हरि भटनागर की कहानी : माई

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यह कहानी पाँचोपीरन गाँव के एक महरा की है। पता नहीं क्यों पाँचोपीरन गाँव का नाम ज़बान पर आते ही महरा की याद हो आती है। महरा यही कोई चार फ...

यह कहानी पाँचोपीरन गाँव के एक महरा की है। पता नहीं क्यों पाँचोपीरन गाँव का नाम ज़बान पर आते ही महरा की याद हो आती है।

महरा यही कोई चार फुट का निहायत ही काला, उस पर चेचक का मारा था। चेचक ने उसकी एक आँख छीन ली थी, दूसरी आँख थी लेकिन ऐसी दिखती जैसे गंदुमी काँच जमा दिया गया हो। नाक चपटी थी और भौंह और बरौनियाँ ग़ायब थीं। सिर पर वह हमेशा गमछा बाँधे रखता।

जैसे कि कहा गया है कि वह महरा है, पेट के लिए वह बस स्टैण्ड की दूकानों में पानी भरता है। सुबह से शाम तक वह, काँधे पर बहँगी टाँगे, पानी के कनस्तरों को हाथों से सम्हालता, ‘बच के बाबू’ की हाँक लगाता, नंगे पाँव बगटुट कुएँ से दूकानों के बीच, सरकता दीखता। बहँगी लचकती तो उसका शरीर आबनूस के लट्ठे-सा, पसीने से चमकता, उस लचक की लय के साथ ताल भिड़ाता। बिना बाँह की बनियान वह पहनता जिसे बत्ती की मानिंद तहा के छाती पर चढ़ा लेता। चारखाने की ढीली-ढाली जाँघिया उसके घुटनों तक होती, लगता बरमुड्डा पहने हो।

प्रकृति में बदलाव सहज संभव है, लेकिन महरा के काम में कभी कोई बदलाव नहीं देखा गया। कैसी भी ठण्ड, तपिश और बारिश हो, वह कभी पीछे नहीं हटा। अपनी धज से उसने प्रकृति को हमेशा चुनौती दी।

लेकिन यही महरा आज उदास है और अपनी झोपड़ी में ग़मगीन पड़ा, कोई काम नहीं कर रहा है। सिसकता है, रोता है।

महरा की उदासी की एक छोटी-सी कहानी है।

बात यह है कि महरा की अस्सी साल की बूढ़ी माँ थी। महरा माँ को बेहद चाहता था। उसकी चाहत का यह आलम था कि उसने उसकी ख़ातिर शादी नहीं की। उसका मानना था कि कहीं घरवाली माँ को ईजा न दे, तंग न करे। माँ को कोई तंग करे - उसके लिए यह मर-मिटने वाली बात थी। माँ ने हज़ारों बार उससे अरदास की, विनती की कि वह शादी कर ले, नाती-पोतों को देखकर वह मरना चाहती है लेकिन उसने माँ की एक न मानी और कुँआरा ही रहा आया।

जिस लगन से वह काम करता, उसी लगन से माँ को चाहता भी था। माँ उसे सरवन कहकर पुकारती जबकि उसका नाम अच्छे था। माँ कहती - तू असली सरवन है, अवतार! भगवान सरवन तो माँ-बाप की सेवा से चूक गया था, तू उससे हज़ार क़दम बेसी है, आगे है, लाल!

सरवन माँ के लिए मौसम का सबसे मीठा फल लाकर देता। आम, अमरूद, जामुन, खरबूजा, तरबूज, पपीता, जंगल जलेबी को वह चख के और टो-टो के लाता।

माँ उसके इस प्यार में बावली थी और सरवन को गाँव भर में बखानती फिरती।

कोई ऐसा दिन न गया जब उसने माँ का सिर या हाथ-पैर न टीपा हो। उसकी धोती फीचना और खाना बनाना सामान्य काम थे।

अतिशय प्यार के चलते माँ ने एक दिन सरवन से दबे स्वर में आँचल फैलाकर कहा - सरवन, तूने जो मेरी सेवा की है, भगवान साक्षी है! बस जिनगी में एक ही इच्छा है, अगर उसे तू पूरा कर दे तो मैं आराम से मरूँगी।

सरवन ने भाव विह्वल होते हुए कहा - माई, तू ऐसा क्यूँ बोलती है, तू क्या चाहती है? बोल तो सही। सरवन जान देकर भी तेरी इच्छा पूरी करेगा!

बूढ़ी बोली - बेटा, पचास साल पहले, तेरा बाप मुझे परयाग कुंभ में स्नान के लिए ले गया था, तब मैंने गंगा मैया से तुझे माँगा था, और गंगा मैया ने तुझे हमें दिया। अब मैं तेरी सलामती की मन्नत माँगना चाहती हूँ ताकि मेरे बाद तू और भी फूले-फले।

- माई, इसकी क्या ज़रूरत है? मुझे तो सिरफ तेरा आशीर्वाद चाहिए। किसी और के आशीर्वाद की ज़रूरत ही नहीं मुझे!!!

- बेटा, ऐसा न बोल! भगवान के आगे हम सब मट्टी-कूड़ा हैं लाल! लेकिन बेटा, मैंने गंगा मैया को कौल दिया था कि पचास साल बाद पड़ने वाले कुंभ में, मैं बेटे को लेकर ज़रूर आऊँगी! मैं दरसन के लिए जाना चाहती हूँ। तू नहीं ले चलेगा क्या?

- क्यूँ नहीं ले चलूँगा, तेरी ख़ातिर तो मैं कुछ भी कर डालूँ - सरवन ने प्यार में भर कर माँ को गले लगा लिया - ऐसे कैसे मान लिया कि मैं नहकार दूँगा।

फिर क्या था, अगले हफ़्ते, जब पूरा गाँव कोहरे में डूबा था, कड़ाके की सर्दी थी, सरवन, मुँहअँधेरे माँ के साथ प्रयाग कुंभ स्नान के लिए निकला।

सबसे बड़ी बात यह थी कि जिस तरह भारी भीड़ के बीच सरवन का बाप उसे रेलगाड़ी के डिब्बे के ऊपर बैठा के ले गया था, इस वक्त उसका बेटा उसे उसी तरह बैठा के ले जा रहा था। उस वक्त वह मरद का हाथ पकड़े थी, आज बेटे का। मरद गबरू जवान था। सिर पर लाल गमछा कसे था और कमर में मज़बूत फेंटा। पाँव में चमरौधा था, हाथ में तेल पिया लट्ठ! सरवन भी तकरीबन उसी धज में था। पता नहीं क्यों बूढ़ी को लगा कि वह सरवन के साथ नहीं, मरद के साथ स्नान के लिए जा रही है!

सूरज जब मीठी और अलसाई धूप फेंक रहा था, उस वक़्त रेलगाड़ी भारी शोर के बीच घड़घड़ाती हुई प्रयाग का विशाल पुल पार कर रही थी, थोड़ी देर बाद भारी जन सैलाब के बीच बूढ़ी ने गंगा मैया के दर्शन किए और सरवन के साथ कमर तक डूबे जल में सूरज भगवान को अर्ध्य दे रही थी...

आस-पास लाखों-करोड़ों की तादाद में लोगों का समुद्र लहरा रहा था। रेलवे स्टेशन से संगम तक दोनों कैसे पहुँचे - यह पता न चला। बस वे चलते गये और भारी भीड़ ने धक्कों के सहारे उन्हें गंतव्य तक ला पटका। बूढ़ी को लग रहा था कि यहीं पिस के परान न निकल जाएँ।

एक पल में वह संगम पर जिन लोगों को देख पाई वे बूढ़े-जवान, औरत-मर्द, चड्डी-जांघिया-धोती लपेटे पानी में छिपाके लगा रहे थे। नग्न-अर्धनग्न साधू-संन्यासियों का अंतहीन जत्था हाथियों पर सवार और पैदल अपने-अपने भगवानों-त्रिशूलों और बड़े-बड़े झण्डों के साथ जय-जयकारों में डूबा था। कहीं शंख बज रहे तो कहीं घड़ियाल, ड्रम, तासे और ढोल। सारा जनसमूह तालियाँ बजाता भगवान के जयकारे में मगन आँधी की तरह भागा चला जाता था। पुलिस का कड़ा इंतज़ाम था और उसकी निगरानी में स्नान चल रहा था। सैकड़ों लाउड-स्पीकर क्या चीख रहे थे - शोर-गुल में कुछ समझ न आता था।

अर्ध्य के बाद जब बूढ़ी और सरवन ने आँखें खोलीं, बस यहीं, इसी क्षण अनर्थ हुआ था।

सरवन को याद है जब माँ अपनी सूखी हँड़ीली अंजुरी जोड़े सूरज भगवान के सामने सिर झुका रही थी, उस वक़्त वह भी माँ के बग़ल खड़ा था, सूरज भगवान को आँखें बंद कर जल चढ़ा रहा था कि ज़ोरों का शोर हुआ। इतनी ज़ोरों का शोर कि कान के परदे फट जाएँ कि बस उसे कुछ पता नहीं कि आगे क्या हुआ। वह संगम किनारे रेत पर पड़ा था, बेहोश! बेहोशी टूटी तो देखा वह अकेला है, माँ कहीं नहीं! सैकड़ों लोग चीख-चिल्ला, रो-पीट रहे हैं। सब अपने-अपने स्वजन के लिए हैरान-परेशान थे। वह भी माई माई की ज़ोरदार आवाज़ लगाने लगा।

माई उससे बिछुड़ गई थी और वह बिना एक पल रुके, चीखता-चिल्लाता, रोता, छाती पीटता माँ को खोज रहा था। तीन-चार दिन में ऐसी कोई जगह न थी जहाँ वह गया न हो - लेकिन बेकार। माँ उससे बिछुड़ी तो बिछुड़ ही गई।

एक हफ़्ते बाद वह बेचारा रोता-पीटता गाँव लौटा तो गाँव के लोगों ने सांत्वना में उसे घेर लिया। किसी ने उसे रोटी दी तो किसी ने पानी।

लेकिन सरवन को रोटी-पानी नहीं, माई चाहिए थी।

दो-तीन दिन तक वह बेजान-सा निढाल पड़ा माई-माई कर सिसकता रहा।

चौथे दिन सबेरे जब वह पल भर को झपका, उसकी नींद उचट गई, उसे जांत चलने की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसे लगा, माई है जो जांत चला रही है! वह झटपट उठ बैठा, बाहर की तरफ़ दौड़ा, देखा तो कहीं माई न थी। सत्तू घोसी था जो दूध दुधता हुआ अपनी घरवाली से कह रहा था कि माई अब कहाँ मिलने वाली है, गंगा मैया ने उसकी सुन ली, तभी तो वह असनान को गई थी...

- हम भी तो यही कहते हैं, लेकिन सरवन माने तो सही, पागलों की घाईं हरकत करता है... सत्तू की घरवाली गोबर काँछते हुए बोली - हम तो कहते हैं, वह सरग गई... इसका ग़म नहीं, ख़ुशी होनी चाहिए।

सरवन दोनों की बातों पर बुरा-सा मुँह बनाता, सुग्गे के पास आया और सुग्गे से पूछा - माई कहाँ है परवत्ते?

सुग्गा पिंजरे का चक्कर लगाता - माई-माई की तीखी टेर लगाने लगा जैसे वह उसके ग़म में ख़ुद दुखी हो। जब सरवन ने झुककर उससे फिर प्यार से पूछा तो सुग्गा तीखी टेर मारने लगा जैसे कह रहा हो - माई तेरी नहीं, मेरी भी थी। अब रोने की नहीं, उसे खोजने की ज़रूरत है? जा खोज तो सही। माई मिलेगी, ज़रूर मिलेगी, पक्के में।

चौथे दिन सरवन माई की खोज के लिए प्रयाग रवाना हुआ, लौटा तो पूर्व की तरह अकेला था, माई उसे नहीं मिली थी।

माई की खोज में वह दस बार प्रयाग गया होगा लेकिन हर बार वह निराश ही रहा, बावजूद इसके हर बार उसे लगा, माई मिलेगी, ज़रूर मिलेगी।

इस बार वह फिर माई की खोज में जा रहा है, उसने तै कर लिया है कि अगर इस बार माई न मिली तो वह गंगा की गोद में समा जाएगा, लौटेगा तो माई के साथ, नहीं, डूब मरेगा!!!

सत्तू और मुहल्ले के लोगों ने उसे लाख समझाया, लेकिन उसने एक की न सुनी और अपनी बात दोहराता रहा। और माई-माई कर रोता रहा।

पूरनमासी के दूसरे दिन अल-सुबह भी जब चाँद चारों तरफ़ दूधिया शीतल नम चाँदनी बिखेर रहा था, सरवन अपनी माई के साथ गाँव में दाख़िल हुआ - उस वक्त बेतरह ख़ुश और उसके आवेग में रोता हुआ वह लोगों को गला फाड़-फाड़कर पुकार रहा था कि देख, माई मिल गई, देख, माई मिल गई!!! सत्तू, अँजोरे, उदैया! देख तो, माई मिल गई!!!

पल भर में समूचा गाँव उसके पास इकट्ठा हो गया।

सरवन जो सामने आता दीखता, चिल्लाता उसकी तरफ़ लपकता और रोता कहता - देख माई आ गई! मैं कहता था न कि माई मिलेगी, देख, मिल गई! और कैसे न मिलती। सरवन कभी माई के बिना रह सकता है! कभी नहीं, कभी नहीं। देख, माई थोड़े से दिन में कैसी हो गई, करिया, दूबर-दूबर! हाड़ निकल आए! बिचारी को नाकिसों ने रोटी-जल भी न दिया, लेकिन माई, तू फिकर मत कर! तेरा यह लाल ऐसी सेवा करेगा कि दुनिया रसक करेगी...

थोड़ी देर बाद सरवन माई को दूध में रोटी मीड़ के अपने हाथों से खिला रहा था।

गाँव के लोग इस बात से दंग थे कि सरवन को कहीं कुछ हो तो नहीं गया! पता नहीं किस बुढ़िया को माई समझ के ले आया और माई-माई कर रहा है! और ताल-बेताल बके जा रहा है।

लेकिन किसी ने इस रहस्य को सरवन के सामने नहीं खोला।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी7:49 pm

    bahut hi marmik kahani,aankhein bhig si gayi,bahut badhai,shabdon ki rachana,jazbaat bayan karne ka andaaz,waah.

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: हरि भटनागर की कहानी : माई
हरि भटनागर की कहानी : माई
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