नरेन्द्र निर्मल का आलेख : मीडिया बनाम मीडिया पर टीआरपी का हमला

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मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसके भूत, वर्तमान और भविष्य की चर्चा करे तो इसे दुनिया का सबसे सफल, साहसिक और कर्तव्यपरक क्षेत्र कहा जा सकता है। क्...

मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसके भूत, वर्तमान और भविष्य की चर्चा करे तो इसे दुनिया का सबसे सफल, साहसिक और कर्तव्यपरक क्षेत्र कहा जा सकता है। क्योंकि इस क्षेत्र में काम करने वाला एक प्रहरी के समान है, जो समाज में व्याप्त तमाम सामाजिक समस्या, कुरीतियां एवं व्यवस्था में घर कर चुकी भ्रष्टाचार को जनता और सरकार के सामने लाती है। साथ ही सरकार द्वारा इसे हल न किए जाने पर इसके लिए जवाब तलब भी करना होता है। जिसे वह लिखित, दृश्य-श्रव्य अथवा श्रव्य माध्यम द्वारा जनता के आगे लाती है। कालान्तर से यह परम्परा चली आ रही हैं। भारत में खासतौर पर इसकी महत्ता आजादी से पूर्व रही। आजादी से पूर्व मीडिया अर्थात पत्रकारिता का उद्देश्य केवल मात्र परतंत्र भारत को स्वतंत्र बनाना था। जिसका प्रयत्न करते हुए पत्रकारों द्वारा लिखित माध्यम से लोगों को संगठित किया जाता था। शिथिल पड़ते स्वतंत्रता सेनानियों के मन में जोश भरा जाता था। अंग्रेजों द्वारा फूट डालों और राज करों जैसी मंसूबों को आईने के रूप में जनता के बीच लाकर वास्तविकता का बोध कराया जाता था, जिससे की साम्प्रदायिक उन्माद पर अंकुश लगाया जा सके। जिसके कारण कई बार पत्रकारों को जेल की यात्रा करनी पड़ी। उन्हें यातनाएं दी गई। उनके छापाखानों पर छापामारी कर बंद कराने व जलाने का प्रयास होता रहा। बावजूद उसके पत्रकारों में किसी प्रकार की उल्लास और जोश में कमी नहीं आई। उनकी पहचान तन पर लिपटा कुर्ता-पैजामा, आँखों में चश्मा, पैरों में चप्पल और हो सके तो टूटी-फूटी साइकल हुआ करती थी।

लेकिन युग बदला, पत्रकारिता बदली, पत्रकार बदले साथ ही उनके उद्देश्य क्योंकि भारत आजाद हो चुका था। अब पत्रकारिता और पत्रकार का शत्रु पराया देश का नहीं रहा बल्कि अपने देश के चन्द जयचन्द रहे, साथ ही समाज में व्याप्त सदियों से चली आ रही कुरीतियां रही। सत्तर के दशक में यह क्षेत्र फिर उफान में दिखा जिसने शोषण युक्त शासन व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने में अहम भूमिका निभाई। फिर क्या था सिलसिला चलता रहा। अखबार और पत्रकार नेताओं और लोकतंत्र के इर्द गिर्द सिमटते चले गए। इसी बीच भारत में टीवी के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रारम्भ हुआ। परन्तु उसे सरकारी दायरे में बंधकर कार्य करना पड़ा, वजह केवल मात्र थी, इसकी मंहगी पहुंच।

नब्बे के दशक के दौरान भारत में जैसे ही इलेक्ट्रानिक मीडिया में गैर सरकारी खबरी चैनलों का प्रवेश हुआ वैसे ही मीडिया के क्षेत्र में विशाल परिवर्तन आना प्रारम्भ हो गया। दिन व दिन इसमें लोगों की लोकप्रियता बढ़ती गई। 1998 के बाद गैर सरकारी मीडिया को ज्यादा स्वायत्तता दी गई। उनपर सरकारी दबाव कम हुआ। फिर क्या था इसके पंख आसमान में झूमने लगे। इसी दौरान स्टिंग ऑपरेशन के चलन और उससे पर्दाफाश होते भ्रष्टाचारियों ने इसे लोकप्रियता के चरम पर ला खड़ा किया। देखते ही देखते इस क्षेत्र में नाम शोहरत, ताकत के साथ-साथ पैसे की खनक सुनाई पड़ने लगी जो लोगों को इस क्षेत्र में आने को विवश कर दिया। दिन प्रतिदिन बढ़ते ग्लैमर ने इसने युवाओं को विशेष रूप से आकृष्ट किया। मजबूरन प्रतिस्पर्धा बढ़ी। कल तक जो केवल लेखन शैली को जानने मात्र से चयन पद्धति की जाती थी। भीड़ को देखते हुए छटाई के लिए परीक्षा और प्रोफेशनल कोर्स का परिचालन किया गया। नए-नए प्रोफेशनल कोर्स के लिए अनेक संस्थान खुले, जिसने कई प्रतिभाएं नए विचारों एवं जोश के साथ इस क्षेत्र से जुड़ने लगे। उनमें कम्युनिकेशन स्किल एवं विश्वास लगातार बढ़ता गया।

शहरी क्षेत्र विशेषकर महानगरों में दिल्ली एवं मुम्बई मीडिया का केन्द्र माना जाता है। यही वजह है की ज्यादातर छात्र-छात्राएं इसके कोर्स को पूरा करते ही भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए दिल्ली एवं मुम्बई में रहना पसंद करने लगे है। इसलिए प्रतिस्पर्द्धा इस कदर बढ़ गई है की नवीनतम पत्रकारों का शोषण भी होने लगा है। उसे शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद नौकरी के लिए भाग-दौड़ करनी पड़ती है। जैक और गॉडफादर

जैसे शब्द कल तक जो केवल फिल्मी दुनिया में सुनी जाती थी, कुछ ऐसा ही इसमें भी सुनाई पड़ने लगा है। क्योंकि इनके अभाव में आज छात्र-छात्राओं को मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता है। उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है।

इन्टर्न के बहाने छोटे-मोटे अखबारों द्वारा उनका शोषण किया जाता है। क्योंकि बड़े-बड़े अखबारों और चैनलों में भी इंटर्न बिना जैक और गॉडफादर के प्राप्त नहीं होते। मजबूरन अपने माता-पिता की नजरों में नालायक कहलाने से बचने के लिए उन्हें मुफ्त में शोषित होना पड़ता है। क्योंकि अभिभावक भला पत्रकारिता में आए बदलाव से अब तक कहा परिचित है। उन्हें तो बस यह दुनिया चकाचौंध और ग्लैमर भरी दिखाई देती है, जिसमें वे सपना देखते है कि उनका बेटा या बेटी जब टीवी पर आएगा तो समाज में उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। पर उन्हें क्या मालूम की इस चकाचौंध के पीछे कितना घनघोर काला धुंध छिपा है, जिसके स्पर्श मात्र से ही इंसान की रुह भी काली पड़ जाती है, भला इंसान की तन की क्या मजाल।

कई नवीनतम पत्रकार जैक और सोर्स के अभाव में अवसाद के शिकार हो जाते हैं या फिर अपना रास्ता ही बदल लेते हैं। चंद एक-दो छात्र अपनी जिद में जल कर भी हारना या हटना पसंद नही करते वे अंततः वक्त बेवक्त मंजिल पा लेते हैं और सबसे अधिक सफल होते हैं। ऐसे छात्रों के लिए कहे तो, ‘‘मेहनत करो आगे बढ़ो, आगे ही तुम्हें बढ़ना है, मिले नहीं तलवार अगर तो, कलम से ही तुम्हें लड़ना है, जीतना है तुमको हर बाजी, बाजीगर तुम्हें बनना है, मर जाना लड़ते हुए तुम तो, पर पीछे पांव न रखना है’’। लेकिन वे छात्र जो भले ही कक्षा में पढ़ाई के दौरान केवल मौज मस्ती की हो, कलम से कलम भी न लिखी हो, उन्हें शायद यह भी पता न होगा की ‘‘कलम एक तलवार है, जिसकी धार तलवार से भी धारधार है’’। बावजूद उनकी पहुंच कानून की पहुंच से भी लम्बी होती है। महज पाश्चात्य संस्कृति, शैली और हाव-भाव दिखाकर इस क्षेत्र में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। उन्हें न तो ज्यादा कुछ खबर का ज्ञान होता है ना ही उसे समझने की। यही वजह है कि मीडिया में आज उल-जुलूल खबरें ज्यादा प्रस्तुत की जाने लगी है। हर छोटी-बड़ी बेहूदी खबरें जिसका सामाजिक तानाबाना और समस्याओं से परे होता है। बावजूद उसे ब्रेकिंग न्यूज से संज्ञान दी जाती है। चंद दो तीन चैनलों को छोड़ जिनका टीआरपी से ज्यादा महत्व सामाजिक दायित्वों से होता है। ऊटपटांग खबरें दिखाकर कुछ पल के लिए तो वे लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते है, परन्तु जब लोगों को कड़वी हकीकत का अंदाजा होता है तो वह उससे दूर भागने लगते हैं।

यही वजह है कि आज ज्यादातर परिवारों में पारिवारिक चैनलों को तरजीह दी जाती है। पुरुष जो कलतक न्यूज सुनने में ज्यादा वक्त बिताया करते थे। अब वे भी पारिवारिक चैनलों में रूचि लेने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा सच सबके सामने है। सुबह से रात के दौरान अगर खबरी चैनलों को देखा जाए तो खबर कम इंटरटेनमेंट ज्यादा दिखाई देगा। चंद दो चार खबरें ही टीवी स्क्रीन पर छाई रहती है। इन एक सालों में प्रसारित खबरों ने तो, मानों मीडिया और जनता में इस कदर दूरियां बढ़ा दी है कि अब मीडिया पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं और कोड ऑफ कंडक्ट लगाए जाने की सुगबुगाहट शुरु हो गई है। जी हां इन दस-बारह महीनों में चंद 8-10 खबरें महत्वपूर्ण रही जिनमें गुर्जर आंदोलन, राज ठाकरे की बयान बाजी, आईपीएल, आतंकवादी हमला, आरूषी-हेमराज, मालेगांव;प्रज्ञा ठाकुर-कर्नल पुरोहित आदि। मुम्बई पर आतंकवादी हमला। जिस पर नेताओं की वोट और सीट की राजनीति, वहीं मीडिया द्वारा टीआरपी की राजनीति खेलती दिखाई दे रही है। एक बच्ची के चरित्र के ऊपर भी बिना जांच और छानबीन के आक्षेप पर आक्षेप किया जाने लगा। नतीजतन मीडिया की लोकप्रियता का ग्राफ का नीचे आना शुरु हुआ। जो एनडीटीवी के पोल में भी दिखा। इसके साथ-साथ मुम्बई पर आतंकी हमले के लाईव कवरेज से होने वाली परेशानियों पर सवाल खड़े किए गए।

चैनलों पर दिखाई जा रही चंद खबरों के बाद, राजू के हंसगुल्ले जो मजाकिया तो होते हैं पर भद्दी बातों की तरह। लेकिन शायद इंसान को नॉनवेज ज्यादा पसंद है, फिर चाहे खाने की हो सुनने के। उसके साथ ही बाबाओं द्वारा दी जाने वाली राशिफल का ज्ञान जो शायद कुछ हद तक ठीक है। एक चीज इसमे अवश्य देखने को मिलती है कि किसी का भविष्य उज्जवल हो या न हो उन ज्योतिषियों का भविष्य बेहद उज्जवल है। इन सबके अलावा विशेष कार्यक्रम खूंखार क्राईम धारावाहिक जिसमें प्रस्तुत करता इतने बनावटी तरीके से पेश करते हैं कि स्वयं अपराधी से दिखने लगते है। यह देखकर अपराधी भी उनपर जोक करते होंगे कि ‘‘यार बीडू़ ये तो अपनी ही बिरादरी का है।’’

भला ऐसा क्यो हो रहा है? क्या पूरे भारत में खबरें खत्म हो गई, तमाम राज्य एवं प्रदेश विकास के रास्तें पर चल पड़े हैं, सभी गरीब अमीर बन चुके हैं, सभी अपराधियों को सजा मिल चुकी है, भ्रष्टाचार खत्म हो गया है, उग्रवाद और आतंकवाद का सफाया हो चुका है। भारत में कोई अच्छा इंसान नहीं बचा है, जो अच्छा काम कर रहा हो, जिसे दुनिया के आगे लाया जा सके। ताकि लोग भी उससे प्रेरित हो सके। यह भी समझ में नही आता कि आरूषि-हेमराज मर्डर मिस्ट्री भारत की सबसे बड़ी क्राईम कैसे हो गई? इतना बड़ा फैसला उन्होंने अकेले कैसे ले लिया? क्या केवल टीआरपी के लिए? क्या भ्रष्टाचार, कत्ल, बलात्कार, जनसंख्या विस्फोट, प्रदूषण और बेरोजगारी जिससे हजारों समस्याएं पनपती है, हजारों लोग मारे जाते हैं, क्या वह इस मर्डर मिस्ट्री से प्रमुख नहीं है।

झारखण्ड जैसे पिछड़े और हाल में अलग हुआ राज्य अभी बैसाखी पर चलना सीख ही रहा था। उस पर ऐसा निर्बुद्धि मुख्यमंत्री जबरदस्ती थोप दिया गया जो धीरे-धीरे कई लोगों को जीते जी मार रहा है पर शायद मीडिया का ध्यान उस पर कम हो चुका है। जब तक झारखण्ड फिर से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री वाला अति पिछड़ा राज्य नहीं बन जाता मीडिया का उस ओर ध्यान नहीं जा रहा है। क्योंकि पत्थर से ठोकरें खाकर हंसने और गिरने वाले सब लोग होते हैं पर हटाने वाला कोई एक ही होता है। इन तमाम खामियों को ऐसा नहीं है कि सुधारा नहीं जा सकता। लेकिन इसके लिए लाभ से ऊपर उठकर समाजहित में सोचने की आवश्यकता है। उसे सिर्फ पैसे के पीछे भागना नही चाहिए वरना वह हार्ट अटैक का कारण बन सकता है।

मीडिया संस्थानों को यह जानना जरुरी है कि इंसान भूख से भी मरता है और ज्यादा खाने के बाद उसके मोटापे से भी। लेकिन इसका अर्थ कदापि नहीं कि मीडिया पुरानी पद्धति में लौट जाए अर्थात आ अब लौट चले। बल्कि कुछ बदलाव की जरुरत है। ताकि अंतर्राष्ट्रीय चैनलों में चंद दिल्ली, मुम्बई की हाई प्रोफाइल हस्तियों की खबरों तक ही सीमित न रहे। यह भी उन्हें सोचना छोड़ना होगा कि अगर हाई प्रोफाईल लोगों के साथ पुलिस प्रशासन ऐसा बुरा व्यवहार करती है या न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी होती है तो आम लोगों के साथ कैसा होता होगा? वजह नीतिश कटारा केस को ज्यादा तरजीह दी जाने से भले ही इंसाफ मिलता हो लेकिन लम्बी कानूनी दांवपेचों के कारण वक्त भी लम्बा खिंच जाता है। पत्रकारों को भी चाहिए की एक खबर के पीछे भागने के बजाय आसपास की छोटी बड़ी अच्छी आकर्षक खबरों को भी समाज के बीच लाने का प्रयास करे जिससे की स्वच्छ समाज का निर्माण हो और फिर से मीडिया में लोगों के विश्वास और रूची को पटरी पर लाया जा सके।

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नरेन्द्र निर्मल

शकरपुर, दिल्ली

9868033851, ई.मेल- nirmalkumar2k5@gmail.com

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रचनाकार: नरेन्द्र निर्मल का आलेख : मीडिया बनाम मीडिया पर टीआरपी का हमला
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