कविता शर्मा का आलेख : सफल व्‍यवसायी संगीतज्ञ बनने के लिए मूल मंत्र

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भूलोक पर जन्‍मे समस्‍त जीव धारियों में मनुष्‍य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण उसे उदर शान्‍ति के अतिरिक्‍त आवास, वस्‍त्रादि व आस पास के प...

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भूलोक पर जन्‍मे समस्‍त जीव धारियों में मनुष्‍य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण उसे उदर शान्‍ति के अतिरिक्‍त आवास, वस्‍त्रादि व आस पास के परिवेश में हो रहे नित नए परिवर्तनों के अनुरूप स्‍वयं को परिवर्तित करना भी आवश्‍यक होता है जिससे वह समाज की धारा में प्रवाहमान हो पाए। इन आवश्‍यकताओं की पूर्ति हेतु मानव कुछ न कुछ क्रियाकलाप करता है परन्‍तु वह जितने भी यत्‍न प्रयत्‍न कर ले अपनी समस्‍त सामाजिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति हेतु उसे आदान-प्रदान की आवश्‍यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए एक किसान अनाज उगाकर अपनी उदर अग्‍नि को शान्‍त करने की व्‍यवस्था कर लेता है परन्‍तु समाज में रहने के लिए उसे अन्‍य वस्‍तुएँ भी चाहिए जैसे वस्‍त्र की आवश्‍यकता उसे जुलाहे के पास ले जाएगी, निवास स्‍थान की आवश्‍यकता उसे ग्रह निर्णायकों के पास ले जाएगी और इसी प्रकार जुलाहे को वस्‍त्र के अतिरिक्‍त अन्‍य वस्‍तुओं का अभाव उसे अनेक उत्‍पादकों के पास ले जाता है।

इन सभी कारणों के परिणाम स्‍वरूप ही ‘व्‍यवसाय' का जन्‍म हुआ प्रतीत होता है। आधुनिक युग में ‘व्‍यवसाय' मनुष्‍य के जीवन का आवश्‍यक अंग है, तथा व्‍यवसाय जीवन की गति भी है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के साथ वह स्‍वभाविक रूप से जुड़ा हुआ है प्रयत्‍नपूर्वक भी उसे जीवन से विलंग नहीं किया जा सकता।

भारतीय आद्य चिन्‍तकों ने जीवन के प्रत्‍येक क्रम व गति को ‘व्‍यवसाय' कहा है अर्थात जीवन का व्‍यवहार व्‍यवसाय से रहित नहीं हो सकता। इस सृष्‍टि की जड़-चेतना व सत्ता व्‍यवसाय के अवलम्‍ब पर ही एक-दूसरे से ग्रन्‍थित है व सृष्‍टि क्रम को एकरूपता प्रदान किए हुए है व्‍यवसाय को कर्म की संज्ञा भी इसीलिए दी जा सकती है क्‍योंकि बिना व्‍यवसाय के मनुष्‍य जीवित नहीं रह सकता। हम जगत में जो कुछ भी कर्म करते हैं। वह सब ‘व्‍यवसाय' ही है चाहे कला हो, समाज हो, सेवा हो, राजनीतिक क्रिया कलाप अथवा धनोपार्जन ... ये सभी व्‍यवसाय के ही रूप हैं।[1] व्‍यवसायों की दुनिया बहुत जटिल है। इनके क्षेत्र में लगभग 80 हजार व्‍यवसाय आते हैं और प्रत्‍येक व्‍यवसाय के अन्‍तर्गत अनेक कार्य आते हैं।

आधुनिक समय में सामान्‍य जीवन इस सीमा तक जटिल हो चुका है कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को समाज में रहते हुए अपने दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं की पूर्ति हेतु कोई न कोई व्‍यवसाय अवश्‍य अपनाना पड़ता है। इसीलिए संगीत साधना में लीन व्‍यक्‍ति भी इन नैतिक कठोरताओं के व्‍यास से बाहर पग नहीं रख सकता अर्थात्‌ उसके लिए भी न्‍यूनाधिक रूप में जीविकोपार्जन करना अति आवश्‍यक होता है।

Witness thefact that in lords prayer the first petition is for daily bread no one can covership God or love his neighbour on an empty stomach.[2]

इसी कारण संगीत जैसी पवित्रा संवेदात्‍मक व अलौकिक आनन्‍द प्रदान करने वाली ललित कला को भी व्‍यवसायों की श्रृंखला में सम्‍मिलित होना पड़ा।

संगीत जिस प्रकार आध्‍यात्‍मिकता व रंजकता के क्षेत्र में अपना लक्ष्‍य व उपादेयता रखता है उसी प्रकार व्‍यवसायिक क्षेत्र में भी इसका अपना महत्‍व है। कहने का तात्‍पर्य है कि संगीत जहां एक ओर हमें रंजकता व आध्‍यात्‍मिकता की ओर अग्रसर करता है वहीं संगीत हमें अर्थ प्राप्‍ति भी कराता है और इस अर्थ की प्राप्‍ति हमें संगीत को ‘व्‍यवसाय' के रूप में अपनाने से होती है। व्‍यक्‍ति विशेष के व्‍यवसाय का उसके जीवन में महत्‍व केवल इसीलिए नही होता कि उसके जीवन का अधिकांश समय उसके व्‍यवसाय संबंधी क्रिया-कलापों में व्‍यतीत होता है बल्‍कि उसका महत्‍व सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से भी उसके जीवन में होता है क्‍योंकि व्‍यवसाय केवल जीविका उपार्जित करने का साधन ही नहीं है अपितु व्‍यक्‍ति विशेष के जीने का ढंग एवं उसके द्वारा समाज के लिए दिए गए योगदान का प्रतीक भी होता है। व्‍यवसाय मानव विशेष के विचार, प्रवृत्तियों, कौशल, जीवन शैली, जीवन स्‍तर व समाज में उसके योगदान को दर्शाता है उदाहरण के लिए यदि किसी व्‍यक्‍ति से किसी बाह्य स्‍थल पर उसका नाम उसके पिता का नाम और पिता का व्‍यवसाय जान लिया जाए तो उसकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्‍थिति तथा उसके सामर्थ्‍य का अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार व्‍यवसाय सीधे ही व्‍यक्‍ति की सामाजिक स्‍तर से संबंधित होता है। व्‍यक्‍ति को अपनी पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक स्‍थिति, शारीरिक, मानसिक सामर्थ्‍य व रुचि के अनुरूप ही व्‍यवसाय अपनाना चाहिए इस कारण संगीत प्रेमी, संगीत के विद्यार्थी आदि के लिए इसे ही व्‍यवसाय के रूप में अपनाना उचित भी है।[3] केवल व्‍यवसाय विशेष के प्रति इच्‍छा रखना ही पर्याप्‍त नहींं होता। जब महान वैज्ञानिक जगदीश चन्‍द्र बोस से उनकी सफलता का रहस्‍य पूछा गया तो उन्‍होंने कहा कि -

"The success depends 99% on persuasion and only 1% on inspiration."[4]

आज विश्‍व में संगीत व्‍यवसाय का अधिकाधिक विकास ही नहीं हो रहा अपितु वह धीरे-धीरे जटिल भी होता जा रहा है। संगीत व्‍यवसाय को सफलता के साथ चलाना एक आसान कार्य नहीं है। इसे सफलता के साथ चलाने के लिए निम्‍नलिखित मूल मंत्रों का ध्‍यान में रखना अति आवश्‍यक है ः-

1. साहस ः व्‍यवसाय एक अत्‍यंत साहस का कार्य है। प्रत्‍येक संगीत के व्‍यक्‍ति में वे सब गुण विद्यमान नहीं होते जो किसी कुशल व्‍यवसायी संगीतज्ञ में होने चाहिए। संगीत एक ऐसा विषय है जिसके व्‍यवसाय में अत्‍यधिक रूप से पूंजी खर्च होती है। केवल वे ही लोग व्यवसाय को प्रारम्‍भ करने की चेष्‍टा करते हैं जो अपनी पूंजी को दांव पर लगा सकते हैं। साहसी में यही गुण होता है कि वह भविष्‍य में आने वाली परिस्‍थितियों को पहले से ही अनुमानित कर लेता है।[5]

2- सुपरिभाषित उद्देश्‍य ः- किसी भी व्‍यवसाय को सफलता के साथ चलाने के लिए यह परम आवश्‍यक है कि उसके उद्देश्‍यों को स्‍पष्‍ट एवं निश्‍चित रूप से निर्धारित किया जाए बिना सुनिश्‍चित उद्देश्‍य के किसी भी व्‍यवसाय को सफलता के साथ नहीं चलाया जा सकता।[6] सर्वप्रथम व्‍यक्‍ति को अपनी अभिरुचि के अनुसार अपना शिक्षण पूर्ण करना चाहिए। कोई भी व्‍यवसाय करने से पहले उसे यह ध्‍यान रखना चाहिए कि वह किस क्षेत्र में समर्थ है उसका क्‍या उद्देश्‍य है जैसे ः-संगीतज्ञ, शिक्षक, नृतक, Music Arranger, शास्‍त्रकार, पत्रकार, मार्केटिंग, संगीत चिकित्‍सक, पार्श्‍व संगीत आदि जिस दिशा में भी वह कदम रखे उसके उद्देश्‍य सुपरिभाषित होने चाहिए।

3- उचित योजना ः- उद्देश्‍यों को सुनिश्‍चित करने के उपरान्‍त उन उद्देश्‍यों की पूर्ति हेतु उचित योजना तैयार की जानी चाहिए। योजना का तात्‍पर्य भविष्‍य के बारे में विचार करना, घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना, उनके अनुसार कार्यक्रम तैयार करना जैसे कोई संगीत संस्‍था खोलना, संगीत विद्यालय कोई निजी संस्‍था खोलना आदि उनमें कितने विद्यार्थी हों, कितने वाद्य, विद्यार्थियों के लिए क्‍या-क्‍या सुविधाएं होनी चाहिए आदि सभी मामलों के लिए एक उचित योजना तैयार करना और उसके अनुरूप व्‍यवसाय चलाना उसकी सफलता के लिए अति आवश्‍यक है।[7]

4- सुदृढ़ संगठन ः- संगीत व्‍यवसाय की सफलता इसके संगठनों के ऊपर भी बहुत कुछ निर्भर करती है। प्रत्‍येक व्‍यवसाय में आवश्‍यक व्‍यक्‍तियों की नियुक्‍ति करना उन्‍हें उचित स्‍थानों पर नियुक्‍त करना, उनमें कार्यों का समुचित वितरण करना, उनके अधिकारों को निश्‍चित करके सौंपना, संगीत के प्रत्‍येक क्षेत्र में आवश्‍यक व्‍यक्‍तियों की नियुक्‍ति करना जैसे - गायक, वादक, नर्तक उन्‍हें उचित स्‍थानों पर नियुक्‍त करके उनके आपसी सम्‍बन्‍धों को परिभाषित करना, उनमें आपस में परस्‍पर समन्‍वय तथा संतुलन स्‍थापित करना अति आवश्‍यक है।

5- व्‍यवसाय का स्‍थानीकरण ः- संगीत के किसी भी व्‍यवसाय की सफलता के लिए यह भी आवश्‍यक है कि उसे ऐसी जगह पर स्‍थापित किया जाए कि वहां से उसे सफलतापूर्वक संचालित किया जा सके। अनेक व्‍यवसायिक संस्‍थाएं या तो असफल हो जाती हैं या अधिक उन्‍नति नहीं कर पाती क्‍योंकि वे स्‍थानीकरण पर विशेष ध्‍यान नहीं देती। यदि व्‍यवसाय का स्‍थान (location) उचित नहीं है तो ग्राहकों को आकर्षित करने में कठिनाई होगी। इसलिए इन बातों पर समुचित ढंग से विचार करके ही उचित निर्णय लेना चाहिए।

6- ग्राहक संतुष्‍टि ः-

किसी भी व्‍यवसाय का मुख्‍य उद्देश्‍य लाभ कमाना है, लेकिन इसे ग्राहकों की संतुष्‍टि के बिना प्राप्‍त नहीं किया जा सकता। इसीलिए व्‍यवसायी को अपने ग्राहकों की रुचि, पसन्‍द और आवश्‍यकताओं को ध्‍यान में रखकर ही सेवाओं का उत्‍पादन करना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि कोई व्‍यक्‍ति सुगम संगीत में रुचि रखता है तो उसे भजन, गीत, गज़ल़ आदि की शिक्षा देनी चाहिए। यदि शास्‍त्रीय संगीत में रुचि है तो शास्‍त्रीय संगीत से सम्‍बन्‍धित शिक्षा देनी चाहिए क्‍योंकि इस तरह से ग्राहक की संतुष्‍टि तो होगी ही साथ ही ग्राहक की संगीत के प्रति रुचि और अधिक बढ़ जाएगी।

7- व्‍यवसाय में निरंतरता ः- व्‍यवसाय नियमित रूप से निरन्‍तर सम्‍पादित होने वाला कार्य है। क्षणिक लाभ की भावना से प्रेरित होकर किया गया कोई कार्य व्‍यवसाय के अध्‍ययन के क्षेत्र से बाहर माना जाएगा उदाहरणार्थ यदि किसी व्‍यक्‍ति के पास कोई पुराना वाद्य है और उसे बेचकर वह लाभ अर्जित कर लेता है तो उसके इस कार्य को व्‍यवसाय की संज्ञा कदापि नहीं दी जा सकती किन्‍तु यदि वही व्‍यक्‍ति उन्‍हीं वाद्यों को नियमित रूप से क्रय कर बेचने का कार्य प्रारम्‍भ कर दे तो उसे हम व्‍यवसाय कहेंगे।

8- पर्याप्‍त वित्त ः- वित्त किसी भी व्‍यवसाय का निःसंदेह जीवन रक्‍त है। बिना पर्याप्‍त वित्त अथवा पूंजी के कोई भी व्‍यवसाय अपने उद्देश्‍य की पूर्ति नहीं कर सकता यदि पूंजी कम होगी तो भी कठिनाई होगी और यदि पूंजी अधिक होगी तो भी यह उचित नहीं है। वित्त के बिना किसी भी व्‍यवस्‍था को संचालित करना असम्‍भव है। वित्त की मात्रा निर्धारित करते समय व्‍यवसाय के थोड़े समय तथा लम्‍बे समय के दोनों ही उद्देश्‍यों को ध्‍यान में रखना चाहिए और उसी के अनुसार स्‍थायी पूंजी (Fixed Capital) तथा चालू पूंजी (Working Capital) की मात्रा निश्‍चित करनी चाहिए।

9- कुशल प्रबन्‍ध और नेतृत्‍व ः- व्‍यवसाय की सफलता के लिए आवश्‍यक यदि उपरोक्‍त सभी तत्‍व विद्यमान हों किन्‍तु उसका प्रबन्‍धक अकुशल हो तो व्‍यवसाय कभी भी सफल नहीं हो सकता। कभी-कभी प्रबन्‍धक संगीत की थोड़ी बहुत शिक्षा लेकर अपने विद्यार्थी को वही रागों की कुछ अथवा सीमित शिक्षा देते हैं। उन्‍हें विषय की गहराई ना समझाते हुए केवल व्‍यवसायिक दृष्‍टि से ही सिखाते हैं जिससे विद्यार्थी सम्‍पूर्णता से विषय का अध्‍ययन नहीं कर पाते। इसलिए व्‍यवसाय छोटा हो या बड़ा उसकी सफलता बहुत कुछ उसके प्रबन्‍धक की कुशलता पर निर्भर करती है यदि प्रबन्‍धक कुशल है तो वह एक असफल व्‍यवसायिक संस्‍था को सफल व्‍यवसायिक संस्‍था में आसानी से बदल सकता है।[8]

10- अनुसंधान और विकास की गतिविधियां ः- आज संगीत के प्रतिस्‍पर्द्धात्‍मक व्‍यवसायिक युग में यह अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है कि संगीत के विभिन्‍न क्षेत्रों में शोध करने की समुचित व्‍यवस्‍था की जानी चाहिए। कोई भी व्‍यवसाय तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि निरन्‍तर अनुसंधान और विकास द्वारा उसे पहले से श्रेष्‍ठतर बनाने का प्रयास न किया जाए। संगीत व्‍यवसायी को यह प्रयत्‍न करना चाहिए कि संगीत कला में श्रेष्‍ठता का विकास हो और ग्राहकों को दी जाने वाली सेवाओं में सुधार हो। संगीत व्‍यवसाय की अधिकतम सफलता के लिए हर सम्‍भव क्षेत्र में अभिनव परिवर्तन की आवश्‍यकता होती है और यह शोध के द्वारा ही सम्‍भव है।

निःसंदेह यह कटु सत्‍य है कि एक संगीत साधक को समाज की कठोरताओं का सामना करते हुए अर्थोपार्जन के प्रश्‍न को स्‍मृति में रखना पड़ता है परन्‍तु इस क्रिया में अर्थात्‌ अपने कला कौशल का व्‍यवसाय करते हुए कला के आदर्शों व गरिमा के स्‍तर को सदैव दृष्‍टिगत रखना चाहिए।[9] कहने का तात्‍पर्य यह है कि यदि कोई संगीतकार अपनी कला का प्रयोग जीविकोपार्जन के उद्देश्‍य से करता है तो कला के नैतिक मूल्‍यों, मर्यादाओं, मान, प्रतिष्‍ठा व गौरव आदि के स्‍तर को गगनोमुखी रखना अर्थात्‌ संगीत कला का उत्तरोत्तर विकास करना उसका परम कर्त्तव्‍य है।


[1] संगीत मासिक पत्रिका, अप्रैल 1968, पृ. 41

[2] व्‍यवसायिक व औद्योगिक संगठन,एस.सी सक्‍सेना, अध्‍याय-1, पृ. 2

[3] भारतीय संगीत ः शिक्षा और उद्देेश्‍य, डॉ. पूनम दत्ता, पृ. 163

[4] भारतीय संगीत ः शिक्षा और उद्देश्‍य, डॉ. पूनम दत्ता, पृ. 163

[5] व्‍यवसायिक संगठन, मुकेश तरहन, पृ. 3

[6] व्‍यवसाय संगठन एवं प्रबन्‍ध, जगदीश प्रकाश, पृ. 11

[7] व्‍यवसायिक संगठन, मुकेश तरहन, पृ. 19

[8] व्‍यवसायिक व औद्योगिक संगठन, एस.सी. सक्‍सेना, पृ. 14

[9] संगीत मासिक पत्रिका, अप्रैल 1968, पृ. 41

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चित्र – साभार – एबीसी न्यूज

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रचनाकार: कविता शर्मा का आलेख : सफल व्‍यवसायी संगीतज्ञ बनने के लिए मूल मंत्र
कविता शर्मा का आलेख : सफल व्‍यवसायी संगीतज्ञ बनने के लिए मूल मंत्र
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