श्याम यादव की कहानी : भूरी

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सूरज को जैसे आज बहुत ही जल्‍दी थी,क्षितिज की बाहों में समा जाने की । काशी ने एक निगाह गलबहियाँ करते सूरज की ओर डाली और एक पल के लिए अपनी...

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सूरज को जैसे आज बहुत ही जल्‍दी थी,क्षितिज की बाहों में समा जाने की । काशी ने एक निगाह गलबहियाँ करते सूरज की ओर डाली और एक पल के लिए अपनी पत्‍नी की ओर देखा,दूसरे ही पल उसकी निगाह रास्‍ते के उस छोर की ओर दूर तक चली गई,जहाँ सन्‍नाटा पसरा हुआ था । पिछले दो घन्‍टे से उसकी पत्‍नी,बेटी और वह खुद उस रास्‍ते पर निगाह गढ़ाए बैठा था । इन्‍तजार का एक एक पल भारी पड़ रहा था पूरे परिवार ।

शनिवार को ही आने को कहा था ना उसने ? काशी ने उस छोटे से कमरे मे जहाँ उन तीनों के अलावा मौजूद मौन को दूर करने के लिए उसी सवाल को उसने फिर दोहरा दिया, जिसे वह पिछले दो घन्‍टे में कई बार पूछ चुका था ।

हाँ ...........। भूरी ने कहा ,और अपनी बात की पुष्टि कराने की गरज से माँ की ओर देखते हुए पूछा- क्‍यों है न माँ ?

माँ कुछ जवाब देती उससे पहले ही काशी के मन में पनप रही कोफ्‌त का ज्‍वालामुखी, भूरी पर फट पड़ा ।

मैंने पहले ही कहा था इससे । वो जैसा चाहे वैसा ही करना । पंसद नहीं आई होगी उसको इसकी कारगुजारी । अरे सौ रूपया कम नहीं होता । करना क्‍या था तेरी लाडो को। बस जरा सी देर का ही तो काम था। और भी न जाने क्‍या क्‍या कहता चला गया था काशी,और उसका सारा गुस्‍सा भूरी पर फट पड़ा था।

पिता की झिड़की और गुस्‍से को देख रूआँसी हो उठी भूरी ने फिर माँ की ओर देखा, जैसे माँ से आँखें ही आँखों में पूछ रही हो कि - मेरा क्‍या कसूर है उसके नहीं आने में ? मुझे क्‍यों डाँटा जा रहा है ?

माँ ने बेटी की आँखों में उभरें प्रश्‍नों को समझते हुए बात को सम्‍हालने की कोशिश करते हुए कहा - अब उसमें भूरी का क्‍या कसूर । भूरी ने तो वही किया जो वो चाहता था । वो नहीं आया तो उसमें उसका क्‍या कसूर ? नाहक ही उस पर गुस्‍सा हो रहे हो आप ।

माँ को बेटी का पक्ष लेता देख काशी का गुस्‍सा और भड़क उठा। उसे लगा दोनों माँ बेटी उसकी नाफरमानी कर रही है । पहले से गुस्‍साए काशी का दिमाग साँतवे आसमान पर जा पहुँचा। उसका पौरूष तिलमिला उठा । स्‍त्री तो मर्द के अघीन रहने के लिए होती हैं यहाँ तो उसे दबाने की कोशिश की जा रही है। उसे लगा ये तो उसकी पुरूषसत्‍ता का अपमान है और दोनों को गालियाँ बकते हुए उसने अपना हाथ अपनी पत्‍नी पर उठा ही लिया था ,जो दरवाजे के बाहर वाहन रूकने की आवाज के साथ हवा में ही रूक गया ।

तीनों की निगाहें दरवाजे पर जाकर ठहर गई जहाँ उन्‍हे विशाल बाबू आते हुए नजर आए। विशाल ने आते ही कहा शहर से आने में देर हो गई। वो क्‍या है कि दरअसल गाड़ी ने साथ नहीं दिया । रास्‍ते में पंचर हो जाने के कारण थोड़ी देर हो गई ।

गाड़ी घोडे का भरोसा नहीं , कब चलने से इन्‍कार कर दे कह नहीं सकते । कहते हुए काशी ने विशाल की बात का समर्थन किया । उसके चेहरे पर थोड़ी देर पहले तक दमक रहे गुस्‍से का कहीं कोई निशान नहीं था उल्‍टे मुस्‍कान बिखरी हुई थी ।

भूरी और उसकी माँ ने एक दूसरे को काशी की इस प्रतिक्रिया पर देखा और सोचने लगी कि आदमी कितनी जल्‍दी अपने आप को बदल लेता है । जो बात वो विशालबाबू को समझा रहा है वह खुद भी समझ लेता तो घर में तनाव पैदा ही नहीं होता ।

बैठो बाबू ,घर मे पड़ी खटिया की ओर इशारा करते हुए काशी ने भूरी को विशाल के पानी लाने को कहा ।

विशाल से बातचीत का सिलसिला बढ़ाने का प्रयास करते हुए काशी ने चालकी के साथ कहा - भूरी अभी बच्‍ची है पर वह आपको निराश नहीं करेगी । जैसा आप चाहते है बाबूजी वैसा ही होगा। वो क्‍या है ना बाबू ,वो अभी कच्‍ची मिट्‌टी है जैसा चाहो वैसा गढ़ लो । अब सब आप पर ही निर्भर है।

भूरी पानी ले कर आई तो विशाल ने उपर से नीचे तक एक निगाह उस पर डाली बार फिर भूरी को देखा और पूछा- कैसी हो भूरी ?

भूरी ने बापू की ओर देखा और शरमा कर नीचे सिर करके बोली ठीक हूँ और अन्‍दर चली गई।

काशी ने आवाज लगाई - चाय तो बना लो विशालबाबू के लिए ।

नहीं चाय नहीं -वो भूरी को बुला लिजीए ,फिर शहर जाना है रात का सफर ठीक नहीं होता ना ।

काशी तो जैसे चाहता ही यही था उसने भूरी की माँ को आवाज दी - वो भूरी को ले आना । भूरी की माँ भूरी के साथ विशाल के सामने आ खड़ी हुई भूरी के हाथ में वो कागज के बंडल थे जो पिछली बार विषाल बाबू उसे दे गए थे ।

सब बना दी । विशाल ने भूरी से पूछा?

हाँ भूरी ने गर्दन हिलाते हुए हाथ में पकड़े कागजों को विशाल को सौंप दिया ।

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विशाल ने उन कागजों को एक एक कर देखना शुरू कर दिया जैसे जैसे वह कागजों की शीट देखता जाता उसके चेहरे के भावों में परिवर्तन आता जा रहा था। जिसे बड़े ही ध्‍यान से काशी समझ़ने की कोशिश में लगा था । सब शीट देखने के बाद विशाल ने कहा ठीक है दो एक ठीक नहीं है लेकिन मैं उनके पैसे तो इस बार दे रहा हूं अगली बार ध्‍यान रखना पैसे नहीं दूंगा । विशाल ने जेब से रूपए निकाले और गिन कर पूरे एक हजार रूपए काशी के हाथ में उन दस कागज की शीट के बदले दे दिए जिन पर भूरी ने अपने माँड़ने बनाएं थे । साथ ही विशाल ने कोरे कागजों का एक बंड़ल भी देते हुए ताकीद भी कर दिया कि जो माँड़ने उसने इस बार बनाएं है वे दुबारा नहीं होना चाहिए । विशालबाबू ने क्‍या कहा इस पर किसी ने ध्‍यान नहीं दिया सिवाए भूरी के । काशी तो हाथ में पकड़े कडक सौ सौ के नोटों को देखते हुए बोला - हाँ बाबू ऐसा ही होगा । वो वही करेगी जो आप चाहते है । विशाल उन माँडने की शीट ले पन्‍द्रह दिन बाद आने का कह कर चला गया,मगर काशी के उस कमरे मे जहाँ अभी तक सन्‍नाटा था एक खुशनुमा माहौल में उल्‍लास समा चुका था । भूरी पर किसी का ध्‍यान नहीं था। दोनों पति पत्‍नी उन हजार रूपयों के बारे में सोच रहे थें जो उन्‍हे विशाल बाबू सौंप गए थे

भूरी उस दिन दीवाल पर गोबर से संझा माँड रही थी और उसने ऐसे ही एक माँड़ना माँड़ा तभी गाँव में आए विशाल बाबू ने उसके माँड़ने की एक तस्‍वीर खींचते हुए उससे पूछा था और क्‍या क्‍या बना लेती हो ? भूरी ने चहकते हुए कहा था बहुत सारे माँड़ने आते है । विशालबाबू ने पूछा था क्‍या कागज पर बना कर सकोगी ? भूरी असमंजस ने दिखी । भूरी के किसी से बात करने की आवाज पर उसकी माँ बाहर आई और उसने अजनबी से बतियाते देख उसने विशाल से पूछा -क्‍या बात है ?

विशाल ने भूरी की माँ को बताया कि वह एक फोटोग्राफर है और उसे यदि यह ये माँड़ने कागज पर बना कर दिए जाएंगें तो वह इनके पैसे देने को तैयार है वह भी एक माँड़ने के सौ रूपए । भूरी की माँ ने विशाल को घर के अन्‍दर बुलाते हुए भूरी के बापू को आवाज लगाई। भूरी उसकी माँ और उसका बापू तीनों ही विशाल के सामने थे ।

एक एक माँड़ने के सौ रूपए । कागज भी मेरा और रंग भी । जब बना दोगे तब हाथों हाथ पैसे । पति पत्‍नी दोनों ने भूरी की ओर देखा और तुरन्‍त ही हाँ कर दी । पहली बार भूरी ने बतौर नमूने के एक मॉड़ना माँड़ कर दे दिया था जिसे ले कर विशालबाबू चले गए थे यह कर कि यदि पसंद आए तो वे कागज और रंग ले कर आएंगें ।

पिछली बार विशाल बाबू दस कागज की शीट दे गए थे जिन्‍हें लेने वे आज आए थे और एक हजार रूपए दे गए थे ।

काशी तो फूला नही समा रहा था उसने भूरी की माँ से कहा यकीन नहीं आ रहा कि भूरी को एक हजार रूपया मिला । उसने ताकीद कर दिया की भूरी को कोई काम न करने दिया जाए । वह सिर्फ माँड़ना ही बनाएगी ।

एक हजार रुपयों की आवक ने घर में खुशी की लहर दौड़ा थी । काशी तो फूला नहीं समा रहा था । उसे लगा भूरी उसकी लड़की नही लड़का है, जो उसका आर्थिक संबल बन गई थी । साहूकार की चाकरी भी उसे इतना नहीं देती थी । दिन भर साहूकार की किचकिच अलग । साहूकार था भी एक नम्‍बर का कमीना । मजदूरी देता तो था मगर कचूमर निकाल देता था ।शाम को सारा बदन चूर चूर हो जाता था । काशी को नही करनी अब साहूकार की चाकरी । अरे एक एक माँड़ने के सौ रुपए । भूरी एक दिन में तीन माँड़ने तो बना ही लेगी । सात दिन में बीस इक्‍कीस । यानी दो हजार रुपया हप्‍ता । काशी ने अपना गुणाभाग अपनी पत्‍नी को समझाया दोनों पति पत्‍नी के तो जैसे सोते भाग जाग उठे थे ।

दूसरी ओर भूरी के चेहरे पर कोई नया भाव नहीं जगा था उसे तो अब ऐसा लगने लगा कि उसका ध्‍यान अब घर में ज्‍यादा रखा जाने लगा है । माँ उसे हरदम प्‍यार से रखने लगी थी उसकी हर फरमाईश पर ध्‍यान दिया जाने लगा । बापू ने काम पर जाना छोड़ दिया था । जब चाहे जब घर में पकवानों की खुश्‍बू महकने लगी थी । उससे कोई काम नहीं करवाया जाता जब देखो तब सिर्फ उससे केवल और केवल उन कागजों पर नए नए माँड़ने मांडने के लिए ही कहा जाता जो विशाल बाबू हर बार उसके बापू को दे जाते थे । बापू को विशाल बाबू सौ सौ के नोट भी देते मगर कितने यह उसे पता नहीं होता । पिछली बार तो माँ बापू उसे हाट भी ले गए थे । उसके पहले कितनी बार उसने हाट जाने की जिद की मगर कभी नहीं ले जाया गया ।

आज बापू बड़ा खुश था । कल शाम विशाल बाबू ने रुपए दे गए थे । बापू ने माँ को आवाज दी चल आज शहर घुमा लाउं । भूरी भी शहर देख लेगी । दोनो माँ बेटी खुश । पहली बार खुशियां घर चल कर आ रही थी । दोनों ही शहर जाने की खुशी में तैयार होने लगी । शहर में बडी बड़ी उँची इमारत , चमचमाती मोटरें , सजीधजी मेमें ओर भी न जाने क्‍या क्‍या जिनके बारे में सिर्फ सुना ही था और और शहर जाने के लिए पहली बार मोटर में बैठने को मिलेगा । हवा सी फर्राटे भरती मोटर में बैठने का आन्‍नद पहली बार भूरी और उसकी माँ ने लिया था ।

शहर में इतनी भीड़ बाप रे बाप ........... भूरी ने माँ से कहा ।

गॉव के सारे जानवर भी जब साथ निकले तो भी इतनी भीड़ नहीं होती । भूरी की माँ ने भूरी का समर्थन करते हुए कहा । इनके पास कोई काम नहीं रहता क्‍या जिसे देखो वही भागे जा रहा है ।

अरी पगली ये शहर है तो कहते है कि शहर में जो आता है वह यहाँ का ही हो जाता है । भूरी के बापू ने समझाते हुए कहा । सिनेमा की हिरोईन की तरह सजी धजी मेम देखकर भमरी और उसकी माँ चकित थी ।

दुकानों के किनारे किनारे फुटपाथ पर जाते हुए निगाह उन पुतलों पर पड़ी जो रंग बिरंगे कपड़े पहन कर खड़े थे वे भूरी को ऐसे लगे जैसे इन्‍सान खड़े हों । वह बोल उठी - बापू देखो वो औरत कैसे सुन्‍दर कपड़े पहने है मुझे भी वैसे ही कपड़े चाहिए ।

भूरी का बापू जोर से हँसा -- अरे वो औरतें नहीं पुतले है ।

पुतले हैं आश्चर्य करते हुए भूरी की माँ ने कहा तभी मैं कहूं कि वे एक जैसे ही खड़े है बोले क्‍यों नहीं ?

बाजार में घूमते हुए भूरी को एक दुकान पर टंगे एक सूट पर उसका बनाया माँड़ना दिखा तो वह चौंक गई ।

बापू बापू देखा मेरा बनाया माँड़ना .......। भूरी खुश होती हुई चिल्‍लाई ।

भूरी के बापू की निगाह भी उस ओर घूम गई जहाँ भूरी उँगली उठाए दिखा रही थी ।

लगता तो तेरा ही है भूरी के बापू ने भूरी की ओर देखते हुए कहा ।

बापू देखो न कितना सुन्‍दर लग रहा है मैने बनाया था कागज पर उससे भी ज्‍यादा सुन्‍दर ... भूरी ने बापू से कहा । मुझे यह सूट दिला दो न बापू । भूरी बच्‍चों की तरह जिद करने लगी ।

काशी ने एक बार उसकी पत्‍नी की ओर ऐसे देखा जैसे पूछ रहा हो कि दिला दूँ क्‍या ?

भूरी की माँ ने आँखों ही आँखों में हाँ कर दी ।

तीनों ने काँच का दरवाजा धका कर दुकान में प्रवेश किया तो एसी की ठंड़ी हवा ने उनका स्‍वागत किया । गाँव के गर्म हव के थपेड़े की जगह ठंड़ी हवा के झोंके ने भूरी और उसकी मां को चौका दिया ।

काशी ने उस सूट का दाम पूछा - कितने का है वो सूट ?

दो हजार का । उसमें ओर भी नई नई डिजाईन है । कलर है । ऐसी डिजाईन केवल हमारे पास ही मिलेगी । राजस्‍थान की ठेठ ग्रामीण इलाके कि हस्‍तनिर्मित कलाकारी है ?

काशी का दिमाग ठनका । दो हजार ऐसा क्‍या है इसमें । अरे काहे की डिजाईन ? मेरी भूरी ने बनाई है इसे ।

वह बोला डिजाईन के पैसे तो ज्‍यादा है ?

सेल्‍स गर्ल -- यही तो फैशन है । अभी का लेटेस्‍ट डिजाईन है जो पूरे शहर में केवल हमारे पास ही मिलेगा ।

एक बार काशी ने भूरी को देखा और दूसरी बार उसकी माँ को ।

उस बीच सेल्‍स गर्ल ने और डिजाईन दिखाना शुरु कर दिए जैसे जैसे वह डिजाईन दिखाते जा रही थी भूरी और उसके पिता की आँखें फटती जा रही थी । सारी की सारी डिजाईन वही थी जो भूरी ने बना कर विशाल बाबू को दी थी ,बस रंग का अन्‍तर था । कीमत तो पाँच हजार तक ।

तीनों बिना सूट लिए चुपचाप दुकान से उतर आए । उनका शहर घूमने का सारा जोश ठंडा पड़ गया था । कैसा शोषण किया जा रहा था भूरी की कला का । एक डिजाईन का केवल सौ रुपया देते हैं विशाल बाबू और यहाँ देखो तो दो हजार पाँच हजार ।

अरे इससे तो अपना साहूकार ही अच्‍छा है ।

तीनों आपस में बात करते हुए दुखी मन से शहर से लौट आए

----.

श्‍याम यादव 22 बी संचारनगर एक्‍सटेंशन इन्‍दौर 452016

http://shyamyadav-naisamaz.blogspot.com/

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. सब ओर यही हो रहा है। देसी हुनर की कद्र होती तो है पर वह बिकती कहीं और है और प्रशंसित कहीं और होती है। रह जाते हैं खाली हुनरमंद हाथ।

    सुंदर रचना।

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रचनाकार: श्याम यादव की कहानी : भूरी
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