ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (5)

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‘मुंह में छाला, पेट में छाला.' एक बच्‍चे ने जोड़ा जिसे बद्री काका ने हटा दिया- ‘चल सकता है, पर चलताऊ है. कोई बच्‍चा इससे भी बेहतर...

‘मुंह में छाला, पेट में छाला.' एक बच्‍चे ने जोड़ा जिसे बद्री काका ने हटा दिया-

‘चल सकता है, पर चलताऊ है. कोई बच्‍चा इससे भी बेहतर जोड़कर दिखाएगा?'

‘जमकर खाया पानमसाला, हुआ कैंसर पिटा दिवाला.' इस बार कुक्‍की ने कमाल दिखाया.

‘काले धंधे जैसा काला...' बच्‍चों में कविता गढ़ने की होड़ जैसी मच गई.

‘पानमसाला...पानमसाला.'

‘धोती-कुर्ता सने पीक से...'

‘मुंह में गटर छिपाए लाला.'

‘शाबाश बच्‍चों, तुम लोग तो जीनियस से भी बढ़कर हो.' बद्री काका सचमुच उत्‍साहित थे.

---- इसी उपन्यास से.

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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पिछले अंक से जारी…

 

इन दिनों उसकी अजीब हालत है. हमेशा गुम-सुम बना रहता है. जहां बैठ जाए वहां बैठा ही रह जाता है. दुनिया-जहान की सुध ही नहीं रहती. ऊपर से दिमाग है कि न जाने क्‍या-क्‍या अलाय-बलाय सोचता, अटकलें लगाता है. बेकार की बातें, जिनमें जरा-भी तारतम्‍य नहीं.

इस बीच यदि कुछ अच्‍छा लगता है तो निराली का साथ. टोले के दर्जनों बच्‍चों में वह उसकी सबसे गहरी मित्र है. वही उसको सर्वाधिक पसंद भी है. जब तक निराली साथ रहे, तो उसका मन खिला-खिला रहता है. नहीं तो बुझ-सा जाता है. तभी तो उसने निराली को अपनी मां के साथ टोले में आकर रहने का कहा था. इसके लिए उसको अपनी मां और बापू दोनों ही को मनाना पड़ा था.

जिस दिन निराली और उसकी मां ने बस्‍ती में कदम रखा, उस दिन वह बेहद प्रसन्‍न था. लगता था कि बहुत बड़ी जीत हासिल हुई है। इन दिनों निराली की मां बीमार रहती है. उसको घर का सारा काम करना पड़ता है. टोपीलाल से बातचीत के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाती.

‘क्‍या सोच रहा है, टोपी?' बराबर में लेटी मां ने टोपीलाल को लगातार करवट बदलते देखा तो पूछ लिया. इसपर वह चौंक पड़ा. वह माने हुए था कि मां थकान के कारण नींद में है. पर आवाज से तो लगा कि वह उसकी हर एक सांस, हर एक धड़कन और उसकी हर एक गतिविधि पर नजर जमाए हुए है.

‘कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं!' मां से कभी, कुछ भी न छिपाने वाले टोपीलाल ने झूठ बोला. इसपर मन में कहीं कुछ कचोट भी हुई।

‘लगता है तेरी तबियत ठीक नहीं है. आज शाम ही से देख रही हूं कि तू परेशान है. निराली की मां तो ठीक है न!'

‘हां, बद्री काका ने बुखार की गोलियां दी हैं. कहा है कि सुबह तक पूरी तरह ठीक हो जाएंगी.'

‘निराली बहुत अच्‍छी लड़की है. बेचारी को छोटी-सी उम्र में ही कारण कष्‍ट भोगना पड़ रहा है. लेकिन तू परेशान क्‍यों होता है. सुख-दुःख तो जिंदगी में लगे ही रहते हैं.' मां ने प्‍यार जताया तो टोपीलाल से न रहा गया. उसका मन पसीज गया. मन की गांठे अपने आप खुलने लगीं. फिर तो प्रारंभ से अंत तक की सारी बातें, सभी गांठें उसने एक-एक कर मां के सामने खोलकर रख दीं. मां शांत मन से सुनती रही, गुनती रही. हौले-हौले तसल्‍ली भी देती रही।

टोपीलाल की बात समाप्‍त हुई तब उसने कहा-

‘बेटा, इस दुनिया में बुरे लोग भले ही ज्‍यादा नजर आते हों, पर अच्‍छे लोग भी कम नहीं हैं. ऐसे लोग सिर्फ अपनी आत्‍मा का कहा मानते हैं. कोई और उनके बारे में क्‍या सोचता है, वे इस बात की परवाह ही नहीं करते. इसलिए इस बात की चिंता छोड़ कि तेरी गलती से बद्री काका पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा. वे क्‍या सोचेंगे. बुरा मानेंगे या नादानी समझकर बिसार देंगे. अपना देख, लोगों पर विश्‍वास करना सीख. दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव कर, जैसा तू उनसे अपने साथ चाहता है.'

‘दूसरों के साथ वैसा ही व्‍यवहार करो, जैसा तुम उनसे अपने लिए उम्‍मीद रखते हो.' टोपीलाल को आज एक नया गुरुमंत्र मिला. उसको लगा कि उसकी आंखों के आगे छाया अंधेरा छंट चुका है. भावनाएं गंगाजल-सी प्रवाहमान हैं. मस्‍तिष्‍क पुनः जाग्रत हो चुका है. वह हल्‍का होकर नीलगगन में उड़ान भरने को फिर से तैयार है. भावावेश में वह मां के सीने से लग गया-

‘मां, अगर तुम पढ़-लिख जातीं तो स्‍कूल में जरूर मास्‍टरनी होतीं.'

‘नहीं रे! मैं औरत हूं. पढ़-लिखकर और चाहे जो भी बनती, पर पहले मैं मां ही होती.'

‘सचमुच!' कहते हुए टोपीलाल मां से चिपट गया. रात अपनी पींगे बढ़ाए जा रही थी. नींद का हिंडोला सज चुका था. उसे सपनों की सैर कराने, दूर तारों के उस पार ले

जाने के लिए.

लंबी से लंबी यात्रा का आनंद तभी तक है, जब तक कि पांव जमीन पर होने का एहसास हो.

अगले दिन टोपीलाल की आंखें मां के साथ ही खुल गईं. वह उठ बैठा. मां चूल्‍हा सुलगाने की तैयारी करने लगी. उससे अनुमति लेकर वह अपने तंबुनुमा घर से बाहर निकला. फिर तेज कदमों से चलता हुआ सीधा उस स्‍थान पर पहुंचा, जहां बद्री काका को सोते हुए छोड़ा था. टोले के प्रायः सभी मर्द देर से उठते थे. औरतों को घर का काम निपटाना होता, वे मुंह-अंधेरे काम पर जुट जातीं. इसलिए इतने सवेरे बद्री काका को अपने स्‍थान से गायब देखकर वह हैरान रह गया.

बिल्‍डिंग में ही जीने की ओट में बद्री काका को देख वह उनकी ओर बढ़ गया. वे व्‍यायाम कर रहे थे.

‘तुम! इतने सवेरे, क्‍या रात को नींद नहीं आई?'

‘मैं तो बस आपसे मिलने चला आया...!' टोपीलाल ने उत्तर दिया.

‘ऐसी भी क्‍या जल्‍दी थी?'

‘कल आप बता रहे थे कि आपको राष्‍ट्रपति जी ने भेजा है? तब तो आप हम बच्‍चों को पढ़ाने के लिए आए होंगे?'

‘ठीक समझे.' बद्री काका ने धोती बांधते हुए कहा, ‘मैं बच्‍चों को ही नहीं, बड़ों को भी पढ़ाऊंगा. सुबह की पारी में बच्‍चे और शाम की पारी में बड़े. हर सप्‍ताह में एक दिन बच्‍चों और बड़ों को साथ-साथ बिठाकर टेस्‍ट लिया करूंगा...उसमें जो सबसे ज्‍यादा अंक लाएगा, उसको पुरस्‍कार भी मिलेगा.' बद्री काका ने बताया.

‘हमारे पास तो कॉपी-कलम-पुस्‍तकें कुछ भी नहीं हैं...' टोपीलाल ने अपनी समस्‍या बताई.

‘घबराओ मत, उनका इंतजाम हो जाएगा.'

‘सभी बच्‍चों के लिए...?'

‘हां, सभी बच्‍चों के लिए।'

‘बड़े तो कमाते हैं, न?'

‘उनके लिए भी किताब-कॉपी मुफ्‍त मिला करेंगी.'

‘बड़ों के लिए भी...फिर तो बहुत रुपयों की जरूरत पड़ेगी.'

‘हमारे सिर पर राष्‍ट्रपति जी का आशीर्वाद है. फिर किस बात की चिंता.'

‘राष्‍ट्रपति जी के पास क्‍या इतने रुपये हैं?'

‘राष्‍ट्रपति जी को रुपये-पैसों की जरूरत नहीं पड़ती...उन्‍हें तो काम करने वाले

नागरिकों की जरूरत होती है. ऐसे लोग उनसे प्रेरणा लेकर अपने आप खिंचे चले आते हैं. और जब कारबां बनता है तो बाकी चीजें भी जुट ही जाती हैं.' बद्री काका की बात टोपीलाल के सिर के ऊपर से गुजर गई. वह उनका मुंह देखने लगा-

‘चलो, वहां खुली हवा में बैठकर बात करते हैं, सुबह-सुबह शरीर को ताजी हवा मिले तो देह पूरे दिन खिली-खिली रहती है.' बद्री काका बोले और बिल्‍डिंग के सामने खडे़ अशोक के वृक्ष की ओर बढ़ गए. चलते-चलते टोपीलाल का हाथ न जाने कब उनके हाथों में चला गया, उसको पता ही न चला. टोपीलाल को यह एहसास सुखद लगा. वह देर तक उनके स्‍नेहिल स्‍पर्श को अनुभव करता रहा. बैठने के बाद बद्री काका फिर उसी विषय पर लौट आए-

‘मैं कह रहा था कि काम करने वाले नागरिक राष्‍ट्रपति जी से मिलने अपने आप चले आते हैं. असल बात यह है कि ऊंचे सोच, लंबी देशसेवा तथा सर्वस्‍व समर्पण के बाद ही कोई व्‍यक्‍ति राष्‍ट्रपति के आसन तक पहुंच पाता है. ऐसे महापुरुष का जीवन तो आदर्श की स्‍वयं मिसाल होता है. इसलिए उनका व्‍यक्‍तित्‍व लाखों लोगों को प्रेरणा देता है. उनसे प्रभावित लोग ऐसे कार्यों में खुशी-खुशी योगदान देते हैं. मैं राष्‍ट्रपति जी का बेहद आभारी हूं कि इस काम के लिए उन्‍होंने हमारी संस्‍था को चुना है.'

‘संस्‍था?'

‘संस्‍था माने एक मकसद, एक लक्ष्‍य, एक अभियान और समझो तो एक चुनौती भी, जिसको पूरा करने के लिए मुझ जैसे अनेक लोग, निःस्‍वार्थ-भाव से एकजुट हो जाते हैं. ऐसे लोगों की गिनती करोड़ों में है. वे पूरे देश में फैले हुए हैं.'

‘क्‍या सचमुच राष्‍ट्रपति जी को मेरी बिना टिकट लगी चिट्‌ठी मिली थी?'

‘हां, उस डाकिया की मेहरबानी से. तुम्‍हारी ईमानदारी से प्रभावित होकर उसने तुम्‍हारे पत्र पर अपनी ओर से डाक टिकट चिपका दिए थे. साथ में एक छोटी-सी पर्ची भी लिख छोड़ी थी. तुम्‍हारे पत्र और उस पर्ची की छायाप्रतियां मेरे पास भी हैं. जानते हो उसमें डाकिया ने तुम्‍हारे बारे में क्‍या लिखा है?'

‘मैं भला कैसे जानूंगा?'

‘अभी सुनाता हूं...' कहते हुए बद्री काका ने अपनी जॉकेट की जेब में हाथ डाला. पर्ची निकाली और पढ़ने लगे, ‘‘सुनो, उस भले आदमी ने लिखा है-

‘माननीय राष्‍ट्रपति जी! जिस बच्‍चे ने यह चिट्‌ठी मुझे सौंपी है, वह बहुत ही भोला है. यह भी नहीं जानता कि पत्र को डाक विभाग को सौंपने से पहले उसपर डाक टिकट लगाना आवश्‍यक होता है. पर वह बालक है बहुत ईमानदार. देखने पर यह भी लगता है कि उसके माता-पिता बहुत गरीब हैं. वे मेरे कार्यक्षेत्र के कहीं पास ही मेहनत-मजदूरी करते हैं. लड़के को मैंने कई बार सड़क पर भटकते देखा है. लगता है माता-पिता के काम पर चले जाने के बाद वह वक्‍त बिताने के लिए इधर-उधर निकल जाता है.

बच्‍चा ईमानदार है. एक मामूली कलम को लौटाने के लिए भी वह बहुत दूर चलकर आया था. वह दूसरों के दुःख को समझता है। दिल में परोपकार की भावना है. साथ में पढ़ने की ललक भी. ढंग का मौका मिले तो बहुत आगे तक जा सकता है। ये सब बातें उसके पत्र से जाहिर हो जाएंगी. यदि संभव हो तो उस बच्‍चे की पढ़ने की इच्‍छा पूरी करने के लिए सभी जरूरी उपाय किए जाएं.

महोदय! मैं जानता हूं कि दूसरे का पत्र पढ़ना और उसके साथ अपनी और से कुछ जोड़ना अपराध है. पर मैं भी क्‍या करता! अपनी चिट्‌ठी सौंपने से पहले उस बच्‍चे ने मुझे कुछ भी नहीं बताया था. यहां तक कि अपना नाम भी नहीं. इसलिए बच्‍चे का मकसद समझने के लिए मुझे उसका पत्र पढ़ना पड़ा. मैं उससे बहुत प्रभावित हूं. इसलिए मान्‍यवर के सामने अपनी ओर से कुछ निवेदन करने का साहस जुटा पाया हूं...'

पर्ची पर लिखी इबारत पूरी पढ़ने के बाद बद्री काका ने उसको जेब के हवाले किया. फिर बोले-‘तुम्‍हारी चिट्‌ठी ने राष्‍ट्रपति महोदय को बहुत प्रभावित किया. उन्‍होंने तत्‍काल मुझे याद किया और मुझे यहां पहुंचने की जिम्‍मेदारी सौंप दी. चलते समय राष्‍ट्रपति जी ने जो कहा, वह मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा.'

‘ऐसा क्‍या कहा था उन्‍होंने?' टोपीलाल की जिज्ञासा बढ़ चुकी थी.

‘उन्‍होंने कहा था-वहां टोपीलाल जैसे गुणवान बच्‍चे और भी हो सकते हैं. धूल में छिपे हीरकणों जैसे. उन सभी को खोजकर, उनकी प्रतिभा को निखारने, उन्‍हें एक अच्‍छा नागरिक बनाकर समाज के सामने लाने की जिम्‍मेदारी मैं आपको सौंप रहा हूं. यह एक बड़ा दायित्‍व है. पर मैं जानता हूं कि महात्‍मा गांधी और विनोबा भावे के सान्‍न्‍ध्‍यि में रहकर आपको ऐसे कार्य साधने का अच्‍छा-खासा अभ्‍यास हो चुका है.'

उस दायित्‍व-भार से मैं खुद को धन्‍य समझने लगा था. फिर तो बिना पल गंवाए मैंने अपना झोला उठाया और तुम्‍हारे पास चला आया. राष्‍ट्रपति जी ने मुझसे कहा है कि मैं तुमसे मदद लूं. आगे जिधर भी कदम उठें, उधर हम दोनों साथ-साथ रहें.'

‘मेरी मदद! मैं आपकी भला क्‍या मदद कर सकता हूं?' मनोयोग से बद्री काका की बात सुन रहा टोपीलाल एकाएक चौंक पड़ा.

‘तुम्‍हीं मुझे बताओगे कि यहां कितने बच्‍चे हैं जो पढ़ना चाहते हैं. उन सबको तुम मेरे पास लाओगे. जो बच्‍चे पढ़ने से बचते हैं, उन्‍हें तुम पढ़ाई-लिखाई की आवश्‍यकता के बारे में बताओगे. जरूरत पड़े तो उन्‍हें मेरे पास भी ला सकते हो, ताकि मैं उन्‍हें पढ़ने के लिए तैयार कर सकूं. क्‍या तुम मुझे अपने माता-पिता से नहीं मिलवाओगे?'

‘मां और बापू से भी...?'

‘यह बताने के लिए कि उनका बेटा कितना समझदार है. मैं उनसे यह निवेदन भी करूंगा कि बच्‍चों और बड़ों को शिक्षित बनाना, हम सबकी मिली-जुली जिम्‍मेदारी है. इसलिए वे हमारा साथ दें. टोले के बड़े लोगों को भी अक्षर-ज्ञान के लिए आगे लाएं. तभी मेरे यहां

आने का उद्‌देश्‍य पूरा हो सकता है.'

टोपीलाल को वे सभी बातें एक सपना, हवाई उड़ान जैसी ऊंची कल्‍पनाजन्‍य और अविश्‍वसनीय लग रही थीं. मगर जो था, वह उसकी आंखों के सामने था. जो कहा गया था, उसकी ध्‍वनि उसके कानों में गूंज रही थी.

‘क्‍या निराली भी मेरे साथ पढ़ेगी?'

‘सभी बच्‍चे एकसाथ पढ़ेंगे.'

‘उसकी तो मां बीमार रहती है! वह बेचारी तो आ ही नहीं पाएगी!' कहते-कहते टोपीलाल उदास हो गया.

‘यह चिंता तुम छोड़ दो. निराली की मां की हालत यदि जल्‍द ही न सुधरी तो हम उन्‍हें अस्‍पताल भिजवा देंगे. जहां डॉक्‍टर और नर्स उनकी देखभाल करेंगे. वहां से कुछ ही दिनों में स्‍वस्‍थ्‍य होकर वह घर लौट आएंगी। उसके बाद तो निराली के पास समय ही समय होगा, क्‍यों?'

‘जी!' टोपीलाल बस यही कह सका. उसी समय उसकी मां की आवाज गूंजी. वह तत्‍काल खड़ा हो गया-

‘अरे! बातों-बातों में मैं यह तो भूल ही गया कि मां और बापू के काम पर जाने का समय हो चुका है. दोनों मेरा इंतजार कर रहे होंगे...मैं जल्‍दी ही आऊंगा.'

टोपीलाल ने घर की ओर दौड़ लगा दी. उस दौड़ में आत्‍मविश्‍वास था. मन में थे अनगिनत सपने और आगे बढ़ने का अटूट संकल्‍प. बद्री काका उसको जाते हुए देखते रहे. उसके बाद वेे अपने ठिकाने की ओर बढ़ गए. उस समय उनके चेहरे पर अलौकिक मुस्‍कान थी. दिल में विश्‍वास और चेहरे पर था अभूतपूर्व तेज. खुद पर भरोसा और मन में दूसरों के कल्‍याण की कामना हो तो ऐसा तेज स्‍वतः आभासित होने लगता है.

सच्‍चे कर्मयोगी का जीवन मिश्री का पहाड़ होता है, जो मिठास रखता है, मिठास बांटता है और मिठास जीता भी है.

नेकी हजार फसल देती है। सुंदरता और मिठास दोनों ही मामलों में मिश्री जैसी कोई मिसाल नहीं.

बद्री काका ने टोपीलाल से कहा था, पांच साल से ऊपर के बच्‍चों को बुलाकर लाने को. बस्‍ती में ऐसे बीसियों बच्‍चे थे. उनमें से कुछ से उसकी दोस्‍ती भी थी. बद्री काका के कहने पर एक-एक के पास टोपीलाल पहुंचा. हर एक को बद्री काका के आगमन की खबर दी. उनके आने का उद्‌देश्‍य बताया. कहा भी कि वे उन्‍हें बिना फीस पढ़ना सिखाएंगे. कि आदमी के लिए कितना जरूरी है पढ़ना. इसके लिए उन्‍हें स्‍कूल जाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी. जहां हम हैं, वहीं स्‍कूल बन जाएगा.

और कॉपी-किताब के लिए तो जरा-भी परेशान न हों. माता-पिता को एक पाई भी खर्चने की जरूरत नहीं। बद्री काका ने हर चीज के इंतजाम का आश्‍वासन दिया है. बिलकुल मुफ्‍त. यह कोई छोटी बात नहीं. इसलिए आज शाम को सभी बच्‍चे दो घंटा पहले खेलना छोड़कर, सीधे बद्री काका के पास पहुंचें. उन्‍होंने कहा है कि वे आज ही से पढ़ाई आरंभ करना चाहते हैं.

बच्‍चों ने उसकी बात को सुना. कुछ ने समय पर पहुंच जाने का आश्‍वासन दिया. कुछ ने अच्‍छा कहा। कुछ ऐसे भी थे जिन्‍होंने उसकी जमकर खिल्‍ली उड़ाई. कुछ ने तो पढ़ाई की उपयोगिता पर ही सवाल खड़े कर दिए. टोपीलाल ने सब सुना. मन में उम्‍मीद लिए वह आगे बढ़ता गया.

उस दिन टोपीलाल बच्‍चों के अभिभावकों से भी मिला. बद्री काका एक-एक को समझाने उसके पास गए तो वह उनके साथ रहा. कहा था कि बच्‍चों को पढ़ाएं. कि जरूरी नहीं है मजदूर का बेटा मजदूर, मिस्त्री का बेटा मिस्त्री ही बने. वह व्‍यापारी, अधिकारी, डॉक्‍टर, इंजीनियर या वकील कुछ भी बन सकता है. जो जिम्‍मेदारी उनके माता-पिता उनके लिए नहीं उठा पाए, उसे अब वे अपने बच्‍चों के लिए उठाएं. उन्‍हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्‍साहित करें. उनमें संघर्ष की भावना जगाएं. ताकि पीढ़ियां बदलें, उनके संस्‍कार बदलें और मिल-जुलकर युग में बदलाव लाएं.

दिन बीता, पर कड़वे अनुभव के साथ. टोपीलाल के जीवन का शायद सबसे कड़वा अनुभव. अपने अनपढ़ होने का रोना रोने वाले माता-पिता में से एक ने भी अपने बच्‍चों को बद्री काका के पास जाने की अनुमति नहीं दी. कुछ तो पढ़ाई के नाम से ही जी चुराते दिखे. कुछ ने साफ मना कर दिया. कुछ ने हंसकर टाल दिया. कुछ ने कह दिया कि दूसरों को मनाओ. वे तो तैयार ही हैं. जबकि कुछ ने उसकी खिंचाई करने का प्रयास भी किया-

-पढ़-लिखकर भी क्‍या करेंगे, मेहनत-मजदूरी...दूसरों की गुलामी! वह तो बिना पढ़े करते ही आए हैं.

-पढ़े-लिखे बेरोजगार सड़कों पर चप्‍पल चटकाते घूमते हैं. काम मिल ही नहीं पाता.इससे तो अच्‍छा है कि बेरोजगार बनकर जियो. मजदूर बनकर कमा-खाओ.

-जब पढ़-लिखकर भी पसीना ही बहाना है, तो उसमें अपना समय क्‍यों बरबाद किया जाए.

-पेट तो जमीन से भरता है, आसमान की ओर ताकते रहने से भला किसका गुजारा हुआ है!

-बुजुर्ग कहते आए हैं कि सब्र करो, संतोष धारण करो. उसी का फल मीठा निकलता है.

एक विधवा मजदूरिन के एक ही बेटी थी. मां दिन-भर ईंट और मसाला ढोती. बेटी घर पर अकेली रहती. टोपीलाल उसके पास भी गया. कहा कि अपनी बेटी को पढ़ने के

लिए बद्री काका के पास भेजे. पढ़-लिख जाएगी तो जिंदगी में काम आएगा. मजदूरिन अपना ही दुखड़ा रोने लगी-

‘बेटा, मैं तो चाहती हूं कि वह थोड़ा-बहुत पढ़ ले. लेकिन अगर वह स्‍कूल जाने लगी तो घर का काम कौन निपटाएगा. रोटी-दाल तो चलो मैं ही बना लेती हूं. परंतु झाड़ू-बुहार का काम, बकरी की देखभाल, इतना काम मुझ अकेली से कैसे सधेगा?'

‘कहीं दूर थोड़े ही जाना है. फिर दो घंटे की बात...मैंने कुक्‍की से बात की है. वह कह रही थी कि घर का सारा काम वह इसी तरह करती रहेगी, जैसे कि अब तक करती आई है. आपको जरा-भी परेशानी नहीं होगी.'

‘चलो मान लिया...कुक्‍की मेरी अच्‍छी बेटी है...वह मेहनती भी है. जितना हाथ वह अब तक बंटाती आई, उतना आगे भी बंटाती रहेगी. पर बेटा तुम एक बात नहीं समझते. हर लड़की को एक न एक दिन पराये घर जाना ही पड़ता है. वहां कोई हंसी न उड़ाए, इसलिए उसको घर का काम आना ही चाहिए. उसे सीखने की यही उम्र है. चौके-चूल्‍हे का काम आ जाए तो अपना घर आसानी से संभाल लेगी. वरना ससुराल में सब यही कहेंगे कि बिना बाप की बेटी को मां से कुछ सिखाते न बना.'

‘कुक्‍की यदि पढ़-लिख जाएगी तो घर और भी जिम्‍मेदारी से चला सकेगी.' टोपीलाल ने बात काटी. अपने से बड़ों से वह अधिक बोलता नहीं था. बात पसंद न हो तो सिर्फ चुप्‍पी साध लेता. मगर उस समय कुक्‍की की मां को समझाने के लिए वह एक के बाद एक तर्क दिए जा रहा था. टोपीलाल को विश्‍वास था कि उसका आखिरी तर्क कुक्‍की की मां को अवश्‍य ही निरुत्तर कर देगा. मगर कुक्‍की की मां के तरकश में अब भी कई तीर बाकी थे, जिनकी काट टोपीलाल के पास भी नहीं थी-

‘तू अभी नादान है. नहीं जानता कि बेटी के ब्‍याह के समय मां-बाप को कितनी मुश्‍किलें उठानी पड़ती हैं. कुक्‍की का बाप होता तो मुझे चिंता न होती. वह खुद संभाल लेता. पर अब तो इसके हाथ पीले करने की जिम्‍मेदारी मेरी ही है. लड़की अगर पढ़ी-लिखी हो तो पढ़ा-लिखा लड़का भी तलाशना पड़ता है. उसके लिए ज्‍यादा दहेज भी चाहिए. मैं विधवा मजदूर उतना दहेज कहां से जुटा पाऊंगी.'

टोपीलाल के पास इसका कोई जवाब न था. निरुत्तर हो वह वापस लौट आया. उसके बाद जिसके भी पास वह गया, उसके पास पढ़ाई से बचने के अनगिनत बहाने थे. न था तो सिर्फ पढ़ाई से जुड़ने का इरादा. पढ़-लिखकर कुछ बनने का संकल्‍प. उसके लिए यह हैरान और परेशान करने वाली स्‍थिति थी. उसके अब तक के सोच के एकदम उलट.

हाल के वर्षों में उसने न जाने कितने अरमान अपनी शिक्षा को लेकर पाले थे. न जाने कितनी बार यह सपना देखा था कि एक दिन वह भी स्‍कूल जाने लगेगा. कि वह पढ़-लिखकर एक कामयाब इंसान बनेगा. कि मां और बापू की तरह केवल मजदूरी या मिस्त्रीगीरी ही नहीं अपनाएगा. वे काम करेगा जो पढ़े-लिखे लोग करते हैं. कि बड़ा होकर

मां-बाप दोनों को सुख और सम्‍मान का जीवन दे सकेगा.

जाने क्‍यों, वह सोच बैठा था कि बस्‍ती का प्रत्‍येक बालक खुशी-खुशी पाठशाला जाने की सहमति दे देगा. उनके माता-पिता भी पढ़ने से क्‍यों रोकेंगे? इससे उनको लाभ ही होगा. मगर उस एक दिन में जो कुछ हुआ वह उसके सारे अरमानों पर पानी फेरने को काफी था.

दिन-भर की दौड़-धूप के बाद जब वह बद्री काका के पास पहुंचा तो बेहद थका हुआ था. पसीना उसके माथे पर था. चेहरा लटका हुआ, दिल में उदासी थी, आंखों में निराशा की स्‍याही. अरमान मरे-मरे थे.

‘अच्‍छा हुआ तुम आ गए. मैं पढ़ाई आरंभ करने का सोच ही रहा था. आओ बैठो! आज हम पहला पाठ सीखने की कोशिश करेंगे.' टोपीलाल को अकेला देख अनुभव-पके बद्री काका को और कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी, मानो बिना बताए सबकुछ समझ गए हों. उनके हाथ में पुस्‍तक थी. आंखों पर मोटा चश्‍मा. सामने केवल टोपीलाल था और निराली. इसके बावजूद बद्री काका का पढ़ाने का अंदाज ऐसा था, जैसे पूरी कक्षा को पढ़ा रहे हों-

‘बच्‍चो! मैं पहला पाठ शुरू करूं उससे पहले आपका यह जान लेना जरूरी है कि जीवन में केवल वही लोग तरक्‍की करते हैं, जिन्‍हें समय का सम्‍मान करना आता है, जो उसकी उपयोगिता को महसूस करते हैं. उसके साथ-साथ चलते हैं. समय सुस्‍त लोगों से कन्‍नी काटकर आगे बढ़ जाता है. वह कभी फिसड्‌डी लोगों के फेर में नहीं पड़ता. इसलिए तुम आज यदि कुछ बनने का संकल्‍प लेने जा रहे हो, तो एक संकल्‍प यह भी अवश्‍य लेना कि हम अपना हर काम तय समय पर पूरा करेंगे. हमारे पास जितना समय है, उसके प्रत्‍येक पल का सदुपयोग करेंगे. कभी लापरवाही नहीं करेंगे, न कभी आलस ही दिखाएंगे.'

‘काका, क्‍या यह नहीं हो सकता कि हम कल से पाठ आरंभ करें. मुझे उम्‍मीद है कि कल से कुछ बच्‍चे जरूर आने लगेंगे.' टोपीलाल ने बीच में टोका. इसपर बद्री काका मुस्‍करा दिए.

‘जो बच्‍चे कल आएंगे, उन्‍हें भी हम पढ़ाएंगे. पर आज आए बच्‍चों के लिए जो पाठ जरूरी है, तुम उसी पर ध्‍यान दो.' इसके बाद वे एक घंटे तक पूरे मनोयोग से पढ़ाते रहे. इस बीच प्रश्‍नोत्तर भी चलता रहा. टोपीलाल और निराली ने जो भी जानना चाहा, बद्री काका ने उसका स्‍नेहपूर्वक जवाब दिया. समय कब बीता, उन दोनों को पता भी न चला.

‘बच्‍चो, आज का पाठ हम यहीं पर समाप्‍त करते हैं. कल आप सब इसको दोहरा कर आना.' कहकर बद्री काका ने उस दिन की पढ़ाई का समापन किया. चलने लगे तो उन्‍होंने टोपीलाल और निराली को कुछ पुस्‍तकें, कॉपियां और पेंसिल वगैरह भेंट कीं-

‘इन्‍हें आखिरी मत समझना. होशियार बच्‍चों को इस तरह के उपहार पाने की आदत

डाल लेनी चाहिए.'

टोपीलाल चलने लगा तो बद्री काका ने कंधे पर हाथ रखकर अनुरागमय स्‍वर में कहा-‘किसी अच्‍छे काम की शुरुआत भले ही एक आदमी द्वारा हो, मगर लोग उसके साथ मिलते चले जाते हैं. धीरेे-धीरे पूरा कारवां बन जाता है. जबकि बुरे काम की शुरुआत यदि हजार लोग भी करें तो वह भीड़ एक-एक कर छंटती चली जाती है. अंत में एक या दो बचते हैं, जिन्‍हें समाज अपराधी मानकर धिक्‍कारता, कानून दंडित करता है, समझे!'

‘जी...!'

‘क्‍या?'

‘यही कि महान व्‍यक्‍ति के पीछे पूरा कारवां होता है, जबकि पापी अक्‍सर अकेला पड़ जाता है.'

‘शाबाश! मुझे लगता है कि अब मैं राष्‍ट्रपति जी के विश्‍वास की रक्षा कर सकूंगा।' कहते समय बद्री काका के चेहरे पर चमक आ गई.

‘मेरे तो कुछ भी पल्‍ले नहीं पड़ा...क्‍या कल भी हम दोनों ही होंगे?' घर लौटते समय निराली ने पूछा.

‘संभव है, लेकिन सदा नहीं...' भरे विश्‍वास के साथ टोपीलाल ने कहा, ‘पर हम दोनों तो होंगे ही.'

‘हां.' निराली ने स्‍वीकृति दी. वह जान चुकी थी कि अच्‍छे कार्य के प्रति भरोसा समाज को अच्‍छाई की तरफ ही ले जाता है.

उद्‌देश्‍य की पवित्रता आत्‍मविश्‍वास भी जगाती है.

विकास अपनेे साथ कुछ विकृतियां लाता है. उनसे बचना इंसान के बुद्धि-कौशल की कसौटी बन जाता है और उनपर नजर रखना समय की जरूरत.

एक सप्‍ताह में ही टोपीलाल की उदासी छंट गई. बद्री काका की कोशिशें रंग लाने लगी. दस दिन के भीतर ही खुली पाठशाला मेंं आने वाले बच्‍चों की संख्‍या पंद्रह से ऊपर पहुंच चुकी थी. और तो और कुक्‍की भी पाठशाला आने लगी. उसकी मां खुद उसको पाठशाला छोड़कर गई थी-

‘मेरे बुढ़ापे का बोझ यह बच्‍ची क्‍यों सहे. इसे अब आप ही संभाले गुरु जी!'

बद्री काका सुनकर मुस्‍कुरा दिए थे।

पाठशाला का समय भी तय हो चुका था. बद्री काका सुबह चार बजे जाग जाते. व्‍यायाम के पश्‍चात वे थोड़ा दूध लेते. कुछ समय अध्‍ययन के लिए निकालते. बच्‍चों के आने का समय होता तो ईंटों के चूल्‍हे पर खिचड़ी पकाने के लिए रख देते. आठ बजे तक सभी विद्यार्थी उपस्‍थित हो जाते. जो नहीं आ पाता, उसको बुलाने के लिए वे खुद उसके

घर जाते. सवा आठ बजे पढ़ाई आरंभ हो जाती.

इस बीच उनके सामान में भी वृद्धि हुई थी. लकड़ी की एक बड़ी पेटी मंगवाई गई थी. उसमें बच्‍चों को देने वाली पुस्‍तकें तथा अन्‍य लेखन-सामग्री सुरक्षित रखी जाती. ठीक साढे़ दस बजे मध्‍याह्‌न होता. उससे पहले ही पतीली में गर्मागरम खिचड़ी परोसे जाने का इंतजार करने लगती. अपने विद्यार्थियों के साथ बद्री काका भी उसका सेवन करते. ग्‍यारह बजे पढ़ाई दुबारा आरंभ हो जाती. जो आगे दो घंटों तक चलती. उसके बाद बच्‍चे घर जाते और बद्री काका भोजन करने के लिए बढ़ जाते.

बद्री काका को खुद खाना बनाते देख टोले के लोगों ने ही आग्रह किया था कि उनके लिए खाना बनवा दिया करेंगे. इस प्रस्‍ताव पर बद्री काका एक शर्त पर राजी हुए थे. शर्त के अनुसार जो बच्‍चे बद्री काका के पास पढ़ने आते थे, उनके घर बारी-बारी से आटा और जरूरी सामग्री सवेरे ही पहुंचा आते. दोपहर को वहां से पका-पकाया भोजन प्राप्‍त हो जाता.

पाठशाला में शाम की पारी बड़ों के अक्षर-ज्ञान के लिए निर्धारित थी. शाम के पांच बजे चिनाई का काम बंद हो जाता. एक घंटा लोगों को उनके जरूरी कामों से मुक्‍त होने के लिए मिलता. छह बजे प्रौढ़ पाठशाला आरंभ होती. विद्यार्थी जुटने लगते.

बड़ों की पाठशाला की हालत और भी खराब थी। दो सप्‍ताह बाद भी मुश्‍किल से पांच-छह विद्यार्थी हो पाए थे. बद्री काका इस प्रगति से असंतुष्‍ट थे. परंतु निराश बिलकुल न थे. उनका दिमाग तेजी से सोच रहा था. और तब अपने प्रौढ़ विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए बद्री काका ने एक तरकीब निकाली.

शाम को ठीक छह बजे जैसे ही कुछ विद्यार्थी जमा होते, बद्री काका कोई न कोई किस्‍सा-कहानी छेड़ देते. किस्‍सा सुनाने का उनका ढंग निराला था. सुनाते समय उनके स्‍वर का उतार-चढ़ाव ध्‍वनि को संगीतमय बना देता. उसके आकर्षण से लोग खिंचे चले आते.

कुछ दिन बाद बद्री काका ने अनुभव किया कि उनके प्रौढ़ विद्यार्थियों में भी अच्‍छे-खासे कलाकार छिपे हैं. कोई ढोला सुर से गाता है, तो किसी का गला आल्‍हा पर सधा है. कुछ को दूसरों की हू-ब-हू नकल उतारने में महारत हासिल है. जब वे अपना कार्यक्रम प्रस्‍तुत करते तो बच्‍चे और बड़े हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते थे.

बद्री काका को तोड़ मिल गया. उनकी निराशा छंटने लगी. उन्‍होंने व्‍यवस्‍था में बदलाव किया. पाठशाला की शुरुआत किसी भजन, आल्‍हा या ढोले से होने लगी. जब तक वह समाप्‍त होता, तब तक पचीस-तीस मजदूर जमा हो जाते. एक पूरी कक्षा की उपस्‍थिति. उसके बाद बद्री काका उन्‍हें अक्षर-ज्ञान कराना शुरू करते.

कुछ दिन यह व्‍यवस्‍था कारगर रही. फिर बद्री काका ने अनुभव किया कि कुछ लोग मनोरंजन कार्यक्रम समाप्‍त होते ही उठ जाते हैं. पढ़ाई के काम में रुचि ही नहीं लेते. या मनोरंजन कार्यक्रम को लंबा खींचने का अनुरोध करते रहते हैं. इससे उनका उद्‌देश्‍य पूरा

नहीं हो पाता. अतः मनोरंजन कार्यक्रम के समय में सुधार किया गया. पाठशाला की दैनिक शुरुआत तो उसी से होती. मगर जैसे ही वह अपने शिखर पर पहुंचने को होता, बद्री काका उसको बीच ही मैं रुकवा देते.

‘अब कुछ देर के लिए हम पढ़ाई पर ध्‍यान देंगे. घबराइए मत, यह पढ़ाई भी एक प्रकार का खेल ही है, दिमाग का खेल. अपने दिमाग में कुछ जरूरी चीजें, थोड़ा-सा ज्ञान भर लेने की कसरत. जो वक्‍त पर काम आए. हमारी जिंदगी की राह को आसान करे, हमें समझाए कि हम यदि मनुष्‍य हैं तो इसके क्‍या मायने हैं...'

‘पर महाराज, गीत के दो-चार बोल और सुनने को मिल जाएं तो...गायक ने समां बांध रखा था, वाह!'

‘दो-चार नहीं पूरे आधा घंटे और सुनने को मिलेगा. फरमाइश होगी तो वह भी पूरी की जाएगी. लेकिन फिलहाल पढ़ाई...केवल पढ़ाई.' बद्री काका दृढ़ स्‍वर में कहते और पुस्‍तक निकालकर पढ़ाने को तैयार हो जाते. अनमने भाव से लोगों को भी पढ़ने का नाटक करना पड़ता.

और नाटक भी अकारथ तो जाता नहीं.

उस दिन बद्री काका ने दिनारंभ में पढ़ाई की शुरुआत की तो उनके बाल शिष्‍य उखड़े हुए थे-

‘हम आपसे नहीं पढ़ेंगे...आप पक्षपात करते हैं.' टोपीलाल जो दूसरे विद्यार्थियों का अगुआ बना हुआ था, बोला.

‘आप हमें निरा बच्‍चा समझते हैं...!' कुक्‍की ने भी साथ दिया. बद्री काका ने महसूस किया कि पूरी कक्षा टोपीलाल और कुक्‍की के साथ है. कारण उनकी समझ से परे था-

‘ऐसी क्‍या बात है?'

‘आप ही सोचिए...हम आपसे क्‍यों नाराज हैं?' निराली ने बनावटी गुस्‍से में बोली.

‘बूढ़े आदमी की अक्‍ल तो वैसे ही घास चरने चली जाती है.' बद्री काका ने कुछ ऐसे कहा कि पूरी कक्षा की हंसी छूट गई.

‘आप अपने बड़े विद्यार्थियों को तो खूब कहानी-किस्‍से सुनाते हैं. आल्‍हा और भजन भी होते हैं...पर बच्‍चों के पीछे पड़े रहते हैं कि सिर्फ इन किताबों में सिर खपाते रहो. यह पक्षपात नहीं तो और क्‍या है!' बद्री काका को अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘सचमुच मुझसे भारी भूल हुई है. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. आगे से आपके साथ यह अन्‍याय नहीं होगा, बल्‍कि हम आज ही से...' तभी किसी बच्‍चे के रोने का स्‍वर सुनाई पड़ा. बद्री काका कहते-कहते रुक गए. सबका ध्‍यान उस बच्‍चे की ओर चला गया.

‘अरे! यह तो सदानंद है...' एक बच्‍चे ने पहचाना. साथ ही कक्षा में चुप्‍पी छा गई. बद्री काका पढ़ाना छोड़कर उस बच्‍चे की ओर बढ़ गए.

‘क्‍या हुआ बेटे?' उन्‍होंने सदानंद के सामने बैठ उसके आंसू पौंछते हुए कहा.

‘मैं भी पढ़ना चाहता हूं. लेकिन काका आने से मना करता है. आज मैंने जिद की तो उसने खूब पिटाई की...'

‘क्‍या नाम है तुम्‍हारे पिता का.'

‘जियानंद!' लड़के ने संक्षिप्‍त-सा उत्तर दिया.

‘वे तुम्‍हें रोकते क्‍यों हैं?' सदानंद चुप्‍पी साधे रहा.

‘गुरुजी मैं बताऊं...' टोपीलाल उठकर बोला. बद्री काका ने उसकी ओर देखा. वह बताने लगा-‘सदानंद के पिता अच्‍छे-खासे मिस्त्री हैं. टोले के दूसरे मिस्त्री उनके काम की तारीफ करते थे. लेकिन न जाने कब उन्‍हें शराब की लत गई. उसके बाद से उनका काम से ध्‍यान हटता चला गया. टोले में बदनाम भी होने लगे.

अब तो हालत यह है कि रोज शाम को पीने को न मिले तो वे उखड़ जाते हैं. लेकिन शराब खरीदने के लिए रुपये भी चाहिए. इसलिए शौक को पूरा करने के लिए उन्‍हें चोरी की लत और लग गई. पिछले सप्‍ताह उन्‍हें चिनाई का लोहा कबाड़ी को बेचते हुए पकड़ लिया गया. इसपर मालिक ने उन्‍हें काम पर आने की पाबंदी लगा दी थी.

बापू के कहने पर उन्‍हें काम पर तो रख लिया गया, लेकिन अब उनपर नजर रखी जाती है. उनकी मजदूरी भी उन्‍हें न मिलकर सदानंद की मां को मिलती है. इससे वे चिड़चिड़े हो गए हैं. कल रात शराब के लिए रुपये न देने पर उन्‍होंने सदानंद की अम्‍मा की पिटाई भी की थी.'

‘समझ गया...' टोले के लोगों की शराब की आदत बद्री काका से छिपी न थी. वे चाहते थे उस आदत को छुड़ाना. उसके लिए काम करना. मगर बच्‍चों की पढ़ाई का काम उन्‍हें अधिक महत्त्वपूर्ण लगता था. उसके लिए दूसरे कार्यों को टालते जा रहे थे. अब उन्‍हें लगा कि उस दिशा में भी तत्‍काल कार्य आरंभ करना होगा. नहीं तो बात हाथ से निकल भी सकती है.

‘तो तुम सचमुच पढ़ना चाहते हो बेटे?' उन्‍होंने सदानंद की पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा.

‘हां, पर मैं कुक्‍की के पास ही बैठूंगा.'

‘ठीक है, कुक्‍की तुम्‍हारी खास दोस्‍त है तो हम तुम्‍हें उसी के पास जगह देंगे. लेकिन हमारी भी एक शर्त है. तुम्‍हें यहां रोज आना पड़ेगा?'

‘काका मारेगा तो?'

‘काका को मैं समझा दूंगा. आगे से वे तुम्‍हें कुछ भी नहीं कहेंगे...' बद्री काका ने आश्‍वासन दिया. लड़का शांत हो गया. इसके बाद वे बच्‍चों की ओर मुड़े, जो मनोयोग से उनकी बातें सुन रहे थे-

‘सदानंद आज से ही हमारी कक्षा में बैठेगा और उसको कुक्‍की के बराबर में जगह दी जाएगी, क्‍योंकि कुक्‍की उसकी सबसे अच्‍छी दोस्‍त है, क्‍यों कुक्‍की?' कुक्‍की मुस्‍करा

दी. सदानंद की उदासी भी छंटने लगी. बच्‍चों में थोड़ी खुसर-पुसर हुई. कुछ देर बाद बद्री काका ने आगे का मोर्चा संभाल लिया-

‘बच्‍चो! अपनी किताब, कॉपी बंद कर लो. अब हम एक नया खेल आरंभ करेंगे. इसे कहते हैं, खेल-खेल में कविता बनाना. मैं एक पंक्‍ति दूंगा. उसमें हर बच्‍चा अपनी और से एक पंक्‍ति जोड़ने का प्रयास करेगा. जिसकी पंक्‍ति पसंद की जाएगी, वह कविता में जुड़ती चली जाएगी.

कविता पूरी होने पर हम उन सभी बच्‍चों को पुरस्‍कार देंगे, जिनकी पंक्‍तियों से वह कविता बनी है. बोलो बच्‍चो, क्‍या तुम सब इस खेल के लिए तैयार हो? याद रहे कि सर्जनात्‍मक होना, मनुष्‍यता का अनिवार्य लक्षण है. जो नए ढंग से सोचते हैं, वही नया गढ़ते हैं.'

‘हम सभी तैयार हैं?' बच्‍चों का समवेत स्‍वर गूंजा.

‘पंक्‍तियों को लिखेगा कौन? हाथ उठाकर बताइए!'

‘मैं...!' कई आवाजें एक साथ आईं.

‘कुक्‍की के दोस्‍त ने आज ही से कक्षा में आना शुरू किया है, उसका लेख भी सुंदर है. इसलिए कविता को लिखने की जिम्‍मेदारी कुक्‍की निभाएगी, क्‍यों कुक्‍की?'

‘जी!' कुक्‍की ने कॉपी-कलम संभाली. बच्‍चे सावधान होकर बैठ गए.

सावधान होना, चेतना को जगाना और अपनी बिखरी हुई शक्‍तियों को एकजुट कर लेना है.

प्राणीमात्र के कल्‍याण की इच्‍छा से किए गए सृजन से बड़ी कोई साधना नहीं है.

शहर तरक्‍की पर था. जिन दिनों उस बिल्‍डिंग का निर्माण-कार्य आरंभ हुआ, उन दिनों उसके बराबर में खाली मैदान था. मजदूरों के बच्‍चे वहां खेलते. धमा-चौकड़ी मचाते. लोग अपने मवेशी चराने को ले वहां आते. मगर कुछ महीनों के बाद उसके आसपास के भूखंडों पर निर्माण कार्य होने लगे. मजदूरों और मिस्त्रियों की संख्‍या बढ़ने लगी.

धीरे-धीरे वहां सौ से अधिक परिवारों की अस्‍थाई बस्‍ती बस गई. इतने लोगों को देख छोटे दुकानदार, फेरीवाले उस ओर आने के लिए ललचाने लगे. इस बीच एक चालबाज ठेकेदार ने मैदान के सिरे पर देशी शराब का बेचने का ठेका लेकर वहां दुकान खुलवा दी. जहां गरीब मजदूर अपनी परिश्रम की कमाई का बड़ा हिस्‍सा बरबाद करने लगे.

शराब की दुकान खुलने के बाद आसपास के क्षेत्र में अपराध-दर भी बढ़ी थी. बद्री काका ने पुलिस से शराब के ठेके को वहां से हटवाने का अनुरोध भी किया था. मगर शराब ठेकेदार के ऊंचे संपर्कों के कारण पुलिस उसपर हाथ डालने से कतरा रही थी. तब बद्री काका ने अदालत की शरण ली. मगर कानून की पेचीदगियों का सहारा लेकर ठेकेदार

मुकदमे से बच निकला. दबाव बनाने के लिए अपने पैसे के दम पर उसने कुछ भीमकाय गुंडे भी खरीद लिए, जो उसके इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार होकर जाते थे.

ऐसे में गरीब मजदूरों को शराब के चंगुल से बचाने का एकमात्र रास्‍ता था कि उन्‍हें उससे होने वाले नुकसान के बारे में बताया जाए. उनमें जागरूकता लाई जाए. उन्‍हें बौद्धिक रूप से इतना समर्थ बनाया जाए कि वे अपने भले-बुरे का निर्णय स्‍वयं कर सकें. प्रौढ़ शिक्षा बद्री काका के इसी प्रयास का एक हिस्‍सा थी. पर लोग उसमें उतनी रुचि ही नहीं ले रहे थे.

बद्री काका उनकी मजबूरी भी समझते थे. दिन-भर जी-तोड़ परिश्रम के बाद उन्‍हें आराम की जरूरत पड़ती. इसलिए खाना खाकर वे सीधे चारपाई की ओर बढ़ जाते. ठेकेदार के आदमियों ने मजदूरों के दिमाग में चतुराईपूर्वक यह बात बिठानी शुरू कर दी थी कि शराब का नशा थकान से मुक्‍ति दिलाकर, पल-भर में उन्‍हें फिर तरोताजा कर सकता है। मजदूर भी उनके भुलावे में आते जा रहे थे। बद्री काका जानते थे कि इसे रोकने के लिए बड़े आंदोलन की जरूरत है. साथ में समय की भी. यह किस रूप में संभव हो, वे इसी दिशा में सोच रहे थे.

‘गुरुजी, कविता की पहली पंक्‍ति क्‍या होगी?' बद्री काका को चुप देख, टोपीलाल ने टोका.

‘अरे हां, मैं तो भूल ही गया, तुम बाल-कवियों के लिए कविता की पहली पंक्‍ति तो मुझी को देनी है.' बद्री काका ने कहा, ‘कविता की पहली पंक्‍ति है...' बद्री काका एक पल के लिए रुक गए.

‘क्‍या....?' बच्‍चों का कौतूहल उनका जोश बन गया.

‘कविता की पहली पंक्‍ति है-गुटका खाकर थूकें लाला. अब इस कविता को आप सब मिलकर आगे बढ़ाइए.

बच्‍चे सोचने लगे. आपस में फुसफुसाने की आवाज भी हुई. सहसा टोपीलाल ने जोड़ा-‘मुंह है या कि गंदा नाला.'

‘इतनी जल्‍दी, वाह! तुमने तो सचमुच कमाल कर दिया...अद्‌भुत! अब इससे आगे की पंक्‍ति कौन बनाएगा?' बद्री काका ने हर्षातिरेक में कहा.

‘जमकर खाया पान मसाला-ठीक रहेगी गुरुजी? नए-नए आए लड़के सदानंद ने भी उस खेल में हिस्‍सेदारी निभाते हुए कहा.

‘बिलकुल ठीक...अब बाकी बच्‍चों में से कोई इसको आगे बढ़ाए.'

‘मुंह में छाला, पेट में छाला.' एक बच्‍चे ने जोड़ा जिसे बद्री काका ने हटा दिया-

‘चल सकता है, पर चलताऊ है. कोई बच्‍चा इससे भी बेहतर जोड़कर दिखाएगा?'

‘जमकर खाया पानमसाला, हुआ कैंसर पिटा दिवाला.' इस बार कुक्‍की ने कमाल दिखाया.

‘काले धंधे जैसा काला...' बच्‍चों में कविता गढ़ने की होड़ जैसी मच गई.

‘पानमसाला...पानमसाला.'

‘धोती-कुर्ता सने पीक से...'

‘मुंह में गटर छिपाए लाला.'

‘शाबाश बच्‍चो, तुम लोग तो जीनियस से भी बढ़कर हो.' बद्री काका सचमुच उत्‍साहित थे. कविता गढ़ने का उनका प्रयोग इतना सफल होगा, बच्‍चे उसमें इस उत्‍साह से भाग लेंगे, इसकी उन्‍होंने कल्‍पना भी नहीं की थी.

‘माथा पीट रही लालाइन.'

‘अभी वक्‍त है संभलो लाला.' टोपीलाल की पंक्‍ति को निराली ने पूरा किया.

‘आई अक्‍ल कसम फिर खाई.' बद्री काका ने कविता को समापन की ओर ले जाने के लिए नई पंक्‍ति सुझाई. इसपर कुक्‍की ने झट से जोड़ दिया.

‘अब न छुएंगे पान मसाला.'

‘शाबाश! इसके बाद हम अगली कविता से इस खेल को आगे बढ़ाएंगे. उससे पहले कुक्‍की तुम पूरी कविता को कक्षा को पढ़कर सुनाओे...'

‘जी!' कुक्‍की ने खड़े होते हुए कहा और कॉपी से कविता को सुनाने लगी-

गुटका खाकर थूकें लाला

मुंह है या फिर गंदा नाला

जमकर खाया पान मसाला

हुआ कैंसर पिटा दिवाला

काले धंधे जैसा काला

पानमसाला...पानमसाला

धोती-कुर्ता सने पीक से

मुंह में गटर छिपाए लाला

माथा पीट रही लालाइन.

अभी वक्‍त है संभलो लाला

आई अक्‍ल कसम फिर खाई

अब न छुएंगे पान मसाला.

‘यह पूरी कविता तैयार हुई...अब हम नई कविता पर काम करेंगे. क्‍यों बच्‍चो, तैयार हो.'

‘जी! बच्‍चों ने अपना उत्‍साह दिखाया. सहसा निराली खड़ी होकर एक लड़के की ओर इशारा करते हुए बोली-

‘गुरु जी, मैंने मलूका को कई बार पानमसाला खाते हुए देखा है. यह अपने पिताजी की जेब से पैसे चुराकर पानमसाला खरीदता है.' बद्री काका पहले से ही उस लड़के को बड़े ध्‍यान से देख रहे थे. जिस समय दूसरे बच्‍चे कविता गढ़ने में उत्‍साह दिखा रहे थे, वह

गुमसुम और अपने आप में डूबा हुआ था.

‘क्‍यों मलूका, क्‍या निराली सच कह रही है?'

‘जी!' मलूका अपराधी की भांति सिर झुकाए खड़ा हो गया.

‘तो इस कविता से तुमने कोई सीख ली?'

‘मैं कसम खाता हूं कि आज के बाद गुटका और पानमसाला को हाथ तक नहीं लगाऊंगा.' मलूका ने वचन दिया. उस समय उसके चेहरे पर चमक थी. वह उसके पक्‍के इरादे की ओर संकेत कर रही थी. बद्री काका समेत सभी विद्यार्थियों के चेहरे खिल उठे.

‘गुरु जी, निराली की अम्‍मा पानमसाला बेचती है. टोले के ज्‍यादातर बच्‍चे वहीं से खरीदते हैं.' एक बच्‍चे ने निराली की ओर देखकर शिकायत की.

‘निराली की मां ही क्‍यों, टोले में तो और भी कई दुकानें हैं, जहां पानमसाला और गुटका बेचे जाते हैं.' सदानंद ने निराली को संकट से उबारने के लिए उसका साथ दिया. कुछ पल विचार करने के पश्‍चात बद्री काका ने कहा-

‘जो बच्‍चे गुटका और पानमसाला खाते हैं, वे तो दोषी हैं ही. वे दुकानदार भी कम दोषी नहीं हैं जो मामूली लाभ के लिए उनकी बिक्री करते हैं. दोष उन माता-पिता का भी है जो बच्‍चों को इनसे होने वाले नुकसान की जानकारी नहीं देते या खुद भी इन व्‍यसनों के शिकार हैं.'

‘गुरु जी, मैं अपनी मां से कहूंगी कि गुटका और पानमसाला अपनी दुकान से न बेचें.' निराली ने पूरी कक्षा को आश्‍वासन दिया.

‘जैसे तेरी मां सभी काम तुझसे पूछकर करती है?' एक बच्‍चे ने कटाक्ष किया, निराली सकुचा गई. मगर उसका इरादा और भी दृढ़ हो गया.

‘मां मेरी बात को कभी नहीं टालती. और यह बात तो मैं मनवाकर ही रहूंगी.' निराली ने जोर देकर बोली. उसके स्‍वर की दृढ़ता और आत्‍मविश्‍वास देख सभी दंग रह गए. खासकर टोपीलाल. वह कुछ देर तक निराली पर नजर जमाए रहा. फिर अचानक उसको कुछ याद आया-

‘मगर टोले के बाकी दुकानदारों का क्‍या होगा. उन बड़ों को कैसे रोका जाएगा, जो खुद इन गंदी आदतों के शिकार हैं.'

‘यह एक गंभीर समस्‍या है. इस पर हम आगे विचार करेंगे.' बद्री काका बोले.

‘गुरु जी अगली कविता शुरू करें?' एक लड़के ने कहा. इसपर बद्री काका मुस्‍करा दिए-

‘जरूर! लेकिन अब समय हो चुका है. हम सप्‍ताह में एक दिन बालसभा के लिए तय रखेंगे. अगले सप्‍ताह आज ही के दिन ऐसी ही बालसभा होगी. उसके लिए मैं एक पंक्‍ति दे रहा हूं. उस पंक्‍ति के आधार पर आपको पूरी कविता लिखनी है. जिस विद्यार्थी की कविता उस बालसभा में सबसे अधिक पसंद की जाएगी, उसको पुरस्‍कार मिलेगा.

पंक्‍ति है-

‘जी...!' बच्‍चों का स्‍वर गूंजा.

‘नशा करे दुर्दशा घरों की...!'

‘गुरुजी मैं इसे आगे बढ़ाऊं?' टोपीलाल ने हाथ उठाकर पूछा.

‘अभी नहीं, अगले सप्‍ताह, पूरी कविता सुनाना.' बद्री काका ने आश्‍वासन दिया. इसके बाद छुट्‌टी की घोषणा कर दी गई. जाने से पहले उन्‍होंने सभी बच्‍चों को अपनी ओर से उपहार देकर विदा किया.

मन में कुछ करने का, गढ़ने का उत्‍साह हो तो सृजन व्‍यक्‍ति के चरित्र की विशेषता बन जाता है.

सृजन की मौलिकता अनिवर्चनीय आनंद की सृष्‍टि करती है.

निराली ने उसी रात अपनी मां से गुटका और पानमसाला बेचने को मना कर दिया. मां पहले तो उसकी बात सुनती रही, फिर एकाएक उखड़ गई-

‘मैं अपने सुख के लिए थोड़े ही बेचती हूं. लोग खरीदने आते हैं. ग्राहकों में कुछ बच्‍चे भी होते हैं. मैं न दूं तो वे जिद करते हैं, कुछ के तो मां-बाप भी इसके लिए पैसे देते हैं. उन सबकी खुशी के लिए रखना ही पड़ता है.'

‘खुशी कैसी! इससे तो बच्‍चों का नुकसान ही होता है.' निराली ने तर्क किया.

‘यह तो उनके मां-बाप को समझाना चाहिए!'

‘कल से तुम ऐसे बच्‍चों को मना कर देना.' निराली ने दबाव डाला.

‘मुझे दो पैसे बचते हैं तो क्‍यों छोड़ूं! और जिनको लत है, वे बाज थोड़े ही आएंगे. मैं नहीं रखूंगी तो वे दूसरी दुकान से खरीदेंगे. फिर ये सब चीजें खाने के लिए ही तो उनके मां-बाप उन्‍हें पैसे देते हैं.'

‘कुछ भी हो, आगे से तुम यह पाप अपने सिर पर नहीं लोगी.' निराली आदेशात्‍मक मुद्रा में थी. जैसे किसी बच्‍चे को समझा रही हो. उसकी जिद के आगे मां को अंततः झुकना ही पड़ा. निराली को लगा कि अब वह कक्षा में सिर उठाकर प्रवेश कर सकेगी.

टोपीलाल समेत सभी बच्‍चों को प्रतीक्षा थी कि सप्‍ताह जल्‍दी पूरा हो. बालसभा का दिन आए. उन्‍हें लगता था कि उस दिन सबकुछ उलट-पलट जाता है. गुरुजी, गुरुजी नहीं रहते. न उस दिन उनका कहा हुआ सर्वोपरि होता है. बालसभा में तो जो भी नया कर दे, गढ़ दे वही महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है. गुरु जी समेत सब उसकी तारीफ करने लग जाते हैं.

टोले में उस बालसभा की चर्चा हर बच्‍चे ने अपनी तरह से, अपनी जुबान में की. जिसका उन बच्‍चों पर गहरा असर पड़ा जो अभी तक पाठशाला जाने से बच रहे थे.

परिणाम यह हुआ कि अगले दिन से ही पाठशाला में नए विद्यार्थियों का आना आरंभ हो गया. बच्‍चों के माता-पिता पर भी असर पड़ा. वे खुद अपने बच्‍चों को लेकर बद्री काका के पास आने लगे-

‘गुरु जी, हमारी जिंदगी तो जैसे-तैसे कट गई. अब इस बच्‍चे का जीवन आपके हाथों में है. इसको संवारने की जिम्‍मेदारी अब आपकी है.'

‘लेकिन इसके लिए पुस्‍तकें, कॉपी, कलम, बस्‍ता...आप देख ही रहे हैं कि मैं तो अधनंग फकीर हूं. मेरे पास आमदनी का कोई साधन तो है नहीं.' बद्री काका मुस्‍कराकर कहते. उस समय उनका मुख्‍य ध्‍येय होता बच्‍चे के माता-पिता को आजमाना, उसकी शिक्षा के प्रति गंभीरता को परखना. एक बालसभा इतनी असरकारक हो सकती है, इसकी उन्‍होंने कल्‍पना भी नहीं की थी. उसकी सफलता ने उन्‍हें उन सब विचारों पर अमल करने का अवसर दिया था, जिनके बारे में वे अभी तक सिर्फ सोचते ही आए थे.

‘मेरे बच्‍चे के लिए कॉपी, कलम और किताबों के ऊपर जो खर्च होगा, उसको मैं खुद उठाऊंगा.' बच्‍चे का पिता कहता.

‘हम दोनों मेहनत-मजदूरी करेंगे, लेकिन इसकी पढ़ाई में हीला न आने देंगे. आपकी फीस भी हम हर महीने भिजवाते रहेंगे.' बच्‍चे की मां यदि साथ होती तो कुछ ऐसा ही आश्‍वासन देती.

‘भिजवाना कैसा, मैं खुद देकर जाऊंगा...!' बच्‍चे का पिता बीच में ही टोक देता.

‘फीस इतनी आवश्‍यक नहीं है. अपनी ऋद्धा से पाठशाला के नाम जो भी तुम देना चाहो, उससे हमारा काम चल जाएगा. नकद न हो तो दाल-चावल, नमक-आटा कुछ भी, जो बच्‍चों के नाश्‍ते के काम आ सके.'

जिस संस्‍था की ओर से बद्री काका काम कर रहे थे, उसके पास ऐसे कार्यक्रमों के लिए धन की पर्याप्‍त व्‍यवस्‍था थी. फिर भी यह मानते हुए कि मुफ्‍त में प्राप्‍त वस्‍तु अक्‍सर उपेक्षित मान ली जाती है, बद्री काका चाहते थे कि बच्‍चों के माता-पिता उनकी शिक्षा के लिए कुछ न कुछ अवश्‍य खर्च करें. जिससे शिक्षा के प्रति उनकी गंभीरता बनी रहे. संस्‍था पर कम से कम आर्थिक बोझ पड़े. लोग स्‍वावलंबी बनें. इसलिए सप्‍ताह या महीने के बाद उनकी पाठशाला में पढ़ने वाले बच्‍चों के अभिभावक जो भी चीज लाते उसको वह खुशी-खुशी रख लेते थे.

भेंट में मिली हर वस्‍तु का रिकार्ड रखा जाता. इसके लिए बद्री काका ने टोपीलाल को एक कॉपी दी हुई थी. जिसमें वस्‍तु का नाम और उसकी मात्रा को चढ़ दिया जाता. उस कॉपी में निकाली गई मात्रा भी दर्ज की जाती, उसे हर सप्‍ताह प्रौढ़ शिक्षा में आए अभिभावकों के सामने प्रस्‍तुत किया जाता था.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (5)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (5)
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