व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन - श्याम बाबू शर्मा का व्यंग्य : हमारे मस्तराम

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(प्रविष्टि क्रमांक - 16) हमारे मस्तराम जी एक सरकारी कार्यालय में कार्य करते हैं। अपने नाम के अनुरूप ही मस्तराम जी काफी मस्त तबीयत ...

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(प्रविष्टि क्रमांक - 16)

हमारे मस्तराम जी एक सरकारी कार्यालय में कार्य करते हैं। अपने नाम के अनुरूप ही मस्तराम जी काफी मस्त तबीयत के व्यक्ति हैं। उनका कार्यालय आने-जाने व रहने का कोई निर्धारित समय नहीं है। जब मन करे आना, जब मन करे जाना। मन करे तो काम करना, नहीं मन करें तो किसकी मजाल जो उनसे काम करा ले। कार्यालय में उनको टोका-टाकी बिलकुल भी पसन्द नहीं है। खुदा न खासते कोई काम करने के लिए कह भर दिया जाए तो पूरे कार्यालय को सिर पर उठा लेना उनकी आदत में शुमार हो गया है। उन्होंने अपने जैसे ही कुछ चेले-चपाटी भी पाल रखे हैं, जो उनकी उचित-अनुचित बातों का पूरा समर्थन करते हैं और कंधे से कंधा मिलाकर साथी हाथ बटाना तर्ज पर राग अलापने लगते हैं। गाहे-बगाहे जब भी मस्तराम जी अपने चेले-चपाटी के साथ राग अलापने बैठ जाते हैं तो पूरा का पूरा कार्यालय रॉक संगीत से गूंज उठता है। शब्द अस्पष्ट, बस संगीत की एक तेज धुन और कुछ नहीं। पूरा माहौल संगीतमय बन जाता है। यह संगीत सभा यदाकदा उस कार्यालय में होती ही रहती है। इस संगीत सभा का लुफ्त उस कार्यालय के कर्मचारी ही नहीं बल्कि अन्य कार्यालयों के कर्मचारी भी उठाने चले आते हैं। मस्तराम जी एवं उनके चेले-चपाटी के संगीत संगत का श्रवण सभी लोगों को चाहे-अनचाहे करना ही पड़ता है।

    मस्तराम जी अपनी आदत के मुताबिक कार्यालय खुलने के एक-डेढ़ घंटे के बाद ही हाँफते-डाँफते आते हैं और आकर शहर की ट्रैफिक व्यवस्था और उसके कु:प्रबंधन को लेकर एक-दो घंटे की गरमा-गरम बहस छेड देते हैं। उस बहसबाजी में उनके चेले-चपाटी भी, जो इस दर्ुव्यवस्था एवं कु:प्रबंधन के शिकार हैं, बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। फिर शुरू हो जाती है उस दिन के दैनिक समाचार-पत्रों के देशीय-अंतर्देशी, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय एवं स्थानीय समाचारों की समीक्षा। इसके लिए एक से बढ़कर एक समीक्षक मंचासीन हो जाते हैं और शुरू हो जाती है एक-एक समाचार पर एक-एक, डेढ-डेढ घंटे की बाल की खाल निकाल समीक्षा। हमारे मस्तराम जी मुख्य समीक्षक की भूमिका में रहते हैं। क्योंकि मस्तराम जी उस कार्यालय के स्वयंभू गुरूजी महराज हैं। चूंकि मस्तराम जी को कार्यालय में टोका-टाकी बिलकुल भी पसन्द नहीं है। कार्यालय में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इन महानुभाव को घर में इनकी पत्नी बोलने का अवसर ही नहीं देती वह इनसे भी दो हाथ ऊपर है। वैसे देखा जाए तो प्रकृति ने हर पत्नी को यह जन्मसिध्द अधिकार दे दिया है कि वह पति की बोलती बंद रखे। इस समस्या से हर पति ग्रसित है। इसमें मैं भी अपने को चाहे-अनचाहे शामिल पाता हूं। पति बाहर चाहे जितना भी तुर्रमखां बनता हो परन्तु घर में मरियल सिंह ही होता है, क्योंकि उसकी भयंकर से भयंकर दहाड़ से घर के चूहे भी नहीं डरते हैं। हां तो यहां बात हो रही है कि मस्तराम जी को कार्यालय में टोका-टाकी बिलकुल भी पसन्द नहीं।  इसलिए जब वे किसी समाचार की समीक्षा करते हैं तो किसी की सुनते नहीं हैं अपनी ही जोते जाते हैं। चाहे ठीक हो या गलत। उनके चेले-चपाटी भी मजबूरन उनकी हां में हां मिलाते रहते हैं। उनकी हां में हां न मिलाने का मतलब गुरू जी महराज को नाराज करना और उनके नाराज होने का मतलब कार्यालय में रॉक संगीत सम्मेलन होना। कर्मचारी तो कर्मचारी, उस कार्यालय के अधिकारी महोदय भी मस्तराम जी को नाराज करने का दुस्साहस करने से हिचकते हैं। इसका भी एक प्रमुख कारण है कि आजकल हमारे मस्तराम जी का एक प्रिय विषय हो गया है स्त्री विमर्श। वर्तमान परिदृश्य में स्त्रियों की दशा एवं दिशा विषय पर जब उनका एमपी 3 वाला व्याख्यान प्रारम्भ हो जाता है तो कार्यालय की लगभग सभी महिला कर्मी अपना-अपना घरेलू कार्य, जो वे घर पर रहकर पूरा नहीं कर पाती हैं और मजबूरीवश कहिए या आदतन उनको कार्यालय में लाकर पूरा करना ही पड़ता है। वैसे उनकी भी दिनचर्या देखी जाए तो उनको घर और बाहर दोनो जगह काम ही काम करना पडता है। फुरसत के क्षण मिलते ही नहीं। हां तो वे अपना-अपना घरेलू कार्य स्थगित करके मंत्रमुग्ध होकर मस्तराम जी का व्याख्यान सुनने लगती हैं। मस्तराम जी के व्याख्यान में इतना रस टपकता है जितना किसी मधुमक्खी के छत्ते से भी नही टपकता होगा। सारी की सारी महिला कर्मचारी इस मधुर रस का  पान करके धन्य हो जाती हैं। कल तक जो मस्तराम ±2.5 वाले चश्मे से स्त्रियों को दूर-दूर से ताक-झांक करके नयन सुख एवं आत्मिक आनन्द लेते थे। आज स्त्री विमर्श की देन से ही वे स्त्रियों से घिरे रहते हैं और स्त्री सानिध्य रूपी विटामिन ए की भरपूर खुराक मिलने से अपने ±2.5 वाले चश्मे से पूरी तरह निजात पा गए हैं। अब वे पूरे कार्यालयी समय का सदुपयोग स्त्री विमर्श पर चर्चा-परिचर्चा करने में ही लगे रहते हैं। इसका सुखद परिणाम यह मिला कि स्त्रियों के चहेते हो जाने से उनको अपनी चेलियों के बलबूते अपने अधिकरियों पर धौंस जमाने का महिला उत्पीड़न नामक एक अमोघ अस्त्र भी बैठे-बिठाए मिल गया। इस डर से अब कोई अधिकारी उनको सरकारी कार्य करने के लिए भी नहीं कह पाता है।

    वैसे भी यह जनश्रुति है कि मस्तराम जी राजा-महराजाओं के चश्म-ओ-चिराग हैं। उनके पुरखे किसी जमाने में इस जहां पर राज किया करते थे। अच्छे-अच्छे लोग उनके यहां दरबार किया करते थे। सैकडों नौकर-चाकर थे। नित्यक्रिया सहित कोई भी काम वे अपने हाथ से नहीं करते थे, बल्कि हर काम के लिए अलग-अलग नौकर थे। आज भी हमारे मस्तराम जी को अपने हाथ से कोई भी काम करना बिलकुल नहीं भाता है और अपने दरबारियों से घिरे रहकर अपनी गुणगान सुनना उनका सर्वाधिक प्रिय शगल है। सरकारी काम करना उनकी शान के सख्त खिलाफ है। उनका कहना है कि आज भी उनके यहां सैकडों एकड़ भूमि पर पुदीना सूख रहा है। वे यहां काम करने थोड़े ही आए हैं। हम राजा-महराजा रहे हैं। हम राज करते आए हैं। आज भी राज ही करेंगे। जिन लोगों के पुरखे प्रजा थे। काम करते थे तो अब वही लोग काम करें। एक बार गलती से एक नए अधिकारी ने, जिसको इनकी खासियत के बारे ज्ञान नहीं था, उनको काम के लिए कह दिया तो मस्तराम जी ने अपने दरबारियों यानि चेले-चपाटियों के सहयोग से इतना बवाल काटा कि वह अधिकारी दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। अब किसी में ऐसी हिम्मत नहीं जो हमारे मस्तराम जी को कोई काम के लिए कह भी दे।

    आज भी हमारे मस्तराम जी अपनी मनमर्जी के स्वयं मालिक हैं। जो मन करता है करते हैं और जो मन नहीं करता नहीं करते। जब मन करता है कार्यालय आते हैं, जब मन करता चले जाते हैं। किसी जमाने में सरकार ने उनके पुरखों (कथित राजा-महराजा) का कर्जा खाया था उसी के एवज में आज मस्तराम जी को बंधी-बंधायी एक मोटी रकम प्रतिमाह बिला-नागा दे रही है। धन्य हो हमारे मस्तराम जी और उनके चेले-चपाटी।

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श्याम बाबू शर्मा
729, गड़ेरिया टोला,
बशारतपुर, गोरखपुर-273004


ईमेल- rajbhasha1@gmail.com
         shyam_gkp@rediffmail.com

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रचनाकार: व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन - श्याम बाबू शर्मा का व्यंग्य : हमारे मस्तराम
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