हरी भटनागर की कहानी : बिल्‍ली नहीं, दीवार

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कहानी   बिल्ली नहीं, दीवार   हरी भटनागर यह एक अजीब सी बात है कि मैं अपने दरवाजे पर खड़ा नहीं हो पाता। खड़ा होता हूँ तो ग़ुस्‍से ...

कहानी

 

बिल्ली नहीं, दीवार

 

हरी भटनागर

यह एक अजीब सी बात है कि मैं अपने दरवाजे पर खड़ा नहीं हो पाता। खड़ा होता हूँ तो ग़ुस्‍से से भर जाता हूँ और उसका असर यह होता है कि मैं सामान्‍य नहीं रह पाता। लगता, किसी को नोच खाऊँगा। उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा। यही वजह है कि दाँत पीसता हुआ मैं भद्दी गालियों की बौछार करने लगता हूँ।

ऐसे में कोई मुझे देखे तो निश्‍चय ही यह धारणा बना ले कि मैं कोई खब्‍ती हूँ। खब्‍ती ही ऐसी हरकत कर सकता है या यह सोचे कि मैं कोई जुनूनी हूँ हिंसक-हत्‍यारा; लेकिन भाईजान, इनमें से मैं किसी सीगे में नहीं आता। एक निहायत सीधा-सादा इन्‍सान हूँ निम्‍न-मध्‍य तबके का हिन्‍दूस्‍तानी इन्‍सान जो दस बजते-बजते ऑफिस के लिए निकल पड़ता है, दिन भर ऑफिस की मेज़ पर या मक्‍खियाँ मारता है या काम में भिड़ा रहता है। सच बात तो यह है कि मैं कोशिश में रहता हूँ कि कम से कम काम मिले कम से कम काम करूँ और इस कोशिश में मैं सफल भी होता हूँ। मुझे बहुत ही कम काम करने को मिलता है। लेकिन मैं रोता ज्‍़यादा हूँ। हाहाकार ज्‍़यादा करता हूँ कि काम के बोझ से मरा जा रहा हूँ। दूसरे बाबुओं को नीचा दिखाने में ज्‍यादा वक्‍़त लगाता हूँ और सोचता हूँ कि बड़ी फ़तह हासिल कर ली। शाम होते-होते मैं घर पहुँचता हूँ और उटकापेंची में लग जाता हूँ। पत्‍नी को प्‍यार भी करता हूँ, झगड़ता भी हूँ। बच्‍ची के साथ भी यही सुलूक करता हूँ। कहने का लब्बोलुबाव यह कि मुझमें अच्‍छाइयाँ कम से कम और बुराइयाँ ज्‍़यादा से ज्‍़यादा हैं। ख़ैर, इन सब बातों का खुलासा यह है कि मैं अपने दरवाजे पर सहज-सामान्‍य नहीं रह पाता तो उसकी खास वजह है। उसका एक मुख्‍़तसर-सा कि़स्‍सा है।

मेरे घर के बाजू में पहले एक गली थी। चालू रास्‍ता था। पानी निकास की व्‍यवस्‍था न होने के कारण अग़ल-बग़ल के घरों का गंदा पानी धीरे-धीरे यहाँ भरने लगा। कीच और जंगली घास-पात और बेशरम के झाड़ ने अपने पैर जमाए यही वजह थी कि रास्‍ता पूरी तरह से बंद हो गया। यह अपने आप, सहज रूप में हो गया। किसी ने रास्‍ता बंद करने के लिए कोई हिकमत-जुगाड़ न की। ख्‍़ौर, यह सब हो गया और किसी ने इस तरफ़ ध्‍यान भी न दिया। दिक्‍़क़त तो तब खड़ी हुई जब इस जगह पर खालिद ने अपना हक़ जतलाकर, कमरा बनाना चाहा। ईंट-गिट्‌टी सीमेंट-रेत-सब सामान आ गए और नींव खोदी जाने लगी। मेरा माथा ठनका। यह असहनीय बात मैंने पत्‍नी से कही। पत्‍नी ने आँखों में रोष भरा। यकायक हम दोनों ग़ुस्‍से में आ गए। हम नहीं चाहते थे कि खालिद यह जगह हथियाए। बस क्‍या था, बदहवास-सा मैं बाहर आया और चीखकर मजदूरों से काम रोकने के लिए कहा। मजदूरों ने जब मेरी चीख पर ध्‍यान न दिया तो मैं और ज़ोरों से चीखा। इस पर एक मजदूर जो बदन पर सिर्फ़ गमछा बाँधे था और पसीने से तर जैसे नहाकर आया हो, बोला मैं तो मजदूर हूँ साहब, मियां साहब से कहें जो यह काम करवा रहे हैं। मैंने कहा कि तू बुला उन्‍हें। उसने कहा कि मैं क्‍यों बुलवाऊँ। इतने में खालिद आ गया। बोला क्‍या बात है? मैंने कहा कि यह काम बंद करवा दीजिए। उसने पूछा क्‍यों? मैंने कहा इसलिए कि यह जगह मेरी है! उसने पूछा कि आपकी कैसे है? मैंने पूछा कि आपकी कैसे है? बस यह पूछा-पाछी तू-तू मैं-मैं से निकल फुंफकार में बदल गई। वजनी गालियों का आयात-निर्यात होने लगा। मैं तड़प उठा। सीमेंट की बोरियों पर पानी का ड्रम उलटना चाहा। कोशिश की लेकिन उसको हिला न पाया। हारकर मैंने बाल्‍टी उठाई और सीमेंट की बोरियों पर दो-चार बाल्‍टी पानी डाल दिया। इसके जवाब में खालिद ने दौड़कर दांत पीसते, गालियाँ बकते हुए मुझे एक जबरदस्‍त थप्‍पड़ रसीद दिया। मेरे वजूद की चूलें हिल गईं। तेरी मियां की। मैं बेकाबू था। सांस बेतरह चलने लगी। होंठ भिंच आए और बदन में ग़ुस्‍से की वजह से खिंचाव आ गया। बदहवास-सा मैं घर के अंदर दौड़ा गया और फरसा उठा लाया। इस बीच खालिद भी घर से लट्‌ठ ले आया।

युद्ध छिडे़ इसके पहले ही पड़ोसियों ने हमें पकड़ लिया। हम हथियार नहीं चला सकते थे लेकिन हमारी ज़बानें किसी घातक हथियार से कम न थीं। दोनों घरों के अन्‍य सदस्‍य भी यही हथियार चलाने लगे।

ख़ैर, कोई हिंसक वारदात हो पाती, इसके पहले ही पुलिस आ गई और हमें पकड़कर ले गई।

थोड़ी देर बाद हम छूटकर आ गए लेकिन मैं जो चाहता था, वह काम हो गया। पुलिस ने फि़लहाल ऊपरी आदेश के पालन के तहत सरकारी सम्‍पत्ति घोषित करते हुए उस जगह की कंटीले तारों से घेराबंदी कर दी और किसी भी तरह का निर्माण कानूनन अपराध का बोर्ड लगा दिया।

जैसा कि मैंने कहा, मेरा जो चाहना था, हो गया और वह भी हो गया जिसे नहीं होना था। खालिद से हमारी जिगरी दोस्‍ती थी मिट्‌टी में मिल गई। हम एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन हो गए। एक-दूसरे की शक्‍ल देखना हमें गवारा न था। एक-दूसरे के नाम से हमें घिन थी। ग़ुस्‍सा था, नफ़रत थी।

यही वजह थी कि मैं दरवाज़े पर सहज-सामान्‍य नहीं रह पाता।

लेकिन आप सहज हों या असहज बच्‍चों को इससे क्‍या लेना-देना। मेरी चार वर्षीय बेटी, सिल्‍लू मेरा हाथ पकड़कर खींच रही है और मुझे बाहर चलने के लिए कह रही है। मैं हूँ कि जाना नहीं चाहता। वह जि़द में है। रो पड़ती है। फर्श पर लोट जाती है, ठनकती है।

चले जाइए, ऐसा भी क्‍या? पत्‍नी कहती हैं।

कहाँ जाऊँ?

सिल्‍लू जहाँ कह रही है।

विवश-सा मैं सिल्‍लू को गोद में लिए बाहर आता हूँ।

कहाँ चलना है?

वो वहाँ।

कहाँ?

सिल्‍लू अपना कोमल हाथ घिरी जगह की ओर उठाकर इशारा करती है वहाँ! और फिर ठनकते लगती है जैसे मैं वहाँ नहीं जाऊँगा।

सिल्‍लू की जि़द अब समझ में आई। बिल्‍ली का निहायत सुन्‍दर चितकबरा बच्‍चा था जो उनींदा-सा कंटीले तारों के पीछे निषिद्ध जगह पर बैठा था, सिल्‍लू उसे देखना और गोद में लेना चाहती थी।

मुझे इस बात की कचोट हुई कि जिस जगह पर जाने की सख्‍़त मनाही है, वहाँ एक बिल्‍ली आराम से बेफिक्र बैठी है और इन्‍सान होकर मैं वहाँ जा नहीं सकता!

सिल्‍लू फिर ठनकी कि मैं मनाही को माथे की सल से परे ठेलता बागड़ की तरफ़ बढ़ा।

जीभ से च-च-च कर मैंने बिल्‍ली के बच्‍चे को अपनी तरफ़ बुलाया। बिल्‍ली के बच्‍चे ने मेरी तरफ़ देखा और म्‍याऊं कर अपना गुलाबी मुँह खोला। चावल जैसे दांतों के बीच जीभ गुलाब की पाँखुरी जैसी थी।

मुट्‌ठी में खाने का सामान होने की लालच दे मैंने फिर च-च-च किया।

सुबह की पीली धूप में बिल्‍ली ने उनींदी आँखें झिपझिपाईं गोया कह रही हो कि क्‍यों तंग कर रहे हो, आराम करने दो मुझे। और गुलाबी मुँह खोलकर म्‍याऊं किया। यकायक बागड़ से निकल कर वह धीरे-धीरे चलती हमारे पास आई और मेरी मुट्‌ठी की तरफ़ लपकी। मुट्‌ठी में कुछ न था, बावजूद इसके मैंने उसे बंद रखा। मेरे छूने पर बिल्‍ली संकुचित-सी हुई। फिर पूँछ तान कर इस तरह मुझसे लिपटने लगी जैसे पूर्व परिचित हो। सिल्‍लू ने डरते हुए किन्‍तु प्रसन्‍न होकर उसे छुआ। जवाब में उसने म्‍याऊं किया और गुलाबी मुँह खोला।

थोड़ी देर बाद बिल्‍ली मेरी गोद में थी। उसे लिए मैं घर में दाखिल हुआ। पत्‍नी ने देखा तो बोलीं यह क्‍या?

दिख नहीं रहा है।

दिख तो रहा है मगर बिल्‍ली को कहाँ से ले आए?

बाहर से! मैंने कहा कान न पकड़ो सिल्‍लू से कहकर मैंने पत्‍नी से कहा सिल्‍लू इसी की तो जि़द कर रही थी।

तो क्‍या? पत्‍नी प्रश्‍नवाचक थीं।

पालूंगा इसे।

बच्‍ची तो पल नहीं रही है, इसे पालेंगे! पत्‍नी ने उलाहने के स्‍वर में कहा।

बच्‍ची भी पलेगी और यह बिल्‍ली भी।

दिक्‍़क़त आएगी।

क्‍या दिक्‍़क़त आएगी। सिल्‍लू का बचा दूध पिएगी, रोटी खाएगी और बनी रहेगी।

पड़ोसियों की है नहीं। कहीं और से भागकर आई है। कोई पूछने वाला है नहीं। घर के भीतर रहेगी। यह भी कह दीजिए आप।

मैंने हँसते हुए पत्‍नी के वाक्‍य दुहरा दिए। इसी बीच सिल्‍लू फ्रिज की तरफ़ बढ़ गई। फ्रिज खोलकर उसने दूध का भगोना उठाया। पत्‍नी चिल्‍लाईं दूध गिरा देगी। बढ़कर उन्‍होंने उसके हाथ से भगोना लिया। दूध कटोरे में डाला। बिल्‍ली के सामने रखा जिसे मिनटों में वह चट कर गई। गोश्‍त की एक बोटी दी जिसे वह लपककर मुँह में दाब कोने की ओर बढ़ गई।

रात में बिल्‍ली हमारे बिस्‍तर में सोई। सिल्‍लू उस पर हाथ रखे थी।

दो-चार रोज़ में बिल्‍ली हमसे इतनी घुल-मिल गई जैसे हम पुराने मित्रा हों। हम लोगों के साथ उसका स्‍नेह था ही लेकिन सिल्‍लू से वह ज्‍़यादा हिल गई थी। हर वक्‍़त वह सिल्‍लू की गोद में आँखें मींचे बैठी रहती। तरह-तरह के खेल करती। अब वह हमारी दिनचर्या का अटूट हिस्‍सा थी। हमारे साथ उठती-बैठती, खाती-पीती, खेलती-सोती। अमूल्‍य पूँजी थी वह हमारी।

एक दिन शाम को जब मैं ऑफिस से लौटा, स्‍कूटर टिका रहा था तो पत्‍नी ने कहा आज बिल्‍ली दिन भर ग़ायब रही, खालिद के यहाँ थी।

खालिद के यहाँ! आश्‍चर्य मिश्रित क्रोध से मैंने आँखें फाड़ीं और घर में दाखिल होते हुए कहा तुमने देखा था?

हाँ, अच्‍छे से! मैंने बुलाया भी तो वह आई नहीं पत्‍नी ने शिकायत की।

तो तुम्‍हें दरवाजे बंद करके रखने चाहिए।

दरवाजे तो बंद थे, पता नहीं कैसे निकल गई।

बिल्‍ली सिल्‍लू की गोद में आँखें मींचे बैठी थी। मैंने उसके मुँह पर हल्‍की चपत लगाते हुए कहा कि आगे से अब बाहर न जाना और उस गंदे मियां के घर तो हरगिज नहीं। गई तो पिटाई होगी। समझी!

चपत से बिल्‍ली ने आँखें खोलीं। म्‍याऊं के साथ गुलाबी मुँह खोल दिया जैसे कह रही हो कि ठीक है, अब नहीं जाएँगे।

मैं खुश हुआ।

लेकिन दूसरे दिन शाम को जब मैं ऑफिस से लौटा, तो पत्‍नी ने वही शिकायत दुहराई।

मुझे बिल्‍ली पर गुस्‍सा आ गया। सिल्‍लू की गोद से लेकर मैंने उसे मेज़ पर बैठाया। मुँह पर एक चपत दी कि आगे से उस मियां के घर गई तो ख्‍़ौर नहीं। जानती है वह अपना ज़ानी दुश्‍मन है। तू कहीं भी जा, मगर उस ज़ालिम के यहाँ क़तई नहीं। समझ गई? कहकर मैंने बिल्‍ली के कान पकड़े। खींचे। उसने निरीहता में मुँह खोला और दुबककर बैठ गई जैसे कह रही हो कि ठीक है, आगे से नहीं जाएंगे। बिल्‍ली आँखें बंद करती है, मैं उसकी बात मान लेता हूँ और पत्‍नी को सख्‍़त हिदायत देता हूँ कि वह ख्‍़याल रखे और किसी भी तरह से उसे बाहर न निकलने दे।

लेकिन सबेरे जब मैंने ऑफिस जाने के लिए दरवाज़ा खोला और स्‍कूटर निकाल ही रहा था, बिल्‍ली दबे पांव धीरे-धीरे दरवाज़े के पास आई, पल भर को उकडूँ बैठी और पलक झपकते सर्र से बाहर निकल गई। मैं ज़ोरों से चीखा। उसने परवाह न की। वह खालिद के दरवाज़े की ओर बढ़ी और घर में घुस गई। मैं उसके पीछे दौड़ा और आवाज़ें देता रहा। लेकिन वह नहीं निकली।

पत्‍नी ने ग़ुस्‍से में कहा ऐसई करती है।

मैंने सिल्‍लू से कहा जा उसे बुला।

सिल्‍लू ने कहा मैं नहीं जाऊंगी, रजा मुझसे नहीं बोलता है।

मैं रजा से बात करने के लिए थोड़ई कह रहा हूँ। तू तो उसे बुला ला, बाहर से आवाज़ लगाकर।

नईं, मैं नईं जाऊँगी। रजा मारेगा।

नईं मारेगा, बेटा! जा तो।

तुम बुला लो ना। उसने माथे पर बल डाला।

उसके जवाब पर मैं एकदम असहाय था। ऑफिस को देर हो रही थी इसलिए बेबस-सा ऑफिस निकल गया, बिना कुछ बोले। हालांकि मन में यह बात थी कि लौटकर बिल्‍ली को देख लेंगे, आगे से फिर घर से निकलना भूल जाएगी।

शाम को ऑफिस से लौटा तो बिल्‍ली सिल्‍लू की गोद में आराम से आँखें मींचे बैठी थी। पत्‍नी ने आँखें तरेर कर कहा ये आ गई तुम्‍हारी चहेती। इतनी शरीर है कि कुछ कहते नहीं बनता।

मैं ग़ुस्‍से से भरा था। बोला मैं भी कम शरीर नहीं। अभी रास्‍ते पर ला देता हूँ। आगे से बाहर निकलना ही भूल जाएगी।

बिल्‍ली को मैंने मेज़ पर बैठाया। म्‍याऊं के साथ वह मेज़ पर दुबक कर बैठ गई और आँखें मींच लीं।

मैंने मना किया था कि तू उस दुश्‍मन के घर न जाना, लेकिन तू मानी नहीं। मेरी आँख के सामने निकल गई।

बिल्‍ली मूर्तिवत बैठी रही। निर्विकार जैसे कुछ सुना ही न हो।

मैंने उसे ज़ोरों का थप्‍पड़ मारा कि वह मेज़ पर कुछ दूर तक सरक गई। यकायक उठकर खड़ी हो गई। गरदन झटककर उसने गिरीह भाव से मुँह खोला और मेरी ओर देखकर म्‍याऊं किया जैसे कह रही हो कि क्‍यों जबरन मारते हो? मैंने क्‍या किया है?

क्‍या किया है! इतनी बड़ी ग़लती कि माफ नहीं किया जा सकता!

आगे बढ़कर मैंने बिल्‍ली को फिर करारा थप्‍पड़ मारा और इस तरह कि मेज़ पर सरके नहीं। मार पर बिल्‍ली तिलमिलाई, गरदन झटकी और सपाटे से नीचे कूदी और कोने की ओर बढ़ी।

उसकी इस बदतमीजी पर मैं गु़स्‍से से बेकाबू हो गया। उसकी तरफ़ बढ़ा तो उसने पूँछ हिलाते हुए मुँह खोला जैसे कह रही हो कि क्‍यों मारते हो। ग़लती हो गई, जाने दो, आगे से नहीं जाएंगे।

नहीं, तू ऐसे मानने वाली नहीं है। दांत पीसते हुए मैंने उसकी पीठ की चमड़ी पकड़ी और उसे टाँग लिया। मरी खाल-सी वह झूल रही थी। मैंने उसे मेज़ पर बैठाया और दाँत पीसते हुए कहा बोल, जाएगी उस मियां के घर?

वह आँख मींचे बैठी रही, स्‍थिर।

बोल!!

वह स्‍थिर।

उसके रवैये से मेरा ग़ुस्‍सा और बढ़ गया। मैंने एक जबरदस्‍त मुक्‍का मारा। मुक्‍का पीठ पर लगा था। दर्द की वजह से वह लचक कर सिकुड़ गई। आँखें खोलकर उसने मुझे देखा लेकिन पल भर बाद वह पूर्ववत्‌ थी। आँखें बंद किए जैसे कुछ हुआ न हो। दुबकी बैठी रही।

यह अवमानना जैसा रवैया था। मैंने पुनः मुक्‍का ताना कि वह फुर्ती से मेज़ से फर्श पर कूदी। मैं उसके पीछे दौड़ा। सामने कुर्सी थी। संभलकर फुर्ती से निकला, बावजूद इसके मेरा घुटना कुर्सी से टकरा गया और मैं एक असहनीय दर्द से भर उठा। बायाँ घुटना पकड़े फर्श पर बैठ गया और बेतरह कराहने लगा।

लग गई। पत्‍नी ने हमदर्दी जताते हुए कहा ख्‍़ौर छोड़ो, अब आगे से नहीं जाएगी? सजा काफी मिल गई है।

दाँत पीसते हुए मैंने सिर हिलाया, मन में कह रहा था कि इस कमीन की वजह से घुटने में चोट लगी और जान निकली जा रही है, तू है कि छोड़ने के लिए कह रही है।

सिल्‍लू ने भी पत्‍नी की बात कही। लेकिन मैंने दोनों की बात पर ग़ुस्‍सा ज़ाहिर किया। बिल्‍ली दूसरे कमरे में भाग गई थी। मैंने किवाड़ के पीछे से डंडा निकाला लेकिन पता नहीं क्‍या सोचकर रख दिया। बगल वाले कमरे की ओर बढ़ा।

कमरा अगड़म-बगड़म सामानों से ठँसा था। आमने-सामने दो उधारी चारपाइयाँ थीं जो इस वक्‍़त बिछी हुई थीं जिन पर कपड़ों के ढेर थे।

सामने वाली चारपाई के सिरहाने एक बड़ी मेज़ थी जिस पर टेबुल लैम्‍प, ढेर सारे अखबार, मैगजीन, चूडि़यों से भरा चूड़ी स्‍टैण्‍ड, बिंदियाँ और खाली-अधख़ाली क्रीम की डिब्‍बियाँ जैसे सामान अटे पड़े थे। बहुत सारी चीज़ें खरिज करने लायक थीं। लेकिन मेज़ पर अपना हक़ बनाए थीं। दूसरी चारपाई के पैतियाने लोहे की बड़ी आलमारी थी जिसके हैंडिल लॉक से हैंगर और सिल्‍लू के हेयर बैण्‍ड लटक रहे थे। उसी के बग़ल गेहूँ का ड्रम था जो ईटों पर रखा था। दरवाज़े के बाजू में छोटा सा मंदिर था जिसके अग़ल-बग़ल असंख्‍य देवी-देवताओं के छोटे-छोटे कैलेण्‍डर जमाए गए थे।

मंदिर से निगाह हटाकर मैंने बहुत ही सतर्कता से सामने वाली चारपाई के नीचे झांका बिल्‍ली न थी। दूसरी चारपाई के नीचे भी न थी। मेज़ के नीचे भी नहीं। आलमारी के नीचे देखा, वहाँ भी न थी। कहाँ गई, सोचता खड़ा हुआ। सामने देखा तो गेहूँ के ड्रम के ऊपर रजाई में दुबकी बैठी थी। आँखें उसकी खुली और सतर्क थीं।

पास जाकर मैंने चुमकारा तो वह स्‍नेह से दुम हिलाने लगी। हाथ बढ़ाया तो वह खेल के अंदाज में अगला पंजा बढ़ाने लगी।

दरवाजे़ पर पत्‍नी और सिल्‍लू खड़ी थीं। संभव है, बिल्‍ली के इस रूप से उनके चेहरों पर प्रसन्‍नता खेल रही हो लेकिन इस प्रसन्‍नता के पीछे हौल था।

यकायक मैंने चुटकी बजाते हुए उसका अगला पंजा पकड़ लिया और उसे अपनी ओर खींचा। उसके नाखून रजाई के खोल में फँसे थे।

बोल जाएगी उस मियां के घर। बिल्‍ली को मेज़ पर बैठाकर मैं फिर क्रोध के हवाले था।

बिल्‍ली दुम हिलाते हुए चंचल थी।

मैं समझ गया कि यह बात मानने से रही। दुश्‍मन के घर जाएगी, ज़रूर जाएगी। इसकी सजा इसे मिलनी ही चाहिए यह सोचकर मैंने उसके गले की तरफ़ अपना पंजा बढ़ाया, बोला अब भी मान जा!

बिल्‍ली ने कोई सकारात्‍मक जवाब नहीं दिया। फिर क्‍या था, मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया। यकायक मैंने अपने पंजे उसकी ओर बढ़ाए। बिल्‍ली अभी भी खेल के मूड में थी, दुम हिलाते हुए चंचल थी, उसे मेरे क्रोध का तनिक भी भान न था।

मैंने उसका गला पकड़ा और पंजों का शिकंजा सख्‍़त किया, इतना सख्‍़त कि बिल्‍ली तड़पड़ाने लगी। बचाव में वह इधर-उध पंजे चलाने लगी, मगर सख्‍़त शिकंजे के आगे वह असहाय थी। दांत पीसता मैं शिकंजा और सख्‍़त करता जा रहा था। आँखों से आग बरस रही थी। मुँह से भद्दी गालियाँ निकल रही थीं।

बिल्‍ली अभी भी बचाव के लिए प्रयासरत थी।

थोड़ी देर में बिल्‍ली के मुँह से एक घुटी-सी चीख निकली। ज़ुबान मुँह के कोर तक आई जैसे बचाव के लिए कुछ कहना चाह रही हो लेकिन कोर तक आते-आते लथर-सी गई। बदन में उसके कंपन शेष था जो धीरे-धीरे डूब रहा था। आँखें ऊपर टंग गई थीं। उनमें एक ठहराव-सा व्‍यापता जा रहा था।

यकायक घिन से भरकर मैंने बिल्‍ली को फर्श पर छोड़ दिया।

पत्‍नी और सिल्‍लू उसे इस रूप में देखकर रो पड़ीं। मैं तेज़ क़दमों से कमरे से बाहर आ गया।

दोनों रो रही थीं। मैंने कानों में उंगलियाँ ठूँस लीं। अस्‍पष्‍ट-सा रुदन सुनाई पड़ रहा था।

मेरे चेहरे पर शांति थी।

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: हरी भटनागर की कहानी : बिल्‍ली नहीं, दीवार
हरी भटनागर की कहानी : बिल्‍ली नहीं, दीवार
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