यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (1)

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॥ श्री ॥ असत्यम्। अशिवम्॥ असुन्दरम्॥। (व्यंग्य-उपन्यास) महाशिवरात्री। 16-2-07 -यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी...

॥ श्री ॥

असत्यम्।

अशिवम्॥

असुन्दरम्॥।

(व्यंग्य-उपन्यास)

महाशिवरात्री।

16-2-07

-यशवन्त कोठारी

86, लक्ष्मी नगर,

ब्रह्मपुरी बाहर,

जयपुर-302002

 

Email:ykkothari3@yahoo.com

समर्पण

अपने लाखों पाठकों को,

सादर । सस्नेह॥

-यशवन्त कोठारी

इस बार महाशिवरात्रि और वेलेन्टाइन-डे लगभग साथ-साथ आ गये। युवा लोगों ने वेलेन्टाइन-डे मनाया। कुछ लड़कियों ने मनाने वालों की धज्जियां उड़ा दी और बुजुर्गों व घरेलू महिलाओं ने शिवरात्रि का व्रत किया और रात्रि को बच्चों के सो जाने के बाद व्रत खोला।

इधर मौसम में कभी गर्मी, कभी सर्दी, कभी बरसात, कभी ठण्डी हवा, कभी ओस, कभी कोहरा और कभी न जाने क्या-क्या चल पड़ा है। राजनीति में तूफान और तूफान की राजनीति चलती हैं। कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, भटकते हुए भी कुछ नहीं होता। शिक्षा व कैरियर और प्यार के बीच लटकते लड़के-लड़कियां................।

मोबाइल, बाइक, गर्ल-फ्रेण्ड और बॉयफ्रेण्ड के बीच भटकता समाज..........।

जमाने की हवा ने बड़े-बूढ़ों को नहीं छोड़ा। तीन-तीन बच्चों की मांएं प्रेमियों के साथ भाग रही है और कभी-कभी बूढ़े प्रोफेसर जवान रिसर्च स्कालर को ऐसी रिसर्च करा रहे है कि बच्चे तक शरमा जाते हैं। गठबंधन सरकारों के इस विघटन के युग में पुराने गांवनुमा कस्बे और कस्बेनुमा शहरों की यह दास्तान प्रस्तुत करते हुए दुःख, क्षोभ, संयोग-वियोग सब एक साथ हो रहा है।

सरकारें किसी पुराने स्कूटर की तरह सड़क पर धुंआ देती हुई चल रही हैं। मार-काट मची हुई है, हर गली-चौराहें पर शराब की दुकानें खुल चुकी हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियां भी अधनंगी होना ही फैशन समझ रही हैं।

गली-गली प्यार के नाम पर नंगई-नाच रही है। टीवी चैनलों पर अश्लीलता के पक्ष में दलीलें दी जा रही हैं। न्यूज पेपर्स, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चारों तरफ पैसों का युद्ध चल रहा है। सोवियत संघ विघटित हो चुका हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद (जो आर्थिक है) छाया हुआ है। सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है। ऐसी स्थिति की कहानी कहने की इजाजत चाहता हूँ।

कहानीकार बेचारे क्या करें। महिला लेखन के नाम पर अश्लील लेखन चल रहा हैं। देहधर्मिता के सामने सब धर्म फीके पड़ गये हैं।

हां तो पाठकान! इन्हीं विकट परिस्थितियों में उपन्यास का नायक-नुमा खलनायक या खलनायक नुमा-नायक मंच पर अवरतित होने की इजाजत चाहता है।

ये सॉहबान एक आलीशान कार में है। इनके पास ही एक स्कूल टीचर बैठी है, शराब है, महंगी गिफ्ट है, और प्यार के नाम पर चल रही अश्लील सी.डी. है।

अचानक कार एक गरीब रिक्शा चालक को टक्कर मार दे देती है। युवती उतरकर भाग जाती है, युवक को पुलिस पकड़ने का प्रयास करती है,मगर अफसोस युवक आई.जी. का लड़का है। पुलिस मन मसोस कर रह जाती हैं। युवक कार में बैठकर नई युवती की तलाश में चल पड़ता है। ऐसा ही चलता रहता है।

X X X

वह घर है या मकान या खण्डहर या तीनों का मिलाजुला संस्करण। घर के मुखिया इसे अपनी पुश्तैनी जायदाद समझकर वापरते थे मगर नई पीढ़ी इस खण्डहर में रहकर चैनलों के सहारे अरबपति बनने के सपने देखती थी।

इस कस्बेनुमा शहर या शहरनुमा कस्बे की अपनी कहानी है। हर-दो नागरिकों में तीन नेता। किसी के भी पास करने को कोई काम नहीं है। अतः दिनभर इधर उधर मारे-मारे फिरते हैं। कभी चाय की दुकान पर बैठे है, कभी नुक्कड़ वाले पान की दुकान पर बतिया रहे है और कभी गली के नुक्कड़ पर खड़े-खड़े जांघें खुजलाते हैं, हर आती जाती लड़की, महिला को घूर घूरकर अपनी दिली तमन्नाएं पूरी करने की सोचते रहते हैं।

जिस घर की चर्चा ऊपर की गई है उसका एक मात्र कुलदीपक अपनी तरफ से कोई काम नहीं करता। पढ़ाई-लिखाई का समय निकल चुका है पिताजी ने अवकाश ले लिया है और कुलदीपकजी के भरोसे शेष जीवन पूरा करना चाहते हैं। इसी घर में एक मजबूरी ओर रहती है जिसका नाम यशोधरा है वो पढ़ना चाहती है। बाहर निकलना चाहती है मगर घर की मध्यमवर्गीय मानसिकता के चलते उसे यह सब संभव नहीं लगता। अचानक एक दिन सायंकालीन भोजन के बाद यशोधरा ने नुक्कड़ वाली दुकान पर कम्प्यूटर सीखने की घोषणा कर दी। घर में भूचाल आ गया। मां ने तुरन्त शादी करने की कहीं। पिताजी चुप लगा गये और कुलदीपक स्लीपर फड़फड़ाते हुए बाहर चले गये।

यशोधरा की इस घोषणा से घर में तूफान थमने के बजाय और बढ़ गया। पिताजी को एक अच्छे वर के पिता का पत्र मिला। लड़की सुन्दर-सुशील और कामकाजी-नौकरी करती हो तो रिश्ता हो सकता है।

पिताजी ने मरे मन से ही कम्प्यूटर सीखने की स्वीकृति प्रदान कर दी। यशोधरा ने फीस भरी और काम सीखने लगी। टाईपिंग, ई-मेल से चलकर वह सी प्लस प्लस तक पहुंच गई। कुलदीपक जी ने कई परीक्षाएं दी मगर वहीं ढाक के तीन पात।

मां-बाप बुढ़ापे के सहारे जी रहे थे या जी-जी कर मर रहे थे। यह सोचने की फुरसत किसे थी।

जीना-मरना ईश्वर के हाथ में है। इस सनातन ज्ञान के बाद भी कुलदीपकजी के पिता लगातार यशोधरा के ब्याह की चिन्ता में मर रहे थे। मां की चिन्ता समाज को लेकर ज्यादा थी। कब क्या हो जाये ? कुछ कहा नहीं जा सकता। वो अक्सर बड़बड़ाती रहती। नाश हो इस मुंऐ बुद्धु बक्से का, चैनलों का। जिस पर चौबीसों घन्टे फैशन, हत्या, बलात्कार, अश्लीलता परोसी जाती है व लड़कियां भी क्या करे, जो देखेगी वो ही तो सिखेगीं। समाज पता नहीं कहां जा रहा है। बापू इस सनातन संस्कृति के मारे घर के बाहर निकलने में भी डरते हैं।

इधर यशोधरा ने कम्प्यूटर पर डी.टी.पी. के सहारे एक जगह फार्म भर दिया था। किस्मत की बात या लड़की की जात उसे अखबार में ऑपरेटर की नौकरी मिल गई मां-बापू ने हल्ला मचाया मगर पांच हजार रूपये वेतन सुनकर मां-बापू चुप लगा गये। पेंशन के पैसों से क्या होना जाना था। कुलदीपकजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। बहरहाल उनके चेहरे पर जरूर कष्ट के चिन्ह दिखे। मगर पहली पगार से जब उन्हें कड़कड़ातों सौ के कुछ नोट मिले तो उन्होंने यशोधरा की चोटी खींचने का कार्य स्थगित कर दिया।

अब घर में बड़ी और कमाऊं बिटिया की बात ध्यान से सुनी जाने लगी थी यहां तक कि मां सब्जी भी उसकी पसंद की बनाने लग गई थी। बापू अब गली, मौहल्ले में गर्व से सीना-ताने निकलते थे। मगर यह मर्दानगी ज्यादा दिन तक न चली। एक रोज बिटिया घर देर से आई। फिर यह सिलसिला बन गया। बिटिया की देरी का कारण चर्चा का विषय बन गया। उसकी चाल, ढाल, हाव-भाव, नखरे बढ़ने के समाचारनुमा अफवाहें या अफवाहनुमा समाचार सुनाई देने लगे। बापू ने वापस वर के लिए दौड़ धूप शुरू कर दी, मगर हुआ कुछ नहीं।

खानदान में पहली बार किसी लड़की के कारण परेशानी खड़ी होने की संभावना लग रही थी। पिछली पीढ़ी में बुआ, बहन या बड़ी बुआ का जमाना सबको याद आ रहा था। मगर सबके सब चुप थे। आखिर एक दिन लड़की ने मुहं खोला।

‘बापू। क्या बात है क्या आपको मेरी नौकरी पसन्द नहीं।'

‘नही बेटे।' बापू अचकचा कर बोले। ‘ऐसी बात नहीं है।'

‘तो फिर क्या बात है।'

‘वो.............वो..................तेरी...................मां कह रही थी कि....................?'

‘क्या कह रही थी। मैं...................जरा मैं भी तो सुनू।'

‘वो तुम्हारी शादी की बात..............।'

‘शादी की बात भूल जाईये, बापू जी।'

‘शादी मैं अपनी मरजी से जब चाहूंगी तब करूंगी और यही सबके लिए ठीक रहेगा।'

यह सुनकर मां बड़बड़ाती हुई रसोई घर में चली गयी। बापू जी ने रामायण खोल ली। कुलदीपकजी साइकिल के सहारे शहर की सड़क नापने चल दिये।

इसी खण्डहरनुमा मकान या घर या ठीये के पास ही एक नई आलीशान बिल्डिंग में, बड़े आलीशान फ्लेट बन रहे थे। इस बिल्डिंग के कुछ हिस्से आबाद हो गये थे। एक सम्पूर्ण टाउनशिप। इसमें जिम थे। टेनिसकोर्ट थे। बच्चों के लिए पार्क थे। छोटे बच्चों के लिए क्रेश थे। चौड़ी चिकनी सड़कें थी। सुन्दर, खूबसूरत पेड़-पौधे झाडियां थी। सब था। हर फ्लेट में पति-पत्नी थे और दोनों कमाते थे। बच्चे या तो नहीं थे या फिर एक-एक था। फ्लेट-संस्कृति के फैलते पांवों ने शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। कुलदीपकजी इन फ्लेटों को हसरतों से निहार रहे थे। कभी मेरा भी फ्लेट होगा। इसी तमन्ना के साथ वे साइकिल पर पैडल मारे जा रहे थे कि अचानक उनकी साइकिल एक रिक्शे से जा भिड़ी। रिक्शे वाले ने एक भद्दी गाली दी। कस्बे के नियमानुसार कुलदीपकजी ने गाली का जवाब गाली से दिया और आगे बढ़ गये। लेकिन गाली तो बस नाम की थी। बाकी सब ठीक-ठाक था।

शहर में उग आये सीमेंट, कंकरीट के जंगल से गुजर कर कुलदीपकजी ने साइकिल अपने पुराने गंावनुमा शहर की संकड़ी गलियों की ओर मोड़ दी। हर मोड़ पर मुस्तेद खड़े थे नवयुवक जो स्कूल जाने वाली बालिकाओं, कॉलेज जाने वाले नवयोवनाओं तथा दूध साग-सब्जी लाने वाली भाभियों, चाचियों, मामियों का इन्तजार कर रहे थे। कुछ प्रौढ़ अपने चश्मे के सहारे मन्दिर जाने वाली प्रौढाओं को टटोल रहे थे। कुल मिलाकर बड़ी ही रोमांटिक सुबह थी।

कुलदीपकजी ने साइकिल अपने प्रिय पान वाले की दुकान के सहारे खड़ी की। एक रूपये का गुटका मुंह में दबाया और जुगाली करने लगे। अपने परम प्रिय मित्र झपकलाल को आते देख उनकी बांछे खिल गई। झपकलाल सुबह की चाय पीकर घर से इस उम्मीद से चल पड़े थे कि दोपहर के खाने तक अब घर में कोई काम नहीं था। इधर कुलदीपकजी भी ठाले थे। दो ठाले मिलकर जो काम कर सकते थे, वहीं काम दोनों ने मिलकर पान की दुकान के सहारे शुरू कर दिया। हर आने-जाने वाली लड़की, युवती, महिला, युवा, काकी, मासी, भाभी के इतिहास और भूगोल की जानकारी एक-दूसरे को देने लगे। इधर पान वाला भी उनका स्थायी श्रोता था तथा पान गुटका लगाते-लगाते अपनी बहुमूल्य राय से उन्हें अवगत कराता रहता था।

‘सुनो जी कुछ सुना क्या ?'

‘क्या हुआ भाई जरा हमें भी सुनाओं।' झपकलाल बोल पड़े।

‘अरे मियां कल का ही किस्सा है ये जो नुक्कड वाली ब्यूटी पार्लर है उसके यहां बडा गुल-गपाड़ा मचा।'

‘क्यो............क्यों..............क्या हुआ।' कुलदीपक जी ने अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ पूछ डाला।

‘क्या बताये भगवन।' सवेरे-सवेरे ही वहां पर कुछ लड़कियां आई थी, फैसिशियल, मेनीक्योर, पेडीक्योर करवाने।'

‘तो इसमें क्या खास बात है ?' कुलदीपक बोले।

‘अरे धीरज धर। सब्र का फल मीठा होता है। झपकलाल बोले।

‘हां तो भई ये हम बता रहे थे कि लड़कियां अन्दर अपना काम करवा रही थी और बाहर उनका कुछ लड़के अपनी मोटर साइकिलों पर बैठे-बैठे इन्तजार कर रहे थे।'

‘सो कौनसी नई बात है ? कुलदीपक ने अपनी टांग फिर अड़ाई।

‘अरे भईये, जब काफी देर तक लड़कियां बाहर नही आई तो दोनों लड़के अन्दर चले गये। अब लगी चीख पुकार मचने। मगर चीख पुकार से क्या होता है। दोनो लड़कों ने लड़कियों को जबरदस्ती बाहर निकाला, मोटर साइकिल पर बैठाया, और फुर्र हो गये।'

‘अरे भाई ऐसा हुआ क्या।'

‘और नहीं तो क्या।'

‘इस सभ्य और शालीन समाज में ऐसा ही हुआ।'

‘लेकिन पुलिस-पड़ोसी...................................सब क्या कर रहे थे।'

‘अरे भाई मियां बीबी राजी तो क्या करे काजी।' हम तो चुपचाप तमाशा देखते रहे।

‘लेकिन ये सब तो गलत है।' कुलदीपक बोले।

‘प्रजातन्त्र में ऐसी गलतियां होती ही रहती है। सुना नहीं कल ही प्रधानमंत्री बोले थे कि हर जगह सुरक्षा संभव नहीं और एक राज्य के मुख्यमंत्री ने तो साफ कह दिया जनता अपनी रक्षा खुद करे।' झपकलाल ने बहस को एक नया मोड़ देने की कोशिश की।

‘मारों गोली राजनीति को फिर क्या हुआ ?'

‘होना-जाना क्या था। सायंकाल लड़कियां अपने घर पहुँच गई। खेल खत्म पैसा हजम..............है............है...............है..................।'

कुलदीपकजी का गुटका खत्म हो चुका था। झपकलाल को चाय की तलब लग रही थी। दोनों कालेज के सामने वाली थड़ी पर जाकर बैठ गये। वहां पर चाय के साथ गपशप का नाश्ता करने लगे।

कुलदीपकजी को बापू प्यार से आर्यपुत्र कहते थे। वो अक्सर कहते ‘कहो आर्यपुत्र कैसे हो ?' ‘आज जल्दी कैसे उठ गये।‘ ‘आपके दर्शन हो गये। ' वगैरह-वगैरह। कुलदीपकजी को बाप की बात पर गुस्सा तो बहुत आता मगर पिताजी को पिताजी मानने की भारतीय मानसिकता के कारण कुलदीपकजी मनमसोस कर रह जाते। इधर कुलदीपकजी यह सब सोच ही रहे थे कि झपकलाल ने सामने की ओर इशारा किया।

सामने कालेज के गेट से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था। खिलखिलाती। झूमती। नाचती। गाती। इस झुण्ड के दर्शन मात्र से ही कुलदीपकजी अपनी पिताजी वाली पीड़ा भूल गये। सबसे सुन्दर और सबसे आगे अपने वाली कन्या का कुलदीपकजी ने सूक्ष्म निरीक्षण करना शुरू कर दिया। एक्स-रे,एम.आर.आई, सी.टी.स्केन, अल्ट्रा सोनाग्राफी के साथ-साथ कुलदीपकजी ने ई.सी.जी. और ई.ई.जी. भी एक साथ कर डाले ? उनका खुद का ई.सी.जी. गड़बड़ाने लगा था। झपकलाल ने अपने ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत करते हुए कहा-

‘‘भाई मेरे यह जो मोहतरमा नाभिदर्शना जींस में सबसे आगे और सबसे खूबसूरत है वो बड़ी तेज तर्रार भी है। छोटी-मोटी बात पर ही लड़कों का सेण्डलीकरण और चप्पलीकरण कर देती है। संभल कर रहिये।''

कुलदीपकजी इस बकवास कोे सुनने के लिए कतई तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने आपसे कहा-

‘‘काश मैं कुछ समय पूर्व पैदा होता। कालेज में होता तो बस मजा आ जाता।''

‘भाई मेरे कालेज में घुसने के लिए कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। ' झपकलाल ने फिर कहा-

‘परीक्षाओं का क्या है ? कभी भी पास कर लेंगे ? अभी तो पास से गुजर जाने दो, इस बहार को।' वे कसमसाते हुए बोल पड़े।

वास्तव में कुलदीपक जी कस्बे की लड़कियों की चलती फिरती डायेरक्टरी थे। कौन कहाँ रहती है। कहाँ पढ़ती है। क्या करती है, से लगाकर शरीर के हिस्सों पर विस्तार से प्रकाश डाल सकते थे। मगर अभी अवसर अनुकूल नहीं था।

कुलदीपकजी का जीवन एक अजीब पहेली की तरह है। पढ़ाई अधूरी है, जीवन अधूरा है। हर तरफ इकतरफा प्यार करते रहते हैं और प्यार भी अधूरा ही रहता है। कई वार पिट चुके है, मगर मरम्मत भी अधूरी ही रही है। वे सुबह कवि बनने का सपना देखते हैं। दोपहर में किसी दफ्तर में बाबू बनकर जीवन बिताने की सोचते हैं और शाम होते-होते शहर की बदनाम बस्तियों में विचरण करने का प्रयास करने लगते हैं। मगर बावजूद इसके कुलदीपकजी एक निहायत ही शरीफ जिन्दगी जीना चाहते हैं। लेकिन शरीफों को कौन जीने देता है।

शहर रात में कैसा लगता है। यह जानने के लिए कुलदीपकजी झपकलाल के साथ शहर रात की बाहों में देखने निकल पड़े।

कभी ‘मुम्बई रात की बाहों में' की बड़ी चर्चा होती थी। आजकल हर शहर रात की बाहों में है और चर्चित है। इस मेगा शहर की रातें भी जवान, रंगीन, खुशबूदार और मांसल हो गई है।

शहर को आप दो तरह से देख सकते हैं। एक अमीर शहर और एक गरीब शहर। गरीब शहर की रातें फुटपाथ पर कचरा बीनते बीत जाती है और अमीर शहर की रातों का क्या कहना। होटल, पब, डिस्को, बार, केसिनो, जुआ घर, क्लब आदि में लेट नाइट डिनर, उम्दा विदेशी शराब की चुस्कियां और बेहतरीन खाना साथ में सुन्दर, नाजुक कामिनियां, दामनियां, कुलवधुएं, नगर वधुएं।

शहर के इस अमीर हिस्से की रातें भी बहारों से भरपूर होती है। कभी चांदपोल में गाना सुनने के लिए शहर के रईस, रंगीन तबीयत के लोग सांझ ढले इकट्ठे होते थे। कोठे पर गाना, बजाना, नाचना, चलता था। ठुमरी, दादरा, गजल, शेरों-शायरी के इस दौर में जो गरीब कोठे की सीढ़ियां नही चढ़ पाते थे वे नीचे बरामदे में खड़े होकर गाने का लुत्फ उठाते थे, मगर वे रंगीन महफिले कहीं खो गई। ठुमरी, दादरा, गजल के चाहने वाले चले बसे। अब तो डीजे का कानफोडू संगीत, रिमिक्स और सस्ते अश्लील, हाव-भाव वाले नाच-गानें चलते हैं। कथक, शास्त्रीय संगीत देखने समझने वाले ही नहीं रहे तो कौन किसके लिए गाये बजाये।

पूरा शहर रंगीन रोशनियों में नहाता रहता है। शहर के बाहर चौड़ी-चिकनी सड़कों पर सरपट भागती कारें या मोबाइक्स। इन कारों में कुलवधुएं, गर्लफ्रेन्डस, बॉयफ्रेन्डस, सब भाग रहे है, एक के पीछे एक...........। समझ नहीं आता ये सब कहाँ जा रहे हैं।

आजकल नई पीढ़ी शाम के पाँच बजे घर से चल देती है। रात को दो-तीन बजे तक पी खाकर या खा पीकर लौटती है। और शहर को रात की बाहों में समेटकर सो जाती है। इनकी सुबह बारह बजे होती है।

शहर में रात एक उदासी के साथ उतरती है। सर्दी के दिनों में रेन बसेरों में जगह ढूढ़ता फिरता है रिक्शा वाला, गरीब मजूदर, काम की तलाश में आया ग्रामीण अक्षय कलेवा का भोजन मिल जाये तो रात आराम से कट जाती है।

बड़े होटलों में डिस्को करते युवा, हसीन जोड़े शहर की रातों का भरपूर आनन्द उठाते हैं। उनके पास कई पीढ़ियां खाये जितनी सम्पत्ति जमा है।

शहर में रात चोरों, उचक्कों, डाकुओं, गिरहकटों आदि के लिए भी सौगाते लेकर आती है। अकेलेपन से ऊबे हुए बुजुर्ग दम्पत्तियों को शहर रात की बाहों में ले लेता है और चोर-उचक्कों की मौज हो जाती है।

रात की मस्ती, रंगीनी का पूरा इन्तजाम शहर में है। हर तरफ खुली शराब की दुकानें एक पेग अवश्य पीजिये और दबे छुपे सेक्स व्यापार के व्यापारी ओर ग्राहक सब ठिकाने जानते हैं या ढूढ़ लेते हैं। शहर में हर तरफ अमीरी की मौज मस्ती देखिये। दक्षिण के बड़े-बड़े माल, रेस्टोंरेन्ट, होटल्स, लगता ही नहीं कि शहर उदास है। इनकी खोखली हंसी के पीछे छिपी पीड़ा को पहचानने की कोशिश कीजिये। मगर हुजूर छोडिये इस उदासी को।

निकल पड़िये शहर को रात में देखने। मैं अक्सर मौसम ठीक होने पर शहर को रात में देखने निकल पड़ता हूं। कभी चौपड़ को पढ़ने की कोशिश करता हूं, कभी शहर की सड़कों को पढ़ता हूं, कभी चार-दिवारी के बाहर के शहर को पढ़ता हूं और कभी अपने आप को पढ़ने की कोशिश करता हूं। रात में शहर सुन्दर लगता है। मेले, ठेले, चित्रकारियां, सुन्दर ललनाएं और रात के पहले दूसरे प्रहर में होने वाले नाटक, सम्मेलन, संगीत-संध्याएं सब अच्छी लगती है। मगर दूसरे और तीसरे प्रहर में चोर, उचक्कें, नकबजनों से कौन बचाये। पुलिस का नारा है ‘हमारे भरोसे मत रहना'। कुलदीपक ने मन में कहा।

पुलिस को छोड़ो आजकल भाई-भाई को काटने पर उतारू है। रात को ये काम और भी आसान हो जाता है। शहर में हर तरफ सितारों की छितराई रोशनी में अपराध पनपते रहते हैं और अपराधी रात की बाहों में समा जाते हैं। शहर की रंगीनी देखने के लिए सत्ताईस डालर का चश्मा चाहिये। कुलदीपक ने अपने आप से कहा।

रात्रि के अन्तिम प्रहर में दूध वाले, अखबार वाले, स्कूली बच्चे, काम वाली बाईयों के आने-जाने से शहर की नींद टूटती है और शहर धीरे-धीरे रात की बाहों से बाहर निकलकर अलसाया सा पड़ा रहता है। शहर चाय पीता है और काम पर चल देता है।¬

कुलदीपक जी रात ढलते घर पहुँचे। बापूजी सो गये थे ? लेकिन मां जाग रही थी। खाने के लिए मना करने के बावजूद मां ने जिद करके कुछ खिला दिया।

रात में कुलदीपकजी जल्दी सो गये। सपनों के सुनहरे संसार में खो गये। लेकिन सपने तो बस सपने ही होते हैं उन्हें हकीकत बनाने के लिए चाहिये बाईक, मोबाईल, जीन्स और पोकेट मनी। कुलदीपक जी के सपनों में इन चीजों ने आग लगा दी।

जैसा कि अखबारों की दुनिया में होता रहता है। वैसा ही यशोधरा के साथ भी हुआ। अखबार छोटा था मगर काम बड़ा था। धीरे-धीरे स्थानीय मीडिया में अखबार की पहचान बनने लगी थी। शुरू-शुरू में अखबार एक ऐसी जगह से छपता था जहां पर कई अखबार एक साथ छपते थे। इन अखबारों में मैटर एक जैसा होता था। शीर्षक, मास्टहेड, अखबार का नाम तथा सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक के नाम बदल जाया करते थे। कुछ अखबार वर्षों से ऐसे ही छप रहे थे। कुछ दैनिक से साप्ताहिक, साप्ताहिक से पाक्षिक एवं पाक्षिक से मासिक होते हुए काल के गाल में समा गये थे। कुछ तेज तर्रार सम्पादकों ने अपने अखबार बन्द कर दिये थे। और बड़े अखबारों में नौकरियां शुरू कर दी थी। कुछ केवल फाइल कापी छापकर विज्ञापन बटोर रहे थे। कुछ अबखार पीत पत्रकारिता के सहारे घर-परिवार पाल रहे थे। कुछ इलेक्ट्रोनिक मीडियों में घुसपैठ कर रहे थे। एक नेतानुमा सम्पादक विधायक बन गये थे।

एक अन्य सम्पादक नगर परिषद में घुस गये। एक और पत्रकार ने क्राईम रिपोटिंग के नाम पर कोठी खड़ी कर ली थी। एक नाजुक पत्रकार ने अपनी बीट के अफसरों की सूची बनाकर नियमित हफ्ता वसूलने का काम शुरू कर दिया था। एक सज्जन पत्रकार ने मालिक के चरण चिन्हों पर चलते हुए अपना प्रेस खोल लिया था। मगर ये सब काम प्रेस की आजादी, विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर हो रहे हैं। समाचारों का बीजारोपण प्लाटेंशन ऑफ न्यूज पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ा उद्योग बनकर उभरा था, मगर इस सम्पूर्ण क्रम में फायदा किसका हो रहा था इस पर कोई विचार करने के लिए तैयार नहीं था कभी-कदा कोई नेता-मंत्री कहता प्रेस की स्वतन्त्रता का मतलब लेखक या पत्रकार की स्वतन्त्रता। मालिक भी स्वतन्त्रता का कोई मतलब नहीं है।

अखबार इस आवाज पर चुप लगा जाते। कई बडे़ अखबार के स्वामी अपने अखबारों का उपयोग अपने अन्य उधोग-धन्धे विकसित करने में लग रहे थे और समाज, सरकार, मीडिया देखकर भी अनदेखा कर जाते थे। पत्रकार मंत्री के कमीशन एजेन्ट बनकर रह गये। वे सी.पी. (चैम्बर प्रेक्टिस करने लग गये) बहुत सारे पत्रकार तो राजनीतिक दलों की विज्ञप्तियां छापने में ही शान समझने लगे। दलों की हालत ये कि अपना पत्रकार डेस्क पर नहीं हो तो विज्ञप्ति भेजते ही नहीं। एक सम्पादक नेता ने अपने मीडिया हाऊस से संसद की सीढ़िया चढ़ ली। दूसरा क्यों पीछे रहता उसने खेल जगत पर कब्जा कर लिया। तीसरे ने विकास प्राधिकरण से प्लाट लेकर माल बना लिया। कलम का ऐसा चमत्कार। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री बोले-

‘‘हर चीज की कीमत होती है। मैं कीमत लेकर काम कर देता हूं। पचासों पत्रकार उद्योगपतियों से पगार पाते हैं।''

मीडिया ने फिर चुपी साध ली। एक अखबार ने लाभ कमाने वाले पत्रकारों के नाम और राशि छाप दी। बेचारे मुंह छिपाते फिर रहे है। कुछ ने कहा-थोडे बहुत गलत आदमी सब जगहों पर है।

मगर यारों यहां तो पूरी खान में ही नमक है। बड़ों की बात बड़ी। बड़े पत्रकारों को जाने दीजिये। अपन अपनी छोटी दुनिया में लौटते हैं।

जिस खण्डहरनुमा जगह में यशोधरा सपरिवार रह रही थी उसी के पास वाली बड़ी बिल्डिंग के एक फ्लेट में सम्पादक जी रहने आ गये। उसके अखबार के सम्पादकजी ठेके पर आ गये। ठेके का मकान। ठेके की कार। ठेके की कलम..............सब कुछ ठेके पर। आते-जाते दुआ सलाम हो गई। सम्पादकजी ने पूछा।

‘तुम यही रहती हो।'

‘जी हां।'

‘अच्छा।'

‘और घर में कौन-कौन है।'

‘मा-बापू, भाई...............।'

‘ठीक है।'

‘कोई काम हो तो बताना।'

‘जी, अच्छा.................।'

यह औपचारिक सी मुलाकात यशोधरा को भारी पड़ गई। कुछ ही दिनों में उसे दफ्तर के आपरेटर सेल से हटाकर सम्पादक जी के निजि स्टाफ में तैनात कर दिया गया। काम वहीं टाईपिंग। मगर धीरे-धीरे यशोधरा ने अखबारी दुनिया के गुर सीखने शुरू कर दिये थे। उसे समाचारों के चयन से लेकर प्लांटेशन तक की जानकारी रहने लगी थी। कुछ बड़े समाचारों के खेल में सम्पादक, मालिक और राजनेता भी शामिल रहते थे। बात साफ थी। खेलो। खाओ। कमाओ। क्योंकि प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ था मीडिया। खोजी पत्रकारिता, स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर नित नये नाटक। यहां तक कि सत्यांश जीरो होने पर भी समाचार का पूरे दिन प्रसारण। एक मीडिया ने अध्यापिका के स्टिंग ऑपरेशन के नाम जो किया उसे देख-सुनकर तो रोंगटे खड़े हो गये। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण क्या कुछ नहीं किया जा सकता।

वो जल्दी से इस दुनिया के बाहर की दुनिया के बारे में सोचने लगी। मगर विधना को कुछ और ही मंजूर था।

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ये उत्सवों के दिन। त्यौहारों के दिन। मुस्लिम भाईयों के रोजे और ईद के दिन। हिन्दुओं के लिए नवरात्री, दशहरा, पूजा, दुर्गा, दिवाली के दिन। और दिसम्बर आते-आते ईसाईयों के बड़े दिन क्रिसमिस। नववर्ष । सब लगातार। साथ-साथ।

इन उत्सवी दिनों में मनमयूर की तरह या जिस तरह का भी वो होता है नाचने लग जाता है। शहरों-गांवों-कस्बों में सब तरफ आजकल डाण्डियां-डिस्कों का क्रेज चल पड़ा है। तरह-तरह के डांडियां और ड्रेसज। युगल। कपल। विवाहित। अविवाहित जोड़े। मस्ती में झूमते-झामते नव धनाढ्य। देखते, इतराते मंगतेर। नाचते गाते लोग। कौन कहता है भारत गरीब है ? देखो इस डिस्को-डांडियां को देखो। मां की पूजा अर्चना का तो बस नाम ही रह गया है।

ऐसे खूबसूरत मन्जर में कुलदीपकजी ने सुबह उठकर अपना चेहरा आईने में देखा तो अफसोस में मुंह कुछ अजीब सा लगा। अफसोसी नेत्रों में कुलदीपकजी को भी नई फिजा का ध्यान आया। टी.वी, अखबार, चैनल सब उत्सवी सजधजके साथ तैयार खड़े थे। रोकड़ा हो तो परण जाये, डोकरा की तर्ज पर कुलदीपकजी मस्त-मस्त होना चाहते थे। क्रिकेट और फिल्मी नायकों के मायाजाल से स्वयं को मुक्त करने के लिए कुलदीपकजी ने भरपूर अंगडाई ली और अपनी कमाऊ बहिन को मिलने वाले वेतन का इन्तजार करने लगे। इधर उनका मन रोमांटिक हो रहा था और तन की तो पूछो ही मत बस धन की कमी थी। क्या कर सकते थे कुलदीपकजी। उन्होंने सब छोड़-छाड़कर अपनी पुरानी रोमांटिक कविताओं वाली डायरी को पढ़ना शुरू कर दिया। डायरी में खास कुछ भी नहीं था। असत्य के साथ उनके प्रयोगों का विस्तृत वर्णन था। गान्धीवाद से चलकर गान्धीगिरी तक पऑचने के प्रयास जारी थे। मगर फिलहाल बात उनकी रोमांटिक कविताओं की।

जैसा कि आप भी जानते हैं कि जीवन के एक दौर में हर आदमी कवि हो जाता है। वो जहां पर भी रहता है बस कवियाने लग जाता है। आकाश, नदी, पक्षी, चिड़िया, खेत, पेड़, प्रेमिका, समुद्र, प्यार, इजहार, मान, मुनव्वल, टेरेस, आत्मा शरीर, जैसे शब्द उसे बार-बार याद आते हैं। वो सोचता कुछ ओर है और करता कुछ ओर है। कुलदीपकजी ने खालिस कविताएं नहीं लिखी। कवि सम्मेलनों में भी नहीं सुनाई। प्रकाशनार्थ भी नहीं भेजी लेकिन लिखी खूब। पूरी डायरी भर गई। कविताओं से भी और प्रेरणाओं से भी।

वे हर सुबह शहर कि किसी न किसी प्रेरणा के नाम से एक-दो कविता लिख मारते। सायंकाल तक उसे गुनगुनाते। रात को प्रेरणा और कविता के सपने देखते, अधूरे सपने, अधूरी प्रेरणाएं कभी सफल नहीं होते। ये सोच-सोचकर वे दूसरे दिन एक नई प्रेरणा को ढंूढते। मन ही मन उससे प्रेम करते। कविता लिखते। कभी मिलने पर सुनाने की सोचते। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती। कुछ प्रेरणाओं की शादी हो गई। उनके बच्चे हो गये। उन्होंने ऐसी कविताओं को फाड़कर फेंक दिया।

पूरे कस्बे की प्रेरणाओं पर उन्होंने कविताएं लिखी। खण्डकाव्य लिखे। प्रेम के विषयों पर महाकाब्य लिखने की सोची, मगर तब तक प्रेरणाएं, शहर छोड़कर प्रियतम के साथ चली गई।

हालत ये हो गई कि कई डायरियां भर गई, मगर कुलदीपकजी की असली प्रेरणा तक कविता नहीं पहुँच पाई। कविता का लेखा-जोखा और एक बैचेनी सी जरूर उनके मन मस्तिष्क में बन गई।

कविता बनाने का यदि कोई सरकारी टेण्डर निकले तो कुलदीपकजी अवश्य सफल हो मगर सरकार को कविता से क्या मतलब। सरकार को तो सड़कों, नालियों और मच्छरों को मारने के टेण्डरों से भी फुरसत नहीं। कुलदीपकजी की डायरी के कुछ पृष्ठों पर नजर दौड़ाने पर स्पष्ट हो जाता है कि कविता कितना दुरूह कार्य है।

सोमवार-समय प्रातः 9 बजे वो नहाकर छत पर आई। मैंने नयन भर देखा और कविता हो गई।

मंगलवार-समय दोपहर वे असमय बाजार में दिखी और कविता हो गई।

बुधवार-समय सायं प्रेरणा नं 102 मन्दिर के बाहर दिख गई। कविता हो गई।

गुरूवार-सुबह से ही प्रेरणा नं. 105 की तलाश में घूम रहा हूं। पार्क में दिखी और कविता हो गई।

शुक्रवार-प्रेरणा नं. 110 बुर्कें में थी, मगर मेरी पैनी निगाहें से कुछ भी नहीं छुप सका और कविता हो गई।

शनिवार-पूरा दिन प्रेरणा नं. 220 को ढूढंता रहा चर्च के बाहर दिख गई और कविता हो गई।

रविवार-अवकाश के बावजूद प्रेरणा नं. 300 पर कविता कर दी।

कुलदीपकजी को कविता और प्रेरणा में अन्तर करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे सम्पूर्ण पुरुष जगत को कवि और नारी जगत को प्रेरणा मानते हैं। उम्र जाति, रंग, रिश्ते आदि के सांसारिक बंधनों को वे नहीं मानते और इसीलिए वे हर प्रेरणा पर एक कविता कर सकते थे। न प्रेरणाओं की कमी थी और न ही कविताओं की। क्यंोकि ये सब इक तरफा व्यापार था। लेकिन इस प्रणय-व्यापार में भी कुलदीपकजी धोखा ही धोखा खा रहे थे। उनकी प्रेरणा और सृजन के बीच अद्भुत साम्य था जो उनके अंधकारमय भविष्य की ओर इंगित करता था। कुलदीपकजी कस्बे के साहित्य संस्कृति और कला के खेत्र में भी अपनी टांग अड़ाना चाहते थे। मगर सीट पर कुछ ऐसे मठाधीश थे जो मंच छेककर बैठे थे। कुलदीपकजी हिम्मत हारने वालों में नहीं थे। मगर अभी माईक लाने या जाजम बिछाने के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण योगदान वे नहीं कर पाये थे। कुछ सेठाश्रयी लोगों से भी उन्होंने दुआ-सलाम की कोशिश की। मगर उन्होंने इस कविनुमा प्रजाति को चारा डालने से इन्कार कर दिया।

कुलदीपकजी ने अपने अभिन्न मित्र झपकलाल से पूछा-

‘यार इस साहित्य के खेत्र में कुछ नया करना चाहता हूं।'

‘क्या करना चाहते हो ?'

‘हां।'

‘तो फिर इस खेत्र में घास खोदना शुरू कर दो?'

‘तुम मजाक कर रहे हो।'

‘मजाक की बात नहीं है यार। यहां पर महान प्रतिभाओं को भी सौ-पचास साल इन्तजार करना पड़ता है।'

‘क्यो।'

यार इस खेत्र में आदमी को गम्भीर ही पचास की उम्र के बाद माना जाता है।

‘और जो प्रतिभाएं तब तक दम तोड़ देती है उनका क्या।'

उनकी लाशों पर ही नवोंदितों के सपनों के महल खड़े होते हैं।

‘ऐसा क्यों ?'

‘यही रीति सदा चली आई है।'

कुलदीपकजी इस बहस से कतई हताश, निराश दुःखी नहीं हुए। वे जानते थे कि प्रतिभा का सूर्य बादलों से कभी भी निकल सकता था। कुलदीपकजी ने एक नये खेत्र में हाथ आजमाने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी बहिन के अखबार में फिल्मी समीक्षा का कालम पकड़ने का निश्चय कर लिया। इस निश्चय को हवा दी शहर की बिगड़ती फिल्मी दुनिया ने। कुलदीपकजी को फिल्मों का ज्ञान इतना ही था कि वे फिल्मों के शौकीन थे और मुफ्त में फिल्म देखने के लिए यह एक स्वर्णिम प्रयास था। लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं था।

अब जरा इस कस्बे की बात। शहर-शहर होता है, गांव-गांव होता है लेकिन कस्बा शहर भी होता है और गांव भी। कस्बा छोटा हो या बड़ा उसकी कुछ विशेषताएं होती है। इस कस्बे की भी है। कस्बे के बीचों-बीच एक झील है जो कस्बे को दो भागों में बांटती है। कस्बे में अमीर, गरीब नवधनाढ्य झुग्गी, झोपड़ी वाले सभी रहते हैं।

कस्बा है तो जातियां भी है और जातियां है तो जातिवाद भी है, आरक्षण की आग यदा-कदा सुलगती रहती है जो कस्बे के सौहार्द को कुछ समय के लिए बिगाड़ती है। कस्बे में पहले तांगे और हाथ ठेले चलते थे। फिर साइकिल रिक्शा आये और अब टेम्पो का जमाना है। कस्बे के बाहरी तरफ स्कूल है, लड़कियों का स्कूल है। मन्दिर है, मस्जिद है और एक चर्च भी है। लोग लड़ते हैं, झगड़ते हैं। मार-पीट करते हैं। बलात्कार करते हैं। कभी-कभी हत्या भी कर देते हैं। मगर कस्बे की सेहत पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता। लोग जीये चले जाते हैं। मौत-मरण, मांद-हाज पर एक-दूसरे को सान्त्वना देने का रिवाज है।

कस्बे के दूसरे हिस्से में बस स्टेण्ड है। बस स्टेण्ड पुराना है। ठसाठस भरी धूल उड़ाती बसे आती जाती रहती है। सरकारी बस स्टेण्ड के पास ही प्राइवेट बस स्टेण्ड है, वहीं पर टेम्पो व आटो स्टेण्ड भी है। टीनशेड के नीचे थड़ियां है। जहां पर ताजा चाय, काफी, दूध, पानी, गन्ने का जूस, नमकीन मिलते हैं। एक कचौड़े वाला भी बैठता है। जो सुबह के बने कचौड़े देर रात तक बेचता है। इन सब खाद्य पदार्थो पर मक्खियों के अलावा धूल भी जमी रहती है। स्थानीय वैद्यजी के अनुसार धूल पेट को साफ रखती है, वैसे भी इन चीजों को खाने से किसी गम्भीर बीमारी के होने की संभावना नहीं रहती है।

बस स्टेण्ड के आस पास आवारा गायें, बैल, भैसे, सूअर, कुत्ते, मुर्गे आदि पूरी आजादी से घूमते रहते हैं। आवारा साण्डों की लड़ाई का मजा भी मुफ्त में लिया जा सकता है। कुत्ते और मुर्गियों की आपसी दौड़ भी देखी जा सकती है।

बस स्टेण्ड पर छाया का एकमात्र स्थान टिकट खिड़की के पास वाला शेड है। सुबह-सुबह आसपास के गांवों में नौकरी करने वाली मास्टरनियां, नर्से, बाबू, स्थानीय झोलाझाप डॉक्टर यहां पर खड़े मिल जाते हैं। बसे आते ही ये लोग उसमें ठंुस जाते हैं। रोज की सवारियां टिकट के चक्कर में नहीं पड़ती । कण्डक्टर और इनके बीच एक अलिखित समझौता होता है। टिकट मत मांगो। आधा किराया लगेगा। इस नियम का पालन बड़ी सावधानी से किया जाता है। इस ऊपरी कमाई का एक हिस्सा ड्राइवर तक भी पहुंचता है।

अब भाईसाहब बस स्टेण्ड है तो यहां पर भिखारियों का होना भी आवश्यक है। भारतीय प्रजातन्त्र का असली मजा ही तब आता है जब सब तालमेल एक साथ हो। लूले, लंगड़े, अन्धे, काण्ो, कोढ़ी, अपाहिज, विकलांग और महिला भिखारी सब एक साथ सुबह होते ही ड्यूटी पर उपस्थित हो जाते हैं। एक पुश्तेनी भिखारी सपरिवार भीख मांगता है। एक बूढ़ा भिखारी अपने पोते को भीख मांगने की ट्रेनिंग यही पर देता है। सब साथ-साथ चल रहा है।

सरकारी बसें सर्दियों में धक्के से चलती है। प्राइवेट बसें मालिक के इशारे पर चलती है। मालिक स्थानीय विधायक के इशारे पर चलता है क्योंकि विधायक का फोटो लगाने पर टेक्स माफ हो जाता है और यही असली कमाई है वरना बसों के धन्धे में रखा ही क्या है।

बस स्टेण्ड पर प्याऊ है, हैण्डपम्प है जिसमें पानी कभी-कभी ही आता है। बस स्टेण्ड पर ड्यूटी पर रोडवेज का ठेके का बाबू, एक होमगार्ड और एक पुलिसवाला ड्यूटी पर रहता है, मगर लड़ाई-झगड़े के समय पुलिस वाला और होमगार्ड वाला दिखाई नहीं देता। चोर-उचक्के, चैन खींचने वाले, ड्राइवर, क्लीनर भी बस स्टेण्ड पर चक्कर लगाते रहते हैं।

अब बस स्टेण्ड के सात किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन है जो कस्बे के नाम का ही है क्योंकि रेलवे स्टेशन से कस्बे में आना-जाना बड़ा मुश्किल है। कस्बे के विकास के साथ बसों का भी बड़ा विकास हुआ है और इस कारण रेलवे स्टेशन आना-जाना घाटे का सौदा हो गया है।

बस स्टेण्ड के दूसरे सिरे पर एक आटा चक्की है और उससे लगती हुई दुकान में ब्यूटी पार्लर चलता है। ब्यूटी पार्लर के सामने ही पान की दुकान है, जिस पर इस वक्त झपकलाल खड़े-खड़े जांघे खुजा रहे है क्योंकि शाम की लोकल बस से कुछ स्थानीय अध्यापिकाएं उतरकर घर की ओर जा रही है। झपकलाल अपने दैनिक कर्म में व्यस्त थे तभी उन्होंने देखा एक कुत्ता कीचड़ में सना भगा-भगा आया। कुत्ता फड़फड़ाया और इस फड़फड़ाहट के छीटें झपकलाल पर पड़े। उन्होंने कुत्ते की मां के साथ निकट के सम्बन्ध स्थापित किये। मगर कुत्ते ने इस ओर ध्यान नही दिया। वो एक तरफ भाग गया। ठीक इसी समय एक उठाईगीर ने एक महिला की चेन पर हाथ साफ कर दिया। महिला चिल्लाई, झपकलाल ने यह स्वर्णिम अवसर हाथ से नही जाने दिया और चेन चोर को दौड़कर पकड़ लिया। दो झापट मारकर चेन वापस ले ली। महिला ने धन्यवाद के साथ कहा.................‘माफ करना भाई साहब आपने बेकार ही तकलीफ की। यह चैन तो नकली है। बीस पैसे के सिक्के से बनवाई थी।'

झपकलालजी को ऐसी चोट की उम्मीद नही थी। महिला को प्रभावित करने का स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल गया था। मन ही मन दुःखी होकर एक मूंगफली के ठेले वाले से मूंगफली ली और टूंगने लगे। उन्हें ठेले पर खड़े देखकर एक साण्ड ने उन्हें अपनी सींग के जौहर दिखाये। झपकलाल भागकर शेड पर चढ़ गये। लेकिन साण्ड भी खानदानी था। झपकलाल को चौराहे तक दौड़ा ले गया। इस दौड़ को देखकर बस स्टेण्ड पर खड़ी जनानी सवारियां हंसने लगी।

इधर एक कुत्ता कहीं से एक हड्डी का टुकड़ा ढूंढ लाया था। वो उसे उसी तरह चूस रहा था जैसे नेता देश को चूस रहे है। एक मुर्गा भी दाने की तलाश में भटक रहा था। वह मुद्दाविहीन नेता की तरह कसमसा रहा था।

इसी बीच एक प्राइवेट बस को चेक करने के लिए आर.टी.ओ. वाले आये। बस के कण्डक्टर ने आर.टी.ओ. के ठेके के कर्मचारी की बात नेताजी से करवा दी। नेताजी की डांट खाकर कर्मचारी ने कण्डक्टर से चाय-पानी ली और उस प्रकार चल दिया जिस प्रकार गठबन्धन सरकारें चल रही है। राजधर्म का निर्वाह करने के चक्कर में गठबन्धन धर्म को भी निभाना ही पड़ता है।

बस स्टेण्ड का रात्रिकालीन दृश्य अत्यन्त मनमोहक होता है। आसपास की दुकानें रोशनी से सज जाती है। देशी दारु की थ्ौलियां, विदेशी शराब की बोतलें बीयर की बोतलें, अण्डे की भुज्जी, आमलेट, मछली, मीट की खुशबू और इन सबके बीच से गुजरती-तैरती सवारियां।

रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर में रिक्शा, आटो में ‘खून' करने वाली सवारियां, दलाल, दल्लें, देह व्यापार के सरगना भी बस स्टेण्ड की शोभा बढ़ाने लग जाते हैं। सुबह का प्रथम प्रहर आते ही सब कुछ शान्त, सुन्दर लगने लगता है।

कस्बे के बीचों-बीच जो झीलनुमा तालाब था उसका अपना महत्व था दिनभर भैंसे उसमें पड़ी रहती थी। सूअर पड़े रहते थे। दूसरे घाट पर स्नान किया जाता था। सभी प्रकार की रद्दी, कूड़ा, करकट, मालाएं, मूर्तियां, ताजिया आदि विसर्जन का भी यह एकमात्र स्थान था। पूरा दिन गंधाती थी झील। झील के एक ओर विराना था। जंगल था। जंगल में बकरियां चरती थी। गाये-बैल, भैसें चरती थी। गडरिये घूमते थे और इनकी नजरे बचाकर मनमौजी लोग गांजा, सुलफा की चिलमें लगाते थे। कच्ची दारू खींचते थे। थोड़ा घना जंगल होने पर किसी पेड़ के नीचे बतियाते अधनंगे प्यार करने वाले जोड़े भी दिख जाते थे। कहां करे प्यार इस कस्बे की शाश्वत समस्या थी और नये-नये प्रशिक्षु पत्रकार अक्सर इस पावन विषय पर कलम चलाकर धन्य होते थे।

झील के घाट पर एक प्राचीन मन्दिर था। क्योंकि यहां पर, जल, मन्दिर और सुविधाएं थी सो श्मशान भी यहीं पर था। झील में वर्षा का पानी आता है। गर्मियों में झील सूखने के कगार पर होती थी तो शहर के भू-माफिया की नजर इस लम्बे चौड़े विशाल भू-भाग पर पड़ती थी। उनकी आंखों में एक विशाल मॉल, शापिंग कॉम्पलैक्स या टाऊनशिप का सपना तैरने लगता था। मगर वर्षा के पानी के साथ-साथ आंखों के सपने भी बह जाते थे। झील में मछलियां पकड़ने का धन्धा भी वर्षा के बाद चल पड़ता था। जो पूरी सर्दी-सर्दी चलता रहता था।

स्थानीय निकाय ने झील के किनारे-किनारे एक वाकिंग ट्रेक बना दिया था जिस पर सुबह-शाम बूढ़े, वरिष्ठ नागरिक, दमा, डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, हृदयरोगी आदि घूमने आते थे। बड़े लोग कार या स्कूटर से आते, घूमते और कार में बैठकर वापस चले जाते। मनचले अपनी बाईक पर आते। घूमते। खाते। पीते। पीते। खाते। और देर रात गये घर वापस चले जाते।

झील से थोड़ा आगे जाये तो कस्बा समाप्त हो जाता है। खेत-खलिहाल शुरू हो जाते। मगर कुछ ही दूरी पर नेशनल हाईवे शुरू हो जाता। प्रधानमंत्री योजना के अनुसार विकास के दर्शन होने लग जाते। ग्रामीण रोजगार योजना के चक्कर में लोग सड़क खोद-खोद कर मिट्टी उठाकर देश के विकास में अपना योगदान करते।

इसी सड़क पर हुआ था आई.जी के लड़के की कार का एक्सीडेंट मगर सब ठीक-ठाक से निपट गया था। लड़का काफी समय से वापस नहीं दिखा था। लड़की अध्यापिका थी। पुलिस की कृपा उस पर बनी रही। वो कहां गई कुछ पता नहीं चला। क्योंकि भीड़ की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। अचानक बस स्टेण्ड की ओर से वही कार आती दिखी। इस बार कार वह अध्यापिका चला रही थी। एक अन्य युवक उसके पास बैठा था। कार की गति कम हुई। युवती ने कार रोकी ओर युवक को नीचे उतारा। युवक कुछ कहता उसके पहले ही कार तेजी से मुड़कर हाईवे पर दौड़ गई। युवक बेचारा क्या करता। युवक बस स्टेण्ड पर आकर खड़ा हो गया। यह पूरा नजारा कुलदीपकजी ने स्वयं अपनी नंगी आंखों से देखा था। उसने युवक को सिर से पैर तक देखा और कहा-

‘कहो गुरु कहां से.................कहां तक....................का सफर तय कर लिया।'

‘तुम्हे मतलब.......................।' युवक ने चिढ़कर कहा।

‘अरे भाई हमें क्या करना है मगर जिस कार से तुम उतरे हो उसे एक केस में पुलिस ढूंढ रही है। ‘कहो तो पुलिस को खबर करे।' पुलिस के नाम से युवक परेशान हो उठा।

‘अब मुझे क्या पता। मुझे तो हाईवे पर लिफ्ट मिली। मैं आ गया। बस..........।'

‘...............छोड़ो यार...............। वो मास्टरनी कई चूजे खा चुकी है।'

‘होगा....................मुझे क्या ?

‘सुनो प्यारे चाहो तो इस कामधेनु को दुह लो।'

‘नही भाई मुझे क्या करना है ?'

‘शायद ये कार उसी लड़के ने मुंह बन्द करने के लिए गिफ्ट की है।'

‘हो सकता है।' युवक सामने से आती हुई बस में चढ़ गया।'

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कुलदीपकजी अभी-अभी अखबार के दफ्तर में अपनी फिल्मी समीक्षा देकर आये थे। पिछली समीक्षा के छपने पर बड़ा गुल-गुपाडा मचा था। पूरी समीक्षा में केवल नाम-नाम उनका था उनकी लिखी समीक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया था। उपसम्पादक ने स्पष्ट कह दिया यह सब ऊपर के आदेश से हुआ था। कुलदीपकजी खून का घूंट पीकर रह गये। न उगलते बन रहा था और न निगलते। उपसम्पादक को उनकी औकात का पता था। सम्पादकजी की पी.ए. का भाई यही उनकी एकमात्र योग्यता थी, इधर उपसम्पादक को पूर परिवार के लिए फिल्म के पास और शानदार डिनर मिल चुका था। अतः वहीं समीक्षा छपी जो ऐसे अवसर पर छपनी चाहिये थी।

लेकिन इस बार कोई गड़बड़ नहीं हो इस खातिर कुलदीपकजी ने पूरी समीक्षा सीधे सम्पादक को दिखाकर टाइप सेटिंग के लिए दे दी साथ में दर्शक-उवाच भी लिखकर दे दिया। एक महिलादर्शक की प्रतिक्रिया भी सचित्र चिपका दी। उन्हें पूरी आशा थी कि इस बार पहले की तरह नहीं होगा।

कुलदीपकजी बस स्टेण्ड का जायजा ले रहे थे कि उन्हें प्रेरणा-संख्या 303 दिख गई। उन्हें पुरानी कविता की बड़ी याद आई, अभी डायरी होती तो वे तुरन्त कविता करते, कविता सुनाते, कविता गुनगुनाते मगर अफसोस इस समीक्षा के चक्कर में डायरी और कविता कहीं पीछे छूट गई थी।

कुलदीपक ने प्रेरणा संख्या 303 का पीछा किया। उसे गली के मोड़ तक छोड़कर आये और ठण्डी आहें भरते रहे। उन्हें अपना जीवन बेकार लगने लगा। वे झील के किनारे उदास बैठे रहे। उधर से एक पागल की हंसी सुनकर उनका ध्यान टूटा। वे उठे और उदास कदमों से घर की ओर चल पड़े। घर तक आने में उन्हें काफी समय और श्रम लगा। बस स्टेण्ड वीरान था। केवल कुछ कुत्ते भौंक रहे थे। रात्रिकालीन वीडियों कोचेज का आना-जाना शुरू होने वाला था। एक पगली इधर से उधर भाग रही थी।

पगली को देख कर उन्हें कुछ याद आया। मगर वे रूके नही, घर पहुंचकर ठण्डी रोटी खाकर सो गये।

कस्बे और झील के सहारे ही एक पुराना महलनुमा रावरा था। राजा-रजवाड़े, राणा, रावरा राव, उमराव तो रहे नही। गोलियां, दावड़िया, दासियां, पड़दायते भी नहीं रही। मगर ये खण्डहर उस अतीत के वैभव के मूक साक्षी है। इस महलनुमा किले में दरबार-ए-खास, दरबार-ए-आम, जनानी ड्योढी, कंगूरे, गोखड़े, बरामदे, बारादरियां, टांके, कंुए अभी भी है जो पुरानी यादों को ताजा करते हैं। प्रजातन्त्र के बाद ये सब सरकारी हो गये। सरकार भी समझदार थी। इस किले में सभी स्थानीय सरकारी दफ्तर स्थानान्तरित कर दिये। अब यहां पर कोर्ट है। कचहरी है। तहसील है। पुलिस थाना है। एक कोने में एक छोटी सी डिस्पेन्सरी भी है। तहसील में तहसीलदार, नायब, पटवारी, हेणा, चपरासी, मजिस्ट्रेट सभी बैठते हैं। फरीकों को सरकारी फार्म बांटने वाले एक-दो स्टॉफ वेन्डर भी बैठे रहते हैं। काम अधिक होने तथा जगह कम होने के कारण पटवारी अपनी मिसलों के साथ बाहर बैठे रहते हैं। इतना सरकारी अमला होने के कारण चाय, पान, गुटका, तम्बाकू की दुकानें भी है और वकीलों का हजूम तो है ही।

सूचना का अधिकार मिल जाने के कारण एक-दो स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकर्ता भी यही पर विचरते रहते हैं, जरा खबर लगी नही कि अधिकार का उपयोग करते हुए प्रार्थना-पत्र लगा देते हैं। लेकिन अभी भी नकल प्राप्त करने में समय लग जाता है। चाय की थड़ी के पास ही एक पगला, अधनंगा पागलनुमा व्यक्ति लम्ब्ो समय से अपनी जमीन का टुकड़ा अपने खाते में कराने के लिए प्रयासरत है।

मगर पटवारी, नायब, तहसीलदार, वकील, स्वयंसेवी संगठन के कर्ता-धर्ता कोई भी उसके काम को पूरा कराने में असमर्थ रहे है। कारण स्पष्ट है कि वह गान्धीवादी तरीके से खातेदारी नकल पाना चाहता है, जो संभव नही है। गान्धीगिरी से भी काम नही चल रहा है। रेवेन्यू विभाग में लगान माफ कराना आसान है। खातेदारी बदलवाना बहुत मुश्किल है।

इसी तहसील रूपी किले को भेदने में कभी कुलदीपकजी के बापू को भी पसीने आ गये थे। काम छोटा था, मगर दाम बड़ा था। बापू ने दिन-रात एक करके एक जमीन के टुकड़े पर एक कमरा बना लिया था। सरकार ने इसे कृषिभूमि घोषित कर रखा था यह ग्रीन बैल्ट था। बापू का कमरा तोड़ने के लिए नोटिस चस्पा हो चुका था। बापू तहसील में चक्कर लगाते-लगाते थक चुके थे। तभी एक स्थानीय वकील ने बड़ी नेक सलाह दी, तहसील के बजाय ग्राम पंचायत से पट्टा ले लो। सरपंच ने अपनी कीमत लेकर एक पुराना पट्टा जारी कर दिया, जो आज तक काम आ रहा है। और बापू, मां, यशोधरा और कुलदीपकजी आराम से रह रहे है। अतिक्रमण का यह खतरा बाद में स्वतः समाप्त हो गया। नई बनी सरकार ने सभी बने हुए मकानों का नियमन कर दिया। यहां तक की पार्टी फण्ड में मोटी रकम देने वालों को रिहायशी इलाके में दुकानें तक लगाने की मंजूरी दे दी।

तहसील में वैसे भी गहमागहमी रहती है और यदि इजलास पर कोई सख्त अफसर हो तो और भी मजा आ जाता है। इधर कस्बे के आसपास के मंगरो, डूंगरो पर पत्थर निकालने के ठेकों में भारी गड़बड़ियों के समाचार छपने मात्र से ही गरीब मजूदरों की मजदूरी बन्द हो गई थी। आज ऐसी ही एक मजदूर टोली का प्रदर्शन तहसील पर था। तहसीलदार ने ज्ञापन लेने के लिए अपने नायब को भेज दिया था। उत्तेजित भीड़ ने नायब से घक्का-मुक्की कर दी थी, फलस्वरूप तहसील कार्यालय के आसपास धारा एक सौ चवालीस लगा दी गई थी। पुलिस प्रशासन ने एकाध बार लाठी भांज दी, कुछ घायल भी हुए थे।

इसी तहसील से सटा हुआ एक अस्पताल भी था। अस्पताल में एक डॉक्टर, एक नर्स, एक चतुर्थ श्रेणी अधिकारी थे, जो बारी-बारी से शहर से ड्यूटी पर आते थे। सोमवार को डॉक्टर आता था। मंगलवार को नर्स और बुधवार को चपरासी, गुरूवार अघोषित अवकाश था। शुक्रवार को वापस डॉक्टर ही आते थे और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता था। दवाओं के नाम पर पट्टी बांधने के सामान के अलावा कुछ नही था। समान्यतया रोगी को बड़े अस्पताल रेफर करने का चलन था। मलेरिया के दिनों में मलेरिया, गरमी में उल्टी-दस्त आदि के रोगी अपने आप आते और दवा के नाम पर आश्वासन लेकर चले जाते।

कस्बे के ज्यादातर रोगी एक पुराने निजि अस्पताल में जाते जहां का डॉक्टर आयुर्वेद होम्योपैथी, एलोपैथी, झाड़ाफूंक, तंत्र, मंत्र, इन्जेक्शन आदि सभी प्रकार का इलाज एक साथ करता था। मामूली फीस लेता था। उसने अपनी दुकान पर एक एक्स-रे देखने का बक्सा ओर एक माइक्रोस्कोप भी रख छोड़ा था। लेकिन उसने आज तक कोई टेस्ट नहीं किया था। रोगी सामान्यतया भगवान भरोसे ही ठीक हो जाते थे। जो ठीक नहीं होेते वे बड़े अस्पताल चले जाते और जो और भी ज्यादा गम्भीर होते थे वे सबसे बड़े अस्पताल की राह पकड़ लेते। डॉक्टर भगवान का रूप होता है, ऐसी मान्यता थी, मगर चिकित्सा शास्त्र में वैद्यों को यमराज का सहोदर कहा गया है और इस सत्य से कौन इन्कार कर सकता है।

कस्बे की डिस्पेसंरी में आज डॉक्टर का दिन था। वे ही नर्स चपरासी का काम भी देख रहे थे। ऐसा सहकार सरकारी कार्यालयों में दिखना बड़ा अद्भुत होता है। पास ही उनका अलेशेशियन भी बैठा था जिसे वे शहर से अपने साथ ही लाते-ले जाते हैं।

ठीक इसी समय मंच पर झपकलालजी अवतरित हुए। डॉक्टर ने उनको देखकर अनदेखा किया। सुबह से वो बीस मरीजों में सिर खपा चुके थे। बारह बज चुके थे। एक बजे की बस से उन्हें वापस जाना था। ऐसे नाजुक समय पर झपकलाल जी कराहते हुए आये तो डॉक्टर ने स्पष्ट कह दिया।

‘अस्पताल का समय समाप्त हो चुका है, आप कल आईये।'

‘अरे भईया डिस्पेसंरी खुली है और आप समय समाप्ति का रोना हो रहे है।'‘

डॉक्टर को गुस्सा आना ही था सो आ गया। उन्होंने झपकलाल को देखा एक गोली दी और शून्य की ओर देखने लगे।

झपकलाल ने गोली वहीं कूड़ेदान में फेंकी, हवा में कुछ गालियां उछाली और बस स्टेण्ड की ओर चल दिये। डॉक्टर ने चैन की सांस ली क्योंकि झपकलाल डॉक्टर के बजाय डॉक्टर के कुत्ते से ज्यादा डर गये थे।

बस स्टेण्ड पर एक शानदार नजारा था। एक सेल्स टेक्स इन्सपेक्टर, एक दुकानदार से टेक्स नही देने के कारणों की विस्तृत जांच रिपोर्ट ले रहा था। झपकलाल उसे तुरन्त पहचान गये। वह कस्बे का ढग था, उन्हें देखते ही ढग ने अपना परचम लहराया। हाय हलो किया और बचाने की गुहार मचाई। झपकलाल खुद कड़के थे, कण्डक्टर को तो समझा सकते थे, मगर सेल्स टेक्स वाला साहब नया-नया आया था। अचानक झपकलाल ने ढग को आंख मारी ढग समझ गया और बेहोश होकर गिर पड़ा। बस फिर क्या था पूरा बस स्टेण्ड इन्सपेक्टर के गले पड़ गया। जान छुड़ाना मुश्किल हो गया। झपकलाल ने इस्पेक्टर से दवा-दारु के नाम पर सौ रूपया ले लिया। भविष्य में नहीं छेड़ने की हिदायत के साथ इन्सपेक्टर को जाने की मौन स्वीकृति प्रदान की। उसके जाते ही ढग ओर झपकलाल ने रूपये आधे-आधे आपस में बांट लिये।

डॉक्टर, इन्सपेक्टर से लड़ने से झपकलाल का मूड ऑफ हो गया था। वे झील के किनारे-किनारे टहलने लगे। ठीक इसी समय सामने से उन्हें वे तीनों आती दिखाई दी। वे तीनों यानि मास्टरनीजी, नर्सजी और आंगनबाड़ी की बहिनजी।

उन्हें एक साथ देखकर उन्हें खुशी और आश्चर्य दोनों हुए। वे जानते थे, ये बेचारी सरकार में ठेेके की नौकरी करती थी, यदि इमानदारी से टिकट खरीदे और नौकरी पर जाये तो पूरी तनखा जो मुश्किल से हजार रूपया थी, बसों के किराये और चायपानी में ही खर्चे हो जाती। सो तीनों चूंकि एक ही गांव में स्थापित थी, अतः बारी-बारी से जाती, सरकारी काम को गैर सरकारी तरीके से पूरा करती। सरपंच जी, प्रधानजी, जिला प्रमुखजी, ग्राम सचिव जी, बी.डी.यो. आदि की हाजरी बजाती और वापस आ जाती। व्ौसे भी अल्प वेतन भोगी सरकारी कर्मचारी होने के कारण तथा महिला होने के कारण वे सुरक्षित थी।

आज तीनों एक साथ कैसे ? इस गहन गम्भीर प्रश्न पर झपकलाल का दिमाग चलने लगा । मन भटकने लगा। तब तक तीनों मोहतरमाएं उनके पास तक आ गई थी।

झपकलाल इस स्वर्णिम अवसर को चूंकना नहीं चाहते थे। उन्होंने आंगनबाड़ी वाली बहिन जी को आपादमस्तक निहारा और पूछ बैठे-

‘आज सब एक साथ ख्ौरियत तो है।'

‘खेरियत की मत पूछो।' हम बस परेशान है क्योंकि आज सेलेरी डे था और सेलेरी नहीं मिली।'

‘क्यों। क्यों।'

‘बस सरकारी की मर्जी और क्या।'

‘आज केशियर ने छुट्टी ले ली।'

‘तो क्या हुआ सरकार को कोई व्यवस्था करनी चाहिये थी। झपकलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।'

‘सरकार के बाप का क्या जाता है।' बच्चे तो हमारे भूख से बिलबिला रहे है।' नर्स बोली।

‘और मेरे वो तो बस सुनने के बजाय ऐसी पूजा करेंगे कि कई दिनों तक कमर चटकेगी,' मास्टरनीजी बोली।

'हडि्डया चटकाने में तो मेरे वो भी कुछ कम नहीं है।' आंगनबाड़ी बहिन जी ने अपना दुखड़ा रोया।

झपकलालजी द्रवित हो गये। काश उनके पास सेलेरी दिलाने की पावर होती तो वे अवश्य यह नेक काम कर इनका दुःख दूर करते। मगर उनके पास ऐसी कोई सरकारी शक्ति नहीं थी। वे बोले-

‘जो काम करना चाहते हैं उनके पास पावर नही और जिनके पास पावर है वे कुछ करना नहीं चाहते। अजीब प्रजातन्त्र है इस देश में।'

तीनों महिलाओं को देश की प्रजातन्त्र में कुछ खास रूचि नहीं थी, उन्हें तो घर में गठबन्धन धर्म निभाना था और देहधर्म के अलावा वे क्या कर सकती थी। उन्हें जाते हुए उदास निगाहों से झपकलाल देर तक देखते रहे। उन्होंने झील में कुछ कंकड़ फेंके। कुछ लहरें उठी। फिर सब शान्त हो गया।

X X X

कस्बा मोहल्लों में बंटा हुआ है। कस्बे के शुरुआती दिनों में मोहल्लें जातियों के आधार पर बने थे। मगर समय के साथ, आधुनिक जीवन के कारण, नौकरी पेशा लोगों के आने के कारण जातिवादी मोहल्ले कमजोर जरूर पड़े मगर समाप्त नहीं हुए। आज भी किसी भी मोहल्ले में नया आने वाला मकान मालिक या किरायेदार सबसे पहले अपने जात वालों को ढंूढ़ता है। फिर गौत्र वालों से मेल मुलाकात करता है, दुआ सलाम रखता है। जरूरत पड़ने पर रोटी-बेटी का व्यवहार भी कर लेता है। मुस्लिम मौहल्ले की भी यही स्थिति है जो गरीब हिन्दू इसाई धर्म की शरण में चले गये वे अवसर की नजाकत को समझकर इधर-उधर हो जाते हैं।

चुनाव के दिनों में जाति में वोटों के लिये बंटने वाले कम्बल, शराब, मुफ्त का खाना-पीना आदि सभी उम्मीदवारों से जाति के नेता लेकर बांट-चूंटकर खा जाते हैं। कभी बूथ छापने का ठेका भी ले लिया जाता है। मगर यह सब दबे-के रूप में ही चलता है। खुले आम प्रजातन्त्र की रक्षा की कसमें खाई जाती है।

मोहल्लेदारी जरूर कमजोर हुई है, मगर अभी भी भुवा, काकी, दादी, नानी, मासी, भाभी आदि के रिश्ते जिंदा है। बूढे-बुजर्ग मोहल्ले के नुक्कड पर चौपड़, ताश, शतरंज खेलते हैं। हुक्का-बीड़ी, सिगरेट, ख्ौनी, तम्बाकू का शौक फरमाते हैं और आने जाने वालों पर निगाह रखते हैं। मजाल है जो कोई बाहरी परिंदा पर भी मार जाये।

इसी प्रकार के माहौल में कुलदीपकजी के घर के पास में नये किरायेदार के रूप में शुक्लाजी आये। शुक्लाजी स्थानीय जूनियर कॉलेज में अध्यापक होकर आये थे। मगर उन्हें प्रोफेसर कहना ही आज के युग का यथार्थ होगा। जाति बिरादरी का होने के कारण मां बापूजी ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। शुक्लाजी मुश्किल से तीस वर्ष के थे। शुक्लाइन की गोद में एक बच्चा था। गोरा चिट्टा, मुलायम, सुन्दर, प्यारा। इसी की वजह से दोनो परिवार एकाकार होने की कगार पर आ गये।

शुक्लाईन दिन भर खाली ही रहती थी। मां को उसने सास मां बना लिया फिर क्या था। बापू ससुर का दर्जा पा गये। कुलदीपकजी देवर हो गये और यशोधरा दीदी। दीदी का रोबदाब अब दोनों घरों में चल निकला था। वे अपनी नौकरी से खुश थी। घरवाले उसकी पगार से खुश थे। सम्पादकजी महिला सहकर्मी के साहचर्य से खुश थे। कुलदीपकजी अपनी समीक्षा लेखन से खुश थे। उनकी दूसरी फिल्मी समीक्षा जब छपकर आई तो सब कुछ ठीक था बस दर्शक उवाच महिला दर्शक के चित्र के साथ छप गया था और महिला दर्शक के स्थान पर एक पुरूष दर्शक का चित्र छप गया था। कुलदीपकजी इस बात को पी गये। उन्हें समीक्षाओं के खतरों का आभास होने लगा था। कभी-कभी तो वे समीक्षा के स्थान पर वापस काव्य जगत में लौटने की सोचते मगर कविताओं का प्रकाशन बहुत तकलीफदेह था। इधर पिछली समीक्षा का पारिश्रमिक ‘पचास रुपये' पाकर कुलभूषणजी सब अवसाद भूल गये और इस पारिश्रमिक को सेलीबे्रट करने के लिये झपकलाल को साथ लेकर बस स्टेण्ड की ओर चल पड़े।

सायं सांझ धीरे-धीरे उतर रही थी। बस स्टेण्ड पर रेलमपेल मची हुई थी। कुलदीपकजी ने एक थड़ी के पिछवाड़े जाकर सायंकालीन आचमन का पहला घूंट भरा ही था कि झाड़ियों में कुछ सरसराहट हुई। सरसराहट की तरह ध्यान देने के बजाय झपकलाल ने आचमन की ओर ध्यान देना शुरू किया। मगर सरसराहट फुसफसाहट और फुसफुसाहट बाद में चिल्लाहट में बदल गई। अब एक जागरूक शहरी नागरिक होने के नाते इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी था। कुछ सरूर का असर, कुछ शाम का अन्धेरा, उन्हें कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था, मगर कुछ ही देर में सब कुछ साफ हो गया।

बस स्टेण्ड के पास नियमित घूमने वाली पगली बदहवास सी भाग निकली और उसके पीछे-पीछे कुछ आवारा लड़के, आवारा कुत्तों की तरह भागे। इस भागदौड़ में पगली बेचारी और भी नंगी हो गई। इस नंगी और नपुंसक दौड़ को देख-देखकर बस स्टेण्ड की भीड़ हंसने लगी। लड़के शहर वाली साइड में भाग गये। आचमन का कार्य पूर्ण करके कुलदीपकजी ने एक लम्बी डकार ली और कहा-

‘इस देश का क्या होगा ?'

‘देश का कुछ नहीं होगा। यह महान देश हमारे-तुम्हारे सहारे जिन्दा नहीं है। ये कहो कि हमारा-तुम्हारा, इस पीढी का क्या होगा।'

‘पीढी का क्या होना-जाना है। खाओ-पीओ। बच्चे जनो। परिवार नियोजन का काम करो और मर जाओ यही हर एक की नियति है।

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( क्रमश: अगले अंकों में जारी…)

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (1)
यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (1)
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https://www.rachanakar.org/2009/02/1.html
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