हरि भटनागर की कहानी : जंग

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चि रौटे को उस वक़्त बेहद ग़ुस्सा आया जब उसके घर में एक दूसरा चिरौटा घुस आया। बहुत मुश्किल से उसने इस घर में पनाह पाई थी। मुश्किल इसलिए ...

चिरौटे को उस वक़्त बेहद ग़ुस्सा आया जब उसके घर में एक दूसरा चिरौटा घुस आया।

बहुत मुश्किल से उसने इस घर में पनाह पाई थी। मुश्किल इसलिए कि इस घर का मालिक अजीब तरह का सरका हुआ आदमी था। घर की दिक़्क़तों या पेचीदा नौकरी की वजह से वह सहज नहीं दिखता। पिन्नाया रहता जैसे कोई बोले तो झगड़ पड़ेगा, घण्टों दिमाग़ ख़राब किए रहेगा, कुछ नहीं कर पाएगा तो बच्चों को लतिया डालेगा, उनकी किताबें-कापियां फाड़ डालेगा, पत्नी के झोंटे हिलाकर सिर दीवाल से टकरा देगा... ऐसी कई सारी हरकतें वह कर गुज़रेगा...

तो ऐसे आदमी के घर में पनाह पाना कितना मुश्किल था और यही मुश्किल आई भी। हुआ यों कि उसने दीवारों की संध में जहाँ पीपल असंख्य जड़ें फैलाकर ऊपर हरे पत्तों के साथ मगन है, घोंसले के लिए तिनकों का ढेर जमाना शुरू किया अपनी चिरैया के साथ-उस दिन कोई दिक़्क़त नहीं आई और न ऐसा ख़्याल दिमाग़ में उठा। दिक़्क़त तो सुबह आई जब यह आदमी बनियान पहने, सिसियाता, जाँघिया के अन्दर बुरी तरह खुजाल मचाता छोटे-से खुले हिस्से में जिसे आँगन कहा जा सकता है, नाली के ऊपर पत्थर की पटिया पर मंजन-कुल्ला करने बैठा। आदमी से पहले औरत और बच्चे पटिया का इस्तेमाल कर चुके थे। यह सुभीते की जगह है। यहाँ मंजन-कुल्ला करने, नहाने, कपड़े पछीटने, बर्तन घिसने और पेशाब वगै़रह जैसे काम किए जाते हैं। आँगन के एक हिस्से में कबाड़ ठँसा है जो छूने पर भड़भड़ाकर नीचे आ गिरता और तब ऐसी विषैली तीखी गन्ध उठती कि नाक में चुनचुनाहट मचने लगती और गला खुजली से भर जाता। दूसरे हिस्से में नाली के पास, पटिया के बग़ल में तीन मटके हैं, दो दुचकी बाल्टियाँ जिनके हैण्डिल ग़ायब हैं, एक ड्रम जो ज़ंगखाया है और ऊपर कटा-फटा कि ज़रा-सी लापरवाही पर काट खाता। सिर पर लोहे का तार है जिस पर सूखे-अधसूखे कपड़े पड़े हैं जिन्हें आदमी की घरवाली दोपहर को मुगरियों से पीट-पीटकर धोती और सूखने के लिए मक्खियों से भरे इस तार पर डाल जाती।

आदमी काफ़ी दुबला-पतला है। शरीर में हाड़ ही हाड़ दिखते; लेकिन उसमें बला की फुर्ती है। आँखें अन्दर को धँसी और चिए बराबर हैं। नाक पतली, लम्बी, टेढ़ी और आगे तोते की चोंच की तरह मुड़ी है। गालों में खाई है जिससे मुँह काफ़ी छोटा नज़र आता। माथा छोटा है और उस पर सिर के खिचड़ी बाल ऐसे खड़े हैं कि लंगूर बन्दर की याद आती। हाथ पतले-पतले नीली नसों से भरे। उँगलियाँ हँड़ीली और सूखी।

जैसे ही यह आदमी सिसियाता हुआ पटिया पर आ बैठा और हँड़ीली-सूखी उँगलियों से मंजन की शीशी उठाई और बाएँ हाथ की अँजुरी पर मंजन गिराया और दाएँ हाथ की उँगलियों को गीला करने के ख़्याल से पंजा मटके की ओर बढ़ाया कि हाथ में तिनके-पन्नियों का गुच्छा आ लगा। मटके-बाल्टियों या कहें हर तरफ कचरा ही कचरा था। उसके माथे पर बल पड़ गया। गुस्से के लिए इतना काफ़ी था। पहले सोचा, बच्चों की कारस्तानी होगी, लेकिन जब ऊपर संध की ओर देखा तो चिरौटा और चिरैया थे जो चीं-चीं करते घोंसला बनाने में मशगूल थे। चीखते हुए वह बोला - मेरा ही घर बचा था सत्यानाश के लिए! दुनिया भर का कचरा लाओ और डालो मेरे सिर पर!!!

मंजन झड़ाता वह उठ खड़ा हुआ - कचरा और गू करो, तुम्हारी ऐसी की तैसी, हरामजादो!!! मिचमिची आँखों वह गन्दी-गन्दी गालियों की बौछार करने लगा जिससे उसकी घरवाली भय से सिकुड़ गई। स्टोव पर वह रोटी सेंक रही थी। रोटी की जगह घबराहट में तवे को दबा बैठी और छौंछिया उठी। बावजूद इसके आदमी का डर ज़्यादा भारी था। लग गया, कोई ग़लती हो गई है, आफत आने वाली है...

गाली देकर जब आदमी थक गया, बुरी तरह दरवाज़ा ठेलता, हाँफता हुआ, अन्दर आया और लचकदार लग्घी उठाने लगा। औरत का भय कुछ कम हुआ। उसने बच्चों को देखा जो कातर-से बोरे पर पालथी मारे बैठे हिज्जे याद कर रहे थे। लग्घी से आदमी कभी मार-पिटाई नहीं करता था। लग्घी दीवार के सहारे ज़मीन पर पड़ी थी जिसके एक सिरे पर छोटा-सा हँसिया था तारों से बँधा। जब कभी मूड आने पर आदमी बाहर झूमते नीम से दातून के लिए इस लग्घी का इस्तेमाल करता था। बहरहाल, इस वक़्त भद्दी गालियाँ बकते हुए उसने लग्घी उठाई और घिर्राता आँगन की ओर बढ़ा। आधे-अधूरे घोंसले को उसने लग्घी से खोदना शुरू किया बड़बड़ाते हुए कि बनाओ माँ के घोंसले! और बनाओ! पूरा-पूरा बाँस उतार दूँगा साले!

थोड़ी देर में तिनके-पन्नियों और रूई के फाहों से वह ढँका था। अधूरा घोंसला ज़मीन पर था जिसे वह बाहर नाली में डाल आया।

चिरौटा और चिरैया दूर पेड़ की पुलुई पर बैठे अधबने घोंसले को उजड़ते देखते रहे और दुःखी होते रहे।

चिरैया ने कहा - यह तो बहुत ही नाकिस है, कमीन!

चिरौटे की आँखों में जवाब था - देख लो!

- ज़रा भी मरदूद को रहम नहीं आया, मैं पेट से हूँ, अण्डे देनेवाली हूँ!

चिरौटे की आँखों में वही जवाब था।

- इसके तो कीड़े पड़ेंगे जानहार के!

- छोटी गाली दे रही हो!

- इसके तो सब मर जाएँ!

चिरौटे ने उसकी चोंच पर पंजा रखा, बोला - न, ऐसी बद्दुआ न दो, बच्चों ने क्या बिगाड़ा है, वे तो बिचारे इस फाड़खाऊँ से खुद परेशान होंगे!

कचरा फेंककर आदमी आँगन में आया और पटिया पर बैठकर मंजन करने लगा। बीच-बीच में वह ऊपर संध की ओर देख लेता जैसे कह रहा हो कि आगे से घोंसला दिखा तो बाँस बजा दूँगा!!!

मंजन के बाद आदमी ने पंजों के बल बैठकर घुटने ज़मीन पर टिकाए। बनियान उतारी और सिकुड़ गया। हाथों में उसके मटके का मुँह था जैसे उठाने से पहले तौल रहा हो। यकायक मटका सिर के ऊपर था और पानी झरने की तरह बदन पर बहने लगा। मटका उसने नीचे रख दिया और गर्दन झिटककर थोड़ी देर स्थिर बैठा रहा। ठण्डे पानी ने जैसे उसे ऐसा कर दिया हो। पलभर बाद उसमें हरकत हुई। बदन पर उँगलियाँ दौड़ने लगीं। वह पानी काँछने लगा। उँगलियों में अब जनेऊ था और जनेऊ पीठ पर दौड़ रहा था - घिस्सा देता हुआ। जगह-जगह चकत्ते उभर रहे थे। गर्दन टेढ़ी करके उसने तार से तोलिया खींची और बदन पोंछने लगा। अन्त में तौलिया लपेटकर गीली जाँघिया नीचे सरकाता वह अन्दर चला गया।

चिरौटे ने गहरी साँस भरी। चिरैया को देखा और तनकर बोला - मैं अब इसी घर में घोंसला बनाऊँगा, देखता हूँ कब तक नोंचता है यह जल्लाद!

और उसने घोंसले के लिए मुलायम-मुलायम तिनके-पन्नियाँ और रूई के फाहे बटोरने शुरू कर दिए। चिरैया ने उसके कन्धे से कन्धा मिलाया। पन्द्रह दिन तक वह रोज़ घोंसले के लिए माल लाता रहा और जमाता रहा और सुबह आदमी उन्हें भयंकर चीख-गुहार के बीच बिखेर देता!

सोलहवें दिन, आदमी को पता नहीं क्या हुआ - घोंसले की तरफ़ उसकी लग्घी नहीं गई। मंजन करते-करते संध की ओर देखा, जैसे चिरौटे से कह रहा हो कि तू माननेवाला नहीं, घोंसला बना के रहेगा - यकायक वह चीख पड़ा - मर साले! मैं हारा, तू जीता! आगे से तुझे जो करना है, कर!

फिर क्या था, मारे खुशी में चिरौटे ने घोंसला बनाना शुरू किया और कुछ ही दिनों में बहुत ही सुन्दर, आरामदेह और सुरक्षित घोंसला बनकर तैयार था।

लेकिन यह दुश्मन चिरौटा जो उसके घर में घुस आया है, उसे उजड़वा देगा! आदमी ने तो उसे किसी तरह पनाह दे दी थी लेकिन इस कमबख्त की वजह से अब उसका घोंसला बचनेवाला नहीं। तिनके-पन्नियाँ बटोरेगा, गन्दगी करेगा - आदमी का दिमाग़ ख़राब होगा - फिर न यह रह पाएगा और न मैं!

चिरौटा युद्ध के लिए तैयार हो गया। सोच लिया कि दुश्मन चिरौटे को मार के, भगा के ही दम लेगा!

मगर यह दुश्मन चिरौटा बहुत ही चालाक और चतुर था, ज़माना देखा। सीधे आमने-सामने नहीं लड़ रहा था। पता नहीं कौन-सी आड़, सुरक्षा-कवच के साथ था। लगता कि मार का उस पर कोई असर नहीं! समूची चोट उल्टे उसे खुद को लगती।

चिरौटा परेशान था। आख़िर यह दुश्मन चिरौटा कहाँ से और किससे प्रशिक्षित होकर आया है और वह निरा अनाड़ी, मूरख, अकाई! सारी चालों से नावाकिफ! पूरा लट्ठ! बज्जर!!! चिरौटे को इस बात का भी गहरा अफ़सोस हुआ कि दुश्मन चिरौटा उसकी किसी बात का मुखर जवाब नहीं देता! उसी की तरह वार करता है और हर वक़्त चैकस रहता, अपने सुरक्षा-कवच में!

उस दिन अंधेरी रात में जब चिरौटा काफ़ी गुस्से में था, जाग रहा था और बार-बार करवटें बदल रहा था - चिरैया ने पूछा कि तू आख़िर सो क्यों नहीं रहा है? कई दिनों से मैं देख रही हूँ, तू रात-रात जागता रहता है, गुस्से में बड़बड़ाता रहता है, क्या बात है?

चिरौटे ने कहा - एक दूसरा चिरौटा हमें बेदखल करना चाह रहा है और हमें उजाड़ देना चाहता है। जब तक मैं उसे भगा नहीं दूँगा, चैन से नहीं बैठूँगा।

दूसरे दिन सुबह चिरैया ने देखा - चिरौटा दुश्मन चिरौटे के सामने था। गुस्से में भरा, मरने-मारने पर उतारू।

लेकिन दुर्भाग्य था कि दुश्मन चिरौटा सुरक्षा-कवच के पीछे था जिसे उसका चिरौटा भेदने में पूरी तरह असमर्थ था।

चिरैया जब युद्ध के लिए मैदान में उतरने को हुई - चिरौटे ने उसे यह कह कर वापस कर दिया कि मैं अकेला काफी हूँ। तू चूज़ों को संभाल, कहीं नीचे आ टपके तो अनर्थ हो जाएगा...

चिरैया उसकी बात मान गई और घोंसले पर जा बैठी।

इस बीच आदमी ने दरवाज़ा खोला और आँगन में दाखिल होने को था कि चिरौटे को देखकर मुस्कुरा उठा, आँखों में हँसी दौड़ गई और चौखट पर ही खड़ा रह गया - क्या कर रहा है नालायक! बुदबुदाते हुए उसने आईने को अपनी जर्जर धोती से ढाँपा और नहाने लगा।

आदमी के आते ही चिरौटा फुर्र हो गया और पेड़ की डगाल पर जा बैठा और आदमी को नहाता देखने लगा। जब आदमी नहाकर अन्दर चला गया, चिरौटा ग़ायब था। ज़रूर आदमी ने उसे इस कपड़े में छिपा दिया होगा। लिहाज़ा वह कपड़े पर चोंच और पंजों से वार करने लगा। चोंच और पंजों की मार इतनी जबरदस्त थी कि थोड़ी देर में धोती नीचे, ज़मीन पर आ गिरी।

धोती का गिरना था कि दुश्मन चिरौटा प्रकट हो गया। सचमुच वह धोती में छिपा बैठा था!

चिरौटे को आदमी पर गुस्सा आया, आख़िर उसने दुश्मन को छिपाया क्यों? उसने उसके साथ क्या बुरा बर्ताव किया है। उसके घर में घर बनाने के अलावा उसका कुछ बिगाड़ा नहीं, घर भी उसकी सहमति पर बनाया फिर यह नाइंसाफी क्यों?

वह चिरौटे से लड़ने के लिए जैसे ही झपटा, आदमी चीखता हुआ अन्दर से बाहर आया। उसके हाथ में छड़ी थी जिसे चमकाते हुए वह चिरौटे पर बिफरा कि आगे से लड़ाई की तो मार गिराऊँगा।

चिरौटा पेड़ की डगाल पर बैठा सोचने लगा कि यह आदमी मुझे दुश्मन से लड़ने क्यों नहीं दे रहा है। चाहता क्या है कि मैं हार मान लूँ और बेदखल हो जाऊँ और दर-दर की ठोकरें खाऊँ!

आदमी के अन्दर आते ही चिरौटा जब आया तो दुश्मन फिर ग़ायब था। आदमी ने इस बार उसे मजबूत-सी दिखती बनियान में छिपा दिया था जिसमें से निकाल पाना उसके वश का न था।

बावजूद इसके चिरौटे ने चीखते हुए बनियान पर जबरदस्त प्रहार शुरू किए।

आदमी अन्दर बैठा रोटी खा रहा था। औरत स्टोव के सामने बैठी रोटी बनाती जा रही थी।

यकायक आदमी ज़ोरों से चीखा।

औरत डर गई। क्या ग़लती हो गई? भयभीत निगाहों से आदमी को देखने लगी। दाल में कंकड़ आ गया क्या...

आदमी छत की ओर मुँह किए बुरी तरह गरज रहा था। आँखें माथे से सटी थीं। मुँह में कौर ठँसा था राल से भरा। बात समझ में नहीं आ रही थी।

यकायक चपर-चपर कौर चबाता आदमी बोला - ये चिरौटा चैन से बैठने नहीं देगा!

औरत का भय कम हुआ। मुस्कुराकर रह गई - चलो, गुस्सा उस पर नहीं है।

अचानक आदमी पाँव से थाली ज़ोरों से ठेलता उठा, गुस्से में भरा और दरवाज़े के पीछे छड़ी की ओर बढ़ा - साले की मैया बजा दूँगा। नई धोती फाड़ दी, कुछ न बोला, अब बनियान की मैया करने में लगा है...

दरवाज़ा खोलने से पहले उसने अनगिनत छड़ी दरवाज़े पर मारी। फिर झटके से दरवाज़ा खोला जो दीवार से जा टकराया और ढेर-सा पलस्तर झड़ा। आँगन में पाँव रखते वह चीखा - काहे मइयो करने पर तुला है बहन का...

वह छड़ी तानता सपाटे से बढ़ा कि चिरौटा फुर्र था।

फुर्र होने से पहले उसने पंजों और चोंच से ऐसे खूनी वार किए कि बनियान फट-चिथ गई और ज़मीन पर आ गिरी।

आदमी ने बनियान की हालत देखी तो आँखों में ख़ून उतर आया। गरजकर उसने औरत को बुलाया और हाँफते हुए कहा - देखो साले चिरौटे को। बनियान चीथ डाली!!!

औरत अन्दर ही अन्दर ख़ुश हुई - अच्छा तो हुआ। तुम्हें बम्बू करने वाला कोई तो है। ऊपर से गुस्सा दिखाती बोली - बड़ा ही ख़राब है मुँहजला!

आदमी यकायक गुस्साकर बोला - अच्छा भग यहाँ से। बड़ी आई है रांड़ ... और उसे गालियाँ देने लगा।

औरत ने ख़ाक़ होते हुए माथा सिकोड़ा और आदमी को जलती निगाहों से देखा - क्या चाहता है कमीन। हर वक़्त बररा रहता है, बात-बेबात पर।

आदमी ने उसकी ओर ध्यान न दिया और वह किवाड़ की आड़ में जा खड़ा हुआ। अब वह चिरौटे को मार के ही दम लेगा।

चिरौटा पेड़ की पत्तियों में छिपा बैठा आदमी को देख रहा था।

काफ़ी देर तक आदमी किवाड़ की ओट में खड़ा रहा घात लगाए। जब चिरौटा नहीं आया तो उसने आईने को उसी धोती से लपेटा और ऊपर से बनियान मजबूती से बाँधी - यह सोचकर कि अब इसका बाप भी नहीं खोल पाएगा।

और अन्दर चला गया।

जैसे ही उसने पैर के पंजे पर थाली खींची और कौर मुँह की ओर ले जाने को हुआ - चिरौटे की पंजे और चोंच मारने की आवाज़ आई।

बेतरह झल्लाते होते हुए वह उठा - साले को ज़िन्दा जला दूँगा - उसने चारों तरफ निगाहें डालीं जैसे कोई कारगर हथियार खोज रहा हो। जब ऐसा कुछ हत्थे न लगा तो वह ज़ोर-ज़ोर से हथेलियाँ मलने लगा। मानो ऐसा करने से उसे रास्ता सूझ जाएगा और वास्तव में उसे रास्ता सूझ गया - वह उसे अनचित्ते में मार गिराएगा। दबे पाँव चलते हुए वह दरवाज़े की ओर बढ़ा और संध से देखा -

जो नज़ारा सामने था, हैरत में डालने वाला था।

धोती और बनियान नीचे ज़मीन पर गिरी पड़ी थीं। चिरौटे की चोंच से बेतरह लहू बह रहा था लेकिन वह वार पर वार किए जा रहा था, बिना रुके। जब चोंच से वह वार करने में पूरी तरह असमर्थ हो गया तो उसने पंजे चलाने शुरू किए। और अब पंजे भी घायल थे और उनमें से बेतरह ख़ून बह रहा था।

आदमी मुस्कुराया; लेकिन वह खुलकर मुस्कुरा न सका।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत दिन बाद हरि भाई को देखा। कहानी पढ़ने से पहले उनकी बांसुरी याद आई। फिर कहानी पढ़ी। बेहतरीन कहानी।.......अंत में आदमी का जो चेहरा हरि भाई ने दिखाया है वह कई दिनों तक दिमाग में हथौड़े बजाता रहेगा।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: हरि भटनागर की कहानी : जंग
हरि भटनागर की कहानी : जंग
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