वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख - हिन्‍दी कहानियों में दलित चेतना

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  कुछ परम्‍परावादी हिन्‍दी समीक्षकों का मानना है कि हिन्‍दी का दलित साहित्‍य अभी श्‍ौशवावस्‍था है जबकि यह अपने यौवनावस्‍था के दहलीज पर ...

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कुछ परम्‍परावादी हिन्‍दी समीक्षकों का मानना है कि हिन्‍दी का दलित साहित्‍य अभी श्‍ौशवावस्‍था है जबकि यह अपने यौवनावस्‍था के दहलीज पर ही नहीं, इतने कम समय में ही प्रौढ़ावस्‍था की उस स्‍थिति तक पहुँच चुका है जिस पर किसी भी साहित्‍यिक विचारधारा या साहित्‍यादर्श को अपने ऊपर नाज होता है। ‘विद्रोह' और ‘विद्रोही' को जिस हेय दृष्‍टि से देखा जाता है उनके मन्‍तव्‍य को समझाना ही सच्‍चे अर्थों में दलित साहित्‍य को समझना होगा-जो यही चाहते हैं कि जातिगत समाज का अंत हो, वर्णगत भेदभाव समूल नष्‍ट हो तथा इसकी जगह ‘समतामूलक समाज' की स्‍थापना और ‘शोषणमुक्‍त समाज' का निर्माण हो। इसके आन्‍दोलन पर दृष्‍टिपात करें तो इसका लक्ष्‍य अतीत और वर्तमान के सत्‍य को उद्‌घाटित करना ही है। दलित आन्‍दोलन की शक्‍ति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने विगत दो-तीन दशकों में ही समूचे लेखक वर्ग को कमोवेश मात्रा में अवश्‍य प्रभावित किया है।

विमल थोराट के शब्‍दों में कहें तो दलित लेखन में एक नई पीढ़ी नये सवालों को लेकर आ रही है। उनमें से कुछ तो दलित साहित्‍य ही नहीं, बल्‍कि पूरे दलित आन्‍दोलन में एक एक्‍टीविस्‍ट की तरह काम कर रहे हैं, वे ज्‍वलंत प्रश्‍नों से अच्‍छी तरह से वाकिफ हैं और उनके निराकरण के लिए संघर्षशील भी। ऐसे रचनाकारों की रचनाएं दलित जीवन की सच्‍चाई को उजागर करने के साथ-साथ उसके भविष्‍य को गढ़ने के प्रयास भी दिखते हैं। मुझे ऐसा विश्‍वास है कि जीवन-बोध और रचनात्‍मकता के यही प्रयास दलित साहित्‍य के भविष्‍य के आधार स्‍तम्‍भ होंगे। (हंस, अगस्‍त, 2004, पृ0-231, दलित स्‍त्री के तिहरे शोषण को साहित्‍य में उठाया जाना चाहिए, पृ0-231)।

दलित साहित्‍य स्‍वातंत्र्योत्‍तर और उसमें साठोत्‍तरी हिन्‍दी साहित्‍य में अपना विशिष्‍ट स्‍थान रखता है परंतु चर्चा के केन्‍द्र में 20वीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्द्ध में मराठी दलित साहित्‍य के उफान के बाद इसी शताब्‍दी के अंतिम दो-तीन दशकों में उस स्‍थान पर पहुँचता है जिस स्‍थान पर आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य का गद्य और पद्य पिछले सौ-डेढ़सौ सालों में पहुँचता है। कहना न होगा कि जिस तरह से आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य में सौ-डेढ़ सौ साल में राष्‍ट्रीय और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जो अपनी पहचान बनाते हुए श्रेष्‍ठता सिद्ध की है, दलित साहित्‍य ने भी वही काम पिछले दो-तीन दशकों में किया है। मोहनदास नैमिशराय ने ठीक ही कहा है कि, ‘‘हम हिन्‍दी दलित साहित्‍य को हिन्‍दी साहित्‍य के समांतर एक आन्‍दोलन मानते हैं। मैं हिन्‍दी दलित साहित्‍य को हिन्‍दी साहित्‍य का अंग नहीं मानता। क्‍योंकि अगर यह अंग होता तो दलित साहित्‍य का स्‍वरूप हिन्‍दी साहित्‍य से अलग नहीं होता।'' (कल के लिए, दिसम्‍बर 1998 पृ0-60) यही कारण है कि दलित रचनाकार अपनी रचनागत लड़ाई के केन्‍द्र में वर्ण, वर्ग और सवर्ण को रखता है। इसलिए दलित रचनाकार गैर दलित साहित्‍य चर्चा दलित साहित्‍य के अन्‍तर्गत नहीं करते और यदि कहीं किया भी है तो मात्र उसकी वर्णगत सीमाओं को रेखांकित रखने के लिए ही।

दलित साहित्‍यकार, दलित साहित्‍य को मुख्‍यतः तीन भागों में बांटकर चलता है। (1) मनुवादी साहित्‍य जहाँ सनातनी मूल्‍यों की स्‍थापना की बात होती है। जैसे-ब्रह्मा, ईश्‍वर, स्‍वर्ग, नरक, वर्ण, जाति आदि। (2) गैर दलित साहित्‍यकार जो दलितों को केन्‍द्र में रखकर समय-समय पर कुछ लिखते रहे। जैसे-प्रेमचन्‍द्र, निराला, अमृतलाल नागर, मार्कंण्‍डेय, मैनेजर पाण्‍डेय, नामवर सिंह, राजेन्‍द्र यादव, कमलेश्‍वर आदि। और (3) दलित जीवन और उनकी समस्‍याओं पर लिखा गया वह साहित्‍य जो दलित रचनाकार लिखता है और जिसके केन्‍द्र में अम्‍बेडकरवादी विचारधारा व्‍याप्‍त है।

पहले पर यहाँ चर्चा करने की आवश्‍यकता नहीं। दूसरे में स्‍वतंत्रता पूर्व कहानीकारों प्रेमचन्‍द्र, निराला, राहुलजी, यशपाल आदि के साथ-साथ स्‍वातंत्र्योत्‍तर कथाकारों मार्कण्‍डेय, अमरकांत, शिवप्रसाद सिंह, राजेन्‍द्र यादव, रमणिका गुप्‍ता, उदयप्रकाश, मुद्राराक्षस, वीरेन्‍द्र सिंह यादव इत्‍यादि को रखा जा सकता है।

तीसरे में मोहनदास नैमिशराय, श्‍यौराज सिंह बेचैन, पुरुषोत्‍तम सत्‍यप्रेमी, पुन्‍नीसिंह, ओमप्रकाश वाल्‍मीकि, प्रेम कपाड़िया, जयप्रकाश कर्दम, रत्‍नकुमार सांभरिया, सूरजपाल चौहान, भागीरथ मेघवाल, डॉ0 दयानंद बटोही, सुदर टाकभौरे, डॉ0 चन्‍द्रेश्‍वरकर्ण, डॉ0 तेजसिंह, बाबूलाल खांडा, प्रल्‍हादचन्‍द्र दास, रामचन्‍द्र, आदि चर्चित रचनाकार आते हैं। महिला कथाकारों में कावेरी, रजतरानी मीनू, सुशीला टाकभौरे, ऊषा चन्‍द्रा आदि उल्‍लेखनीय हैं।

प्रेमचन्‍द्र हिन्‍दी कथा साहित्‍य में अपना विशिष्‍ट स्‍थान रखते हैं। वस्‍तुतः हिन्‍दी कथा साहित्‍य के क्षेत्र में प्रेमचन्‍द्र का आगमन एक अभूतपूर्व घटना ही नहीं, क्रान्‍तिकारी तथा ऐतिहासिक घटना है। सन्‌ 1900 ई0 के आसपास से इनका कथा लेखन पहले उर्दू तथा बाद में हिन्‍दी के माध्‍यम से सामने आता है। हिन्‍दी की पहली कहानी का प्रकाशन भी सन्‌ 1900 ई0 के बाद ही ‘सरस्‍वती' में होता है। यह वह युग है जिसे हिन्‍दी कहानी के विकास का प्रथम चरण माना जाता है। इसी समय को आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य में दलित संघर्ष की शुरुआत भी माना जाता है। जब कवि हीराडोम की कविता ‘अछूत की शिकायत' को महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्‍वती में छापते हैं। यद्यपि यह कविता भोजपुरी में भी छप चुकी थी तथापि मध्‍यकालीन कवियों कबीर, रैदास आदि के साथ हीराडोम की उस कविता में आधुनिक एवम्‌ समकालीन दलित कहानी लेखक दलित चेतना का स्‍वरूप निर्धारित करने में महत्‍वपूर्ण ऊर्जा प्राप्‍त करते हैं। एकतरफ इस युग में प्रेमचन्‍द्र कथा-साहित्‍य को आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद की तरफ ले जाते हैं, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक मंच पर महात्‍मा गांधी, डॉ0 बाबा साहेब भीमराव अम्‍बेडकर का नाम उभरकर सामने आता है। प्रेमचन्‍द्र साहित्‍य द्वारा छुआछूत, जातपात आदि का विरोध करते हैं और महात्‍मा गांधी आजादी के आन्‍दोलन में सभी धर्मों, जातियों, वर्णों तथा सम्‍प्रदायों का सहयोग चाहते थे। वहीं अछूतोद्धार कार्यक्रम भी काँगे्रस के अन्‍दर लाते हैं। परन्‍तु डॉ0 अम्‍बेडकर अपनी ‘विद्रोही' और ‘विस्‍फोटक' चेतना के साथ तब न केवल भारत की आजादी ही चाहते थे अपितु अछूतों को हिन्‍दू धर्म से छुटकारा दिलाना चाहते थे। वस्‍तुतः तब अम्‍बेडकर की उपस्‍थिति न केवल राजनीतिक मंच पर ही वरन्‌ सामाजिक मंच पर भी सक्रियता के साथ दर्ज कराती है। इन सन्‍दर्भों का जिक्र यहाँ इसलिए करना पड़ रहा है कि प्रेमचन्‍द्र सरीखे कलाकार अपने शुरुआती दौर में जहाँ गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होते हैं वहाँ अपने अन्‍तिम दौर में प्रगतिशील आन्‍दोलन से जुड़कर यथार्थवाद की जमीन पर उतर आते हैं और ‘ठाकुर का कुआँ', ‘कफन', ‘मंत्र मंत्र दो', ‘सद्‌गति', ‘दूध का दाम', ‘पूस की रात', ‘मंदिर', ‘गुल्‍ली डंडा', ‘लांछन', ‘सौभाग्‍य के कोड़े', ‘शूद्र', ‘झूठ', ‘मुक्‍तिमार्ग', ‘विश्‍वास', ‘आगा पीछा' आदि जैसी कहानियाँ लिखकर प्रेमचन्‍द्र दलित आन्‍दोलन में कुछ हद तक महत्‍वपूर्ण रचनात्‍मक योगदान देते हैं। वस्‍तुतः 20वीं शताब्‍दी के प्रथम तीन-चार दशकों का उल्‍लेख किया जाए तो प्रेमचन्‍द्र शायद पहले ऐसे रचनाकार हैं जो पहली बार भारतीय हिन्‍दी समाज में नरक भोगते हुए दलितों या शूद्रों को अपनी कहानियों का प्रमुख विषय बनाते हुए उनकी यातनाओं का सम्‍पूर्णता में चित्रण करते हैं। ‘ठाकुर का कुआँ', (1932) में प्रेमचन्‍द्र ने ब्राह्मणवाद पर सीधा प्रहार किया है। ‘सद्‌गति' (1931) में जहाँ उन्‍होंने चमारों के शोषण का विषय बनाया है वहीं ‘मन्‍दिर' भी इसी तथ्‍य को सामने लाता है। ‘पूस की रात' तथा ‘कफन' कहानी में दलित संवेदना अत्‍यन्‍त मारक बन पड़ी है। उपर्युक्‍त अन्‍य कहानियाँ प्रेमचन्‍द्र की दलित चेतना से सम्‍पृक्‍त चर्चित कहानियाँ हैं, उनकी ये कहानियाँ दलित संवेदना पर केन्‍द्रित हैं पर जहाँ तक संघर्ष और स्‍वाभिमान का सवाल है उनके दलित पात्र यातना, दुर्दशा और मजबूरी के इर्दगिर्द ही चक्‍कर लगाते हुए जान और जहान दोनों से हाथ गवाँ बैठते हैं। और इनका कोई स्‍थाई समाधान निकालने में प्रेमचन्‍द्र असफल होते हैं।

राजेन्‍द्र यादव का मानना है कि दलित अस्‍मिता और अस्‍तित्‍व के प्रश्‍नों को सैद्धांतिकी के अमूर्तन में ले जाकर डिफ्‍यूज और डायल्‍यूट करने की अद्‌भुत कला एलीट बुद्धिजीवियों के पास है, हमें याद है कि दो बच्‍चों के साथ पादरी स्‍टेन्‍स की हत्‍या और गुजरात के नरसंहार के समय तत्‍कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने बार-बार कहा था कि ये उत्‍तेजना और आवेश के नहीं, गम्‍भीर बहस के मुद्दे हैं। यानी घर में लगी आग बुझाने से पहले हमें बैठकर उस पर बहस करनी चाहिए। दलित प्रश्‍नों पर वे बार-बार शीश्‍ो फेंककर बहस की चुनौतियां देते हैं, जैसे दलित कौन हैं? दलित वास्‍तविकता है या मानसिकता? पुराने दरिद्र नारायण या गाँधी के हरिजन और अम्‍बेडकर के दलित में क्‍या अंतर है? क्‍या आर्थिक विपन्न या जाति-बाहर सवर्ण को दलित माना जायेगा? दलित साहित्‍य क्‍या सिर्फ दलित ही लिख सकते हैं? गैर- दलितों का साहित्‍य क्‍यों उसमें शामिल नहीं है? स्‍वानुभूति और सहानुभूति को किन आधारों पर अलगाया जायेगा? क्‍या डाकू या हत्‍यारे पर लिखने के लिए हमें डाकू-हत्‍यारा ही होना चाहिए? मैं भी उन महान और दिग्‍गज रचनाकारों की कालजयी रचनाओं को उतनी ही श्रद्धा और प्रशंसा से देखता हूँ जितना कोई भी प्राध्‍यापक देखता है। मगर सवाल तो उठा ही सकता हूँ कि अगर होरी या घीसू-माधव अपनी कहानियाँ खुद लिखते हैं तो क्‍या उनके रूप यही होते? यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि अपनी सारी सद्‌भावना, सरोकार और सहानुभूति के साथ प्रेमचन्‍द्र भी उसी वर्ग के थे जिस वर्ग के उनके पाठक या समीक्षक। एक ने लिखा, दूसरे ने सराहा और तीसरे ने उसे कालजयी सिद्ध कर दिया। इस चक्र में पागल, डाकू, हत्‍यारे और दलित-पीड़ित की स्‍वयं अपनी आवाज या कथा का अपना कोई अलग रूप (वर्जन) हो सकता है या नहीं? राजनीति, समाज साहित्‍य में सिर्फ वे ही हमेशा हमारी नुमाइंदगी करते रहेंगे या स्‍वयं हमें भी कुछ अपनी बात बोलने देंगे। (हंस, पृ0-07, अगस्‍त-2004)।

निराला की ‘चतुरी चमार', ‘बिल्‍ले सुर बकरिहा' तथा ‘कुल्‍लीभाट' दलित जीवन से सम्‍बद्ध कहानियाँ हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रथम दो-लम्‍बी कहानियाँ हैं। कुछ इन्‍हें लघु उपन्‍यासों की श्रेणी में रखते हैं। निराला की इन कहानियों में दलित यातना का यथार्थ सम्‍पूर्णता में उभरकर सामने आता है। डॉ0 एन0 सिंह के शब्‍दों में कहें तो यशपाल की कहानियों में भूख, गरीबी, शोषण का अत्‍यन्‍त दारुण चित्रण हुआ है। मूलरूप में यही दलित चेतना है। उनकी ‘परदा' जैसी कहानी इसी का प्रतिनिधित्‍व करती है।'' (मेरा दलित चिंतन, पृ0-76)। ‘प्रभा' और ‘सुमेर' भी दलित संवेदना को बढ़ावा देने वाली कहानियाँ है। ‘सुमेर' का सुमेर गांधीजी के दलितोद्धार रूपी कार्यों को ढ़ोंग बताकर विद्रोही चेतना का परिचय देता है।

सन्‌ 1950-52 से लेकर सन्‌ 1960 तक नयी कहानी तदुपरान्‍त साठोत्‍तरी युग की कहानियों के विभिन्‍न आन्‍दोलनों से गुजरते हुए आठवें-नवें दशक के आसपास हिन्‍दी कहानी एक नयी राह पकड़ती है जिसे समकालीन कहानी के नाम से सम्‍बोधित किया जाता है। जैसा कि कहा गया है स्‍वातंत्रयोत्‍तर युग के गैर दलित कथाकारों में मार्कण्‍डेय, अमरकांत, शिवप्रसाद सिंह, उदयप्रकाश आदि महत्‍वपूर्ण हैं।

मार्कंडेय की ‘हलयोग' में चमार का अध्‍यापक बन जाना एक अनहोनी बात है। उदयप्रकाश की ‘टेफ्‍चू' का टेफ्‍चू अन्‍याय के विरुद्ध खड़ा होने वाला दलित पात्र है। अनेक प्रहारों के बावजूद भी वह हार नहीं मानता। अंत में सामंती शोषक यह कहने पर मजबूर होता है कि ‘टेफ्‍चू कभी मरेगा नहीं, साला जिन्‍न है।' मुद्राराक्षस की ‘फरार मल्‍लावा राजा से बदला लेगी', रमणिका गुप्‍ता कि ‘बहूजूठाई' शोषण के खिलाफ संघर्ष की कहानी है। कथाकार राजेन्‍द्र यादव की ‘दो दिवंगत' लघु कहानी सवर्णों के संकीर्ण दृष्‍टिकोण का खुलासा करती है। एकतरफ जहाँ यह प्रश्‍न खड़ा किया जाता है कि आरक्षित कोटे से आया डॉक्‍टर योग्‍य और कुशल कैसे हो सकता है। डॉक्‍टर गलत तरीकों को अपनाकर डॉक्‍टरी योग्‍य और कुशल कैसे हो सकता है। डॉक्‍टर गलत तरीकों को अपनाकर डॉक्‍टरी सर्टिफिकेट हासिल करते हैं और ‘नीम हकीम खतरे जान' कहावत को चरितार्थ करते हुए मरीज को परलोक भेज देता है। रमणिका गुप्‍ता और राजेन्‍द्र यादव दो ऐसे प्रमुख गैर दलित रचनाकार हैं जो क्रमशः ‘हंस' और ‘युद्धरत आम आदमी' लघुपत्रिका के माध्‍यम से दलित साहित्‍यकारों को बड़े पैमाने पर छापने का काम पहले पहल किया और आज भी यह प्रयास अनवरत जारी है।

तीसरे भाग के दलित रचनाकार अपनी रचनात्‍मकता को लेकर सामने आता है। समकालीन हिन्‍दी दलित कहानी अपनी श्‍ौशवावस्‍था को कब का पार कर चुका है। जैसा कि स्‍पष्‍ट है कि सन्‌ 1914 में सरस्‍वती में छपी हीराडोम की कविता ‘एक अछूत की शिकायत' भोजपुरी कविता है। फिर भी विद्वानों से इसे आधुनिक दलित साहित्‍य का उद्‌गम बिन्‍दु माना है। यह भी कहा गया है कि दलित रचनाकार जो कुछ भी लिखता है उसके केन्‍द्र में प्रधानतः अम्‍बेडकरवादी विचारधारा ही व्‍याप्‍त रहती है। डॉ0 अम्‍बेडकर ने इस बात को महसूस किया कि दलित समाज की सबसे बड़ी जरूरत है। उन्‍हें उनके खोए हुए स्‍वाभिमान एवम्‌ आत्‍मसम्‍मान का एहसास कराना। वे मनुष्‍य है ये समझाना। वे गुलाम बना दिये गये हैं-इसका एहसास करवाना। इन सब चीजों के लिए जरूरी था, उन्‍हें शिक्षित करना, संघर्ष में उतारना और संगठित करना। उन्‍होंने दलित समाज के पढ़े-लिखे लोगों को जो आन्‍दोलन से जुड़े हुए थे, साहित्‍य लिखने के लिए प्रेरित किया ताकि आन्‍दोलन को बल मिले।'' (दलित चेतना ः साहित्‍यिक एवं सामाजिक सरोकार, रमणिका गुप्‍ता, पृ0-77)। दलित लेखन पर परम्‍परावादियों द्वारा उठाये गये सवालों का जवाब देते हुए अजय नवारिया का कहना है कि ‘‘दलित लेखिकाएं और लेखक प्रत्‍येक विधा में लिख रहे हैं, लिख सकते हैं। उन्‍हें अवसरों की अनुपलब्‍धता तथा मार्गदर्शन के अभाव ने मंद तो किया है, पर वे कुंद नहीं हुए हैं। गैर-दलित के हर नए और युवा रचनाकार को अपनी रचना संशोधन (इसलाह) के लिए वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों का सान्निध्‍य मिल जाता है। युवा दलित रचनाकारों को अपनी सामाजिक स्‍थिति और आर्थिक विवशताओं के कारण यह मौका वैसी सरलता से नहीं मिल पाता। इन विपरीत परिस्‍थितियों के बावजूद दलित लेखक भटकने से बच रहा है। साथ ही उनकी इन रचनाओं को पढ़ते हुए हम भीतर तक जीवन के कड़वे और कठोर सच को महसूसते हैं। ये रचनाएं एक लेखक व्‍यक्‍ति की भी हैं और समाज की भी। इन रचनाओं में व्‍यक्‍ति के समाज होने की प्रक्रिया बहुत प्रखर (स्‍पष्‍ट) हैं। गैर-दलित लेखक-लेखिकाओं ने भी यात्रा संस्‍मरण और डायरी अंश लिखे हैं, परन्‍तु वे अधिकांश किसी एक ‘व्‍यक्‍ति' के अनुभवों और उपलब्‍धियों के बखान में ही अधिक सीमित रहते हैं। अपवाद छोड़ दें तो हम पाते हैं कि समाजधर्मिता के नाम पर वहाँ एक गहरा शून्‍य उपस्‍थित है। जब सारा देश और सारा विश्‍व जल रहा हो, जब विश्‍व की एक-तिहाई इन्‍सानी जिन्‍दगियाँ भूख से मर रही हों, जब दुनिया के बालक और युवा चोरी, डकैती और हत्‍याओं जैसे जघन्‍य कर्मों में जाने को मजबूर हों, जब विश्‍व की आधी जनसंख्‍या प्रत्‍यक्ष अथवा परोक्ष वैश्‍यावृत्‍ति में सुलग रही हो। तब क्‍या हम वीरों की तरह सौन्‍दर्य और साहित्‍यशास्‍त्र के नियमों की बांसुरी बजाते रह सकते हैं? दलित साहित्‍य अन्‍तर्राष्‍ट्रीय चिंताओं और समाजशास्‍त्रीय पड़तालों (इंटरनेशनल कंसर्न और सोशियोलॉजिकल इन्‍वेस्‍टिगेशन) का साहित्‍य है।'' (हंस ,अगस्‍त-2004, पृ0-15)।

दलित कहानीकार ज्‍यादातर अपने भोगे हुए यथार्थ को सामने लाने में विश्‍वास रखते हैं। वे जाति-पांत का विरोध, शोषण, अन्‍याय, अत्‍याचार आदि का प्रतिरोध तथा समतामूलक समाज की स्‍थापना पर बल देते हैं। सदियों से जो विकृति, विद्रूपता और और विसंगति समाज में फैला हुआ है उसने ही स्‍वर को विद्रोही बना दिया है। रमणिका गुप्‍त जी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘दलित कहानी इस व्‍यवस्‍था की सदियों के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाती बल्‍कि कुछ सवाल भी पूंछती हैं।'' (दलित चेतना ः साहित्‍यिक एवं सामाजिक सरोकार, पृ0-93)।

हिन्‍दी के दलित रचनाकारों की कहानियाँ जहाँ एक ओर सामाजिक बदलाव पर जोर देती है वही दूसरी तरफ आक्रोश एवं गुस्‍सा कूट-कूटकर उनकी कहानियों में भरा पड़ा है। यह आक्रोश और गुस्‍सा उस पीड़ा की अभिव्‍यक्‍ति है जो सदियों से उन्‍हें सहते आना पड़ रहा है। मोहनदास नैमिशराय इस पीड़ा से बचने के लिए संगठन पर बल देते हैं। एकता और संगठन ही दलितों को उत्‍पीड़न से छुटकारा दिला सकता है। अतः ठाकुर के शोषण और अत्‍याचार से बचने के लिए ‘अपना गाँव' का निर्माण आवश्‍यक है। नैमिशराय की ‘अपना गांव' कहानी में यही संदेश है। ओमप्रकाश वाल्‍मीकि की चर्चित कहानी संग्रह ‘सलाम' है। इसकी सभी कहानियाँ दलितों के जीवन-संघर्ष, उनकी छटपटाहट और बेचैनी तथा व्‍यथा क साथ-साथ सड़ी-गली मान्‍यताओं, प्रचलनों तथा व्‍यवस्‍था के प्रति विद्रोह का बिगुल भी है। पहली ही कहानी ‘सलाम' पुरखों की उस रस्‍म के खिलाफ की कहानी है जो ‘रांघड़' जैसी सवर्ण जातियों के दरवाजों पर दलित दूल्‍हों को सलाम के लिए जाना पड़ता है। कहानी के पढ़े-लिखे दलित नायक हरीश का यह साफ मानना है कि यह रिवाज दलितों के आत्‍मविश्‍वास को तोड़ने की साजिश है। परन्‍तु कहानी के अन्‍त में अपने ही समाज के एक बच्‍चे की समुदायगत नफरत उसे और उसके दोस्‍त को न केवल अवाक्‌ करती है, अपने ही समाज की सोच पर भी प्रश्‍न चिन्‍ह लगाती है। संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ हैं जो अलग-अलग ढ़ंग से अपना दृष्‍टिकोण प्रस्‍तुत करती हैं। जैसे ‘पच्‍चीस चौका डेढ़ सौ', में अशिक्षा ओर शोषण का खुलासा है तो ‘अंधड़ अम्‍मा' शिक्षा के महत्‍व को सामने लाने वाली कहानी है। ‘घुसपैठिए' के घुसपैठिए देश की सीमा के बाहर के होते तो कुछ और बात है पर अपने ही देश के दलित छात्रों को घुसपैठिए की नजर से मेडिकल कॉलेज के अन्‍य छात्र ही नहीं प्राध्‍यापक से लेकर मैनेजमेन्‍ट तक जिसमें डीन और प्रिंसिपल भी शामिल हैं सब देख रहे हैं। कहानी में अन्‍याय से लेकर साजिश तक सब कुछ स्‍पष्‍ट दिखाई पड़ता है। वाल्‍मीकि की प्रसिद्ध कहानी ‘चिड़ीमार' दलित दुश्‍चिंताओं की कहानी है। दलित बेटी की माँ की दुश्‍चिंता है कि एक दलित की बेटी को नौकरी मिलेगी भी या नहीं? दूसरी तरफ प्रेमी (बेटी का) की दुश्‍चिंता अपनी प्रेमिका की चिड़ीमारों (सड़कछात्र मजनुओं) से रक्षा करने की है तो वहीं दलित इंस्‍पेक्‍टर की दुश्‍चिंता को उसका अपना सवर्ण एस.पी. अपमानजनक सूचक शब्‍दों से बढ़ाता है। वस्‍तुतः अंतर्द्वन्‍द्वों से युक्‍त बाल्‍मीकि की यह एक महत्‍वपूर्ण दलित कहानी है। दलित कथा लेखन के क्षेत्र में प्रल्‍हाद चन्‍द्र दास एक प्रमुख नाम है। हंस के इसी अंक में छपी उनकी कहानी ‘अब का समय' जातिमुक्‍त समाज और अन्‍तर्जातीय विवाह के समर्थन की मांग करता है। जात-पात कितनी गंदी चीज है, उसे वही जान सकता है जिसने इसके दंश को झेला है। यानी इस असहनीय दर्द को दलितों से अच्‍छा और कौन समझ सकता है। यद्यपि समाज में कुछ गिनती के थोड़े उदार सवर्ण हैं अवश्‍य, पर कट्‌टरपंथियों के आगे उनकी उदारता कोई मायने नहीं रखता। कहानी का नायक दलित अफसर है और शादी एक ब्राह्मण की लड़की से करता है। उसका एक सवर्ण (उदार) मित्र पत्रकार है। परन्‍तु उसका दंभी भाई जाति-पांत के बन्‍धन से पूरी तरह जकड़ा हुआ है। इस जकड़न को बनाये रखने में ही अपनी शान समझता है। इसके पहले ‘लटकी हुई शर्त', ‘बैंगनवारी', ‘कुचले हुए लोग', ‘आदिवासी होड़ो के शोषक', आदि उनकी चर्चित कहानियाँ हैं। ‘लटकी हुई शर्त' दलितों के आत्‍मसम्‍मान को जागृत करने वाली कहानी हैं। ‘बैंगनवारी' में एकजुटता की आवश्‍यकता पर बल है, तभी षड़यन्‍त्रकारियों के चंगुल से बचा जा सकता है। ‘संसद' हो या ‘सड़क' दलितों को संघर्ष तो करना ही पड़ेगा, यही इस कहानी का प्रधान पक्ष है।

जयप्रकाश कर्दम दलित चेतना से संम्‍पृक्‍त एक प्रतिनिधि कथाकार है। इनकी दलित जीवन की प्रसिद्ध दलित कहानियों की एक लम्‍बी श्रृंखला है। यहाँ आपकी दो कहानियाँ ‘चमार' और ‘लाठी' का मूल्‍यांकन मैं विश्‍ोष रूप से करूँगा। आजादी के बाद भी दलितों की दयनीय दशा यथावत कायम है, ‘चमार' इसी को उजागर करने वाली प्रसिद्ध दलित कहानी है। गांव का प्रमुख परम्‍परावादी वर्ग आज भी नहीं चाहता कि दलित वर्ग के बच्‍चे पढ-लिखकर आगे बढ़े परन्‍तु सुक्‍खा शिक्षा के महत्‍व को जान चुका है और अपने बेटे को पढ़ाने से उसे अब कोई रोक नहीं सकता। ‘लाठी' यद्यपि जैसे को तैसा कहानी है तथापि इसमें आपसी संगठन के कमजोर होने और जातिगत लाचारी से नहीं उबरने पर अफसोस है। पर संदेश यह है कि दलितों का भला तभी होगा जब आपसी संगठन मजबूत हो तथा जातिसूचक पीड़ा का दबाव बिल्‍कुल महसूस न हो। हीनता बोध से मुक्‍ति ही ‘लाठी' का जवाब ‘लाठी' से दिला सकता है। दयानंद बटोही दलित कथाकार हैं। अपनी कहानियों ‘सुरंग' और ‘सुबह से पहले' में क्रमशः दलित विरोधी चेतना और दलित नारी की आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण का चित्रण किया है। शिक्षा-जगत्‌ में किस तरह के दलित छात्रों के साथ भेदभाव होता है, बटोही ने ‘सुरंग' में इसे दर्शाया है। वहीं रतन कुमार साँभरिया ने ‘शर्त' कहानी में जातिगत भेदभाव को कहानी का विषय बनाया है। ‘हरिजन' कहानी में प्रेम कपाड़िया ने देवदासी प्रथा और उसमें व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार का खुलासा किया है।

''दलित कहानियों में संगठित होकर गलीज, बर्बर परम्‍पराओं या जमींदार व पुलिस के जुल्‍म अथवा अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण साजिश भरे रुख सबके खिलाफ लड़ने का संकल्‍प भी होता है। किन्‍हीं-किन्‍हीं कहानियों में तो कहानी के पात्र स्‍वयं भी दोषी को दंडित करने की क्षमता हासिल कर लेते हैं।'' (दलित चेतना ः साहित्‍यिक और सामाजिक सरोकार, डॉ0 रमणिका गुप्‍ता, पृ0-97)। दलित कथाकारों में भी आक्रोश और विद्रोह सर्वत्र विद्यमान हैं। कुसुम वियोगी, रजत रानी मीनू, कावेरी, सुशीला टाकभौरे, उषाचन्‍द्रा आदि उल्‍लेखनीय दलित महिला कथाकार हैं। कुसुम वियोगी की कहानी ‘अंतिम बयान' में आक्रोश अपने चरम सीमा तक है। कहानी की दलित युवती अपने साथ बलात्‍कार का प्रयास करने वाले मानव का लिंग काट लेती है। रजतरानी मीनू की कहानी की एक नायिका पिता के खिलाफ विद्रोह करके पढ़ती है। वहीं इनकी एक दूसरी प्रसिद्ध कहानी ‘सुनीता' है। सुनीता धुन की पक्‍की लड़की है जो जड़वत परम्‍परा को तोड़ने और गतिशीलता को आगे बढाने में विश्‍वास रखती है। सुशीला टाकभौरे की ‘सिलीया' अंतर्मुखी कैरेक्‍टर है, उसका स्‍वाभिमान नम्र है और वह परम्‍परा को अपने पक्ष में मोड़ लेना चाहती है। ‘सुमंगली' कावेरी की दुःखद रचना है। परन्‍तु कहानी पढ़ने के बाद पाठक के मन में दुःख देने वाले के लिए घृणा और क्रोध अपने आप भर जाता है। ‘लोकतंत्र में बकरी', उषाचन्‍द्रा की यथार्थ होते हुए भी एक संदेशपरक्‌ कहानी है। जिसमें यह संदेश है कि दलितों की सामाजिक आर्थिक दशा तभी सुधर सकती है जब उनके बच्‍चे खूब पढ़े तथा औरतों को अपने समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्‍त हो।

स्‍पष्‍ट है कि अब दलित कहानी और कहानीकार श्‍ौशवावस्‍था की स्‍थिति में नहीं अपितु प्रौढ़ावस्‍था की उस स्‍थिति में आ चुके हैं जिस पर किसी भी साहित्‍यकार को अपने ऊपर नाज होता है। उपर्युक्‍त कहानीकारों के अतिरिक्‍त कुछ और उल्‍लेखनीय दलित कहानीकार और उनकी कहानियों के नाम दिये जा सकते हैं जो निम्‍न हैं-रामचन्‍द्र की ‘पलायन', जिया लाल आर्य की ‘नाम की चोरी', ‘चतुरी माँ', ‘हम आपके साथ हैं', भागिरथी मेघवाल की ‘सूरज की चिता', सूरजपाल चौहान की ‘परिवर्तन की बात', ‘छूत कर दिया' और ‘साजिश, जयप्रकाश कर्दम की ‘सांग', श्‍यौराज सिंह बेचैन की ‘अस्‍थियों के अक्षर', ‘शोध प्रबन्‍ध', ‘रावण', मोती राम का ‘खुरपी' आदि भी चर्चित कहानियाँ हैं जो दलित चेतना को अपने-अपने खास सन्‍दर्भों में प्रस्‍तुत करती हैं।

नई कविता के तर्ज पर नई कहानी भी साथ चली और नवचिंतन की इस धारा में कविता की कहानी तक के सारे रूपों पर देशभर में रचनात्‍मक कार्य सक्रिय रहा। यद्यपि नई कहानी के दौर के कथाकारों ने अपनी कहानियों में दलित विमर्श अथवा चेतना पर न के बराबर लिखा, यही हाल सातवें दशक के हिन्‍दी कहानीकारों के साथ भी रहा तथापि आठवें दशक से लेकर अब तक जो हिन्‍दी कहानियों में दलित चेतना की उपलब्‍धि प्राप्‍त हुई और हो रही है। इस परिप्रेक्ष्‍य में इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसके बीज पहले नई कहानी के दौर में तथा पुनः सातवें दशक में पड़ने शुरू हो चुके थे। अतः आठवें दशक के आसपास से दलित साहित्‍य के आन्‍दोलन से जुड़े रचनाकारों ने साहित्‍य के सभी रूपों में अपनी रचनात्‍मक समर्थता का परिचय दिया और फलस्‍वरूप कविता के साथ-साथ दलित कहानियाँ भी साहित्‍य का हिस्‍सा बनीं। डॉ0 एन0 सिंह ने अपनी प्रतिबद्ध वैचारिकता के सहारे दलित कहानियों के दो विशिष्‍ट संग्रहों क्रमशः ‘यातना की परछाइयाँ' और ‘काले हाशिये पर' का संपादन किया। दोनों का प्रकाशन काल सन्‌ 1998 ई0 में हुआ।

‘यातना की परछाईयाँ' में नौ दलित कथाएं हैं। ये सभी कहानियाँ दलित जीवन के त्रासदपूर्ण अनुभव से उपजी समस्‍याओं पर केन्‍द्रित रचनाएं हैं। संग्रहित कहानियाँ न केवल वर्तमान समाज के दोमुँहे चिंतन का पर्दाफाश करती हैं बल्‍कि अन्‍याय और शोषण के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं। दलित कथाकारों का यह वर्ग दलित समाज के सांस्‍कृतिक-उत्‍थान पर ज्‍यादा ध्‍यान देता है। डॉ0 अम्‍बेडकर के जीवन-दर्शन से प्रेरणा लेकर उनके विचारों को अपनी कहानियों में सीधा स्‍पष्‍ट श्‍ौली में उतारने के लिए प्रयत्‍नशील रहता है। इनका उद्‌देश्‍य बाबा साहब के विचारों का प्रचार-प्रसार करना होता है, इसलिए उनकी कहानियां आदर्शवादी ढ़ाँचे पर निर्मित होती हैं, उनकी दृष्‍टि में साहित्‍य सोद्‌देश्‍यपूर्ण होता है। इसलिए सामाजिकता के दायरे में उनका आदर्शवादी नजरिया विकास पाता है। आदर्शवादी नजरिये से लिखी गई कहानियों में समाज का अन्‍तर्विरोध और चरित्रों का आन्‍तरिक द्वन्‍द्व ठीक से उभर नहीं पाता है लेकिन ऐसी कहानियों की सामाजिक सोद्‌देश्‍यपूर्णता का भी अपना महत्‍व है इसमें संदेह नहीं है।'' (आज का दलित साहित्‍य, डॉ0 तेज सिंह, पृ0-15)। ओमप्रकाश बाल्‍मीकि की कहानी ‘सपना' जातिगत वैषम्‍य को रेखांकित करती है। नैमिशराय की कहानी ‘हारे हुए लोग' में यथार्थ का कड़ुआ सत्‍य समाया हुआ है जहां दलितों को किराये पर मकान पाने के लिए आज भी मशक्‍कत करनी पड़ती है। रत्‍नकुमार सांभरिया की ‘क्षितिज' में शोषण और अन्‍याय का चित्रण किया गया है। ‘चतुरी चमार की चाट' (बी.एल. नय्‍यर) की एक अनोखी कहानी है जो वैचारिक धोखे को उजागर करती है। डॉ0 कुसुम मेघवाल ने ‘समय के शिलालेख' कहानी में समाज पर व्‍यंग्‍य कर करारा प्रहार किया है। इस कहानी में विरोध और ‘परिस्‍थितियों' की विसंगति है। ‘शीर्षक' कहानी यह स्‍पष्‍ट करती है कि दलित वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो चौबीसों घंटे ‘यातनाओं' और उनकी ‘परछाइयों' से घिरा रहता है।

दलित वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करने वाली 14 कहानियों का संग्रह ‘काले हाशिये पर' है। इस संग्रह में दलित चेतना से जुड़े दलित तथा गैर दलित रचनाकारों की कहानियाँ शामिल हैं। प्रमुख दलित रचनाकारों की कहानियों में, पुरुषोत्‍तम सत्‍यप्रेमी की ‘प्रतिशोध' कहानी आदिवासियों के शोषण पर प्रकाश डालती है। वहीं ‘बोधन की गगड़िया' (पुन्‍नीसिंह) में चमार के दिमाग में बसी दासता और हीनता के रूप को प्रकट किया गया है। तथा बाल्‍मीकि की ‘बैल की खाल' एक संवेदनात्‍मक कहानी है। मोहनदास नैमिशराय की ‘आवाजें' में जहां एक तरफ संगठित शक्‍ति है, तो दूसरी तरफ वेदना भी साफ झलकती है। स्‍पष्‍ट है कि दलित कहानी परम्‍परावादी व्‍यवस्‍था के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाती है वरन्‌ कुछ सवाल भी पूछती है। वह एक गौरवशाली समृद्ध कही जाने वाली संस्‍कृति की शोषणपरक्‌, एकपक्षीय, अल्‍पसंख्‍यक वर्ग की सुख-सुविधा के लिए एक विशाल जनसमूह को दास से भी नीचे पशुवत जीवन में खुशी महसूस करवाने वाली षड़यन्‍त्रकारी आचार-संहिता को बेनकाब कर, समानता, भाई-चारे और आजादी की नई संहिता गढ़ने, अपने को मनुष्‍य मानकर शिक्षित और संगठित होकर, सामाजिक न्‍याय और बदलाव का झंडा बुलंद करने की ओर बढ़ती है।'' (दलित चेतना ःसाहित्‍यिक एवं सामाजिक सरोकार, डॉ0 रमणिका गुप्‍ता, पृ0-99)।

निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि हिन्‍दी की दलित कहानियां अपने कथ्‍यरूप में मात्र विसंगतियों, समस्‍याओं, विदू्रपताओं आदि का चित्रण ही नहीं करती बल्‍कि समाज में फैली कुरीतियों व्‍यभिचारों तथा शोषण और अन्‍याय से मुक्‍ति के लिए विद्रोह और संघर्ष के माध्‍यम से आत्‍मस्‍वाभिमान को जगाने तथा समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत है। इस संदर्भ में दलित रचनाकारों की भूमिका सराहनीय और प्रशंसनीय है। शिल्‍प के चक्‍कर अथवा पचड़े में न पड़ते हुए खासकर दलित रचनाकार भाषा की सुग्राह्‌यता, सरलता और स्‍पष्‍टता पर जोर देता है। दलित लेखक जयप्रकाश कर्दम के शब्‍दों में, कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘‘20 शताब्‍दी के हिन्‍दी कथा साहित्‍य का उज्‍ज्‍वल पक्ष यही है कि कुलीनता और अभिजात्‍य की परिधि से बाहर निकलकर उसने समाज के हाशिए पर खड़े मनुष्‍य की पीड़ा और दर्द को समझने की चेष्‍टा के साथ-साथ अपनी अस्‍मिता के लिए उसके संघर्ष को भी प्रतिपाद्य बनाया है।''

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख - हिन्‍दी कहानियों में दलित चेतना
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख - हिन्‍दी कहानियों में दलित चेतना
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