वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : प्रमुख गम्भीर पर्यावरणीय समस्याएं – कारण एवं निवारण

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युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍था...

clip_image001युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं

प्रमुख गम्‍भीर पर्यावरणीय समस्‍याएं ः कारण एवं निवारण

-डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव

मनुष्‍य ने अपनी विकास प्रक्रिया के साथ सुखी जीवन की कल्‍पना को अपना अन्‍तिम ध्‍येय माना और इसके लिये उसने अनेक युगों से संघर्ष करते हुये अपने बुद्धि, कौशल एवं संघर्ष के बल पर जल, थल, नभ एवं अन्‍तरिक्ष की अनसुलझी गुत्‍थियों को सुलझाया। सुख, वैभव एवं आर्थिक विकास की इस यात्रा में मानव ने कुछ ऐसी गम्‍भीर गलतियाँ भी की हैं जो क्षम्‍य नहीं की जा सकती हैं। औद्यीगीकरण एवं उपभोक्‍तावादी प्रवृत्ति के पनपने से मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का इतना विदोहन किया कि जो पर्यावरण पहले उसके लिये वरदान हुआ करता था आज वही उसके लिये दण्‍डक एवं विनाशक सिद्ध हो रहा है। और मानव का यह अधूरा, लंगड़ा या क्षयी विकास (अपोषणीय विकास) सिद्ध हो रहा है। कुल मिलाकर पर्यावरण समस्‍याओं के आगे आज हम विवश एवं हताश से नजर आ रहे हैं क्‍योंकि मरूस्‍थलीकरण, ओजोन हृास, अम्‍ल वृष्‍टि, निर्वनीकरण जैसे गम्‍भीर संकट के समक्ष आज हम एक चुनौती के रूप में यक्ष प्रश्‍न की तरह खड़े हुये हैं।

प्रमुख पर्यावरणीय समस्‍याएं

ओजोन पर्त का विघटन, मरूस्‍थलीकरण, हरित ग्रह प्रभाव, अम्‍लवृष्‍टि, जनसंख्‍या विस्‍फोट, औद्योगीकरण, अपशिष्‍ट निस्‍तारण, निर्वनीकरण, स्‍मोग, शहीरीकरण, भीड़, नम भूमि, बंजर भूमि, जल और अन्‍न की कमी कुपोषण, स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं का अभाव, परस्‍थितिकी असंतुलन, ग्‍लोबल वार्मिंग, वन्‍य संरक्षण में कमियाँ, पर्यावरणीय अज्ञानता, विश्‍वव्‍यापी तापन।

वर्तमान समय की प्रमुख पर्यावरणीय समस्‍या ओजोन परत का क्षय होना है। वायुमण्‍डल में नाइट्रोजन, आक्‍सीजन, कार्बन-डाइ-आक्‍साइड आदि गैसों के अलावा ओजोन नामक गैस भी पायी जाती है। वायुमण्‍डल में स्‍थित समताप मण्‍डल के ऊपरी भाग में लगभग 25 किलोमीटर मोटी ओजोन गैस की एक परत पायी जाती है। जिसे ओजोन मण्‍डल कहते हैं। समताप मण्‍डल में स्‍थिति यह ओजोन सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी विकिरण को सोखकर धरती पर निवास करने वाले जीव-जन्‍तुओं की रक्षा करती है। यदि निचले वायुमण्‍डल में यह गैस जम गयी तो वहाँ जरूरत से ज्‍यादा गर्मी पैदा कर देती है। यह गैस नाइट्रोजन के आक्‍साइड, मीथेन हाइड्रोकार्बन और अन्‍य कार्बनिक यौगिकों के आपसी क्रिया से बनी होती है। इसकी कितनी मात्रा होती है इसका सही तरह से पता नहीं लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यदि ओजोन का क्षरण होता है तो पर्यावरण में गर्मी बढ़ेगी, जो पृथ्‍वी पर सम्‍पूर्ण जीवन के लिए अत्‍यन्‍त घातक होगा। ओजोन के विनाश से पराबैंगनी किरणों की मात्रा बढ़ेगी। जो मानव एवं पशु-पक्षियों के लिए घातक होगा और इससे कैंसर, नेत्र ज्‍योति, हृास, मोतियाबिन्‍द का होना आँख के लेंस का विरूपण, शरीर के प्रतिरोधी तंत्र का हृास, फसलों के उत्‍पादन में कमी, वनों की हानि तथा समुद्री जीवन का हृास होता है। वर्तमान में विश्‍वव्‍यापी तापन पराबैंगनी किरणों के कारणों में एक यह भी है।

आज ओजोन परत में ओजोन गैस के धनत्‍व कम होने से उसमें छिद्र हो रहे हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं अनुमानों के अनुसार, ओजोन छिद्र में यदि एक सेमी की वृद्धि होती है तो उसमें 40 हजार व्‍यक्‍ति पराबैंगनी किरणों की चपेट में आ जाते हैं और 5 प्रतिशत से 6 प्रतिशत कैंसर के मामले बढ़ जाते हैं। नासा के वैज्ञानिकों के सर्वेक्षण (मार्च 1988) से पता चलता है कि उत्तरी गोलार्द्ध में 1969 से 1988 तक 2.3 प्रतिशत ओजोन का क्षरण हो चुका है। वहीं दक्षिणी धु्रव में एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार 40 किमी व्‍यास के ओजोन छिद्र का पता लगाया गया है। यह ओजोन छिद्र न्‍यूजीलैण्‍ड और आस्‍टे्रलिया की ओर अग्रसर हो रहा है। जहाँ मनुष्‍यों एवं पशुओं के शरीर में लाल चकत्त्ो, त्‍वचा कैंसर जैसी अनेक व्‍याधियाँ बढ़ रही हैं। ऋतुओं के अनुसार ओजोन पर्त की मोटाई घटती बढ़ती रहती है। डॉ. आर. ए. चौरसिया के अनुसार ‘‘दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रतिवर्ष वसंत ऋतु में आंटार्कटिका के ऊपर संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका के बराबर बड़ा छिद्र बन जाता है। यहाँ इस छिद्र के निर्माण में धु्रवीय लम्‍वबत जेट स्‍ट्रीम्‍स का विशेष योगदान है। 1992 में इस छिद्र का क्षेत्रफल सबसे अधिक था तथा इससे 60 प्रतिशत ओजोन नष्‍ट हो चुकी थी। उत्तरी गोलार्द्ध में भी 2 से 20 प्रतिशत ओजोन नष्‍ट हो चुकी है। 16 प्रतिशत ओजोन हृास होने पर पराबैंगनी विकिरण का पृथ्‍वी पर आगमन 44 प्रतिशत बढ़ जाता है तथा 30 प्रतिशत ओजोन का विनाश होने पर पराबैंगनी विकिरण 50 प्रतिशत बढ़ जाता है।'' प्रश्‍न उठता है कि आखिर वे कौन से कारक हैं जिनसे वायुमण्‍डल की रक्षक गैस में लगातार छिद्र होने से मनुष्‍य भयानक खतरे की ओर अग्रसर हो रहा है। वैज्ञानिकों ने बढ़ते ओजोन छिद्र के खतरों के लिये निम्‍न तत्‍वों को जिम्‍मेदार ठहराया है -

1.  नाइट्रोजन आक्‍साइड के प्रभाव

2.  क्‍लोरीन गैस जो ज्‍वालामुखियों के विस्‍फोट से निकलती है।

3.  बमों एवं परमाणु केन्‍द्रों से उत्‍सर्जित गैस के विकिरण से।

4.  क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बन जो मानव प्रतिदिन (रेफ्रीजरेटर, वातानुकूलन, इलैक्‍ट्रॉनिक एवं (सी.एफ.सी.)

ओफ्‍टि काम उद्योग, प्‍लास्‍टिक व फार्मेसी उद्योग, परफ्‍यूम व फोम उद्योग) के उपयोग में आता है इससे लगातार ओजोन गैस विघटित हो रही है।

मरूस्‍थलीकरण(Desertification)

वर्तमान में वैज्ञानिक ग्‍लोबल वार्मिंग के नये खतरों में पृथ्‍वी पर बढ़ते रेगिस्‍तान (मरूस्‍थलीकरण) को जोड़ रहे हैं क्‍योंकि आज मरूस्‍थलीय का विस्‍तार इतनी तीव्र गति से बढ़ रहा है कि विश्‍व के अल्‍प विकसित, विकासशील और विकसित लगभग 110 से अधिक देश इसमें शामिल हो गये हैं। वैज्ञानिक अध्‍ययनों से पता चला है कि 19वीं सदी की अपेक्षा 20 वीं शताब्‍दी मेें धरती का औसत तापमान 6 डिग्री सेल्‍सियस अधिक रहा है। सन्‌ 1800 से पृथ्‍वी का तापमान रिकार्ड किया जा रहा है। और समय के इन दो सौ से अधिक वर्षों में हमारे वातावरण का तापमान निरंतर बढ़ता जा रहा है। वातावरण की इस गर्माहट में कुछ गैसों जिसमें कार्बन-डाइ-आक्‍साइड की मात्रा 30 प्रतिशत से अधिक बढ़ गयी है। इस वातावरण के घटते प्रभावों को देखते हुए नये सर्वेक्षण यह कहते हैं कि 21 वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक पृथ्‍वी का औसत तापमान आज की तुलना में 1.0 से 3.5 डिग्री सेल्‍सियस तक बढ़ जायेगा। यह स्‍थिति अगर नियंत्रित नही की गयीं तो आने वाली सदी में एक ओर जहाँ विश्‍व के अधिकांश हिस्‍से ग्‍लेशियरों की बर्फ पिघलने के कारण जलमग्‍न हो जायेंगे तो वहीं दूसरी ओर शेष बची दुनिया मरूस्‍थल में बदल जायेगी। ये दोनों ही स्‍थितियाँ मानव के जीवन के लिये शुभ नहीं दिख पड़ती हैं।

मरूस्‍थलीकरण के संरक्षण के उपाय

मानव जीवन तथा पशुधन एवं वनस्‍पतियों को मुश्‍किल से बचाने के लिए मनुष्‍य को ग्‍लोबल वार्मिंग को रोकना होगा इसके साथ ही व्‍यक्‍तिगत हितों को छोड़कर मनुष्‍य को ऐसे बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य करने होंगे जो अधिक से अधिक लोगों के लिए लाभदायक हों इसके अलावा भी निम्‍न उपाय भी मरूस्‍थलीकरण को रोकने में सहायक हो सकते हैं।

-   वृक्षारोपण पर बल दिया जाना चाहिए।

-   भूमि का प्रबंधन वैज्ञानिक आधार वाला होना चाहिए।

-   पशु चारण की उचित एवं नियंत्रित व्‍यवस्‍था।

-   ईंधन के वैकल्‍पिक स्रोतों की तलाश।

-   जल के संरक्षण एवं प्रबंधन की व्‍यवस्‍था।

-   शैक्षिक जागरूकता का प्रसार-प्रचार।

हरित ग्रह प्रभाव (Green House Effect)

हमारी पृथ्‍वी की जलवायु सूर्य की ऊष्‍मा (विकीर्णन) द्वारा जीवन पाती है अर्थात्‌ सूर्य से उत्‍पन्‍न ऊर्जा का मानव जीवन से सीधा सम्‍बन्‍ध होता है। यह प्रकृति के प्रारम्‍भ से लेकर वर्तमान तक (लगभग चार अरब वर्षों) श्रृंखला वृहद प्रक्रिया के तहत चलता रहता है। सूर्य से ली गयी इस विकीर्णन विधि से ऊर्जा पृथ्‍वी पर उत्‍सर्जित भी होती रहती है। इस प्रक्रिया से पृथ्‍वी अतिरिक्‍त ऊर्जा से सुरक्षित भी रहती है। बार-बार विकीर्णन एवं उत्‍सर्जन की प्रक्रिया में पर्यावरण से कुछ रेडियोएक्‍टिव किरणें, ऊर्जा इन से शोषित कर लेती है और कुछ गैसें निकाल देती है। इस प्रक्रिया से निकलने वाली कुछ हरित गैसें होती हैं। जिनका निर्माण जलवाष्‍प पानी के वाष्‍पन से होता है। कार्बन-डाइ-आक्‍साइड (ब्‍व्‍2), कार्बन मोनो आक्‍साइड मेथेन (ब्‍भ्‍4), ओजोन (व्‍3), नाइट्रस आक्‍साइड (छ2व्‍), क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बन ;ब्‍ण्‍थ्‍ण्‍ब्‍ण्‍द्ध आदि गैसों के द्वारा पृथ्‍वी के चारों ओर घना आवरण बन जाता है। अतः स्‍पष्‍ट है कि ‘हरित ग्रह प्रभाव वह क्रिया है जो पार्थिव विकिरण को वायुमण्‍डल द्वारा रोक लिए जाने के कारण पृथ्‍वी के तापमान बढ़ने से सम्‍बन्‍धित है। इसकी खोज सर्वप्रथम 1827 में जे. फोरियर महोदय ने की।

दुनिया के ठण्‍डे मुल्‍कों में जहाँ सर्दी के मौसम में सूर्य का प्रकाश बहुत मंद होता है जिससे पेड़-पौधों को विकसित होने में उतनी ऊर्जा प्राप्‍त नहीं हो पाती जितनी उनके विकास के लिए आवश्‍यक होती है। इन्‍हें सूर्य की ऊर्जा अधिक से अधिक प्राप्‍त हो इसके लिए पारदर्शी काँच की छतों और दीवारों वाले घर बनाए जाते हैं। वनस्‍पति उद्यानों और प्रयोगशालाओं के रूप में निर्मित इन घरों की यह विशेषता होती है कि सूर्य के प्रकाश से प्राप्‍त उष्‍मा पारदर्शी काँच के सहारे किरणों के रूप में इन घरों के भीतर प्रवेश कर जाती है परन्‍तु वह बाहर नहीं निकल पाती है जिससे शीशे के अन्‍दर ताप अधिक बढ़ जाता है। तापान्‍तर की यह प्रक्रिया बढ़ती जाती है जिससे पेड़-पौधें अपना विकास करते रहते हैं। काँच के इस बने भवन को हरित भवन एवं इस घटित होने वाली प्रक्रिया को हरित भवन की संज्ञा दी जाती है।

हरित ग्रह प्रभाव के परिणाम

मानव की प्रकृति विरोधी नीतियों एवं कार्यों के कारण संतुलित वातावरण (जलवायु) के कदम बहक गये हैं और इसी संदर्भ में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने वाली प्रमुख गैसों की मात्रा वायुमंडल में आवश्‍यकता से अधिक बढ़ गयी है। जिससे पृथ्‍वी का तापमान औसत से अधिक बढ़ता जा रहा है यदि यही स्‍थिति जारी रही तो आने वाले समय में पृथ्‍वी के प्राणि जगत, वनस्‍पतिजगत व मौसम चक्र का तालमेल असंतुलित हो जायेगा।

हरित ग्रह प्रभाव के बारे में यूरोप के भू-वैज्ञानिकों ने एक संगोष्‍ठी के माध्‍यम से (1986) में भविष्‍यवाणी की कि अगामी 2050 तक पृथ्‍वी के तापमान में 1.5 से 4.5 डिग्री सेन्‍टीग्रेड की वृद्धि होने की सम्‍भावना है। और वर्तमान में इसके दुष्‍परिणाम भी सामने आने लगे हैं। मार्च 2002 में लन्‍दन के वैज्ञानिकों ने सुदूर संवेदन उपग्रह से प्राप्‍त आंकड़ों के आधार पर बताया कि अण्‍टार्कटिका के पूर्वी प्रायद्वीप भाग से जुड़ा लार्सन बी हिमनद टूट गया है। 1250 वर्ग मील क्षेत्रफल एवं 650 फुट मोटाई वाली बर्फ की इस चट्‌टान के टूटने को, दुनिया के लिए खतरा बताया जा रहा है। पृथ्‍वी के इस बढ़ते तापमान से जहाँ एक ओर बर्फ पिघलने की इन घटनाओं ने मानव को खतरे में डाल दिया है वहीं पिघले बर्फ का पानी जब सागर में जायेगा तो उसमें बाढ़ आ जाने से भारत एवं विश्‍व के कलकत्ता, मुम्‍बई, बैंकाक, वोस्‍टन, ढाका जैसे देश जो समुद्र तट पर बसे हैं समुद्र की चपेट में आकर डूब जायेगें।

खाद्यानों के उत्‍पादन में हरित ग्रह प्रभाव भी असर करेगा एक निश्‍चित तापमान न उपलब्‍ध होने के कारण उत्‍पादन घटेगा। जिससे अमेरिका विशेष रूप से प्रभावित होगा क्‍योंकि 1.5 से 4.5 डिग्री सेण्‍टीग्रेड ताप की वृद्धि होने के कारण समुद्रों में वाष्‍पीकरण की प्रक्रिया बढ़ जायेगी जिससे वायुमण्‍डल में आद्रता बढ़ेगी साथ ही क्षेत्रीय वायुदाब में पर्याप्‍त परिवर्तन होने के कारण ताप, दाब एवं आर्द्रता की स्‍थितियों में परिवर्तन के कारण क्षेत्रीय जलवायु में परिवर्तन होने के कारण फसलों के उत्‍पादन व फसल चक्र परिवर्तन होंगे जिससे अमेरिका, भारत, आस्‍ट्रेलिया पूर्वोत्‍तर अफ्रीका व मध्‍य-पूर्व के देशों की अर्थव्‍यवस्‍थायें प्रभावित होंगी। इसके साथ ही मौसम के इस परिवर्तन से क्षेत्रीय पारिस्‍थितिक तन्‍त्र भी लड़खड़ा जायेगा और वहाँ की घास, वनस्‍पतियाँ तो नष्‍ट होंगी ही साथ में पशु-पक्षियों का जलवायु परिवर्तन के कारण क्षेत्र भी बदल जायेगा। वैश्‍विक परिवेश में अलनीनो की ठण्‍डी जल धारा जो अमेरिका (दक्षिणी) के तट पर बहती थी। आज वह गर्म हो गयी है जिससे इसमें रहने वाले जीवों को अनेक कष्‍ट उठाने पड़ रहे हैं।

हरित ग्रह प्रभाव के संरक्षण के उपाय

वर्तमान में बढ़ती उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति का प्रसार विश्‍व स्‍तर पर रोका जाना चाहिए। प्रकृति से स्‍नेह रखते हुए मानव को आज सादगीपूर्ण जीवन को अपना लक्ष्‍य बनाना चाहिए। यह एक ऐसी जागरूकता है जो किसी के दवाब में नहीं हो सकती है बस इसके लिए जरूरत है दृढ़ इच्‍छा शक्‍ति की। इसके अलावा कुछ सैद्धान्‍तिक उपायों द्वारा भी हरित ग्रह प्रभाव को पूर्णतया से समाप्‍त नही किया जा सकता है हाँ इसमें कमी अवश्‍य की जा सकती है।

-   वृक्षारोपण अधिक से अधिक किया जाना चाहिए।

-   विश्‍व की जनसंख्‍या वृद्धि पर रोक होनी चाहिए।

-   जीवावशेष ईधन के स्‍थान पर सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं ज्‍वारीय ऊर्जा के उपयोग में अधिक से अधिक वृद्धि की जाये।

-   सोलर एवं गोबर गैस प्‍लाण्‍ट को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

-   स्‍वाचालित वाहनों में पेट्रोल व डीजल के स्‍थान पर सी. एन. जी. एवं एल. पी. जी. आदि का प्रयोग किया जाना सुनिश्‍चित हो।

-   अधिक से अधिक पशुपालन हो।

-   क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बन पर प्रतिबन्‍ध हो साथ ही इसके उपभोक्‍ताओं देशो पर भी कड़ी नजर रखी जाये।

-   जन जागरूकता के द्वारा जन सामान्‍य को औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा द्वारा हरित गृह प्रभाव के कारण होने वाली हानियों एवं दुष्‍परिणामों को अवगत कराया जाये जिससे वैश्‍विक समाज का प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति जागरूक व सचेष्‍ट हो सके।

अम्‍ल वर्षा (Acid Rains)

वर्षा जल में अम्‍लों की बड़ी मात्रा को या उपस्‍थिति को अम्‍लीय वर्षा कहा जाता है। प्राकृतिक कारणों से भी शुद्ध वर्षा का जल अम्‍लीय होता है। इसका प्रमुख कारण वायुमंडल में मानवीय क्रियाकलापों के कारण सल्‍फर ऑक्‍साइड ;ैव4द्ध व नाइट्रोजन ऑक्‍साइड ;छ20द्ध के अत्‍यधिक उत्‍सर्जन के द्वारा बनती हैं। यही गैसें वायुमंडल में पहुँचकर जल से रसायनिक क्रिया करके सल्‍फेट ;ै04द्ध तथा सल्‍फ्‍यूरिक अम्‍ल ;भ्‍2ैव4द्ध का का निर्माण करती है। जब यह अम्‍ल, वर्षा के साथ धरातल पर पहुँचता है तो इसे अम्‍ल वर्षा कहते हैं। शुद्ध जल का च्‍भ्‍ स्‍तर 5.5 से 5.7 के बीच होता है। अम्‍लीय वर्षा जिसकी पी. एच. स्‍तर 5.5 से कम होती है। यदि जल का पी. एच. मान 4 से कम होता है तो यह जल जैविक समुदाय के लिए हानिकारक होता है। वास्‍तविकता यह है कि जितनी अधिक मात्रा में सल्‍फर डाइ आक्‍साइड और नाइट्रोजन की वातावरण में अधिकता होगी, वर्षा का च्‍भ्‍ स्‍तर उतना ही कम होता जाएगा। ‘अम्‍लीय वर्षा' शब्‍द का प्रयोग सर्वप्रथम रॉबर्ट एंग्‍स ने सन्‌ 1972 ई. में किया। अम्‍लीय वर्षा के मुख्‍य घटक विशेषतः सल्‍फ्‍यूरिक अम्‍ल ;भ्‍2ैव4द्ध - 60-70 प्रतिशत, नाइट्रिक अम्‍ल ;भ्‍छव्‍3द्ध-30-40 प्रतिशत, हाइड्रोक्‍लोरिक अम्‍ल ;भ्‍ब्‍सद्ध - 10 प्रतिशत होते हैं।

अम्‍लीय वर्षा, सल्‍फर व नाइट्रोजन आक्‍साइड की जल वाष्‍प से क्रिया के परिणामस्‍वरूप वायुमंडल में बनती है।

अम्‍लीय वर्षा के प्रभाव

वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अम्‍लीय वर्षा औद्योगिक एवं परिवहन स्रोतों तक सीमित नही हैं वरन यह हवा एवं बादलों के माध्‍यम से दूर तक फैल जाते हैं। नार्वे, स्‍वीडन, डेनमार्क आदि यूरोपीय राष्‍ट्र बिट्रेन और फ्रांस पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उनके कल कारखानों से निकलने वाले धुएँ से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है तथा उनके देशों में अम्‍लीय वर्षा हो रही है। वहीं खाड़ी युद्ध के समय इराक द्वारा कुवैत के तेल कुओं को जला देने के परिणामस्‍वरूप उसके निकले धुएँ से ईरान तथा भारत के जम्‍मू कश्‍मीर क्षेत्र तक व्‍यापक प्रभाव पड़ा। जम्‍मू में बर्फ की परतों के बीच कार्बन की परतें पायी गइर्ं। आज यू. एस. ए. तथा पश्‍चिमी यूरोपीय देशों में अम्‍ल वर्षा ने व्‍यापक रूप ले लिया है क्‍योंकि यहाँ के विभिन्‍न जल स्रोतों, झीलों, तालाबों एवं छोटे जल भण्‍डारों आदि के जलीय जीवों की मृत्‍यु का उत्तरदायी कारक अम्‍लीय वर्षा को ही माना जा रहा है। अम्‍लीय वर्षा के कारण आज सजीव निर्जीव दोनों प्रभावित हो रहे हैं। पर्यावरण पर इसके हानिकारक प्रभावों के कारण विभिन्‍न क्षेत्रों की पारिस्‍थतिकी संतुलन को गड़बड़ा दिया है। इसके प्रभाव से नदियों, तालाब व झीलों के अस्‍तित्‍व पर संकट मड़राने लगा है। अम्‍लीय वर्षा में सम्‍मिलित अम्‍ल मानव शरीर से मिलकर बड़े विषैले योगिकों का निर्माण करते हैं। जैसे ही यह पेय जल के रूप में मनुष्‍य पीता है तो उसे पाचन, श्‍वसन से सम्‍बन्‍धित अनेक तरह की बीमारियां हो जाती हैं। पानी में (नदी, झील, तालाब, समुद्र आदि) अम्‍लीय वर्षा के कारण इसमें रहने वाले जीवों-वनस्‍पतियों का विनाश होता जा रहा है। अमोनिया की अधिकता के कारण मछलियों की मृत्‍यु हो रही है। आज अम्‍लीय वर्षा का प्रभाव बालू, पत्‍थर व चूना पत्‍थर या संगमरमर से बने भवनों व मूर्तियों पर स्‍पष्‍ट दिखने लगा है। इससे ऐतिहासिक इमारतों में स्‍टोन लिपर्सी (पत्‍थर का फोड़) हो जाता है। उदाहरण के लिए ताजमहल (भारत में आगरा) का अम्‍लीय वर्षा के कारण शनैः शनैः क्षरण हो रहा है जिसका मुख्‍य कारण आगरा के निकट स्‍थित मथुरा रिफाइनरी द्वारा प्रदूषणकारी तत्‍वों का उत्‍सर्जन है। इसके साथ दूसरा कारण अम्‍लीय वर्षा से भवनों में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते है। साथ ही पत्‍थर की चमक घट जाती है। इसी तरह से भारत की अन्‍य ऐतिहासिक इमारतें मोती मस्‍जिद, लाल किला तथा कुतुबमीनार अपनी प्राकृतिक चमक खोते जा रहे हैं।

अम्‍ल वर्षा से बचने के उपाय

-   सरकार द्वारा बनाये गये पर्यावरण सम्‍बन्‍धी कानूनों का कठोरता से पालन करवाया जाए।

-   औद्योगीकरण के मानक बनाकर उसमें निकलने वाले प्रदूषण को कम किया जाए।

-   ऐसे नवीन ऊर्जा के स्रोतों को खोजा जाए जो प्रदूषण न फैलाते हों।

-   वायुमण्‍डल में हो रहे परिवर्तन को लेकर निरन्‍तर अध्‍ययन को अनिवार्य किया जाना चाहिए।

-   सरकारी एवं गैर सरकारी स्‍वयं समूहों द्वारा जनचेतना तथा जागरूकता के सामूहिक प्रयास किये जाने चाहिए।

विश्‍वव्‍यापी तापन (Global Worming)

विश्‍वव्‍यापी तापन (ग्‍लोबल वार्मिंग) यानी पृथ्‍वी के तापमान में वृद्धि और मौसम में अनचाहे परिवर्तन को कहा जाता है। आज का मानव यदि अपने स्‍वर्णिम प्राकृतिक अतीत की यादें ताजा करे तो उसके वार्षिक कार्यों का लेखा जोखा ऋतुओं पर आधारित होता था। चाहे वह बसन्‍त ऋतु हो या शरद ऋतु एक निश्‍चित समय सीमा में ही शुरू होती थी। पहले मानसून एक निश्‍चित समय पर अपनी दस्‍तक देता था अर्थात्‌ प्रकृति के अपने नियम निश्‍चित थे और उसी के अनुसार मानव उपक्रम करता था एक आपसी प्रबन्‍ध का समझौता था और इस पर मानव एवं प्रकृति झूमते मल्‍हार गाते रहते थे। आज सब कुछ उल्‍टा-सीधा हो रहा है। मानसून कब आया एवं कब गया कुछ निश्‍चित नहीं है। इन सब कारकों के पीछे मानव द्वारा प्रकृति का अत्‍यंत दोहन, पेड़ों का काटा जाना, पहाड़ों का नष्‍ट होना जिसके कारण कार्बन डाइ आक्‍साइड गैस की मात्रा बढ़ रही है फलस्‍वरूप पृथ्‍वी पर तापमान की अधिकता हो गयी है।

पृथ्‍वी पर इस लगातार बढ़ रहे तापमान के लिए मुख्‍य रूप से ग्रीन हाउस प्रभाव ही उत्तरदायी है। सूर्य ऊर्जा का मुख्‍य स्रोत होने के कारण पृथ्‍वी को अपने उत्‍सर्जन द्वारा ऊर्जा प्रदान करता है। वायुमण्‍डल में स्‍थिति ब्‍व्‍2 मीथेन, क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्‍साइड (ग्रीन हाउस गैसें) की अल्‍प मात्रा पृथ्‍वी को गर्म करने में सक्षम हैं। विशेषकर ब्‍व्‍2 पृथ्‍वी पर अपना कार्य कम्‍बल की तरह करती है। और तापमान के इस आदान प्रदान में ब्‍व्‍2 अन्‍य ग्रीन हाउस गैसों से अधिक ताप ग्रहण करने की सदैव कोशिश करती रहती हैं। ब्‍व्‍2 के इस कार्य में मदद चार गैसें भी करती हैं जिनसे भूमण्‍डल गर्म हो रहा है। ग्रीन हाउस गैसों की भूमण्‍डल के ताप बढ़ाने में इस तरह की भागीदारी रहती है - कार्बन डाइ आक्‍साइड 50 प्रतिशत, मीथेन 18 प्रतिशत, क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बनस 14 प्रतिशत, ट्रोपोस्‍पेरिक ओजोन 12 प्रतिशत, नाइट्रस आक्‍साइड 0.6 प्रतिशत आदि यहाँ यह बताना आवश्‍यक है कि ग्रीन हाउस गैसें प्राकृतिक व मानव निर्मित कारणों से उत्‍सर्जित होती हैं।

विश्‍वव्‍यापी तापन के संदर्भ में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की अन्‍तर्राष्‍ट्रीय समिति ने अपने कुछ निष्‍कर्ष दिए है वह यह कि ‘‘आगामी वर्षों में विश्‍व के औसत तापमान में प्रतिदशक
0.3 प्रतिशत की वृद्धि होगी और इस दर से सन्‌ 2100 तक पृथ्‍वी का तापमान 3.6 डिग्री सेल्‍सियस और बढ़ जायेगा। वहीं इस सम्‍बन्‍ध में अमेरिका की प्रतिष्‍ठित संस्‍था ई. पी. ए. का मत है कि तापमान में 4 डिग्री की वृद्धि से वाष्‍पीकरण में 30-40 प्रतिशत तक की वृद्धि सम्‍भावित है, जिसका विशेषकर एशिया और अफ्रीका के अर्द्ध-शुष्‍क प्रदेशों पर काफी खतरनाक प्रभाव पड़ेगा, जिससे पानी और पशुओं के चारे की भीषण समस्‍या उत्‍पन्‍न होगी।

विश्‍वव्‍यापी तापन के दुष्‍परिणाम या प्रभाव

1.  तापमान बढ़ाने से ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, परिणामस्‍वरूप समुद्र की सतह उठेगी और निचले तटवर्ती क्षेत्र डूब जायेंगे। भारत के संदर्भ में उल्‍लेखनीय है कि मुम्‍बई, कोलकाता और चेन्‍नई समुद्र में समा जायेंगे। अण्‍डमान-निकोबार लक्ष्‍यद्वीप और मालाबार जैसे द्वीप समूह भविष्‍य में अस्‍तित्‍वहीन हो जायेंगे।

2.  मौसम में तेजी से परिवर्तन होगा। धु्रवों की बर्फ के पिघलने से पारिस्‍थितिकीय संतुलन बिगड़ेगा। आने वाले कुछ वर्षों में समुद्र में भयंकर तूफान और चक्रवात आयेंगे। ऋतुओं का क्रम बदलेगा, बेमौसम बारिश होगी।

3.  समुद्र स्‍तर बढ़ने के साथ कहीं-कहीं सूखा भी पड़ेगा।

4.  मलेरिया, डेंगू और हैजा जैसी संक्रामक बीमारियाँ फैलेगी।

5.  मरूस्‍थलीय क्षेत्रों का विस्‍तार होगा।

6.  साथ ही हरे-भरे वनों के लिए प्रसिद्ध हिमालय का तराई वाला क्षेत्र भी एक दिन बंजर होकर अन्‍ततः रेगिस्‍तान में परिवर्तित हो जायेगा। मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि जल्‍द ही बढ़ते तापमान के ग्राफ को थामा नहीं गया तो इसके गम्‍भीर परिणाम भुगतने होंगे।

7.  केलीफोर्निया, अफ्रीका, फ्‍लोरिडा, लेटिन अमरीका, आस्‍ट्रेलिया, बांग्‍लादेश तेजी से धंस रहे है और आने वाले वर्षों में पानी में समा जायेंगे। Mesachusetes Institute of Technology के वैज्ञानिकों ने अगले 80 वर्षों में वेनिस, मालद्वीप, आइसलैण्‍ड के पूर्णतया डूब जाने की भविष्‍यवाणी की है।

8.  अंटार्टिका में बर्फ तेजी से पिघल रही है। पहले जहाँ अंटार्टिका में हिमपात होता था। अब वहाँ बारिश होने लगी है।

9.  फसल प्रारूप में परिवर्तन होगा।

10. बढ़ते तापमान के कारण ध्रुवीय प्रदेशों में बर्फ की परत की मोटाई 42 प्रतिशत कम हो गयी है। साथ ही कैरेबियन सागर में सैकड़ों प्रवाल भित्तियाँ नष्‍ट हो गयी हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रवाल भित्तियों के नष्‍ट होने का सीधा अर्थ है कि विश्‍व के कुछ महत्‍वपूर्ण पारिस्‍थितकीय तंत्र गिरावट की ओर हैं। सन्‌ 2105 यानी सौ वर्ष के बाद पृथ्‍वी के तापमान में 60 सेल्‍सियस की वृद्धि होगी। समुद्र की सतह 9 से 88 सेमी तक बढ़ जायेगी। इसका भयानक परिणाम यह होगा कि निकटवर्ती शहर डूब जायेंगे। इसे आने वाली पीढ़ी को कहानी सुनानी होगी कि एक था मुम्‍बई और एक या चेन्‍नई था एक था बेनिस।

11. बढ़ते तापमान के कारण अलनीनो जल धारा का प्रभाव भी प्रशान्‍त महासागर और भारतीय मानसून पर हानिकारक हो गया है।

स्रोत - भूगोल परिभाषा कोश (1996) वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्‍दावली आयोग दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय दिल्‍ली द्वारा प्रकाशित

अल-नीनो (ALNENO)

यह समस्‍या तापमान के बढ़ने से होती है। इसकी वजह से मौसम का सामान्‍य चक्र गड़बड़ा जाता है। और बाड़ व सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं शुरू हो जाती हैं। अल-नीनो की घटना हर दस वर्ष के अन्‍तराल में सम्‍पन्‍न होती है। भूमंडल के तापमान में वृद्धि से इसकी आवृत्ति बढ़ जाती है। अल-नीनों के बारे में अमेरिका के मौसम विभाग का कहना है कि सन्‌ 2007 में अल-नीनो के लौटने की 50 प्रतिशत सम्‍भावना है। 1997-98 में जब अल-नीनो आया था तब अफ्रीका और एशिया में फसलों को भारी नुकसान हुआ था। अमेरिका का एक भाग (पश्‍चिमी) इसकी चपेट में बुरी तरह से आ गया था। एशिया एवं आस्‍ट्रेलिया के विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार अल-नीनो लौटा तो फसलों को भारी नुकसान पहुँच सकता है।

स्‍मोग(SMOGE)

यह अंग्रेजी Smoke के स्‍मोक Fogue व फोग शब्‍दों से मिलकर बना है। जिसका शाब्‍दिक अर्थ धुआँ अथवा कोहरा होता है। स्‍मोग का निर्माण सल्‍फर ऑक्‍साइड, नाइट्रोजन आक्‍साइड के धुएँ व कोहरे के संयोग से बनता है। धुएँ के कण स्‍मोग के बनने के लिए नाभिक का कार्य करते हैं। सल्‍फर आक्‍साइड, नाइट्रोजन आक्‍साइड व हाइड्रोकार्बन इन नाभिकों पर घनीभूत होकर वायुमंडल में घातक आयन या अम्‍ल का निर्माण करते हैं जो कोहरे के रूप में वायुमंडल में धरती के नजदीक फैल सा जाता है अत्‍यधिक मात्रा में स्‍मोग का बनना मानव के लिये घातक सिद्ध होता है। सर्वप्रथम यह 1940 में अमेरिका में प्रयोग में लाया गया। लन्‍दन में सन्‌ 1952 में दिसम्‍बर महीने में पाँच हजार से अधिक लोग मृत्‍यु के गाल में समा गये थे। एक प्रमुख बात यह है कि अधिकतर स्‍मोग शहरी क्षेत्रों में बनता है क्‍योंकि इन स्‍थानों में प्रदूषण अधिक मात्रा में बनता है। स्‍मोग की रोकथाम के सबसे उचित उपाय प्रदूषण पर नियंत्रण है। इसके लिए एल. पी. जी., सी. एन. जी. का प्रयोग। वाहनों में Catalytic Converters का उपयोग करें हो सके तो स्‍वचालित वाहन वाइसिकल का प्रयोग करें।

शहरीकरण (Urbanisation)

गाँवों में दिनों दिन बढ़ रहे अभाव, जीवन की असुरक्षा और संचार तथा यातायात के सीमित साधनों ने वहाँ के लोगों को शहर की ओर मोड़ा है। यही कारण है कि आज शहरों में अत्‍यधिक जनसंख्‍या का दबाव हो गया है। इस अत्‍यधिक आबादी और बढ़ते औद्योगीकरण ने शहरीकरण की समस्‍या उत्‍पन्‍न कर दी है। यहाँ लोगों के बढ़ने से भारी धनत्‍व हो जाने के कारण उचित आवास का अभाव, स्‍वच्‍छ पीने के पानी की कमी, जीवन की अस्‍त व्‍यवस्‍थता, परिवार के लिए समय का अभाव, यातायात की कठिनाई, महंगी जिन्‍दगी, महंगी शिक्षा, महंगा मनोरंजन, महंगी चिकित्‍सा इसके साथ ही जल, वायु, वाहन और ध्‍वनि प्रदूषण से अनेक तरह की बीमारियाँ, असुरक्षित जीवन, जैसी अनेक समस्‍याएँ शहरीकरण के लिए अभिशाप बनते जा रहे हैं। शहरीकरण की यही समस्‍या भीड़ के रूप में एक नया रूप धारण कर लेती है जो सम्‍बन्‍धों में अजनबीपन ला देती है। डॉ. एम. के. गोयल के शब्‍दो में कहे तो भीड़ से लोगों के व्‍यवहार आश्‍चर्यजनक रूप में भावुक, अनसमझपूर्ण, मूर्खतापूर्ण तथा बेवकूफों जैसे हो जाते हैं। सारा सामाजिक वातावरण आवेशपूर्ण और विवेकशून्‍य होने लगता है। आपस में वैमनस्‍यता बढ़ जाती है, बड़े समूह छोटे-छोटे समूहों में बंटकर सदैव के लिए एक दूसरे के दुश्‍मन बन जाते है।''

ओजोन परत के संरक्षण के उपाय

यदि मानव सुखी एवं निरोगी जीवन की ओर लौटना चाहता है तो एक बार पुनः उसे प्रकृति की ओर लौटकर भौतिक सुख सुविधाओं को त्‍यागना या कटौती करनी होगी। मानव को विनम्रता एवं संतोषपूर्ण

-   जीवन के लिए शांति का सहारा लेकर युद्ध को विराम देना होगा जिससे ऐसी स्‍थिति ही न आये कि उसे बमों, परमाणुओं का प्रयोग करना पड़े।

-   वैज्ञानिकों को ऐसे विकल्‍प तलाशने होंगे जो प्रतिस्‍थापी योगिकों का कार्य कर सके।

-   सी. एफ. सी. गैस के विकल्‍प हाइड्रो क्‍लोरो फ्‍लोरो कार्बन, हाइड्रो फ्‍लोरो कार्बन, हाइड्रो कार्बन, अमोनिया का प्रयोग कर इस दिशा में उचित कार्य किये जा सकते हैं।

-   सबसे अहम प्रश्‍न यह है कि ओजोन संरक्षण का प्रश्‍न हमारी विकास प्रक्रिया से जुड़ा होना चाहिए और सबका नैतिक दायित्‍व यह होना चाहिए कि इसके क्षरण को व्‍यक्‍तिगतक्षरण (हानियों) से जोड़ें तभी स्‍वस्‍थ भविष्‍य की कामना की जा सकती है।

उपर्युक्‍त वर्णित गम्‍भीर पर्यावरणीय समस्‍याएँ मानव जाति के स्‍वास्‍थ्‍य व अस्‍तित्‍व के लिए नवीन चुनौतियाँ स्‍थापित करती जा रही हैं और इन सब स्‍थितियों के मूल में पर्यावरणीय समस्‍याओं का एक तत्‍व वायु है जो प्रदूषण को सबसे अधिक फैला रही है क्‍योंकि वर्तमान समय में खनिज तेलों का आवश्‍यकता से अधिक प्रयोग होने से ब्‍व्‍2 गैस की मात्रा बढ़ती जा रही है। अर्थात्‌ तेलों की खपत कम करके ऊर्जा के नवीन संसाधनों को वैकल्‍पिक स्रोत के रूप में प्रयोग करके वायु प्रदूषण के स्‍तर में भारी कमी लाई जा सकती है। इसके साथ-साथ मानव ही दृढ़ इच्‍छा शक्‍ति एवं जीवन शैली में परिवर्तन से बड़ी से बड़ी गम्‍भीर पर्यावरणीय समस्‍याओं को दूर किया जा सकता है।

सम्‍पर्क वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता ः हिन्‍दी विभाग दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (0प्र0)-285001 भारत

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. सुन्दर प्रयास किया है यादव जी ने और आपने इसे फैलाकर और अच्छा किया.धन्यवाद.

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  2. virendra yadav ji ko main unke prayas ke lie badhai dena chahunga.

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुंदर जानकारी आपने दी है

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : प्रमुख गम्भीर पर्यावरणीय समस्याएं – कारण एवं निवारण
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : प्रमुख गम्भीर पर्यावरणीय समस्याएं – कारण एवं निवारण
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