यशवन्‍त कोठारी का व्यंग्य - दामाद: एक खोज

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अपनी साली की शादी में जाने का मेरा कोई विचार ही नहीं था। सोचता था कि पत्‍नी अपनी दोनों बच्‍चियों को लेकर चली जाएगी और सब काम सलटा क...

अपनी साली की शादी में जाने का मेरा कोई विचार ही नहीं था। सोचता था कि पत्‍नी अपनी दोनों बच्‍चियों को लेकर चली जाएगी और सब काम सलटा कर आ जाएगी। मगर पत्‍नी का आग्रह बड़ा विकट था; आग्रह क्‍या, आदेश ही था दोनों लड़कियाँ जवान हो गई हैं और उनके लिए दूल्‍हा ढूँढने का यह एक स्‍वर्णिम अवसर था। आखिर मैंने हार मानी और साथ जाने के लिए कार्यालय से छुट्‌टी ले ली। जी․पी․एफ․ से कुछ ऋण लिया, साली की लड़की के लिए एक अच्‍छा सा गिफ्‍ट लिया और चल पड़ा साली की लड़की की शादी के साथ-साथ अपनी लड़कियों के लिए भी दामाद की खोज करने।

दामाद की खोज में मेरी इकलौती साली को महारत हासिल थी। आखिर उसने अपनी दोनों बच्‍चियों के लिए अच्‍छे-से अच्‍छा वर ढूँढा था। वर-वधू, विवाह और विवाह के लिए घर-परिवार, मित्रों, परिचितों, रिश्‍तेदारों में विज्ञापन करने का मौका साली जी नहीं छोड़ती थीं और इसी का परिणाम था कि एक-से-एक अच्‍छे रिश्‍ते आते चले गए, वह छाँटती चली गई और अंत में सर्वगुण-संपन्‍न दामाद पाने में सफल हुई। पत्‍नी भी आखिर में अपनी बड़ी बहन की शरण में दामाद खोजने हेतु आ गई। साली की शरण में मैं भी चला गया, ताकि अपनी सुंदर-सुशील सुताओं के लिए हैंडसम, प्रोफेशनल तथा कमाऊ दामाद ढूँढ सकूँ।

दामाद की खोज करने के लिए मुझे पत्‍नी ने कुछ टिप्‍स बताए। सालीजी ने भी इन टिप्‍स को सही किया और सालीजी की लड़की की शादी के बाद इस खोज कार्यक्रम को जारी रखने का निर्णय लिया गया।

साली की लड़की की शादी में दूर-पास के सब रिश्‍तेदार आए थे। बिरादरी में साली के परिवार की बड़ी पूछ थी, सो शहर के नामी व्‍यापारी, अफसर, छुटभैया नेता सभी आए थे। बिरादरी के लोगों में मैंने भी बहनोईजी की मार्फत अपनी बच्‍चियों के बायोडाटा इधर-उधर करने शुरू किए। प्रारंभ में लोगों ने औपचारिकता का निर्वाह किया।

‘‘ज्‍यों ही आपकी बच्‍ची के लायक कोई लड़का निगाह में आएगा, तुरंत आपको खबर कर देंगे।'' एक अन्‍य सज्‍जन बोले।

‘‘आजकल दहेज की बात तो समाप्‍त हो गई है, मगर कन्‍या यदि कामकाजी हो तो बेहतर रहता है।''

मैंने भी उनकी हाँ-में-हाँ मिलाते हुए कहा,‘‘ प्रोफेशनल है, जॉब मिलने में कोई दिक्‍कत नहीं आएगी। बस, एक बार बात पक्‍की हो जाए तो जॉब दिला देंगे।''

‘‘तो फिर ठीक है, जहाँ कहीं बात जमेगी, मैं आपको सूचित कर दूँगा।''

इधर मेरी पत्‍नी ने जनवासे-बरात से लगाकर दूर-पास के सभी रिश्‍तेदारों में अपनी लड़कियों के गुण गाने शुरू कर दिए-‘‘लड़कियाँ पढ़ी-लिखी हैं, एक एम․बी․ए․ तो दूसरी इंजीनियर हैं। सो आप निश्‍चिंत रहें।''

महिलाओं ने तुरंत कहा, ''प्रोफेशनल हैं, ये तो अच्‍छी बात है; मगर कहीं जॉब करा दें तो ठीक रहेगा। आजकल दोनों के कमाने का जमाना है। नई पीढ़ी डिंक होती है।''

‘‘डिंक माने क्‍या ?''

‘‘डिंक माने डबल इन्‍कम नो किड।''

‘‘अच्‍छा, वो क्‍यों ?''

‘‘कैरियर के लिए बच्‍चों की आवश्‍यकता नहीं। कैरियर ही सबसे बड़ी बात है।'' एक महिला ने जानकारी दी।

बातचीत शादी से शुरू होकर शादी पर खत्‍म हो जाती। साली की लड़की की शादी आराम से हो गई। रिश्‍तेदार अपने-अपने घर चले गए। एकांत में पत्‍नी ने दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, ये तो बताओ कि इतनी सुंदर जोड़ी तुमने जमाई कैसे ?''

‘‘अरे छोटी, बड़े पापड़ बेले हैं मैंने। इनके भरोसे रहती तो यह काम भी ढंग से नहीं होता। इन्‍होंने तो केवल बजट की स्‍वीकृति दी है, बाकी सब काम-काज मैंने ही निपटाया है।''

‘‘अच्‍छा, वो कैसे ?''

‘‘पहले लड़की का बायोडाटा बनाया, रिश्‍तेदारों को भेजा। जवाब नहीं आया। अखबार में विज्ञापन दिया। जो रेसपोंस आए, उनको एक-एक करके प्रयास किए। कुछ हमें नहीं जमे, कुछ उन्‍हें। फिर लड़की ने इंटरनेट पर भी बायोडाटा दिया। दूल्‍हा-दुलहन डॉट काम, शादी डॉट कॉम, मेट्रिमोनियल डॉट कॉम, जैन टू-जैन डॉट कॉम और कई साइटों पर बायोडाटा चला दिए। इन स्‍थानों से रेसपोंस जल्‍दी आए।''

‘‘फिर ?''

‘‘इनमें से कुछ फर्जी निकले, कुछ काम के नहीं थे। विदेशों से आए रेसपोंस की जाँच जरूरी थी, अतः हमने पहले देशी स्‍थानों पर ही प्रयास किए। लड़के वाले समझदार थे। जल्‍दी ही बातचीत शुरू कर दी। लड़का हमें पसंद आ गया, उन्‍हें लड़की पसंद आ गई। आखिर इंजीनियर लड़की वेतन बीस हजार रुपए मासिक कैसे पसंद नहीं आती !''

दीदी हँसने लगी।

‘‘हाँ, आज नहीं तो कल। दामाद की खोज के लिए यह सब आवश्‍यक हो गया है। अब पहले वाला जमाना तो रहा नहीं कि सेवक, नाई, पंडित सगाई लेकर जाएँ। अब तो इन्‍हीं साधनों का सहारा लेना पड़ता है। एक बात और आजकल लड़कियों की कमी है। अपनी बिरादरी में दस लड़कों पर सात लड़कियाँ हैं और अच्‍छी लड़कियाँ चार से पाँच होती है। ऐसी स्‍थिति में समाज ने दान-दहेज का नाम लेना बंद कर दिया है।''

‘‘वो तो ठीक हैं दीदी, मगर अच्‍छे लड़के भी तो कम हैं!''

‘‘कम हैं, मगर मिल जाते हैं। खोज करते-करते कोलंबस कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया!''

‘‘दीदी, ठीक है। हमारे कोई लड़का तो है नहीं, सो हम तो इन्‍हीं दो लड़कियों की शादी के लिए दामाद ढूँढ रहे हैं।'' मैंने कहा।

साली बोल पड़ी, ‘‘दामाद-और अपनी पसंद का दामाद ढूँढना मुश्‍किल तो है, लेकिन असंभव नहीं। सर्वप्रथम आप अपनी पसंद निश्‍चित कीजिए।

‘‘पसंद मतलब ?'' पत्‍नी ने गंभीरता से पूछा।

‘‘आप कैसा दामाद चाहते हैं ?''

‘‘दामाद कैसा भी हो, चलेगा।''

‘‘नहीं, यह बात ठीक नहीं है। दामाद के विषय में आपकी चॉइस बिलकुल साफ होनी चाहिए, तभी आप मंजिल तक पहुँच सकेंगे।''

‘‘हाँ, हमारी चॉइस साफ है। लड़का सुंदर-गोरा हो, जो अपने पाँवों पर खड़ा हो।''

‘‘और घर-बार ?''

‘‘वह भी ठीक ही होना चाहिए।''

‘‘तो अब आपकी इच्‍छा का दामाद ऐसा होगा-सुंदर-गोरा, जो अपने पाँवों पर खड़ा हो। नौकरी या व्‍यवसाय करता हो।''

‘‘हाँ, और बड़ा दामाद कम-से-कम इंजीनियर बड़ी लड़की इंजीनियर है और छोटी के लिए भी प्रोफेशनल लड़का ही ठीक रहेगा।'' मैंने कहा।

‘‘तो आपकी खोज के पैरामीटर तय हो गए हैं-अर्थात्‌ आपको जो लड़के चाहिए, उनकी रूपरेखा आपके दिमाग में स्‍पष्‍ट हो गई है। अब अपनी बिरादरी में नजर दौड़ाइए और इस योग्‍यता के लड़के देखिए। यदि नहीं हैं तो अखबार में विज्ञापन दीजिए। बायोडाटा भेजिए-मँगवाइए और देखिए, शीघ्र ही काम शुरू कर दीजिए।''

‘‘दीदी, कुंडली, शनि, मंगल का चक्‍कर ?''

‘‘ये सब छोड़ो, आजकल शनि-मंगल का जमाना नहीं है, कर्म पर विश्‍वास रखने का जमाना है। अपने पिताजी ने भी कुंडली नहीं मिलाई, फिर भी हम सब सुखी हैं और जीवन आनंद से बीत रहा है।''

मैं पत्‍नी के साथ वापस लौट आया। दफ्‍तर जाने लगा। दोनों लड़कियाँ पढ़ाई में व्‍यस्‍त थीं। पत्‍नी सुबह-शाम मुझे कोंचती थी। दीदी का दिया हुआ ज्ञान हमारे पास था। हम दामाद की खोज में एक सीढ़ी पार कर चुके थे। बिरादरी में पढ़े-लिखे कम थे, नौकरियाँ थी नहीं, व्‍यापार-व्‍यवसाय लड़कों के बापों के नाम थे। लड़के कम ही थे, जो होशियार थे। इधर, बच्‍चियों की उम्र भी बढ़ रही थी।

मैंने राष्‍ट्रीय अखबारों में विज्ञापन दिए। काफी बायोडाटा आए। उन्‍हें छाँटा। हम दोनों लड़का देखने निकले।

एक स्‍थान पर लड़के के पिता ने स्‍पष्‍ट रूप से दहेज की माँग रख दी। हम लड़का देखे बिना ही चल दिए। दूसरे स्‍थल पर लड़के की हाइट बायोडाटा के हिसाब से कम थी। उसी शहर में एक अन्‍य लड़के की योग्‍यता लिखे अनुसार नहीं थी। एक लड़के के पिता ने लड़की की मार्कशीट की माँग की।

पत्‍नी बोली, ‘‘आप शादी लड़की से करेंगे या मार्कशीट से ?''

‘‘वो तो ठीक है बहनजी, मगर सब चीजों की जानकारी आवश्‍यक है, बाद में टेंशन ठीक नहीं रहता है।''

हम फिर आगे चले।

एक लड़के के पिता ने कहा, ‘‘आपकी बच्‍ची की सभी योग्‍यताएँ ठीक हैं, बस हाइट जरा कम है।''

पत्‍नी ने फिर कहा, ‘‘ हाइट से क्‍या होना-जाना है। आजकल ऊँची एड़ी की सैंडिल पहनने से जोड़ी ठीक लगती है।''

मगर लड़के के पिता नहीं माने। वे चाहते थे कि एड़ी के नीचे नोटों की गड्‌डी रखकर हाइट बढ़ाई जाए।

हम दामाद की खोज में आगे बढते गए। शहर-दर-शहर, कॉलोनी-दर-कॉलोनी, गाँव-दर-गाँव, कस्‍बा-दर-कस्‍बा हम चलते रहे। मंजिल का कहीं पता न था।

जॉन आस्‍टिन का उपन्‍यास ‘प्राइड ऐंड प्रिंज्‍यूडिस' मैने इस दौरान दो बार पढ़ा। विक्रम सेठ का ‘ए सुटेबल बॉय' भी पढ़ा। भारतीय संस्‍कृति में घर-परिवार की व्‍यथा-कथा भी देखता चला गया।

एक स्‍थान पर लड़की की उम्र लड़के से ज्‍यादा निकली। लड़के वाले तैयार थे, मगर मेरी बच्‍ची ने मना कर दिया। वास्‍तव में मैं और पत्‍नी भी इस बेमेल विवाह के लिए तैयार नहीं थे। वे लड़की की कमाने की योग्‍यता से प्रभावित थे, मगर बात बनी नहीं।

इंटरनेट पर शादी के लिए जो विवरण भेजे गए थे, उनमें से कुछ विदेशी विवरण थे। इनमें से अधिकांश लोग जल्‍दी ही भारत आकर शादी करने को इच्‍छुक थे। कुछ परमवीर शादी के तुरंत बाद वापस जाना चाहते थे। कुछ मित्रों ने बताया कि इन विदेशियों का भरोसा नहीं, कुछ एक बार वहाँ शादी कर चुके होते हैं, कुछ वीजा, ग्रीनकार्ड व कानूनी पेचीदगियों के कारण शादी का नाटक करते हैं। उनसे बचने में ही भलाई है। मैं समझ गया कि विदेशी दामाद की खोज करना बेकार है।

देशी दामादों की ओर पुनः ध्‍यान देना शुरू किया। कुछ अच्‍छे प्रपोजल अखबारी दुनिया से आए थे। ये भावी दामाद आस-पास के थे, सभी पढ़े-लिखे थे, बस रोजगार का मामला जरा कच्‍चा था। इनके पिता उच्‍च पदों पर थे, मगर लड़कों को नौकरी दिलाना मुश्‍किल काम था।

एक लड़के के पिता ने मुझसे कहा, ‘‘दान-दहेज नहीं चाहिए। आप तो भावी दामाद को किसी सरकारी, गैर-सरकारी स्‍वयंसेवी संस्‍था में घुसा दें।'' मगर यह छोटी सी शर्त बहुत बड़ी थी।

एक अन्‍य भावी समधी ने कहा, ‘‘आपकी लड़की कमाएगी और लड़का घर सँभाल लेगा।'' मगर मेरी छोटी लड़की ने इस प्रस्‍ताव को सिरे से ठुकरा दिया।

खारिज प्रस्‍तावों की एक बड़ी फाइल बन गई थी। बायोडाटा की फाइल से मैं रोज नए प्रस्‍ताव निकालता। पत्‍नी-बच्‍चियों से चर्चा करता और सिंदबाद की नई यात्रा हेतु निकल पड़ता।

लड़कियाँ अपनी पढ़ाई के अंतिम दौर में थीं। शीघ्र ही उनकी नियुक्‍ति की संभावना थी। मैं और पत्‍नी चाहते थे कि शीघ्र ही इनके हाथ पीले हो जाएँ तो गंगा नहाएँ; मगर बात बन ही नहीं रही थी।

इस बार मैंने कुछ ऐसे लड़के छाँटे, जो मध्‍यम वर्ग के नौकरी-पेशा वाले थे। ये बड़े शहरों में सेट होने के लिए कस्‍बों से आए थे। एक लड़के ने स्‍पष्‍ट कहा, ‘‘अंकलजी, बहन की शादी के बाद ही इस मैं विचार करूँगा।'' एक अन्‍य लड़का भी इसी प्रकार की परेशानी से लड़ रहा था।

लड़के देखने के इस दौर में मुझे कुछ लोगों ने सलाह दी कि यदि आपके घर में एक लड़का भी हो तो बहू को साथ ही ढूँढ लो तथा यदि बहू ठीक मिल जाए तो दामाद ढूँढने में आसानी हो सकती है; मगर हमारे लिए यह संभव नहीं था। दोनों लड़कियों के लिए भावी दामाद ही हमारे लड़के होने वाले थे। एक लड़का घरजमाई बनने को तैयार था, मगर इस बार भी लड़की ने मना कर दिया।

एक भावी दामाद लड़की देखने घर आया। लड़की से बातचीत के बाद बोला, ''अंकल, मेरी सैलेरी काफी कम है और प्राइवेट सर्विस है, कभी भी छूट सकती है।''

इस जानकारी के बाद लड़की ने फिर मना कर दिया। इधर, हम सामूहिक विवाह और परिचय सम्‍मेलन में भी गए, मगर परिणाम वही-ढाक के तीन पात ! जो अच्‍छे घर-परिवार थे, वे वहाँ पर जाते ही नहीं थे; जो दूसरे दर्जे के लोग थे, वे कामकाजी-पढ़ी-लिखी नहीं, घरेलू दुलहन चाहते थे।

दामाद की खोज में मेरे हाथ-पाँव अब ठंडे होने लगे थे। इस संपूर्ण कार्यक्रम के कारण घर-परिवार, नाते-रिश्‍ते, मित्र-परिचित पीछे छूट रहे थे। मैं, पत्‍नी और बच्‍चियाँ कभी-कभी उदास हो जाते। कभी अपनी बात सँभालने के लिए कहते, ‘योग आते ही सब ठीक हो जाएगा।'

‘‘क्‍या करें, योग ही नहीं है ?''

‘‘इस सीजन में जरूर सब ठीक हो जाएगा।''

वर्षा बीती। शरद आई। दीपावली आई-गई। अब शादियों के नए सीजन शुरू हो गए थे। हमें पूरी उम्‍मीद थी कि इस नए सीजन में हमें हमारे दामाद मिल जाएँगे और दामादों की हमारी खोज पूरी हो जाएगी।

नए सीजन में हमारे यहाँ भी शहनाई बजेगी। बारात आएगी। इसी आशा में मैंने इस बार कंप्‍यूटर पर स्‍वयं पत्र-व्‍यवहार किया। लड़के पड़ोस के शहर के थे, जाने-पहचाने निकले। जो दामाद मिले वे पढ़े-लिखे-इंजीनियर, सॉफ्‍टवेयर की दुनिया के हैं। दान-दहेज नहीं देना पड़ा। लड़कियों की पंसद के अनुकूल लड़के मिल गए। लड़कों के माँ-बाप ने भी सामान्‍य शादी की ही बात रखी, जो हमने सहर्ष मंजूर कर ली। शादियाँ सानंद हो गई। मेरी दोनों बच्‍चियाँ सुखी और संतुष्‍ट हैं और दोनों दामाद मुझे व पत्‍नी को बेटों की तरह ही पालते-पोसते हैं। हम अपनी खोज से खुश हैं।

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यशवन्‍त कोठारी

86, लक्ष्‍मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर,

जयपुर-302002 फोनः-2670596

ykkothari3@yahoo.com

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रचनाकार: यशवन्‍त कोठारी का व्यंग्य - दामाद: एक खोज
यशवन्‍त कोठारी का व्यंग्य - दामाद: एक खोज
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