हरि भटनागर की कहानी : कथरी

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कहानी कथरी हरि भटनागर जगदीश को नींद नहीं आ रही है। वैसे झुग्‍गी में पड़ते ही सो जाता था, यहाँ लाला की चाय की दुकान में, ओढ़ने के लिए तीन...

कहानी

कथरी

हरि भटनागर


जगदीश को नींद नहीं आ रही है। वैसे झुग्‍गी में पड़ते ही सो जाता था, यहाँ लाला की चाय की दुकान में, ओढ़ने के लिए तीन बोरे, ढेर-सा पैरा, एक बूढ़ा कम्‍बल और सिर के ऊपर अंतिम साँसें लेती भट्‌ठी की आँच है जिसे लाला उसके लिए लहकता छोड़ गए थे- बावजूद इसके नींद ग़ायब है...
आज सुबह ही वह लाला की चाय की दुकान में आया। आया क्‍या, लाया गया, बाप द्वारा।
भोर में बाप ने उसे बहुत ही प्‍यार से जगाया, बोला - जग्‍गी, उठ, जल्‍दी उठ, आज से तुझे लाला के यहाँ काम करना है, वहीं रहना है, खाना-पीना है, मैं कल लाला से बात कर आया हूँ...
जगदीश उठ बैठा किन्‍तु उनींदा बना रहा। इस बीच बाप ने अँजुरी में पानी लाकर उसके मुँह पर मल दिया और बोला - देर मत कर बेटा, जल्‍दी रोटी खा ले और चल...
पानी से जगदीश चिहुँक-सा उठा और गहरी साँस लेता बाप को भौंचक-सा देखने लगा। उसकी नींद जाती रही लेकिन हैरत में था कि बाप इतनी जल्‍दी उठ क्‍यों गया और आज वह इतने प्‍यार में क्‍यों है? बात क्‍या है? और ये लाला और दुकान क्‍या है?
जगदीश जब यह सोच रहा था, तभी बाप की झुग्‍गी के बाहर, दातून करते, आवाज़ आई - जग्‍गी बेटा, अब तू आदमी बन जाएगा, देख लेना! लाला तुझे खान देगा, कपड़ा देगा और पैसा! लाला की दुकान के क्‍या कहने...
जगदीश ने बाप को इतना खु़श-मगन कभी न देखा और न इस तरह प्‍यार की बात करते हुए; कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं...
जगदीश का बाप, यानी मंगल कबाड़ी था। कबाड़ के काम के लिए उसे ठेला लेकर मुँह टेढ़ा करके कड़क हाँक लगाने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी। अपनी झुग्‍गी में ही उसने तराजू टाँग रखा था और आस-पास के सारे कबाड़ी उसके यहाँ अख़बार; बीयर-शराब की बोतलें और ढेर-सा अगड़म-बगड़म कबाड़ बेच जाते। मुँह में पान के बीड़े ठूँसे और उँगली में चूना फँसाए वह दिनभर सामान तौलता और उनका हिसाब करता रहता। हफ्‍ते में एक दिन वह ठेले में सामान लादता और शहर के बड़े कबाड़खाने में बेच आता।
यह उसका वर्षों का बँधा-बँधाया काम था जिसमें कभी कोई तब्‍दीली नहीं आई।
लेकिन उसके काम में तब्‍दीली आई जब उसकी शादी हुई और उसने कबाड़ क्‍या, कोई भी धंधा हाथ नहीं लगाया।
बात यों हुई कि जब उसकी शादी हुई तो उसने सोचा कि वह काम क्‍यों करे! काम तो उसकी घरवाली को करना चाहिए, जैसे कि झुग्‍गी की ज़्‍यादातर औरतें करती हैं और आदमी ताड़ी पीते हैं और घर में पड़े आराम करते हैं...
बस उसने इसी सोच का अनुसरण किया और ताड़ी में डूब गया।
कबाड़ के धंध्‍ो में जितनी रक़म उसने जोड़ी थी, उसमें खू़ब ऐश किया। दोनों वक़्‍त खू़ब मछली-मुर्गे उड़ाए और छक के ताड़ी पी।
लेकिन जैसे-जैसे रक़म ख़त्‍म होती गई - ऐश थमता गया और धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आया जब खाने के लाले पड़ गए और झुग्‍गी में बजते कनस्‍तर के अलावा कुछ न था।
नवब्‍याहता दुखी थी और उदास; लेकिन करती क्‍या! आदमी को ठेल-ठेल के हार गई, वह धंध्‍ो के लिए किसी भी तरह से तैयार न हुआ! हाँ-ना के लिए भी न मिनकता - सिर्फ़ टुकुर-टुकुर सूनी निगाह से ताकता रहता!
कबाड़ का बँधा-बँधाया धंधा वह करना चाहती थी, लेकिन घर से बाहर कबाड़खाने जाने की वह हिम्‍मत नहीं जुटा पा रही थी। आख़िर में उसने दौड़-धूपकर कॉलोनी के कुछ घरों में चौका-बासन करने, कपड़े धोने और रोटी पकाने का काम फँसा लिया।
जिस दिन वह काम पर गई, मंगल अपनी जीत पर भारी खु़श था।
तकरीबन दस वर्षों से वह चौका-बासन करने, कपड़े धोने और रोटी पकाने का काम करती आ रही है और मंगल कोई काम-धंधा नहीं करता, सिवाय ताड़ी पीने, लड़ने-झगड़ने, धुत्त पड़े रहने के। शाम को जब सूरज अस्‍त हो रहा होता, वह झुग्‍गी से निकलता। निकलने से पहले वह घरवाली से ताड़ी के पैसे के लिए झगड़ता। पहले दोनों में ज़बानी लड़ाई होती फिर जिस्‍मानी। दोनों एक-दूसरे को मारते-पीटते। आख़िर में जीत मंगल की होती और वह पैसे झटक के गालियाँ बकता हुआ झुग्‍गी से निकलता।
उस शाम जब वह मार-पिटाई के बाद पैसे झटक के ताड़ी की खोली में घुसा और ताड़ी का गिलास थाम रहा था, तभी उसे एक बात सूझी। बात यों थी कि ताड़ी का गिलास थमाने वाला लड़का जगदीश की उमर का ही था और शक्‍ल-सूरत में हू-ब-हू जगदीश जैसा ही था। पहले उसे भ्रम हुआ कि वह जग्‍गी है लेकिन जब उसने बात की तो वह जग्‍गी न था - उमर था! तभी उसके दिमाग़ में आया कि क्‍यों न वह जग्‍गी को काम में फँसाए? जब यह लड़का काम कर सकता है तो जग्‍गी भला क्‍यों नहीं कर सकता? यह भी तो सात-एक साल का होगा... फिर जग्‍गी के काम करने से उसे रक़म मिलेगी और वह रक़म उसके ताड़ी के काम आएगी... सोचकर मंगल यकायक ज़ोरों से चिहुँक उठा जिससे आस-पास के नशैले उसे मुस्‍कुराते हुए ग़ौर से देखने लगे। कुछ झूमते हुए पूछ पड़े कि क्‍यों बे, आज पीते ही भेजा घूम गया?
खै़र! मंगल उस वक़्‍त खू़ब चीखा जोर-जो़र से और खुशी के मारे नाचने लगा। उसी वक़्‍त उसके दिमाग़ में बस-अड्‌डे के लाला का ख्‍़याल आया जो चाय बेचते थे और उसके काफ़ी क़रीबी थे। वह जग्‍गी को लाला के यहाँ रखना चाहता था।
वह लाला के पास दौड़ा-दौड़ा गया।
और लाला ने उसकी बात मान ली थी।
मंगल ने उस रात बस्‍ती में भारी हंगामा मचाया। बस्‍ती के एक-एक लोगों को जो अपने तुर्रम खाँ मानते थे, चीख़-चीख़ के गालियाँ दीं और सबको मज़ा चखाने की धमकी दी; लेकिन मुँह-अँध्‍ोरे जब उसकी नींद खुली, वह बहुत ही खु़श था और एकदम सामान्‍य। उसी खु़शी के हवाले, उसने जग्‍गी को उठाने के लिए प्‍यार से आवाजे़ दीं...
जब जग्‍गी बाप के साथ चलता हुआ लाला की चाय की दुकान पर पहुँचा तो बात समझ में आई कि उसे धंध्‍ो में फँसाने के लिए बाप जगा रहा था प्‍यार से!
लाला ने उसे देखते ही भाँप लिया कि लड़का चुस्‍त-दुरुस्‍त है और काम का। पगार वगै़रह तय करने के बाद उन्‍होंने उसे काम समझा दिया था।
वह काम में लग गया था।
मंगल लाला की दुकान पर ताड़ी के लिए कुछ नगदी पाने के लिए लालच में काफ़ी देर तक बैठा रहा जबकि लाला नगदी देने से बच रहे थे और उसके बदले में उसे तीन-चार गिलास चाय और समोसे पेश कर चुके थे। लाला ने जब देखा कि मंगल बिना कुछ लिए उठने वाला नहीं तो उन्‍होंने बीस रुपये देकर उससे पिण्‍ड छुड़ाया।
नगदी लेके बाप सीध्‍ो ताड़ी पीने गया होगा - जगदीश मन ही मन बुदबुदाया और करवट बदलने लगा, ताड़ी के बाद वह बस्‍ती में पहुँचा होगा और नशे में चीखा-चिल्‍लाया होगा। बस्‍ती के लोगों को गंदी-गंदी गालियाँ दी होंगी। बस्‍ती के लोग उसकी क्‍यों सुनने लगे, वे भी झुग्‍गी से निकल पड़े होंगे और जवाबी हमला कर रहे होगे चीख-चीख के, किचकिचा-किचकिचा के! भाड़ में जाएँ सब...अपने लाला कितने अच्‍छे आदमी हैं, बोरे में दुबककर वह लाला की शक्‍ल-सूरत का ख्‍़याल करने लगा।
लाला बड़ी तोंद के मालिक हैं। सर्दी में भी वे बनियान नहीं पहनते सिर्फ़ लुँगी बाँधते। बनियान वे कंध्‍ो पर रखते। कंध्‍ो पर बनियान रखे, अधबुझी बीड़ी का टोंटा होंठों के कोर में दाबे वे भट्‌ठी पर औंट रही चाय में खोए रहते, अपने से पता नहीं क्‍या बतियाते हुए।
बाप के जाने के बाद उन्‍होंने उससे प्‍यार से कहा था, जगिया, तू यहाँ आराम से रह! तू नौकर नहीं, मेरे बेटे जैसा है। कहकर उन्‍होंने अमृतदान से एक केक निकाला और उस पर मलाई डाली और ज़रा-सी शक्‍कर और उसे खाने को दी थी - ले खा, बता कैसा है केक और मलाई...
केक और मलाई उसने ज़िन्‍दगी में पहली दफ़ा खाए थे। खाता हुआ वह रुआँसा हो आया, लाला ने उसे तोंद से चिपटा लिया था।
दिन भर जगदीश चाय के जूठे गिलास उठाने और उन्‍हें नाली में धोने और लाला के इशारे पर इधर-से-उधर दौड़ता रहा।
जब सूरज बैठ रहा था और उसकी लालिमा से वातावरण टेसू के फूल-सा दहक रहा था, लाला ने उसे चाय दी और डबलरोटी। छोटे से स्‍टूल पर बैठा वह देर तक चाय में डबलरोटी डुबो-डुबोकर खाता रहा और आस-पास के माहौल को कौतुक-भाव से निहारता रहा।
अंध्‍ोरा होते-होते दूध ख़त्‍म हो गया, शंभू आ गया, बर्तन मलने वाला। शंभू रोज़ इसी वक़्‍त आता और दूध के भगौने, केतली, गिलास वगै़रह धोके जमा जाता।
शंभू के बग़ल लाला कल के लिए कोयला फोड़ रहे थे और जगदीश के बारे में शंभू से बता रहे थे कि ये गदेला (बच्‍चा) रख लिया है सज्ञान होने पर मदद करेगा काफी।
शंभू मुस्‍कुराता जगदीश को प्‍यार भरी नज़रों से देख रहा था और बर्तन मलता जा रहा था। काम पूरा होने पर जाते वक़्‍त उसने उसे मलाई की खुरचन दी जो काफ़ी लज़ीज़ थी।
दस बजे के आस-पास बस-अड्‌डा जब पूरी तरह सूना हो गया, लाला ने जगदीश के लिए किक्‍कड़ सेंके और आलू का चोखा बनाया।
जब वह रोटी खा रहा था, लाला ने भट्‌ठी के नीचे उसका बिस्‍तर जमा दिया और कहने लगे - यहाँ ठाठ से सोना। दुकान बढ़ाते हुए बनियान कंध्‍ो पर जमाए, बीड़ी का बुझा टोंटा मुँह के कोर में खोंसे, डोलची टाँगे वे घर की ओर रवाना हो रहे थे और उसे हिदायत पर हिदायत दिए जा रहे थे।
लाला के जाते ही वह अपने बिस्‍तर में घुसा और लेटते ही गहरी नींद में सो गया। एक घण्‍टा बीता होगा, उसकी नींद टूटी। उसे ज़ोरों की सर्दी लग रही थी। जो कुछ वह ओढ़े था, सर्दी से बचाव के लिए काफ़ी न था। पता नहीं कहाँ से एकदम सर्दी बढ़ गई थी जबकि दिन में सर्दी नाम को न थी। वह उठ बैठा और भट्‌ठी पर झुका- भट्‌ठी पूरी तरह से सो गई थी। उसने उसके अंदर हाथ डाले और राख में देर तक उसके ताप को अपने अंदर महसूस करने की नाकाम कोशिश की। लेकिन ताप की जगह उसे घुलती बर्फ़ का अहसास हुआ तो वह फिर बिस्‍तर में घुसा।
बिस्‍तर गीला-गीला लग रहा था जिससे गरमाहट की उम्‍मीद व्‍यर्थ थी। वह फिर उठ बैठा और आसमान की ओर देखने लगा जहाँ कोहरे के अलावा कुछ न था। लगता था बर्फ़ के गाले के अलावा हर तरफ़ कुछ शेष न हो।
लाला की चाय की दुकान के बग़ल हलवाई की दुकान थी। उसमें दो लड़के थे जो उम्र में उससे बड़े थे। दोपहर में काम की भाग-दौड़ के बीच उसने उन लड़कों को देखा था जो धारीदार जांघिया पहने, नंगे पाँव, छाती तक बनियान खींचे भट्‌ठी धौंकने में लगे थे। उनमें से एक लड़का पीतल का गिलास लिए लाला से चाय लेने भी आया था। लड़का बहुत ही काला था। बाँह में ताबीज बाँध्‍ो था। आँखें खू़ब चमकती हुई थीं। एक क्षण के लिए उसकी उससे आँखें टकराई थीं कि वह चाय लेकर चलता बना था।
जगदीश ने सोचा - इस वक़्‍त वे दोनों कहाँ होंगे? मेरी ही तरह क्‍या वे भट्‌ठी के बग़ल सर्दी से काँप रहे होगे या मजे़ से सो रहे होगे!
यकायक उसका मन हुआ कि उठे और उन्‍हें देखकर आए, फिर यह सोचकर कि कहीं वे उसे चोर-लबारी न समझें, गुहार मचाने और मारने न लगें... मन मारकर वह बोरे में पड़ा रहा।
सन्‍नाटे में दूर कहीं पेड़ों पर पंछियों की रह-रह बोलने की आवाज़ आती थी जैसे ठण्‍ड से वे भी बेहाल हों और बचाव के लिए गुहार लगा रहे हों।
सहसा उसे एक छाया दिखी जो उसकी ओर बढ़ी आ रही थी, धीरे-धीरे।
वह साँस रोके पड़ा रहा। छाया किसी और की न होकर पागल की थी। पागल लाला की दुकान के आगे बैठता था। वह एकदम नंगा था, सर्दी से बेतरह काँपता हुआ, मद्धिम आवाज़ में कुछ बके जा रहा था। भट्‌ठी के पास आकर वह खड़ा हो गया।
यकायक जग्‍गी का मन हुआ कि वह उसे अपने पास लिटा ले और वे दोनों सर्दी से निजात पाएँ।
जब वह यह सोच रहा था, तभी उसे अपनी माँ का ख्‍़याल आया जिससे वह रोज़ाना लिपटकर सोता था। झुग्‍गी में बिछाने के नाम पर दो बोरे थे और ओढ़ने के नाम पर एक चादरा। वह और माँ एक-दूसरे की कथरी थे जिससे लिपटकर वे सर्दी को दूर भगा लिया करते थे। आज वे एक-दूसरे से दूर थे।
माँ के बारे में सोचते-सोचते यकायक उसकी आँखों में आँसू आ गए और वह डबडबाई आँखों सोचने लगा कि माँ भी मेरी तरह जाग रही होगी और सर्दियां रही होगी! काश! बाप का माँ से बिगाड़ न होता और आज उसकी जगह वह माँ के साथ होता तो कितना अच्‍छा होता! कम से कम माँ सर्दी तो नहीं खा रही होती! बिचारी माँ...
वह माँ को सर्दी से बचाने और नींद दिलाने के ख्‍़याल से झुग्‍गी की ओर बढ़ने को हुआ, उस वक़्‍त उजाला झड़ रहा था - बीड़ी का सुट्‌टा मारते, बाजू में डोलची टाँगे लाला दिखे जो कंध्‍ो पर बनियान रखे सपाटे से दुकान की ओर बढ़े चले आ रहे थे।
उसके पाँव वहीं के वहीं जाम हो गए।
...

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रचनाकार: हरि भटनागर की कहानी : कथरी
हरि भटनागर की कहानी : कथरी
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