुए प्रेम और भाईचारे को समाप्त करना होता है। उनका ना तो मजहब होता है ना ही कोई धर्म। वे इस जद्दोजहद में हर बार हमले करते रहते हैं और हमारी एकता से हमेशा उन्हें मुंह की खानी पड़ती है।

भारत के लिए आतंकवाद ही केवल मात्र शत्रु नहीं है। बल्कि उग्रवाद और माओवाद जैसी समस्या भी भारत में इस कदर बढ़ चुकी है कि ये भीतर ही भीतर देश को खोखला बनाने का काम कर रही है। आज भारत के चालीस फीसद प्रांत ऐसे है जो पूरी तरह इस उग्रवाद की चपेट में आ चुके है। और इनके एक नहीं कई रूप है। बोडो, उल्फा, माऊवाद, पिपुल्सवाद ग्रुप जैसे कई संगठन है जो भारत में तेज गति से अपना जाल फैला रहे हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर या असम जहां बोडो और उल्फा संगठन ने राज्य और केन्द्र सरकार की नाक में दम कर रखा है वहीं बिहार, उड़ीसा, बंगाल और झारखंड माऊवादियों के निशानें पर है। इन संगठनों अधिकतर अपने देशवासी है। अब तो इन तमाम संगठनों की फंडिंग भी बाहरी देशों से होने लगा है जो कि एक चिंता का विषय है।

आखिरकार उग्रवादी किस प्रकार के होते है? उनका आकार हमारे से भिन्न तो नहीं, क्या उनकी मजबूरी रही होगी उग्रवादी बनने के पीछे? या फिर इंसान के रूप में भेड़िये हैं जिसे खून की लत लग चुकी है आतंकवादियों की तरह। क्या उन लोगों के मन में भगवान का डर समाप्त हो चुका है? या फिर उनका जन्म ही पेशेवर मुजरिम बनने के लिए हुआ था। इस तरह के कई सवाल मेरे मन में उठते रहते थे। अपनी मन की इस जिज्ञासा को जानने और समझने के लिए हमने बिहार और झारखण्ड के कुछ उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। मुझे अपनी जान जाने का डर था। लेकिन इच्छा तो इच्छा होती है, जिसे जितना दबाया जाए वह और बढ़ता चला जाता है। इसी क्रम में हमने जब कुछ ग्रामीण उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों का भ्रमण किया और लोगों से उनकी राय जाननी चाही तो, लोगों ने बताया कि ये उग्रवादी नहीं है। हमारे मसीहा है। हमारी समस्याओं और झगड़ों को पल में हल कर देते हैं। जबकि थाने जाने पर पुलिसवालों की यातनाएं सहनी पड़ती है। और हमसे पैसे मांगे जाते है। बावजूद नहीं देने की स्थिति में हमे न्याय नहीं मिलता। ये लोग हमे फौरन न्याय देते है। कानून की तरह नहीं जो कहती तो है उनके हाथ बहुत लम्बे होते हैं। पर अपराधियों तक कभी नहीं पहुंचते। और भूल से पहुंच भी जाए तो न्यायपालिका की लचीली व्यवस्था से वे आसानी से छूट जाते हैं।

मेरे मन में किसी उग्रवादी से मिलने की बेहद इच्छा जगी मुझे मालूम चला की उसी पास के गांव में उस उग्रवादी संगठन का एरिया कमांडर आया हुआ है। मैने गांव वाले के सहयोग से उससे मिलने गया। मेरे मन में थोड़ा डर का पसीना भी माथे से टपक रहा था पर रह-रहकर मिलने और सवाल पूछने की कोलाहल ने मेरे मन को मजबूत कर दिया था। मैं उससे मिला, बेहद आम इंसान सा लग रहा था। रंग श्यामल, कद लगभग 5 फीट 7 इंच का नौजवान। बस फर्क मुझसे थोड़ा था। मेरे हाथ में डायरी और कलम थी और उसके हाथ में बंदूक और मैगजीन।

मेरे मन को रहा न गया, मैने तुरंत उससे पूछा, आपका नाम क्या है? और आप इस क्षेत्र में कैसे आए? कही कलम के अभाव ने तो आपके हाथों में बंदूक थमा दिया। इतना कहना था कि वो भावुक हो उठा।

उसने अपनी सारी कथा सुनाई जिसे सुनते ही मानो मेरा दिल ही फट गया। दरअसल वह व्यक्ति कोई अनपढ़ या नासमझ नहीं था जिसे चंद रोटी का टुकड़ा देकर बंदूक उठाने पर विवश किया गया। बल्कि उसकी लाचारी और कानून व्यवस्था के कुछ दागदार सिपहसालारों ने उसे इस दल-दल में भेजने का काम किया।

उसका नाम रामजीराम (बदला हुआ नाम) जो जहानाबाद जिला का रहने वाला है। वह गया कालेज गया से स्नातक कर चुका है। वह अपने गांव और परिवार के बेहद होनहार लड़का था। जाति के हरिजन होने के बावजूद पढ़ने में बहुत तेज था। उसके पिता ने उसे पढ़ाने का भरसक प्रयास किया। वह भी अपने पिता के सपनों को पूरा करने के लिए हमेशा मेहनत किया करता। उसकी इच्छा सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा में हाथ बंटाने की थी। उसके बढ़ते कदमों को देख गांव के चंद भूमिहार उसके परिवार से खिन्न रहने लगे। क्योंकि गांव में भूमिहारों का ही बोलबाला था। उसके दो भाई, दो बहन और माता पिता थे। इतना बड़ा परिवार होने के बावजूद उसके पिता ने रामजीराम की पढ़ाई में आंच नहीं आने दिया। इसी बीच उसकी छोटी बहन बीमार पड़ गई। सरकारी अस्पताल की खस्ता हालत को देख उसके पिता ने अपनी बेटी को गैर सरकारी हस्पताल में इलाज कराने के लिए गांव के एक भूमिहार से 1000 रू लिया। उस भूमिहार ने पिता के अनपढ़ होने का फायदा उठाते हुए 10000 रू पर अंगूठा लगवा दिया, बीस फीसद व्याज के साथ।

एक साल बाद जब भूमिहार ने तकादा के रूप में हिसाब निकालकर उसके पिता से 50 हजार की मांग की तो सारे सन्न रह गए। उसके परिवार वालों ने जब उसका विरोध किया तो उस भूमिहार ने अपने कुछ साथी से मिलकर रामजीराम के घर पर हमला कर दिया। उसकी दोनो मासूम बहनों की इज्जत लूट ली और छोटे भाई के साथ माता-पिता की जान ले ली। रामजीराम उस वक्त गया में था, जब उसे इस वाक्या का पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने थाने जाकर रपट लिखानी चाही। तो जहानाबाद पुलिस ने मोटी रकम की आड़ में उसे डांटकर भगा दिया। वह अपने दुश्मन से बदला लेना चाहता था। इसी क्रम में उसने उग्रवादियों के एरिया कमांडर निर्भय सिंह से मुलाकात की, और उसने बंदूक उठा लिया। उसने अपने कलेजे की आग को ठंडा करने के लिए गांव के 27 भूमिहारों को काट दिया। उसके बाद वह दरोगा जो शेरघाटी थाने का इंचार्ज बन चुका था, वहां धावा बोलकर दरोगा को पेड़ में बांधकर जिंदा ही जला दिया। फिर तो उसका मकसद केवल संगठन बन चुका था। जहानाबाद जेल ब्रेक कांड, बेलाचाकंद नरसंहार कांड उसके मुख्य कांड है। उसके मन में आज भी पुलिस के प्रति घृणा बनी हुई है। वह झारखण्ड, बिहार जैसे प्रदेशों के हिट लिस्ट में आता है।

सुत्रों के अनुसार रामजीराम इस वक्त संगठन छोड़ चुका है। बिहार सरकार की उपलब्धियों से आए कानून में बदलाव से आशान्वित होकर उसने इस राह को छोड़ने का फैसला तो किया परन्तु माओवादी संगठन को यह नागवार गुजरा। संगठन ने उसे मारने के आदेश दे दिए। वह पुलिस और माओंवादियों के डर से नेपाल में कही जाकर छुप गया। क्योंकि एक तरफ कानून और दूसरी तरफ माऊवादी दोनों सरगरमी से उसकी तलाश कर रहे थे। अचानक मैने न्यूज में सुना रामजीराम (बदला हुआ नाम) पर नेपाल में हमला हुआ है और वो अस्पताल में है। उसने अपने साक्षात्कार के वक्त संगठन का नेपाल से जुड़ाव की बात तो स्वीकारी थी परन्तु उसने खुलकर कहने से इंकार कर दिया था।

इन तमाम पहलुओं पर नजर डाले एक बात अवश्य दिखाई देती है कि आज भी सभी उग्रवाद प्रभावित इलाके दुरूस्त हो सकते है। उसके लिए केन्द्र की तरफ से सही प्रयास और दिशानिर्देश की जरूरत है। ना कि राज्य सरकारों को केवल धन मुहैया कराने की जैसा कि शिवराज पाटील ने झारखण्ड दौरे के दौरान किया। इस धन का राज्य सरकार लगातार बेजा इस्तेमाल कर रही है। साथ ही पुलिस वालों को भी चाहिए की वह अपने चरित्र में बदलाव लाए। अपनी भ्रष्टाचार वाली छवि को बदले। वर्दी के अर्थ को पहचाने। वर्दी वाले यह तय करे की उन्हें मान-सम्मान कमाना है या सिर्फ पैसा। अगर पैसा ही कमाना उनका उद्देश्य है तो वह आई टी और मीडिया जैसी संस्थानों से जुड़कर अपनी इच्छा पुरा कर सकते है। या फिर तमाम इच्छाओं को मारते हुए देश, प्रदेश और क्षेत्र में शांति लाने में सहयोग करें।

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नरेन्द्र निर्मल

शकरपुर, दिल्ली

9868033851, ई.मेल- nirmalkumar2k5@gmail.com

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रचनाकार: नरेन्द्र निर्मल का आलेख : उग्रवाद हथियार से नहीं, बदलाव से खत्म किया जा सकता है
नरेन्द्र निर्मल का आलेख : उग्रवाद हथियार से नहीं, बदलाव से खत्म किया जा सकता है
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