ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (4)

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‘अरे, यह क्‍या हुआ! छींक के साथ बालों की पूरी एक बस्‍ती धराशायी हो चुकी थी. दूसरी छींक आई तो वह दूसरे मुहल्‍ले को ले उड़ी. इसके बाद तो छी...

‘अरे, यह क्‍या हुआ! छींक के साथ बालों की पूरी एक बस्‍ती धराशायी हो चुकी थी. दूसरी छींक आई तो वह दूसरे मुहल्‍ले को ले उड़ी. इसके बाद तो छींकों के आने और केश-कुंजों के उजड़ने का सिलसिला चलता ही गया. मैंने सोचा कि गीले तौलिये से छींक आती है, तो क्‍यों न तौलिये को हटा ही लूं. लेकिन जब तौलिया हटाकर देखा तो बालों के मुहल्‍ले के मुहल्‍ले हवा हो चुके थे. अब तो बिना तौलिया रह पाना संभव ही नहीं था. उधर गर्मी में सूखा तौलिया रखने से सिर तपने लगा था. सो तौलिया फिर से भिगोना पड़ा. शाम को जब मैं घर लौटा तो बालों की तीन-चौथाई फसल तबाह हो चुकी थी.

--- इसी उपन्यास से.

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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पिछले अंक से जारी…

निराली की मां अब भी अपनी गुमटी पर जाती. मां के काम पर निकल जाने के बाद जल्‍दी-जल्‍दी घर का काम समेटती. फिर कबाड़ बीनने का थैला लेकर निकल जाती. दो-ढाई घंटे तक सड़कों और गलियों की खाक छानती. रास्‍ते में ही कबाड़ को बेचकर घर लौटती. घर पहुंचकर जल्‍दी-जल्‍दी चूल्‍हा सुलगाती. फिर छोटी-छोटी रोटियां सेंकती, उसके बाद घर का बाकी काम सहेजती है.

तब तक मां के लिए रोटी पहुंचाने का समय हो जाता. खाना लेकर सड़क पर पहुंचती. रास्‍ते में टोपीलाल उसे मिल जाता था. दोनों साथ-साथ स्‍कूल तक रोटियां पहुंचाने जाते. लौटते समय निराली कुछ देर के लिए टोपीलाल के पास रुकती. दोनों बाकी बच्‍चों के साथ खेलते, गपशप करते. दोपहर बाद घर निराली वापस लौट आती. घर का काम समेटने. अपने धंधे के बारे में निराली ने मां को कुछ नहीं बताया था. और तो और टोपीलाल से भी छिपाकर रखा था. इस डर से कि कहीं वह मां से कह न दे.

लगभग एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद निराली दिखाई पड़ी. तेज कदमों से चलती हुई. टोपीलाल को देखकर उसने मुस्‍कराने का प्रयास किया. वह आगे बढ़कर उसके रास्‍ते में खड़ा हो गया-

‘आज बहुत देर कर दी?'

‘हां, लकड़ियां कुछ गीलीं थीं. खाना बनाने में ज्‍यादा समय लगा.' टोपीलाल को याद आया. बीती रात बूंदा-बांदी हुई थी. टोले में लोग ईंटें खड़ी करके उनके ऊपर पॉलिथीन डाल लेते थे. वह कम पड़े तो सीमेंट के खाली थैले और पुराने कपड़े सर पर छत का काम देते. यह व्‍यवस्‍था बारिश के समय धोखा देने लगती. उस समय लोग निर्माणाधीन बिल्‍डिंग में ही ठिकाना ढूंढते. जगह कम पड़े तो एक ही बरामदे में पचासों भर जाते. गीली लकड़ियां जलते समय धुआं करतीं. मर्द तो घूमने के बहाने बाहर निकल जाते थे. पर औरतों और छोटे बच्‍चों के लिए वे क्षण बहुत ही कष्‍टमय होते. उस समय कभी-कभी तो पूरी रात जागकर काटनी पड़ जाती थी. रात को याने बच्‍चे रो पड़ें तो बाकी पूरी रात बारिश थमने की उम्‍मीद में बितानी पड़ती.

‘मुझसे कह दिया होता, मैं चार रोटियां मां से सिंकवा लेता.' टोपीलाल ने निराली का दुःख बांटना चाहा.

‘कहती कब? बारिश तो रात आई थी. तेरी मम्‍मी तो सवेरे ही काम पर निकल जाती हैं.' कहकर निराली हंसी.

‘हां, मैं भी कभी-कभी एकदम मूर्खों जैसी बात कर देता हूं.' टोपीलाल ने अपना माथा ठोकते हुए कहा.

‘मैं तो रोज ही सुनती हूं.' निराली ने कहा और अपनी बात पर स्‍वयं ही हंस दी, ‘अब रास्‍ता छोड़. मां भूखी होगी.'

टोपीलाल को अपनी भूल का एहसास हुआ. वह साथ-साथ चलने लगा. उसके मन में अजीब-सी हलचल मची थी. चिट्‌ठी के बारे में निराली को बताए या नहीं, वह इसका फैसला कर ही नहीं पा रहा था.

उलझन में निराली भी थी. मित्रता में अधिक से अधिक पारदर्शिता जरूरी है, उसने कहीं सुना था. तभी से उसको लग रहा था कि अपने काम के बारे में टोपीलाल से छिपाकर वह गलती कर रही है,

‘एक बात बताऊं...' रास्‍ता चलते हुए निराली ने कहा, ‘मैंने काम पर जाना शुरू कर दिया है.'

‘सभी को कोई न कोई काम तो करना ही पड़ता है.' टोपीलाल ने कहा. वह अपने ही सोच में डूबा हुआ था.

‘मां बता रही थी कि उसको आजकल मेरी शादी की बड़ी चिंता है.' टोपीलाल की उदासीनता से आहत निराली ने उसको दूसरा झटका देने की कोशिश की.

‘अभी से...!' निराली का यह प्रयास कारगर सिद्ध हुआ. टोपीलाल एकाएक चौंक पड़ा. दिमाग में घूम रही बाकी बातें हवा हो गईं.

‘हम लड़कियों को तो ब्‍याह करना ही पड़ता है. साल दो साल इधर या उधर. मां कह रही थी कि उसका कोई भरोसा नहीं, किसी दिन आंखें मुंद गईं तो...!'

‘तेने कुछ नहीं कहा...मना कर देती!'

‘क्‍यों कर देती मना! मां ठीक ही तो कहती है. सवेरे-सवेरे पीठ पर बोरा डालकर निकलना. दिन-भर गली-मुहल्‍ले के आवारा कुत्तों से उलझना, लोगों की छींटाकशी सहना, भला कौन लड़की चाहेगी. शादी के बाद कम से कम यह तो करना नहीं पड़ेगा.' निराली ने कहा. वह सबकुछ बताया जिसे अभी तक छिपाए थी. टोपीलाल चुप. लगा कि उसका दिमाग घूम रहा हो. आवेश में कहे-सुने का होश ही नहीं रहा-

‘तुम सब पागल हो...एकदम पागल. इतनी कम उम्र में कोई ब्‍याह किया जाता है. मैं लिखूंगा, राष्‍ट्रपति जी को लिखूंगा...!'

टोपीलाल की बात सुनकर निराली हंसने लगी.

‘ये राष्‍ट्रपति कौन हैं?' हंसी थमने के बाद निराली ने पूछा. उसके चेहरे पर मासूमियत थी. टोपीलाल को लगा कि अनायास ही चर्चा उस ओर मुड़ गई है, जिस ओर वह लाना चाहता था. जिसके लिए वह बीती रात से परेशान था. इसलिए अपनी हैरानी जताते बोला-

‘अरे! तू इतनी-सी बात भी नहीं जानती...कभी बड़े पार्क की तरफ नहीं गई?'

‘अक्‍सर जाती रहती हूं...वहां ऐसा क्‍या है?'

‘पार्क में जो मूर्ति लगी है, वह राष्‍ट्रपति जी की ही है. वे खुद राजधानी में रहते हैं. उनके हजारों नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी, मोटर-बंगला हैं.'

‘धत! पागल हुआ है क्‍या! मेरी मां तो बताती है कि मूर्तियां उन्‍हीं की लगाई जाती हैं, जो मर चुके होते हैं.'

‘झूठ, मरे हुओं की मूर्तियां भला कोई क्‍यों लगवाएगा?'

‘उन्‍हें याद रखने के लिए. महान लोगों के प्रति एहसान जताने का दुनिया का यह भी एक तरीका है.' निराली ने ऐसे कहा, मानो लिखा हुआ बांच रही हो.

‘किसने बताया?'

‘मामा ने, वे बापू के साथ रह चुके थे. पिछले ही वर्ष उनकी मृत्‍यु हुई है.'

‘तब तो वे बहुत बड़े आदमी थे.' कहते समय टोपीलाल का ध्‍यान फिर उस पार्क की ओर चला गया.

‘तो पार्क में जिनकी मूर्तियां लगी हैं, वे सभी मर चुके हैं.'

‘मां तो यही कहती है.'

‘क्‍या, राष्‍ट्रपति जी मर चुके हैं?'

टोपीलाल को एक बार फिर झटका लगा. दिमाग एकदम भन्‍ना गया. उल्‍टे-सीधे विचार भरमाने लगे. जैसे-तैसे उसने राष्‍ट्रपति जी को चिट्‌ठी लिखी है, क्‍या वह बेकार ही चली जाएगी. रात-भर उसने जो सपने देखे वह क्‍या यूं ही थे. उसको लगा कि जैसे उसके पैरों की ताकत किसी ने सोख ली हो. उसको खड़ा होना भारी लगने लगा. लगा कि किसी भी समय धरती पर जा गिरेगा.

निराली ने उसको कई बार टोका. माफी मांगी. बार-बार आश्‍वासन दिया कि घर जाते ही मां से कह देगी कि अभी उसकी शादी की जल्‍दी न करें. जब तक वह नहीं चाहेगा, मां से शादी की हामी भरेगी ही नहीं. मगर उसके सभी प्रयास असफल रहे. टोपीलाल की चुप्‍पी कायम रही. उसकी उदासी सलामत रही.

रोटी पहुंचाने के बाद वापसी में भी टोपीलाल का मौन उसके साथ रहा. निराली समझ ही नहीं पाई कि उसको कैसे मनाए. क्‍या करे कि उसका मौन टूटे. और जब वह थक गई तो उसने भी चुप्‍पी साध ली. ठिकाना करीब आते ही टोपीलाल ने मुंह खोला-

‘मैं चलता हूं. अगर तेरी मां तेरे ब्‍याह की जल्‍दी कर रही है, तो इसी में तेरी भलाई है. इन बड़े आदमियों का कोई भरोसा नहीं, कभी भी चल बसते हैं. इनसे कोई उम्‍मीद रखनी ही बेकार है.'

इसके बाद वह बिना कुछ कहे, निराली से अलग हो गया. उसका उत्‍साह मर चुका था.

आने वाली रात टोपीलाल के जीवन की शायद सबसे उदास रात थी. उसका अपना दिमाग कोई भी फैसला करने में असमर्थ था. माथा घूम रहा था. झंझावातों के बीच यदि उम्‍मीद बची रहे तो संकट जल्‍दी टलता है, आने वाला समय अनुकूल हो जाता है.

अगला दिन आया. उदास-उदास. फिर कुछ और दिन बीते. टोपीलाल के मन में कोई उल्‍लास न था. उस दिन हमेशा की तरह मां घर के काम में जुट गई थी. रोटी बनाकर जैसे ही मां और बापू काम पर जाने को तैयार हुए, टोपीलाल उनके पास पहुंच गया-

‘बापू, तुम मुझे काम दिलवाना चाहते थे?'

‘क्‍यों? ऐसी क्‍या जल्‍दी है?' पिता को आश्‍चर्य हुआ, ‘कहीं मां ने डांट तो नहीं दिया. पर वह तो कभी ऐसा नहीं करती.'

‘सभी बच्‍चे काम करते हैं, मुझे भी काम करना चाहिए...' कहते समय टोपीलाल के मन में निराली की छवि कौंध रही थी. कंधे पर थैला लटकाए, गलियों से कबाड़ चुनती, कुत्तों और शैतान बच्‍चों से खुद को बचाती हुई.

‘और तेरी पढ़ाई...तू तो पढ़ना चाहता है न!'

टोपीलाल ने कोई जवाब नहीं दिया. गर्दन झुकाए पांव से जमीन कुरेदता रहा. तब तक मां रोटियां बांध चुकी थी. वह बाहर आई तो टोपीलाल एक तरफ हो गया.

‘काम के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है, अभी तो तेरे खेलने-खाने के दिन हैं.' टोपीलाल न जाने किस सोच में था. अपने स्‍थान पर अटल. तब उसके पिता ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘चिंता मत कर. मैंने मालिक को मजदूर और कारीगर बढ़ाने के लिए राजी कर लिया है. भगवान ने चाहा तो यहां का काम सात-आठ महीने में पूरा हो जाएगा. उसके बाद हम ऐसी जगह काम करेंगे, जहां तेरी पढ़ाई चल सके.'

इस तरह का आश्‍वासन बापू कई बार पीछे भी दे चुके थे. इतनी बार कि टोपीलाल को उनकी बातों पर अविश्‍वास होने लगा था. फिर भी बापू का यह आश्‍वासन उसको भला लगता. इससे एक उम्‍मीद बंधती थी. परंतु उस समय बापू का आश्‍वासन उसकी खास मदद नहीं कर सका.

वह बोझिल कदमों से धीरे-धीरे बाहर आया और बिल्‍डिंग के उस छोर की ओर बढ़ गया, जहां बाकी बच्‍चे उसके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे. वहां पहुंचकर उसने लूडो का खेल निकाला और साथी बच्‍चों के साथ प्रकृति के उस खेल को नए सिरे से समझने की कोशिश करने लगा. उसने खेल में खुद को लगाए रखने का प्रयास किया, लेकिन मन न लगा. अंततः वह उठा और एक साफ स्‍थान देखकर जमीन पर लेट गया.

साथी बच्‍चों को उसका व्‍यवहार अजीब-सा लगा. वे खेल छोड़कर टोपीलाल के पास जमा होने लगे.

‘टोपी भइया आपकी तबियत तो ठीक है.' एक लड़के ने पास आकर पूछा.

‘मेरा भइया जब लेतता है तो मां कहती है कि उसको बुखार है, तोपी भइया को भी बुखार है.' एक और बच्‍चे ने कहा. पल-भर में बच्‍चों के बीच बात फैल गई. उसी समय एक मासूम-सी लड़की आगे आई. उसके हाथ में लाल मिर्चें थीं. बाकी बच्‍चों को पीछे ठेलने का प्रयास करती हुई, वह चिल्‍लाई-

‘हटो-हटो, मेरे पास लाल मिर्च हैं, मेरी मां बुखार होने पर घर में लाल मिर्च का धुआं करती है. उपला लाओ, आग जलाओ...लाल मिर्च का धुआं सूंघते ही बुखार फौरन छू-मंतर हो जाएगा.' बच्‍ची की मासूमियत देख टोपीलाल हंस दिया. कुछ देर के लिए उसका सारा तनाव गायब हो गया. वह बच्‍चों के प्‍यार और उनकी बातों में खो गया. इस बीच वह लड़की आगे आकर टोपीलाल पर झुक गई-

‘चलो हटो, मुझे कुछ नहीं हुआ है.'

‘पर अभी-अभी तो तुम्‍हें बुखार था.' एक बच्‍चा बोला.

‘नहीं, मैं अब बिलकुल ठीक हूं.' टोपीलाल ने बैठने का प्रयास किया.

‘देखा, मिर्च का नाम सुनते ही बुखार दुम दबाकर भाग गया.' हाथ में मिर्च थामे उस लड़की ने कहा.

‘मैं इन ढकोसलों पर विश्‍वास नहीं करता. मां कहती है कि टोने-टोटके बकवास होते हैं.'

‘ठीक होने के बाद सब यही कहते हैं.' लड़की बोली. अभिमान झलकाते हुए. सभी बच्‍चे हंसने लगे. उसके बाद टोपीलाल ने लाख भरोसा दिलाने की कोशिश की कि उसे बुखार वगैरह कुछ भी नहीं था. मगर एक ने भी उसकी बात पर भरोसा नहीं किया. सभी बच्‍चे मानते रहे कि बुखार लाल मिर्च देखकर भागा है.

‘दीदी, लाल मिर्च से बुखार क्‍यों भाग जाता है?' एक बच्‍चे ने आगे आकर पूछा. लड़की इस बारे में अनजान थी. वह बगलें झांकने लगे या कोई बहाना बनाए, उससे पहले ही एक लड़का पीछे से चिल्‍लाया-

‘लाल मिर्च खाकर बुखार का मुंह जल जाता है, उसको पानी तो कोई पिलाता नहीं, इसलिए बेचारा नदी की ओर दौड़ लगा जाता है, क्‍यों टोपीलाल भइया?'

‘यह तो बिन्‍ना की मां ही बता पाएगी.' कहकर टोपीलाल ने उस लड़की की ओर इशारा किया, जो मिर्च लेकर आई थी. वह शरमाकर पीछे हट गई.

‘अब तो आप ठीक हैं, चलिए हमारे साथ खेलिए.' कुछ बच्‍चे घेरा तोड़कर आगे आए. निराली से मिलने का समय हो चुका था. मगर टोपीलाल का जी कहीं जाने का न हुआ. इसलिए वह बच्‍चों के साथ बैठ गया. दिन आहिस्‍ता-आहिस्‍ता बीत रहा था.

तभी बाहर खटका हुआ. टोपीलाल का ध्‍यान उस ओर चला गया. सामने निराली थी. टोपीलाल खेल छोड़कर खड़ा हो गया.

‘कब आई तू?' टोपीलाल ने सवाल दागा. स्‍वर में शिकायत भरी थी. वह जवाब की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि निराली ने उसको चौंका दिया-

‘मैंने कबाड़ बीनना छोड़ दिया है.'

‘कब से?'

‘आज ही से. मैंने मां को अभी मेरी शादी न करने को भी मना लिया है.'

‘तो अब क्‍या करेगी?'

‘तू बता, क्‍या करना चाहिए मुझे?' निराली ने उल्‍टा प्रश्‍न दाग दिया. टोपीलाल उसके लिए तैयार ही नहीं था. वह बगलें झांकने लगा-

‘मैं क्‍या बताऊं? जाकर अपनी मां से पूछ.'

‘मां से पूछूं तो क्‍या वह काम करने देगी. कहेगी कि अगर इतनी ही बड़ी बनती है तो ब्‍याह कर ले.'

‘तो कर ले ब्‍याह, मेरा दिमाग क्‍यों चाटती है!' टोपीलाल गुस्‍साया. परंतु अगले ही पल उसको लगा कि उससे ज्‍यादती हुई है. इतने सारे बच्‍चों के सामने निराली के साथ उसका ऐसा व्‍यवहार ठीक नहीं. मन ही मन पछताता हुआ वह आगे बढ़ गया. निराली पीछे-पीछे चलती गई.

‘तेरी मां को बुढ़ापे में अकेले काम करते देख मुझे अच्‍छा नहीं लगता. तेरी जगह अगर कोई लड़का होता तो उन्‍हें आराम मिलता...' कहकर वह सोचने लगा.

‘तू तो मुझसे भी बड़ा है, क्‍या तू अपनी मां को आराम पहुंचाता है. बल्‍कि तू तो घर का उतना काम भी नहीं करता, जितना कि मैं कर लेती हूं.' निराली के जी में आया कि टोपीलाल को खरा-खरा जवाब दे. किंतु वह उसको नाराज नहीं करना चाहती थी. इसलिए चुप्‍पी साधे रही. कुछ देर पश्‍चात टोपीलाल ने ही पूछा-

‘तूने कभी यह नहीं बताया कि रहती कहां है?'

‘कल्‍लार बस्‍ती में, किराये की झुग्‍गी है. पर तू यह सब जानकर क्‍या करेगा?'

‘कल्‍लार बस्‍ती से तो स्‍कूल बहुत दूर है, तेरी मां को पैदल आने-जाने में घंटों लग जाते होंगे?'

‘क्‍या करें, जाना तो पड़ेगा ही.'

‘अगर तू चाहे तो अपनी मां को लेकर यहां रह सकती है. दिन में मजदूरों और कारीगरों को प्‍यास लगती है. एक जगह पानी भी लेकर बैठ जाएंगी तो मजदूरों की प्‍यास बुझेगी, बदले में मजदूर जो देंगे उससे तुम दोनों का काम चल जाएगा. मजदूर लोगों की अपनी भी छोटी-छोटी जरूरतें होती हैं, पानी न पिलाना चाहें तो उनके हिसाब की छोटी-मोटी चीजें भी रख सकती हैं. कम से कम किराया बचेगा और आने-जाने की परेशानी से भी मुक्‍ति मिल जाएगी.' टोपीलाल को लगा कि उसने बहुत बड़ी सलाह दी है. गुरुता का एहसास उसको देर तक उल्‍लासित करता रहा.

‘तुम्‍हारे टोले के लोग इसके लिए राजी होंगे?' निराली ने शंका प्रकट की.

‘वे मेरे बापू और मां का कहना नहीं टाल सकते. फिर तुम दोनों के आने पर तो उनको आराम ही मिलेगा. जिन चीजों के लिए उन्‍हें दूर जाना पड़ता है, वे उन्‍हीं दामों में बिलकुल करीब मिल जाया करेंगी.'

‘मैं मां से बात करूंगी? वह मान गई तो...' निराली ने आश्‍वासन दिया.

‘अगर मना करें तो कल ही मुझे बताना. मैं उन्‍हें जबरदस्‍ती लिवा लाऊंगा.'

‘तू कौन होता है, मेरी मां के साथ जबरदस्‍ती करने वाला...' निराली ने बनावटी गुस्‍से के साथ कहा. टोपीलाल ऐसी प्रतिक्रिया के लिए तैयार न था. उसको तत्‍काल कोई जवाब न सूझा. कुछ देर तक निराली उसके मुंह की ओर देखती रही। फिर सहसा हंस पड़ी-

‘अरे! तू तो सचमुच बुरा मान गया, मैं तो बस मजाक कर रही थी. अच्‍छा कल मिलेंगे.' कहकर वह उल्‍टे पांव भाग गई. उसकी चाल में उमंग थी. पैरों में तेजी. लंबे बाल हवा में लहरा रहे थे। इतने दिनों बाद पहली बार टोपीलाल उसको खिला-खिला देख रहा था.

जीवन में वही दिन यादगार बनता है, जब कोई नया और भला काम होता है.

अच्‍छा सोच बेहतर परिणाम भी लाता है.

चौथे दिन निराली अपनी मां के साथ टोले का हिस्‍सा बन गईं. टोपीलाल खुश था. उसको अपनी उपलब्‍धि पर गर्व था. निराली की मां ने गुमटी लगाना जारी रखा. पहले वे स्‍कूल के बच्‍चों की जरूरत का सामान रखती थीं, अब मजदूरों के काम आने वाले चीजें बेचने लगीं. टोपीलाल के मजदूरों को पानी पिलाने के सुझाव पर उन्‍होंने ध्‍यान तो दिया, मगर अपनी तरह से. एक मां की तरह टोपीलाल को समझाया भी था-

‘भगवान ने धरती का तीन-चौथाई हिस्‍सा पानी से भरा है। ऐसे में प्‍यासे से पानी की कीमत वसूलना या वैसी उम्‍मीद रखना भयंकर पाप, ई-वर को नाराज करना है.'

यह सोचकर कि टोपीलाल ने सीख गांठ बांध ली है, निराली की मां ने आगे कहा-‘जिंदगी में पुण्‍य कमाने का अवसर तो कभी मिला नहीं, अब पानी से पैसे कमाने का पाप तो मैं हरगिज अपने सिर नहीं लूंगी. पर तेरी बात भी टालूंगी नहीं.'

उसने उसी दिन दो नए घडे़ मंगवा लिए. उन घड़ों में ताजा पानी रखकर अपनी गुमटी के सहारे रखने लगी. बगैर किसी लाभ-कामना के. न चाहते हुए इसका उसे व्‍यावसायिक लाभ भी हुआ. दिन में प्‍यासे मजदूर पानी के बहाने उसके पास आते. उस समय सामने दुकान के रूप में फैली चीजों को देखकर उनका मन मचल उठता. इससे उसकी कमाई बढ़ने लगी. अपने खेल के बीच से फुर्सत निकालकर टोपीलाल निराली की

मां के पास बैठ जाता. दोनों देर तक बातें करते.

वह स्त्री पहले ही कम दयालु न थी. वहां आने के बाद उसकी भलमनसाहत और दयालुता बढ़ती ही जा रही थी. मजदूरों के बच्‍चों से उतना ही प्‍यार करती जितना कि निराली से. उनके लिए टॉफियां, बिस्‍कुट, नान-खटाई वगैरह बांटती ही रहती.

उसके आने से काम पर जाने वाली मजदूर औरतों को भी सहारा मिला था. उनके बच्‍चों को जब भी कोई समस्‍या होती तो वे उसी के पास ले आतीं. उसके लंबे अनुभव का लाभ उठाने. बीमार होते तो वह रोग का उपचार बताती. भूखे होते तो खिला-पिलाकर चुप करने का प्रयास करती. कभी-कभी तो अपनी दुकानदारी का खयाल छोड़कर भी वह उनके बच्‍चों की देखभाल करती.

बिल्‍डिंग की चार मंजिलें तैयार हो चुकी थीं. तीन मंजिलों का निर्माण अभी बाकी था. टोपीलाल और उसके दोस्‍तों की चौकड़ी अब तीसरी मंजिल की छत पर जमती. चारों तरफ से खुली होने के कारण वहां ठंडी हवा बहती. वातावरण ठंडा-सुहावना रहता. वहां खड़ा होने पर शहर का नजारा दूर-दूर तक एकदम साफ नजर आता था.

उस दिन टोपीलाल बच्‍चों के साथ खेल में मग्‍न था. तभी नीचे दो आदमी दिखाई पडे़. उनमें से एक खाकी वर्दी में था. दूसरा सफेद कुर्ता-धोती पहने. धूप से बचने के लिए उसने एक सफेद टोपी अपने सिर पर रखी हुई थी. खाकी वर्दी वाला आदमी टोपीलाल को पहचाना-सा लगा. दोनों को नीचे पूछताछ करते देख टोपीलाल घबराया. उसका दिल जोर से धड़कने लगा.

अगले ही क्षण दोनों को ऊपर आते देखा. न जाने क्‍यों उन अजनबियों को देखकर टोपीलाल की घिग्‍गी बंध गई. मन में डरावने खयाल आने लगे. अजीब-अजीब बातें मन को डराने लगीं. उन्‍हीं से घबराया हुआ वह खुद को छिपाने का प्रयास करने लगा. पचास-साठ मजदूर, कामगारों के रहते खुद को छिपाना आसान नहीं था. फिर भी बदहवास टोपीलाल अपने लिए ठिकाने की खोज करने लगा. उसी समय एक लड़का तेजी से ऊपर आया-

‘टोपीलाल..टोपीलाल...!'

‘क्‍यों चिल्‍ला रहा है?'

‘वे लोग तुझे नीचे बुला रहे हैं.'

‘वे कौन?'

‘मुझे क्‍या मालूम?'

‘किसलिए आए हैं?'

‘नहीं पूछा!'

‘घनचक्‍कर, कम से कम नाम और पता तो पूछा ही होगा?'

‘मुझे नहीं मालूम. बता रहे हैं कि राजधानी से आए हैं.'

‘यह राजधानी क्‍या होती है?' किसी बच्‍चे ने पूछा. किंतु राजधानी का जिक्र छिड़ते ही टोपीलाल को झटका लगा. राष्‍ट्रपति जी के नाम लिखा हुआ पत्र अचानक याद आ गया. याद आया कि उसमें वह नमस्‍कार लिखना तो भूल ही गया था. ऊपर से पत्र बिना डाक टिकट लगाए डाकिया को भी सौंप दिया था. यह आदमी राष्‍ट्रपति जी के यहां से ही आया होगा. पुलिस भी साथ होगी. पहचान के लिए डाकिया साथ है. पर निराली तो बता रही थी कि राष्‍ट्रपति जी मर चुके हैं. चिट्‌ठी तो उन्‍हें मिली ही नहीं होगी...फिर पुलिस के आने का कारण?

टोपीलाल के दिमाग में विचारों का अंधड़ था. डर था और सघन आतंक भी. उसको कुछ सूझ ही नहीं रहा था. वे लोग सीधे ऊपर ही आ रहे थे. इसीलिए खुद को बचाने का कोई अवसर भी नहीं था. टोपीलाल के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. लड़खड़ाते कदमों से वह आने वाले क्षणों की प्रतीक्षा करने लगा.

‘अच्‍छा होता कि मैं मां से किसी तरह भगवान को मनाने का तरीका सीख लेता. इस समय वह काम आता.' भयभीत टोपीलाल के मन में कौंधा. तभी सफेद कपड़ों वाले आदमी को साथ लिए डाकिया छत पर पहुंच गया.

‘वो रहा टोपीलाल!' उनके साथ आ रहे लड़के ने इशारा करके बताया. टोपीलाल की सांस थमने लगी. भय से देह थरथरा उठी. अब छिपने का भी लाभ न था।

‘साहब, यही वह लड़का है, जिसने मेरा मामूली पेन भी अगले दिन लौटा दिया था. मुझे तो आज ही पता चला कि उस पेन को लौटाने के लिए यह यहां से मीलों दूर पैदल चलकर गया था. इतना ईमानदार और भला लड़का मैंने आज तक नहीं देखा.' डाकिया की आवाज टोपीलाल के कानों में पड़ी. दूर होने के कारण वह उसके शब्‍दों को समझने में नाकाम रहा. परंतु उसके चेहरे और हाव-भाव देख उसकी बेचैनी घटने लगी. हालांकि दिल में धुकधुकी अब भी मची हुई थी.

‘मुझे राष्‍ट्रपति जी ने भेजा है.' वह आदमी आगे बढ़ता हुआ बोला. उसके चेहरे पर मुस्‍कान थी, ‘उन्‍हें तुम्‍हीं ने पत्र लिखा था, न!'

‘जी..वो तो बस यूं ही. मैं भूल गया था कि मेरी जेब खाली है. पर आप चिंता मत कीजिए, मां से कहकर मैं डाक टिकट के पैसे दिलवा दूंगा.' टोपीलाल ने किसी तरह कहा.

‘अरे हां, याद आया, तुम्‍हारा वह पत्र बैरंग था...' डाकिया के साथ आया आदमी लगातार मुस्‍करा रहा था.

‘पत्र में मैं नमस्‍ते भी नहीं लिख पाया था. वह मेरा पहला खत था. मेरी मूर्खता थी कि बिना यह जाने कि पत्र कैसे लिखा जाता है, मैंने राष्‍ट्रपति जी को पत्र लिखा. पर पहली बार इतनी चूक तो माफ होनी चाहिए...'

‘चूक कैसी! राष्‍ट्रपति जी तो तुमसे बहुत प्रसन्‍न हैं. वे बच्‍चों से बेहद प्‍यार करते हैं. उन्‍होंने ही मुझे तुम्‍हारे पास भेजा है.'

‘मेरे पास क्‍यों?' टोपीलाल के मुंह से सहसा निकला. उस आदमी की बातों में अजीब-सी कशिश थी. टोपीलाल ने महसूस किया कि वह उसकी ओर खिंचता जा रहा है. लेकिन मन में समाया हुआ डर अब भी उसके सहज होने में बाधक बना था.

‘लोग तो कहते हैं कि राष्‍ट्रपति जी मर चुके हैं.'

‘छिः! वे हमारे महान राष्‍ट्रपति जी हैं. हमारे देश के गौरव, मान-अभिमान सबकुछ.उनके लिए ऐसे कुवचन नहीं बोलते...'

‘फिर वे मूर्तियां जो पार्क में लगी हैं, निराली की मां कहती हैं कि जिनकी वे मूर्तियां हैं, वे सभी मर चुके हैं.'

‘तुम बहुत भोले हो. साथ में गलतफहमी का शिकार भी. राष्‍ट्र की तरह राष्‍ट्रपति भी अमर होते हैं.'

‘फिर वे मूर्तियां?' टोपीलाल का कौतूहल जागा.

‘जो मूर्तियां तुमने देखीं वे उन महान व्‍यक्‍तियों की होंगी, जिनकी इस दुनिया में अब सिर्फ याद ही बाकी है. मुझे तुम्‍हारे पास राष्‍ट्रपति महोदय ने ही भेजा है. अब कुछ दिन मैं तुम्‍हारे साथ ही रहूंगा.'

‘हमारे साथ, कहां?'

‘यहीं इस इमारत में, जहां तुम्‍हारे टोले के दूसरे लोग रहते हैं.'

‘पर मेरी मां तो काम पर जाती है. घर आते-आते बुरी तरह थक जाती है. आपके लिए खाना कौन पकाएगा?' टोपीलाल ने पूछा. वह जानता था कि दिन-भर चिनाई करने वाली मां घर आते-आते बुरी तरह टूट जाती है. ऊपर से घर का काम भी उसको देखना पड़ता है. किसी अजनबी के कारण वह मां पर बोझ नहीं बढ़ाना चाहता था.

‘हम ढेर सारी बातें करेंगे. फिलहाल तो मैं कुछ फल तुम्‍हारे और इन बच्‍चों के लिए लाया हूं. लो अपने हाथों से तुम इन बच्‍चों को बांट दो.' कहते हुए आदमी ने अपनी पोटली खोली. उसमें केले, आम, नींबू आदि तरह-तरह के फल थे. उनमें से कुछ फल निकालकर उसने टोपीलाल की ओर बढ़ाए. मगर टोपीलाल अपने स्‍थान पर अडोल खड़ा रहा.

‘घबराओ मत, मैं यहां किसी पर बोझ बनने नहीं आया हूं. अपना खाना मैं खुद बनाऊंगा. मैं अपना बाकी काम भी खुद ही करूंगा. बापू के साथ रहकर मैंने यही सीखा है कि आदमी को अपना काम स्‍वयं ही करना चाहिए.'

टोपीलाल बापू का नाम पहले भी सुन चुका था. एक बार शहर से गुजरते हुए एक मूर्ति की ओर संकेत करके मां ने बताया भी था कि यह बापू की है. इससे अधिक बापू के बारे उसको कोई जानकारी न थी. जिस दिन मां ने मूर्ति दिखाई थी, उस दिन वह जरूर मां से उनके बारे में पूछना चाहता था. पर किसी तरह बात टल गई. उसके बाद उसको भी याद नहीं रहा.

उस आदमी के जोर देने पर टोपीलाल ने केले ले लिए. उसके हाथ में केले आते

ही बच्‍चे उनपर टूट पड़े. डाकिया जाने लगा तो टोपीलाल ने दौड़कर दो केले उसके हाथों में भी थमा दिए. इसपर डाकिया ने उसकी ओर प्‍यार से देखा-‘मुझे मालूम था कि तू यही करेगा. अच्‍छे बच्‍चे हमेशा खुशियां लुटाते हैं.'

उसी समय टोपीलाल की निगाह निराली पर पड़ी जो दूर खड़ी उसको देख रही थी. बच्‍चों को केले देने के बाद वह निराली के पास पहुंचा-

‘मैं तो दो केले लूंगी?'

‘सभी बच्‍चों को एक-एक मिला है, तुम्‍हें दो क्‍यों दूं?' टोपीलाल ने बरजा.

‘तुमने डाकिया बाबू को भी तो दो केले दिए हैं?'

‘वे बड़े हैं. फिर वे उन केलों को खुद तो खाएंगे नहीं, अपने बच्‍चों को ले जाकर देंगे. अगर मैं एक केला देता और बच्‍चे दो हों तो उनकी मुश्‍किल हो जाती न!'

‘मुझे एक केला अपनी मां के लिए चाहिए.'

‘केले सिर्फ बच्‍चों के लिए हैं...'

‘तुम्‍हें मां के लिए केले क्‍यों चाहिए बेटा?' उनकी बात सुन रहा आदमी निराली के पास जाकर बोला. निराली चुप्‍पी साधे रही.

‘शरमा मत बेटी! मेरा नाम बद्री नारायण है. पर बच्‍चे मुझे बद्री काका ही कहते आए हैं. तुम भी वही कह सकती होे.' बद्री काका ने कहा. उनके स्‍वर में प्‍यार उमड़ता हुआ देख निराली पिघल गई. आंखों में नमी उतरने लगी.

‘मां ने आज सुबह से कुछ भी नहीं खाया. रात से ही उनको बुखार है.' निराली ने बताया.

‘अरे! तो पहले क्‍यों नहीं बताया. बुखार में केले के बजाय सेव ठीक रहता है. जो मेरे पास हैं. लो ये दोनों सेव तुम्‍हीं रख लो.' कहते हुए बद्री काका ने थैले से सेव निकालकर निराली के हाथों में थमा दिए.

‘तुम रहती कहां हो?'

‘वहां, नीचे जमीन पर!' बद्री काका के पूछने पर निराली ने इशारा किया.

‘तो चलो, सबसे पहले तुम्‍हारी मां से ही पहचान कर ली जाए.' बद्री काका ने अपना झोला उठा लिया. वे नीचे की ओर चले तो बच्‍चों का दल भी उनके साथ हो लिया. निराली की मां के पास पहुंचकर बद्री काका ने उनकी कलाई पकड़कर बुखार की जांच की. फिर थैले से निकालकर कुछ गोलियां निराली को थमा दीं, बोले-

‘इनमें से दो गोलियां अभी खिला दो. दो घंटे के बाद दो गोलियां और दे देना. शाम तक बुखार उतर जाएगा.' कहकर बद्री काका ने अपना झोला उठा लिया-

‘अब मैं नहाकर कुछ देर आराम करूंगा. हम लोग शाम को मिलेंगे. तब तक तुम्‍हारा जो भी मन करे कर सकते हो. अरे हां, कोई बच्‍चा मुझे बताएगा कि यहां लोग नहाते कहां हैं?'

बद्री काका के पूछने पर कई लड़के आगे आए. टोपीलाल जान-बूझकर पीछे खड़ा रहा. बद्री काका के निकल जाने के बाद वह निराली के करीब पहुंचा, बोला-‘अम्‍मा को ये गोलियां खाने मत देना.'

‘क्‍यों?' निराली असमंजस में थी.

‘मां, कहती है कि अजनबी से कभी कोई चीज नहीं लेनी चाहिए. क्‍या पता यह आदमी कौन है? कहां से आया है?' टोपीलाल फुसफुसाया. उस समय उसके दिमाग में ढेर सारी कुशंकाएं कौंध रही थीं.

‘उन्‍होंने बताया तो कि राष्‍ट्रपति महोदय ने ही यहां भेजा है.' निराली ने कहा.

‘राष्‍ट्रपति जी यहां क्‍यों भेजेंगे? हो सकता है, यह उनका कोई जासूस हो.'

‘तो हमें क्‍या करना चाहिए?'

‘मां इस समय एकदम सही सलाह देती. लेकिन अवसर ऐसा है कि मैं उससे बात भी नहीं कर सकता.'

‘फिर?'

फिर का उत्तर टोपीलाल के पास भी नहीं था. वह परेशान था. इसलिए भी कि वह स्‍वयं कोई निर्णय नहीं कर पा रहा था. अभी तक उसको अपने दिमाग पर भरोसा रहा था. जरूरत के समय हर बार वह सही फैसला करता आया था. उसके कारण अनेक बार लोगों की प्रशंसा भी बटोरी थी. आज लग रहा था कि उसकी समझ उसको धोखा दे रही है. दिमाग बैठता जा रहा है. कारण उसकी समझ से बाहर था.

दूसरी परेशानी यह थी कि वह अपनी मां से भी मदद नहीं ले पा रहा था. उसको लगता था कि समस्‍याएं उसने खड़ी की हैं, इसलिए उनका निदान भी स्‍वयं उसी को करना होगा. मां और बापू को वह बीच में हरगिज नहीं लाएगा.

नेकी सदैव पुण्‍य-लाभ देती है.

नहाने के बाद बद्री काका जमीन पर चादर बिछाकर लेट गए. करीब एक घंटा आराम करने के वे बाद उठे. शाम हो चुकी थी. मजदूर और कारीगर अपना काम समेटकर वापस लौटने लगे थे. इमारत में जगह-जगह चूल्‍हे जल रहे थे. छौंकने-बघारने की आवाजें आ रही थीं. भूखे बच्‍चे मांओं के आगे बिलख रहे थे. वे उन्‍हें समझा और दुलार रही थीं. बिल्‍डिंग के कोने-कोने में स्‍थित चूल्‍हों से उठता हुआ धुआं उन स्‍थानों पर जीवन की उपस्‍थिति का संदेश दे रहा था.

जागने के बाद बद्री काका बिल्‍डिंग का एक चक्‍कर लगा चुके थे. चारों मंजिलों पर घूमने के बाद वे उस कोने में पहुंचे, जहां बच्‍चे खेल रहे थे. टोपीलाल भी वहीं था. अपनी उलझन से घिरा हुआ, एकाकी. बद्री काका के कंधे पर एक सूती चादर थी. वस्‍त्रा हाथ

से बुने कपड़े के थे.

बच्‍चों के पास बैठकर उन्‍होंने चादर जमीन पर बिछा ली. फिर हाथ फैलाकर, मोहक मुस्‍कान के साथ उन्‍हें आमंत्रित करते हुए बोले-

‘तुम में से कौन-कौन मुझसे दोस्‍ती करना चाहेगा?' यह सुनकर बच्‍चों का खेल से ध्‍यान हट गया. सब चौंककर बद्री काका की ओर देखने लगे.

‘जिन्‍हें मुझसे दोस्‍ती करनी है, वे इस चादर पर आ जाएं.' उन्‍होंने दोहराया. मगर इस बार भी कोई बच्‍चा उस चादर पर नहीं पहुंचा. उन्‍होंने बच्‍चों की ओर देखा. वे अपने स्‍थान पर गुमसुम-से खड़े थे. चेहरे पर डर और आशंका के भाव लिए हुए.

‘कोई बात नहीं, यदि तुम में से कोई भी मुझसे दोस्‍ती नहीं करना चाहता तो तुम्‍हारी मर्जी. पर मैं तो तुम सभी को अपना दोस्‍त मान चुका हूं.'

‘आप यहां किसलिए आए हैं?' एक बच्‍चे ने टोका.

‘आपको हमसे क्‍या काम है?' दूसरे बच्‍चे ने जोड़ा.

‘हम आपको नहीं जानते...बस्‍ती में कोेई भी आपको नहीं जानता।' सवालों की बौछार बढ़ती ही जा रही थी।

‘बताता हूं, बताता हूं.' अगर एक साथ सारे बच्‍चे सवाल करने लग जाएंगे तो मेरी चांद पर बचे-कुचे बाल भी नहीं रहेंगे.

‘कैसे?' बच्‍चों को बद्री काका की बात में मजा आया.

‘सीधा-सादा गणित है भई. तुम्‍हारा एक सवाल अगर मेरा एक बाल भी ले उड़ा तो सुबह तक मैं पूरी तरह गंजा हो जाऊंगा.' इसपर कई बच्‍चे हंस पड़े. बद्री काका को भी भला लगा.

‘आप तो पहले ही गंजे हैं, हमने आपको नहाते हुए देखा था, आपकी चांद पर एक भी बाल नहीं है?'

‘अरे..रे...! तुम सब तो बहुत तेज हो, आते ही मेरी कलई खोल दी.' बद्री काका ने दुःखी होने का नाटक किया, ‘इसकी भी एक दर्द-भरी कहानी है. बताओं कौन-कौन सुनना चाहेगा?

‘मैं...!' कई बच्‍चे एक साथ बोल पड़े। केवल टोपीलाल चुप्‍पी साधे रहा। तिरछी नजरों से उसको देखते, मन ही मन मुस्‍कराते हुए बद्री काका ने कहना आरंभ किया-

‘एक बार हमारे बाल बहुत बढ़ गए. हम नाई के पास उनकी छंटाई कराने पहुंचे. वह अपनी दुकान बंद करने जा रहा था. हमने उससे कहा, ‘भाई, कल हमें दावत में जाना है, जरा बालों की छंटाई तो कर दो.'

‘कल आइएगा श्रीमान. अब तो दुकान बंद करने का समय हो चुका है.' नाई ने जवाब दिया.

‘हमें जल्‍दी है, सुबह मुंह-अंधेरे ही निकलना है. मैं पूरी मजदूरी दूंगा. तुम्‍हारी अपनी

दुकान है, थोड़ी देर बाद बंद कर लेना.' मैंने उसको फुसलाने की कोशिश की. लेकिन वह भी कम नहीं था, बोला-

‘बापू कहते हैं कि हर काम समय पर होना चाहिए. दुकान बंद करने का समय सात बजे का है, मैं एक मिनट भी ऊपर नहीं रुकने वाला.'

बापू समय के पाबंद हैं. यह बात पूरा देश जानता था. इसलिए उससे आगे कुछ कहने का कोई लाभ ही नहीं था.

‘पर मुझे तो मुंह-अंधेरे ही एक जगह जाना है. वहां इस जुल्‍फी स्‍टाइल में तो जा नहीं सकता.' मैंने अपनी समस्‍या रखी. हालांकि मैं यह कतई नहीं चाहता था कि वह मेरे लिए अपना अनुशासन भंग करे.

‘उसका भी इंतजाम है. गर्मी के दिन हैं, आप टोपी की जगह एक खद्‌दर का गीला तौलिया सिर पर रख लीजिए. उससे बाल दबे रहेंगे, किसी को पता भी नहीं चलेगा.'

मरता क्‍या न करता. मैंने अगले दिन खद्‌दर के गीले तौलिये में बालों को लपेटा और चल दिया दावत खाने. घंटे-भर बाद ही जुकाम ने जकड़ लिया. छींकें आने लगीं. पहली छींक आई-‘आ...छी!' और मैं चौंक पड़ा। जी को जोर का धक्‍का लगा।

‘अरे, यह क्‍या हुआ! छींक के साथ बालों की पूरी एक बस्‍ती धराशायी हो चुकी थी. दूसरी छींक आई तो वह दूसरे मुहल्‍ले को ले उड़ी. इसके बाद तो छींकों के आने और केश-कुंजों के उजड़ने का सिलसिला चलता ही गया. मैंने सोचा कि गीले तौलिये से छींक आती है, तो क्‍यों न तौलिये को हटा ही लूं. लेकिन जब तौलिया हटाकर देखा तो बालों के मुहल्‍ले के मुहल्‍ले हवा हो चुके थे. अब तो बिना तौलिया रह पाना संभव ही नहीं था. उधर गर्मी में सूखा तौलिया रखने से सिर तपने लगा था. सो तौलिया फिर से भिगोना पड़ा. शाम को जब मैं घर लौटा तो बालों की तीन-चौथाई फसल तबाह हो चुकी थी.

मैं दौड़ा-दौड़ा फिर नाई के पास पहुंचा. जाते ही उसपर चढ़ गया, ‘तुम्‍हारी बताई गई तरकीब से ही यह हाल हुआ है. अब बताओ तुम्‍हारा क्‍या हाल करूं?'

‘सिर्फ शुक्रिया अदा कीजिए जनाब! हर महीना नाई की दुकान पर आना पड़ता था. कभी दुकान खुली मिलती थी, कभी नहीं. बीस रुपये रिक्‍शे वाले को देते थे, दो-तीन घंटे आने-जाने में खराब हो जाते थे. ऊपर से नाई का मेहनताना. जितनी देर उसके सामने रहो, उतनी देर गलत कैंची चल जाने का डर. मुफ्‍त की सलाह पर सिर्फ एक शुक्रिया के बदले इन सारी परेशानियों से मुक्‍ति मिल रही है. बिना अधेला खर्च किए और क्‍या लेना चाहेंगे जनाब!' कहकर नाई महाशय हंस दिए. मैं और नाराज होऊं उससे पहले ही बोले-

‘आप तो बापू के भक्‍त हैं...'

‘हूं पर इतना भी नहीं कि भक्‍ति के नाम पर गंजा बन जाऊं...' मैंने रोष प्रकट किया. इसपर नाई मुस्‍करा दिया-‘आप तो नाराज हो गए. चलिए छोड़िए, इसी बात पर मैं एक किस्‍सा सुनाता हूं. एक बार बापू को जुकाम हुआ. किसी ने उन्‍हें खद्‌दर का रूमाल

थमा दिया. जुकाम तेज था. रूमाल से रगड़ते-रगड़ते नाक लाल हो गई. शाम को जब घूमने निकले तो एक पत्रकार ने बापू से मजाक करते हुए पूछा-‘बापू, खादी के मोटे रूमाल से अगर नाक को इसी तरह रगड़ते रहे तो यह दो-चार दिनों में गायब हो जाएगी.'

‘तब जानते हैं बापू ने क्‍या कहा? खैर, आपने सुना है तो और यदि नहीं सुना है तो भी, मैं आपको बताए देता हूं. बापू ने उस पत्रकार से हंसते हुए कहा था, ‘अच्‍छा ही है कि गायब हो जाए, आए दिन के जुकाम से छुट्‌टी तो मिलेगी. न बांस रहेगा, न बांसुरी बजेगी.'

किस्‍सा सुनाने के बाद नाई मेरी ओर पलटा, ‘जनाब, आपके तो केवल बालों पर ही बीती, गांधी जी तो रोजमर्रा की मुश्‍किल से बचने के लिए अपनी नाक भी गंवाने को तैयार थे.'

मैं बापू के नाम पर लोगों को उपदेश देता था. नाई ने मेरा हथियार मेरे ही ऊपर तान दिया था. मैं क्‍या करता. चला आया चुपचाप. वह दिन है और आज का दिन. सिर की बगिया से उस दिन जो बहार रूठी, वह आज तक नहीं लौटी. लाख जतन किए, पर यह जंगल कभी आबाद न हो सका.'

बद्री काका ने बात समाप्‍त की तो बच्‍चों के चेहरे खिले हुए थे. कई बच्‍चे उनके करीब खिसक आए थे.

‘अब आप में से कोई है जो इस सदाबहार गंजे को अपना दोस्‍त बनाना चाहेगा?' बद्री काका ने पूछा तो कई बच्‍चे चादर चढ़ गए. वे उन्‍हें चारों ओर से घेरकर बैठ गए. सहसा बद्री काका की निगाह निराली पर पड़ी. वह सबसे पीछे खड़ी थी. उदास और परेशान. बद्री काका को अनायास कुछ याद आया. वे उठकर निराली के पास पहुंचे और उसके सामने घुटनों के बल बैठकर बेहद प्‍यार से पूछा-

‘बेटी, तुम्‍हारी मां का बुखार अब कैसा है?'

जवाब देने के बजाय निराली ने अपनी गर्दन झुका ली.

‘निराली की अम्‍मा बहुत बीमार है?' एक बच्‍चे ने बताया.

यह सुनते ही बद्री काका उठकर खड़े हो गए, ‘मैंने जो गोलियां दी थीं, उनसे बुखार तो उतर जाना चाहिए था. अगर नहीं उतरा तो जरूर कोई वजह है. हो सकता है कि उन्‍हें अस्‍पताल भी ले जाना पड़े. चलो पहले उन्‍हीं को चलकर देखते हैं.'

बाकी बच्‍चे भी बद्री काका के पीछे-पीछे चल पड़े.

निराली की मां जमीन पर चादर बिछाकर लेटी हुई थी. देह बुखार से तप रही थी. हालत दिन की अपेक्षा और भी खराब हो चुकी थी. यह देख बद्री काका के चेहरे पर चिंता की लकीरें बढ़ गईं. उन्‍होंने नाड़ी देखकर बुखार का अनुमान लगाया-

‘बुखार ज्‍यादा है, लेकिन इस हालत में इन्‍हें अस्‍पताल ले जाना भी उचित न होगा. अच्‍छा होगा कि पहले पानी कि पट्‌टी लगाकर तापमान नीचे लाया जाए.'

बद्री काका ने निराली से एक चौड़े बरतन में पानी लाने को कहा. फिर कंधे से अंगोछा उतारा. उसको पानी में भिगोया और निराली की मां के माथे पर रखने लगे. निराली उनके पास ही खड़ी थी. कुछ दूरी पर टोपीलाल था. अपराधबोध से ग्रसित. बाकी बच्‍चे भी वहीं मौजूद थे.

‘बच्‍चो, इनकी फिक्र मत करो. कुछ देर में बुखार उतरने लगेगा. तब तक तुम सब अपने-अपने घर जाओ. हम लोग सुबह मिलेंगे. कुछ नई बातों के साथ.' बद्री काका के कहने पर कुछ बच्‍चे जाने लगे. कुछ वहीं खडे़ रहे. माथे पर पानी की पट्‌टी रखकर बुखार का इलाज करना उनकी निगाह में किसी कौतूहल से कम न था. उनकी माएं बुखार आने पर अक्‍सर पानी से दूर रहने की सलाह दिया करती थीं. उनकी निगाह में बद्री काका अनूठे थे। अनूठा था उनका बुखार के उपचार का तरीका।

लगभग तीस मिनट तक माथे पर गीली पट्‌टी रखने के बाद बुखार कुछ हल्‍का पड़ा. कमजोर शरीर में मामूली हरकत हुई. बद्री काका के चेहरे पर संतोष झलकने लगा. वे उठकर खड़े हो गए, ‘बापू का बताया बुखार के उपचार का यह तरीका एक बार फिर कारगर सिद्ध हुआ. अब कोई चिंता की बात नहीं है. एक घंटे के बाद बुखार एकदम उतर जाएगा. तुम अगर चाहो तो इन्‍हें कुछ दूध पिला सकती हो।'

सहसा उन्‍हें कुछ ध्‍यान तो आया, पूछा-‘बेटी, तुम्‍हारे पास दूध तो होगा?'

निराली गर्दन झुकाए खड़ी रही. कोई जवाब न सूझा.

‘गुरुजी, दूध मैं अपने घर से ले आता हूं.' टोपीलाल ने उत्‍साहित होकर कहा. बिना सहमति की प्रतीक्षा किए वह तुरंत दौड़ भी गया. पांच-छह मिनट बाद लौटा तो उसके हाथों में गिलास था, दूध से भरा हुआ.

‘मां ने कहा है कि कच्‍चा है, उबाल लेना.' टोपीलाल ने दूध से भरा गिलास निराली को थमाते हुए कहा. काफी देर बाद उसके चेहरे पर चमक दिखाई पड़ी थी. मानो किसी तनाव से बाहर निकलने की कोशिश में कामयाबी नजर आई हो.

निराली ने आग जलाकर दूध गर्म किया. तब तक बद्री काका अपने झोले से दो गोलियां और निकाल चुके थे. निराली दूध गर्म करके लाई तो उन्‍होंने वे गोलियां उसकी मां के हाथों में थमा दीं.

‘अब इन्‍हें आराम करने दो. कुछ घंटों के बाद ये बिलकुल ठीक हो जाएंगी.' गोलियां खिलाने के बाद बद्री काका वहां से चल दिए. जाते-जाते जैसे कुछ याद आया हो, वे निराली की ओर मुड़े, ‘मैं बाहर सोने जा रहा हूं. रात में यदि कोई परेशानी दिखे तो फौरन जगा देना.'

निराली और टोपीलाल उन्‍हें छोड़ने बाहर तक आए. बच्‍चे धीरे-धीरे अपने घर जाने लगे थे. भोजन का समय हो चुका था. जगह-जगह चूल्‍हे जल रहे थे. कहीं दाल बघारी जा रही थी तो कहीं पर गर्म रोटियोंं से उठती गंध हवा को महका रही थी। भूख टोपीलाल

को भी सता रही थी. पर वह अपनी ही जगह पर अटल रहा.

‘क्‍या तुम्‍हें भूख नहीं है?' टोपीलाल को अकेला देख बद्री काका ने प्रश्‍न किया.

‘मैं आपसे अपनी एक भूल के लिए माफी चाहता हूं?' टोपीलाल का स्‍वर पछतावे से भरा था.

‘भूल! भला तुमने ऐसा क्‍या कर दिया?' बद्री काका ने टोपीलाल के चेहरे पर नजर जमाते हुए पूछा.

‘आपकी दी गई गोलियां खिलाने को मैंने ही मना किया था, जिसके कारण निराली और उसकी मां के साथ-साथ आपको भी परेशान होना पड़ा.'

‘क्‍या तुम नहीं चाहतेे कि निराली की मां जल्‍दी ठीक हो?'

‘बिलकुल चाहता हूं. परंतु उस समय मुझे आपके ऊपर भरोसा ही नहीं था. मुझे लगा कि आप सरकार के जासूस हैं.'

‘मैंने तो पहले ही बता दिया था कि मुझे राष्‍ट्रपति जी ने तुम्‍हारे पास भेजा है.' बद्री काका ने हैरानी प्रकट की.

‘जी, मुझसे भारी भूल हुई है.'

‘भूल होना तो स्‍वाभाविक है, किंतु आदमी को चाहिए कि वह भूल को अपने स्‍वभाव का हिस्‍सा न बनने दे. जब भी ऐसा होता है, आदमी अपने आप से मुंह चुराने लगता है.और अपने आप से मुंह चुराना, भविष्‍य की ओर से मुंह फेर लेना भी है.'

टोपीलाल की आंखें जमीन में गड़ी थीं.

नकारात्‍मक सोच और अनावश्‍यक डर सबसे पहले अपने ही व्‍यक्‍तित्‍व पर हमला करते हैं. ये आदमी को बहुत पीछे ले जाते हैं, उसके विवेक को खोखला कर देते हैं।

अपनी भूल के लिए तो टोपीलाल ने बद्री काका से माफी मांग ली. उन्‍होंने माफ भी कर दिया था. पर टोपीलाल के मन को चैन कहां. अभी तक वह अपने ऊपर गर्व करता आया था. अपनी बुद्धि पर भी उसको गुमान था. उसी के कारण उसको लोगों की शाबाशी मिलती थी. परंतु अब उसे लग रहा था कि पिछले कुछ दिनों से उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है. सोचने-समझने की शक्‍ति समाप्‍त हो चुकी है. वह सही फैसला कर ही नहीं पाता. आदमी को पहचानने में उससे भूल हो जाती है. ऐसा क्‍यों हुआ? इसका ठीक-ठीक कारण तो वह नहीं जानता. पर कोई भी घटना अकारण तो होती नहीं. टोपीलाल उस कारण को जानना, उसकी तह तक पहुंचना चाहता था. पर व्‍यर्थ, उसका हर प्रयास निष्‍फल था.

कहीं घमंड तो इसकी वजह नहीं है? मां कहती है कि घमंड अच्‍छे-खासे आदमी को गड्‌ढे में ले जाता है. हो सकता है कि खेल-खेल में राष्‍ट्रपति महोदय को पत्र लिखने से

उसके मन में घमंड समा गया हो. ऐसा उसने कई बार सोचा है. हालांकि उस समय ऐसा कुछ नहीं था. बस कागज-कलम सामने देखकर उसने कुछ शब्‍द कागज पर उकेर दिए थे. उनका सही-सही अर्थ भी वह नहीं जानता था. जैसा उस समय मन में आया वही लिख मारा था.

डाकिया की मेहरबानी हुई जो अनजाने में लिखा गया उसका पत्र सही ठिकाने पर जा लगा. तुक्‍का तीर बन गया. ऐसे संयोग को लेकर गुमान कैसा! यह भी संभव है कि अनजाने डर ने उसकी सारी दिमागी ताकत को निचोड़ लिया हो. संभावनाएं तो अनेक हैं, पर असलियत तक पहुंचना...बेहद मुश्‍किल.

इस बीच टोपीलाल ने एक बात और नोट की. पहले जब वह दूसरों के बारे में सोचता, सबके भले की कामना करता, सबसे हिल-मिलकर रहता था-तब उसके दिमाग में नए-नए विचार भी आते. मस्‍तिष्‍क कल्‍पनाओं की उड़ान में रहता था. कोई भी समस्‍या हो, उसका निदान तुरंत सुझा देता. परंतु अब!

कुछ दिनों से तो अनजाना डर उसके दिलो-दिमाग में पैठा हुआ है. हर बच्‍चा उसको अपना प्रतिद्वंद्वी, हर आदमी अपना दुश्‍मन नजर आता है. संदेह मन से दूर ही नहीं होता.

टोपीलाल इस मसले पर मां से बात करना चाहता था. परंतु कई दिनों से वह देख रहा था कि मां और बापू देर तक काम करते हैं. बिल्‍डिंग जल्‍दी पूरी करने के लिए उन्‍हें ओवरटाइम लगाना पड़ता है. मां घर लौटते ही खाना बनाने में जुट जाती है. बापू बाकी कारीगरों के साथ बैठकर अगले दिन के काम की योजना बनाते हैं. जरूरत हो तो मालिक से बातचीत करते हैं. ऐसे में टोपीलाल की हिम्‍मत कहां कि अपनी किसी समस्‍या के लिए मां को परेशान करे! मन हल्‍का करने के लिए उसके पास बैठे, बातचीत करे.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (4)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (4)
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