वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – समकालीनता : और गहन जीवन अनुभवों के क्रांतिदर्शी लेखक मोहन राकेश

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युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘ दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍...

clip_image002 युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके एक हजार से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

समकालीनता ः और गहन जीवन अनुभवों के क्रांतिदर्शी लेखक मोहन राकेश

डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव

वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग

दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय, उरई

जीवन सम्‍भावनाओं का दूसरा नाम है और मनुष्‍य है अनगिनत सम्‍भावनाओं की बैसाखियों के सहारे थम-थम कर चलने वाला हिम्‍मतवर सैलानी। जन्‍म के प्रारम्‍भिक क्षण से लेकर मृत्‍यु के अन्‍तिम क्षण तक की सारी यात्रा अनेक रूचियों, भावों और प्रतिक्रियाओं की एक ऐसी परिणति है जिसकी गहराइयों में सब कुछ ऐसे समा जाता है मानो जन्‍म मिला ही इसलिये है कि उसे अपने लिये सब कुछ समेटकर उसी में विला जाना है। औद्योगीकरण, नगरीकरण और वैज्ञानिक अन्‍वेषणों के पार्श्‍व में खड़ा जीवन बाहर से ही नहीं, भीतर से भी बदला है। आजादी ने हमें जितना दिया है, उससे अधिक हम से ले भी लिया है। हमें सिर्फ आजादी मिली जो तीन थके हुये रंगों का नाम है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘स्‍वतंत्रता और संस्‍कृति एक अल्‍पसंख्‍यक वर्ग-विशेष को ही मिली है।' सामान्‍य मनुष्‍य तो अभी भी आजादी को टोह रहा है। आजादी राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जितनी अहम उपलब्‍धियाँ लेकर आई है, वैयक्‍तिक स्‍तर पर उतना और वैसा कुछ भी नहीं हस्‍तगत हुआ है। ‘‘व्‍यक्‍ति की मनोव्‍यथा बढ़ी है क्‍योंकि महानगरों में भीड़ बढ़ी है। मनुष्‍य पहले से अधिक अकेला हुआ है क्‍योंकि उसे अस्‍तित्‍व नहीं मिला है। उसकी ऊब दुगुनी हुई है क्‍योंकि मानवीय सम्‍बन्‍ध बिखर गये हैं। मनुष्‍य बेरोजगार होता गया है क्‍योंकि गाँव और नगर पीढ़ियाँ उगल रहे हैं। निराशा का रंग दिन-प्रतिदिन गाढ़ा होता गया है क्‍योंकि मनुष्‍य की स्‍थिति अनपहचान होती गई है।'' महानगरों में भीड़ का दबाव बढ़ा है तो उसी अनुपात में जीवन यांत्रिक और एक रस होता जा रहा है। नतीजा यह है कि छोटे नगरों में जीवन के अभाव और विषम परिस्‍थितियाँ इतनी अधिक तेजी से बढ़ रही हैं कि व्‍यक्‍ति के मन में ‘एलियनेशन' और ‘बोरडम' की भावना ने डेरा सा डाल लिया है।

उपयुक्‍त साधनों का अभाव, जीवन स्‍तर में उत्‍पन्‍न बाधाएँ, अव्‍यवस्‍था व अनुपयोगी शिक्षा, बेकारी, जनसंख्‍या की बढ़ोत्‍तरी, वैज्ञानिक सुविधाओं का अधकचरापन और बीमारी, गन्‍दगी व भुखमरी के कारण देश का आम आदमी पीड़ित है। उसका रक्‍तचाप या तो ऊँचा है, या काफी नीचा है। वह ‘नार्मल' नहीं रह गया है। युवक-युवतियों को अपनी समस्‍याएँ हैं। अप्राकृतिक यौन सम्‍बन्‍ध, उन्‍मुक्‍त प्रेम, समलैंगिक विवाह, नशीले पदार्थों का सेवन, तलाक, हड़ताल, भ्रूण हत्‍या और नंगे-अधनंगे शरीरों का नृत्‍य आदि जीवन को जिस हवा के साथ बहाये जा रहा है वहाँ ठहरकर सोचने का अवकाश ही किसको है ? नयी पीढ़ी समाज की सड़ी-गली परम्‍पराओं को तोड़ रही है। लीक से हटकर अपने अनुसार लीक बना रही है। वह ‘वाइफ स्‍वैपिंग' के खेल खेलती है। फैशन का नया दौर सामने से गुजर रहा है। ‘टापलेस' और ‘मिनी स्‍कर्टस' का फैशन जोरों पर है। फैशन का बाजार गर्म है। एक तरह का डिजाइन आ नहीं पाता कि दूसरा आकर उसे पुराने खाते में धकेल देता है। हिप्‍पी व वीटनिक संस्‍कृति ने देश के महानगरों का जीवन क्रम ही बदल दिया है। वर्तमान जीवन में कालेजों और विश्‍वविद्यालयों का जीवन भी अनाकर्षक अव्‍यवस्‍थित और असन्‍तोषपूर्ण होता जा रहा है। युवा बुद्धिजीवियों के सामने भविष्‍य का रूप स्‍पष्‍ट नहीं है और आज की नारकीय जिन्‍दगी की धकापेल में कर्तव्‍य का ज्ञान ही हवा हो गया है। अतः विगत वर्षों में हमारा जीवन जितना बदला है, उसमें जो अव्‍यवस्‍था, दरार और बिखराव आया है, उतना पिछले सैकड़ों वर्षों में भी नहीं आ पाया था। मध्‍यवर्गीय व्‍यक्‍ति एक ओर तो पुराने संस्‍कारों की जकड़न से बाहर आना चाहता है और दूसरी ओर ‘टेबूज' व रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ डालने पर आमादा है, किन्‍तु करे क्‍या ? उसके हाथों की ताकत गायब है। वह आधुनिक विदेह हो गया है। उसकी संकल्‍पी मनोवृत्‍ति नीचे दब गई है। अतः विवश है, अभिशप्‍त जीवन जी रहा है। इस विवशता ने उसके मानस में कुंठा, एकाकीपन, अजनबीपन, घुटन, निरूद्देश्‍यता, नपुंशक आक्रोश और अकेलेपन के बोध को गहरा दिया है। इस स्‍थिति से केवल पुरूष गुजर रहा हो ऐसी बात नहीं है, स्‍त्रियाँ भी इसी स्‍थिति और परिवेश में जी रही हैं। उनका शरीर रीतिकालीन नायकों के द्वारा तो उन्‍मथित ही हुआ था। आज तो वह बार-बार नापा जा रहा है। वासना के फीते के सामने वह छोटा पड़ गया है। अंग-प्रत्‍यंग पर वासना के नीले निशान हैं और उसकी परिणति भ्रूण हत्‍या, एबार्शन और भोग की दीवारों से सिर पटकने में ही रह गई है। कहने का तात्‍पर्य यह है कि आधुनिक परिवेश का मानचित्र काफी भयावह त्रासद और घिनौना है। उसमें समस्‍याओं के पहाड़ हैं, अतृप्‍तियों व विक्षुब्‍ध मनः स्‍थितियों की सरिताएँ हैं, अकेली शैलमालाओं और समूचे मानचित्र में न कोई रंग है, न रौनक। वह विकृत, हाशियाहीन, सीमाहीन और लिजलिजा सा हो गया है। इतना ही नहीं उसमें अंकित प्रत्‍येक नगर अजनबीपन का भार लिये अपनी जगह पर खड़ा भर है। यों उसके आसपास, छोटे बड़े नगरों की भीड़ है, उसका दबाव है, परन्‍तु फिर भी वह अकेला है। ऐसे परिवेश में लिखा गया आधुनिक साहित्‍य इससे अलग कैसे हो सकता था ? नहीं न। अतः उपरिसंकेतित परिवेश से प्रभावित साहित्‍य का रूप रंग भी तदनुकूल ही है।

समूची मानवता, मानवीय सम्‍बन्‍धों और मूल्‍यों का अपने ढंग से पुनरूवेषण करती है, अपने लिये एक मार्ग चुनती है, उसे केवल उसकी जन्‍म विवरणिका के माध्‍यम से कैसे समझा जा सकता है। उसकी पहचान उसकी व्‍यक्‍तिगत रूचियों, आदतों और प्रतिक्रियाओं से तो होती ही है उसे उसके परिवेश और सृजन के सहारे से भी समझा जा सकता है। व्‍यक्‍ति वह नहीं जो वह बाहर से दिखता है, अपितु असली व्‍यक्‍ति वह है जो आदमीनुमा शक्‍ल का खोल ओढ़कर अपने भीतर एक आदमी को लिये चलता है। यह तथ्‍य सामान्‍य व्‍यक्‍ति से लेकर कलाकार तक पर लागू होता है। आधुनिक जीवन की विसंगतियाँ तो इस तथ्‍य को और भी प्रमाणित कर देती हैं। मनुष्‍य लाख कोशिश करे, परन्‍तु वह आन्‍तरिक संवेदना को छुए बिना न तो जीवन की विचित्रताओं से परिचित हो सकता है और न उसके मूल में कार्य कर रही शक्‍तियों से। कलाकार तो यों भी ‘मूड़ी' होते हैं और फिर मोहन राकेश जैसा कलाकार तो और भी सशक्‍त प्रतिमानों से ही माना जा सकता है।

मोहन राकेश समकालीन लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच ऐसा लेखक था जिसने पुरानी मान्‍यताओं, रूढ़ियों और विचारों पर तीखा प्रहार किया है। आज का आदमी अपने आसपास के अनेक सवालों से टकराता, टूटता और निर्वासित हो रहा है। क्‍योंकि मनुष्‍य वैज्ञानिक उपलब्‍धियों को अपने जीवन में जाने-अनजाने स्‍वीकार कर रहा है और वैज्ञानिक विचारधारा ही आधुनिकता की धारणा बन गई है। अतः आधुनिकता ने वार्तालाप के दायरे को नितांत सीमित और संकुचित कर दिया है। व्‍यक्‍ति अकेलेपन से निकलने और परिवेश से जुड़ने के लिये छटपटा रहा है। वह जीने के लिये नये सम्‍बन्‍धों और नयी मान्‍यताओं की तलाश करता है ताकि अपनी खोई हुई दिशा को प्रकाशित कर सके और जीवन को नये सम्‍बन्‍धों और सन्‍दर्भों से जोड़ सके। राकेश आधुनिक कम रोमान्‍टिक अधिक थे। राकेश जीवन में सवाल उठा सकते थे लेकिन उसका फतवा कहीं नहीं देते थे। राकेश ने जीवन में जो कुछ भोगा वही लिखा। राकेश जब प्रयोग के धरातल पर उतरे तो उन्‍होंने सामने वाली वस्‍तु को न देखकर अपितु उसकी असली नाड़ी की परख करके ही झुंठलाया। स्‍वीकार और अस्‍वीकार, ग्रहण और त्‍याग तथा विरोध और सामंजस्‍य की यह प्रक्रिया रेल की समानान्‍तर पटरियों की तरह राकेश के जीवन और साहित्‍य में देखी जा सकती है। वस्‍तुतः राकेश एक ऐसा कलाकार था जिसमें एक सांस में ही सब कुछ को नकारने की क्षमता थी तो बहुत कुछ को एक साथ ही ग्रहण करने की शक्‍ति भी थी। उसकी यह क्षमता निरन्‍तर अन्‍वेषणरत होकर प्रयोग करती रही। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि ऐसे राकेश के जीवन की कहानी विचित्र भी है और अकल्‍पनीय भी। कभी-कभी लगता है कि राकेश की जिन्‍दगी का यह वैचित्रय बोध, यह अन्‍वेषणी स्‍वभाव ही उनके व्‍यक्‍तित्‍व का समर्थ पहलू भी है और यही उसकी दुर्बलता भी। आधुनिक बोध का यथार्थवादी चितेरा, कहानियों और उपन्‍यासों का थका हारा, किन्‍तु सम्‍भावनाकुल व्‍यक्‍ति और नाटकों में अर्न्‍तमुख भाव वलयित चेहरे वाला मोहन राकेश आधुनिक युग का मोहन भी था और राकेश भी।

नाटकों के परिप्रेक्ष्‍य में देखें तो वर्षां में उसका जो विकास हुआ है साथ ही उसमें जो नई प्रतिमाएं बनी हैं और जो संदर्भ आये हैं वे राकेश के सहारे अधिक गतिमान हुये हैं। गतिमानता की इस प्रतिक्रिया में राकेश का योगदान अप्रतिम है। अपने भाव से विचार और विचार से सूक्ष्‍म संवेदनात्‍मक स्‍तरों की खोज की है। इस खोज में व्‍यक्‍ति का भीतरी व्‍यक्‍तित्‍व ही अधिक विश्‍लेषित हुआ है। नाटक को रंगमंच से घनिष्‍ठता और अनिवार्यता संपृक्‍त मानकर राकेश ने अनेक नये मार्गों का उद्‌घाटन व प्रवर्तन किया है। इतना ही क्‍यों नाटक के क्षेत्र में राकेश की प्रयोग धर्मिता के इन्‍द्र धनुष भी झिलमिलाते दिखलाई देते हैं। बीजनाटक और पार्श्‍वनाटक जैसे नामों केवल नामों ही नहीं कथ्‍य और शिल्‍प की ताजगी में भी, के सहारे राकेश ने अपनी प्रयोगशीलता का परिचय दिया है। वस्‍तुतः राकेश अन्‍वेषक थे और इसी वजह से उनका समस्‍त साहित्‍य एक सजग प्रहरी और अन्‍वेषक का साहित्‍य प्रतीत होता है।

कहानीकार के रूप में राकेश हिन्‍दी की नयी कहानी के सशक्‍त हस्‍ताक्षर हैं। उनकी कहानियों की उपलब्‍धि अप्रतिम है। वे क्‍लासिक महत्‍व की कहानियाँ है। उनकी कहानियों में प्रायः अकेले पड़े उस मनुष्‍य का चित्रण हुआ है जो आज के समाज में परिवर्तित मूल्‍यों और सम्‍बन्‍धों की यंत्रणा को अपने अकेले क्षणों में झेलते जाने के लिये अभिशप्‍त है। हाँ, यह एक सच्‍चाई है कि इनका अकेलापन अपने समाज से कटे हुये व्‍यक्‍ति का अकेलापन नहीं है, वरन समाज के बीच रहकर छटपटाते घुटते और निरन्‍तर खाली होते जाते मनुष्‍य का अकेलापन है। मोहन राकेश के कहानी साहित्‍य की उपलब्‍धि कथ्‍यपरक तो है ही, वह अपनी शैल्‍पिक ताजगी के कारण भी नयी पीढ़ी के लिये एक चुनौती है। उसकी सबसे बड़ी उपलब्‍धि समकालीन विसंगतियों और मानवीय रिश्‍ते की त्रासदी का सजग और आत्‍मीय शिल्‍प में अभिव्‍यंजन है। कथ्‍य जितना दमदार और यथार्थ है, शिल्‍प भी उतने ही दम से युक्‍त है। उसमें आत्‍मीय और विश्‍वसनीय शैली का प्रयोग हुआ है।

राकेश जी के उपन्‍यास उनकी कहानियों में निरूपित कथ्‍य के ही विस्‍तार हैं। वे कहानियों में जिस त्रासदी, पीड़ा, आकुलता और जटिलता बोध को अभिव्‍यक्‍त करते रहे वही अधिक गहनता और धनता के साथ उपन्‍यासों में अभिव्‍यक्‍त करता है। ‘अंधेरे बंद कमरे' यदि हरबंश और नीलिमा की कहानी भर बनकर रह गया होता तो यह उसकी कमजोरी होती। यह तो दिल्‍ली के परिवेश में साँस लेते विविध वर्गों वाले पात्रों की जीवन्‍त गाथा है। इसमें आकर समकालीन जीवन विशेषकर समकालीन परिस्‍थितियों की जटिलता में घुटते और हताश होते स्‍त्री-पुरूष के सम्‍बन्‍ध अपनी स्‍थिति के अभिव्‍यंजन के लिये जुबान भी पा गये हैं। ‘न आने वाला कल' अस्‍तित्‍व की चिन्‍ता और उसकी सुरक्षा-भावना को लेकर लिखा गया उपन्‍यास है। ‘अंतराल' में फिर एक बार राकेश ने कुमार और श्‍यामा के सम्‍बन्‍धों और उनके सम्‍बन्‍धों के अन्‍तराल को चित्रित किया है। ध्‍यान से देखें तो राकेश की अधिकांश कहानियाँ और उनके सभी उपन्‍यास मानवीय सम्‍बन्‍धों-विशेषकर दाम्‍पत्‍य सम्‍बन्‍धों में आई कटुता, पीड़ा और विसंगतियों के विशद शब्‍द चित्र हैं। गत दो दशकों में सामाजिक जीवन और व्‍यक्‍ति का जीवन कितना बदला है, परिवेश कितना तल्‍ख हुआ है ? और मानव-मन खालीपन से कितना ,कहाँ तथा किन स्‍थितियों में भरता गया है, इसकी जानकारी के लिये राकेश की कहानियाँ और उपन्‍यास सर्वाधिक प्रमाणिक हैं। यह बहुत बड़ी उपलब्‍धि है कि एक रचनाकार अपने समय और परिवेश को पूरी ईमानदारी से अपने साहित्‍य में अंकित करता हुआ उसे विश्‍वसनीय बना दे। राकेश ऐसे ही सर्जक थे।

नाटक, कहानी और उपन्‍यास लेखक राकेश ने गद्य की विविध विधाओं पर भी लेखनी चलाई है। उनके निबन्‍धों में समकालीन विषयों व जीवन की चर्चा है। वे अपनी शैली की अभिनवता के कारण निश्‍चय ही लोकप्रिय हैं इसमें कोई सन्‍देह नहीं है। अन्‍य विधाओं को भी राकेश ने छुआ है जैसे डायरी, जीवनी, आत्‍मकथा, रेखाचित्र और रिपोर्ताज, किन्‍तु इस दिशा में वे सक्रिय नहीं रहे। अन्‍य विधाओं में उनका ध्‍यान यदि कहीं केन्‍द्रित हुआ है तो वह यात्रा वृतांत है। ‘आखिरी चट्टान तक' यात्रा संस्‍मरण है-यात्रा-वृतांत है। इसमें प्रकृति की अनाध्रात छवियां हैं, सौन्‍दर्य की तरंगें हैं, सांस्‍कृतिक संदर्भ हैं और इन सबको वाणी प्रदान करने वाली अद्‌भुत शैली है। यात्रापरक साहित्‍य के इतिहास में राकेश की कृति सदैव एक ऐसी उपलब्‍धि बनकर जियेगी जिस पर वर्तमान पीढ़ी को नाज होगा और भावी को इससे प्रेरणा मिलेगी।

मोहन राकेश का साहित्‍य युग साहित्‍य है। उसमें समकालीन युग-जीवन की अभिव्‍यंजना है। उसमें मनुष्‍य के राग-विराग, आसक्‍ति-अनासक्‍ति, स्‍वीकार-अस्‍वीकार, ग्रहण और त्‍याग, जीवन के गुह्य और जटिल संदर्भ, युग-त्रासदी और उससे उत्‍पन्‍न विभिन्‍न मनः स्‍थितियों का यथार्थ, विश्‍वसनीय और सही अंकन हुआ है। राकेश के साहित्‍य का सर्वप्रमुख गुण है। अनुभूति की ईमानदारी और अभिव्‍यक्‍ति की निश्‍छल प्रसन्‍नता और सबसे बड़ी उपलब्‍धि है। समकालीन जीवन की समग्र पहचान-पकड़ और सूक्ष्‍म संवेदनात्‍मक अभिव्‍यक्‍ति। यदि विधाता ने इस मनीषी सर्जक को कुछ मोहलत और बख्‍श दी होती तो साहित्‍य और समकालीन जीवन का अव्‍याख्‍येय उपकार होता।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – समकालीनता : और गहन जीवन अनुभवों के क्रांतिदर्शी लेखक मोहन राकेश
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख – समकालीनता : और गहन जीवन अनुभवों के क्रांतिदर्शी लेखक मोहन राकेश
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