रामभरोसे मिश्र की समीक्षा : राजनारायण बोहरे का उपन्यास - मुखबिर

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समीक्षा- चम्‍बल का प्रमाणित आख्‍यान-मुखबिर चम्‍बल घाटी का नाम फिल्‍मी दुनिया से लेकर लोकप्रिय साहित्‍य तक और राजपथ से जनपथ तक ; डकैतों...

समीक्षा-

चम्‍बल का प्रमाणित आख्‍यान-मुखबिर

चम्‍बल घाटी का नाम फिल्‍मी दुनिया से लेकर लोकप्रिय साहित्‍य तक और राजपथ से जनपथ तक ; डकैतों, बीहड़ों , समर्पणों और मुठभेड़ों के लिए जाना जाता है, लेकिन सचाई यह है कि चम्‍बल के डकैतों पर सिवाय अखबारी रिपोर्ताजों और सतही व पापुलर किस्‍म के उपन्‍यासों के रूप में सामग्री मिलती है, जो न तो यथार्थ है न सही विश्‍लेषण । सच तो यह है कि इस सम्‍बंध में रामकुमार भ्रमर के बाद किसी ने गंभीरता से नहीं लिखा । हां इस सन्‍दर्भ में पिछले दिनों पहली बार इस इलाके को कथाभूमि बनाकर कुछ कहानियां लिखी गई। हिन्‍दी कथासाहित्‍य की पांचवी और छठवीं पीढ़ी के लेखक महेश कटारे , ए0 असफल , राजनारायण बोहरे और प्रमोद भार्गव ने यानी उन लेखकों ने जो ठेठ इन बीहड़ों में रहते और यहां की त्रासदी को भोगते है उनके द्वारा इस इलाके की परत दर परत पड़ताल करता कथा साहित्य लिखा गया तो पाठकों का ध्‍यान आकृष्‍ट किया। महेश कटारे की कहानी ‘पार' , ए0असफल की ‘ लैफ्‌ट हैंडर' और प्रमोद भार्गव की ‘ मुखबिर ' नामक कहानी ने चम्‍बल के उस रूप को प्रकट किया जो आज बीहड़ों में दिखाई दे रहा है। इसी सिलसिले में राजनारायण बोहरे का नया उपन्‍यास ‘ मुखबिर ' अपने विशद विवरणों और त्रासद सच्‍चाइयों के साथ एक ऐसा आख्‍यान बन कर सामने आया है जो एक नये विमर्श की मांग करता है।

उपन्‍यास में यूं तो सारी कथा गिरराज नामक एक ऐसे पात्र द्वारा याद करते हुए सुनाई गई है जिसे डाकू श्‍यामबाबू घोसी के गिरोह की तलाश में बीहड़ों में भटकती पुलिस ने अपने साथ एक गाइड के रूप्‍ में लिया हुआ हे। दरअसल गिरराज को कुछ समय पहले श्‍यामबाबू ने अपहृत कर लिया था और लगभग नब्‍बै दिन तक अपने मूवमेंट के साथ उसे साथ लिये डोलता रहा था, इसलिए वह पुलिस के लिए एक मुफीद गाइड और मुखबिर महसूस होता है। पाठक गिरराज के साथ उस घटना से रू ब रू होता हैं जहां एक बस को रोक कर डाकू गिरोह एक युवती केतकी समेत छै सवर्ण यात्रियों को पकड़ के अपने साथ ले जाता है, और फिर आरंभ होती है इस गिरोह की यात्रा- जिसमें गिरोह के मुखबिरों से लेकर, उनके मददगार तक, उनके बिरादरी भाई, दूसरे डाकू, सरपरस्‍त नेता और वह पूरी दुनिया पाठकों के सामने खुलती चली जाती है, जो हर मोड़ पर नये तथ्‍य बताती है। यह कथा अपने अंदाज में चलती हुई अनायास ही चम्‍बल घाटी में खौल रहे जातिवादी झगड़ों के उस यथार्थ को प्रकट करती है जहां हर जाति के अपने डाकू हैं और हर डाकू के मददगार अपने सरपरस्‍त नेता और बिरादरी भाई। राजनीति में विगत दस साल से मंडल आयोग के बाद उभरे पिछड़े वर्ग के नेताओं की तरह चम्‍बल में भी इस समय उस पिछड़े वर्ग के डाकुओं का उदय हुआ है जो एक जमाने में सवर्ण और प्रायः ठाकुर या बामन डाकू द्वारा सताये गये। इन डाकुओं की बोली-बानी, व्‍यवहार और मंतव्‍य सवर्ण बिरादरी के साथ ठीक उसी प्रकार का है जैसा कभी उनके साथ ऊंची जाति के डाकुओं का रहा करता था। पूरे उपन्‍यास में डाकुओं के साथ लगातार पाठक भी डर की मनोदशा में रहता है , और उसे भी आशा रहती है कि गिरराज को केतकी मिल जायगी। उपन्‍यास का अंत चम्‍बल के वर्तमान परिवेश को प्रकट करता है जहां के निवासी यह कतई नहीं मानते कि श्‍यामबाबू घोसी मारा गया है। आरंभ और अंत तो एक औपचारिकता भर होती है, असल चीज है कथा की यात्रा, तो इस उपन्‍यास में पाठक एक ऐसी यात्रा पर निकलता है जो अपनी मंजिल तक पहुंचते पहुंचते उसे बहुत सारे भावों-विभावों और जानकारी से समृद्ध करती है।

इस क्षेत्र में इन दिनों कई मंदिर, कई सन्‍यासियों के नाम के साथ सरकार शब्‍द प्रयुक्‍त हो रहा है, इस शब्‍द को लेकर भी इस उपन्‍यास में एक शानदार चिकौटी काटी गई है,। प्रसंग है जबकि एंटी डकैती कोर के डी एस पी के पास अपने मित्र लल्‍ला के साथ पहुंचा गिरराज बातचीत में सरकार शब्‍द का प्रयोग करता है तो पुलिस आफीसर पूछता है- चम्‍बल के रहने वाले हो क्‍या? चौंकते हुए लल्‍ला को आफीसर बताता है - ‘चम्‍बल में ही तो आजकल बहुत सारी सरकारें मौजूद है।'

जैसा कि वर्तमान कथा परंपरा में प्रचलित है इस कहानी का भी कोई नायक नहीं है हां, कहानी में कथा की मांग के अनुरूप बहुत सारे पात्र है, उनके अपने रूप्‍ रंग और बोली बानी है तो अपने चरित्र भी हैं। उपन्‍यास का हर चरित्र एक वास्‍तविक चरित्र ही लगता है, कृत्रिम या थोपा हुआ चरित्र नहीं ।

चम्‍बल क्षेत्र बृज मंडल से लगा हुआ है, इस कारण यहां बृज भाषा से मिलती जुलती भाषा प्रचलित है, लेकिन भदावर, तंवरघार और सिकरवारी यानि भदौरिया,तोमर और सिखरवार राजाओं के द्वारा शासित रहे इस क्षेत्र की बोली में अपने कुछ शब्‍द और कुछ शैलियां सम्‍मिलित हो गई हैं। लेखक ने उपन्‍यास के संवादों को सहज व स्‍वाभाविक भाषा में लिखा है, और वे विश्‍वसनीय व पात्रोचित लगते हैं। चम्‍बल घाटी की प्रवृत्‍ति, त्रासदी और समाज की ठीक-ठीक व्‍याख्‍या करने वाले कवि सीताकिशोर खरे के दोहे लेखक ने यहां वहां खूब प्रयोग किए हैं जिन्होंने लेखक का बहुत सा काम आसान कर दिया है। लेखक ने उपयोग तो अखबारों की कटिंग्‍स का भी स्‍थान-स्‍थान पर किया है, जिनके कारण उपन्‍यास का विस्‍तार अप्रत्‍यक्ष क्षेत्रों तक होता चला गया है।

उपन्‍यास के कइ्र प्रसंगों में मुखबिरी इस क्षेत्र की मजबूरी है, बल्‍कि यूं कहें कि यहां का हर आदमी मुखबिर बनने को मजबूर है- चाहे वह पुलिस का मुखबिर बने या फिर डाकुओं का। कई लोग तो दुहरे मुखबिर यानी क्रॉस ऐजेंण्‍ट बन जाते हैं । मुखबिर को एक संज्ञा के रूप में न लेकर यदि एक कार्य के रूप में लिया जाय, तो उपन्‍यासकार ने हर पत्रकार, हर लेखक और राजनैतिक गठबंधन के हर दल के शुभचिन्‍तक को मुखबिर कहा है।

उपन्‍यास पढ़ने के बाद पाठक इस निष्‍कर्ष पर पहुंचता है कि आमने सामने भले ही पुलिस और डाकू लड़ते दिखाई दें लेकिन असली लड़ाई मुखबिरों के बीच होती है, मुखबिरों के जरिये होती है। अगर गहराई से देखें तो रामायण से लेकर महाभारत तक का युद्ध मुखबिरों के सहारे ही तो लड़ा गया दिखाई देता है। रामायण में विभीषण और त्रिजटा रामदल के मुखबिर थे तो सुक-सारन रावण दल के। मुखबिरी की यह परंपरा जयचंद और मीरजाफर तक चली आई है,जिन के द्वारा दी गई खबरों के बिना विदेशी आक्रांता कभी भी सफल नहीं हो सकते थे।

सारांशतः इस उपन्‍यास को चम्‍बल घाटी के आज के समाज, आज की राजनीति, आज के जातिवाद, आज के आपराधिक माहौल और दिनोंदिन बढ़ रही अमानुषिकता का आईना या सच्‍चा आख्‍यान कहा जा सकता है।

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राधाविहार, स्‍टेडियम, दतिया

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पुस्‍तक - मुखबिर (उपन्‍यास)

लेखक- राजनारायण बोहरे

rajnarayan bohare
LIG-19,housing colony datia m.p.

प्रकाशक- प्रकाशक संस्‍थान दिल्‍ली

मूल्‍य- 250/-रूपये

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. इस समीक्षा और पुस्तक की जानकारी के लिये धन्यवाद ।

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  2. मुझे भी उत्सुकता हुई है इस उपन्यास को पढ़ने की.

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  3. maine mukhbir padhi hai smeeksha me charcha me aane bali jaroori baten cchooti hai. ketki ke sandarbh me purush pradhan smaj ka bhayavh chehara.

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: रामभरोसे मिश्र की समीक्षा : राजनारायण बोहरे का उपन्यास - मुखबिर
रामभरोसे मिश्र की समीक्षा : राजनारायण बोहरे का उपन्यास - मुखबिर
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