प्रमोद भार्गव का बाल कहानी संकलन

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बाल कहानी जुहार का वचन रीवा के राजा रामचन्द्र बघेला की राजसभा में उस समय दो प्रमुख गायक थे एक संगीत सम्राट तानसेन और दूसरे जैन खां। ...

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बाल कहानी

जुहार का वचन

रीवा के राजा रामचन्द्र बघेला की राजसभा में उस समय दो प्रमुख गायक थे एक संगीत सम्राट तानसेन और दूसरे जैन खां। कुछ समय बाद जैन खां राजा रामचन्द्र की राज्यसभा छोडक़र अकबर की गायक मण्डली में सम्मलित हो गया। जैन खां ने बादशाह अकबर से तानसेन की गायनकला की बेहद तारीफ की और बादशाह से आग्रह किया कि आपकी गायक मण्डली में तानसेन के प्रवेश हो जाने के बाद राज्यसभा की शोभा चौगुनी हो जाएगी। बादशाह ने तत्काल जैन खां के निवेदन पर अमल किया और अपने एक विश्वस्त सेनापति जलाल खां कुर्ची को सेना सहित तानसेन को लाने के लिए भेज दिया।

जब सेनापति जलाल खां कुर्ची शाही फरमान के साथ राजा रामचन्द्र के सामने तानसेन को ले जाने के लिए उपस्थित हुआ तो राजा रामचन्द्र शाही फरमान पढक़र बेहद दुखी हुए और किसी नादान बालक की तरह से पड़े। उनकी तानसेन को शाही दरबार में भेजने की कतई इच्छा नहीं थी किन्तु सामने शाही सेना युद्ध के लिए तत्पर खड़ी थी। विषम परिस्थिति को देखते हुए तथा व्यर्थ खून-खराबा होने से बचाने के लिए तानसेन ने राजा रामचन्द्र को किसी प्रकार समझाया। अन्तत: तानसेन द्वारा विवश करने पर राजा रामचन्द्र तानसेन को शाही दरबार में भेजने के लिए तैयार हो गए।

राजा ने तानसेन की विदाई का विशाल जुलूस निकाला। बहुमूल्य वस्त्र, मणि-माणिक्यों से जुड़े आभूषण तथा समुचित वाद्य-यंत्रों को भेंट करते हुए राजा ने तानसेन को चौडोल पर बिठाकर बिदा कर दिया। बहुत दूर निकल जाने के बाद तानसेन ने पानी पीने के लिए चौडोल रूकवाया और तानसेन चौडोल से उतरे। उतरने के बाद तानसेन यह देखकर हक्का-बक्का रह गए कि स्वयं राजा रामचन्द्र चौडोल की एक बल्ली को कंधा दिए हुए हैं। उनके बदन पर कोई राजसी वस्त्र नहीं हंै और पैरों में जूते भी नहीं हंै। यह हृदय विदाकर दृश्य देखकर तानसेन भाव विह्लल हो रोने लगे।

तब राजा रामचन्द्र बोले, ‘‘हमारे खानदान की यह रीति है कि जब कोई प्रियजन मर जाता है तब उसकी अंतिम विदाई के समय कंधा देते हैं। बादशाह ने हमारे लिए तुम्हें मार ही तो डाला है। ’’ और राजा रामचन्द्र रोने लगे।

तब तानसेन बोले, ‘‘आपने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, अनेक कष्ट भी झेले हैं। मैं आपके इन उपकारों के प्रति सहृदय कृतज्ञ हूं और सदा आपका ऋणी रहूंगा। मैं आपको आपके प्रति अपनी निष्ठा प्रस्तुत करने के लिए एक वचन देता हूं कि जिस दाहिने हाथ से मैंने आपको जुहार (प्रणाम, नमस्कार) की है। अब उस दाहिने हाथ से तानसेन कभी किसी और को जुहार नहीं करेगा।’’

तानसेन द्वारा किए गए इस संकल्प के पश्चात राजा रामचन्द्र बघेला दुखी मन से राजधानी को लौट गए और तानसेन शाही काफिले के साथ आगरे के लिए रवाना हो गए। कहते हैं रामचन्द्र को दिया वचन तानसेन ने जीवन भर निभाया उन्होंने कभी भूल से भी दाहिने हाथ से किसी और को जुहार नहीं की। मुगल सम्राट अकबर को भी नहीं।

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कहानी

रोना

वह बहुत गरीब था। मजदूरी करके जैसे-तैसे गुजारा करता। उसका इकलौता लडक़ा कई दिनों से क्षयरोग से पीडि़त था। किन्तु वह आर्थिक हालत खराब होने के कारण ठीक से उसका इलाज भी नहीं करा पा रहा था। उसकी पत्नी भी बेचारी बेबश थी। बच्चे को गोद में लिए भगवान से ठीक कर देने की दुआ मांगती रहती।

शाम को जब आदमी घर आया तो बच्चे की हालत और बिगड़ गई थी। पर बेचारा क्या करता ? अपनी जर्जर स्थिति का सोच-विचार करता हुआ बच्चे के पास ही बैठ गया। हारा थका तो वह था ही बैठे-बैठे उसे कब नींद आ गई ख्याल ही नहीं रहा था।

नींद की गिरफ्त में आते ही वह एक अनोखी दुनिया में पहुंच गया। उसने स्वप्र में देखा वह शहर का सबसे नामी सेठ हो गया है। आधुनिक सुविधा वाले बंगले में वह रहता है। द्वार पर कार खड़ी रहती है और नौकर-चाकर पहरा देते रहते हैं। उसकी सुन्दर सुशील पत्नी है और वह दो स्वस्थ्य लडक़ों का पिता है। सभी भौतिक सुविधाओं से संपन्न जिन्दगी भोग रहा था, वह कि तभी पत्नी की दत्तड़मार चीख से उसकी नींद खुल गई। और उसके अवचेतन स्थिति में जिये वैभवपूर्ण जीवन का अंत हो गया।

उसने लडक़े के शरीर पर हाथ फेरकर अनुभव किया। लडक़े का शरीर ठण्डा हो चुका है। वह मर चुका है। किन्तु वह रोया नहीं, पछताया नहीं बल्कि असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा किसके लिए रोऊं ? उस वैभवपूर्ण जिन्दगी, सुन्दर पत्नी, स्वस्थ लडक़ों के लिए या सदा बीमार रहने वाले इस मरियल से बच्चे के लिए ? उसने अनुभव किया वह दोनों तरफ से लुट चुका है।

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कहानी

जेल

जब वह पहली बार सेठ से मारपीट हो जाने पर जेल गया था तब जेल के बारे के बारे में सोचना ही उसे बेहद तकलीफदेह लगता था। किन्तु जेल में कैदी बने रहकर जब उसने चार माह का सुखद आनंद लिया तो उसे जेल का जीवन गांव में ब्राह्मण और ठाकुरों के रूतबे के नीचे रहने से कहीं बेहतर लगा था।

दो बार चाय, दोनों वक्त खाना और बीड़ी का बिण्डल रोज समय पर बिना फिक्र किए मिलते। काम के नाम पर अफसरों की जी हजूरी और चिरौनी करना ही काफी था। सजा काटकर चार माह बाद जब वह जेल से निकला तो उसकी सेहत कुछ सुधर गई थी। और वह सोचता एकाध वर्ष क्या जेल में रह जाता तो शरीर बन जाता।

गांव में आकर फिर वही तमाम परेशानियां मुंह बाये खड़ी थीं। गरीबी की रेखा से नीचे जीता हुआ परिवार तिस पर भी जानलेवा सूखे की मार। बच्चों का रोटियों के लिए रिरियाते रहना और पत्नी का बार-बार झगडऩा। जिन्दगी जैसे एक किल्लत बनकर रह गई हो।

सेठ कर्ज वसूलने के लिए फिर तकाजा पर तकाजा करने लगा। जिन्दगी जैसे उसके लिए साक्षात नरक बन गई हो। उसने भूख गरीबी और जलालत भरी जिन्दगी से मुक्ति पाने क लिए सेठ की फिर अच्छी तरह पिटाई कर दी। एक दो जगह उसे काट भी खाया जिससे खून निकल आया। और वह सोचने लगा इस बार कुछ ज्यादा लंबी सजा हो जिससे जब वह लौटे तो सूखे का कोई प्रभाव न शेष रह जाए और उसे ठीक-ठाक मजदूरी मिल सके। और वह 6 माह के लिए जेल की रोटियां खाने चला गया। (शब्दिता)

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जिज्ञासु विद्यार्थी नचिकेता

प्राचीन काल में वाजश्रवा नाम के ऋषि थे। उन्होंने सर्वमेघ यज्ञ किया। इस यज्ञ के नियमानुसार इसमें सर्वस्व दान करना होता है। ऋषि के पास बहुत गायें थीं। दक्षिणा में वे गायों का दान देने लगे। लेकिन इस बीच उन्हें मोह हो गया और वे स्वस्थ एवं पुष्ट गायों के बजाय बूढ़ी गायों को दान में देते। ऋषि का दस वर्षीय बालक नचिकेता उनके साथ था। उसने सोचा ऐसा करने से पिताजी को उल्टा पाप लगेगा। अत: वह बोला, ‘‘पिताजी इस यज्ञ में सब कुछ दान करना होता है।’’ ऋषि ने उसे डपटकर चुप कर दिया।

लेकिन वह फिर बोला, ‘‘शायद आप मेरे मोह में पडक़र अच्छी गायों को बचा रहे हैं। मैं भी तो आपकी सम्पत्ति हूं। आप मुझे क्यों दान में नहीं दे देते।’’

ऋषि क्रोधित होकर बोले, ‘‘नचिकेता, जा मैं तुझे यमराज को दान में देता हूं।’’

नचिकेता पिताजी की आज्ञा का पालन कर यमलोक में यमराज के दरबार पहुंच गया। उस समय यमराज बाहर गए थे। पर निष्ठावान वह बालक तीन दिन बिना कुछ खाए-पिए ही यमराज के दरवाजे पर बैठा रहा।

यमराज ने लौटकर जब अपने दरवाजे पर एक नादान बालक को तप करते पाया तो उनका हृदय पसीज उठा, ‘‘वे बोले बेटा तुम कौन हो ? और क्या चाहते हो ?’’

नचिकेता बोला, ‘‘महाराज, मैं वाजश्रवा ऋषि का पुत्र हूं। मेरे पिता ने सर्वमेघ यज्ञ किया है और दक्षिणा के रूप में मुझे आपको दिया है।’’

यमराज बोले, ‘‘क्या तुम्हें यहां डर नहीं लगता ?’’

तब नचिकेता ने कहा, ‘‘डर तो अपने हाथों से किए गए गलत कार्यों से लगना चाहिए। मैंने कोई गलत काम या पाप नहीं किया। मैं क्यों डरूं ?’’

यमराज बालक के स्पष्ट बोलने से प्रभावित होकर बोले, ‘‘मैं तुम्हारी आस्था और तुम्हारे साहस से प्रसन्न हूं। तुम मेरे दरवाजे पर तीन दिन भूखे प्यासे बैठे रहे अत: तुम्हें मैं तीन वरदान देता हूं। तुम्हें जो चाहिए मांग लो बेटा।’’ नचिकेता ने कहा, ‘‘यह तो आपकी कृपा है महाराज: मुझे पहला वर दीजिए, मेरे यहां चले आने से मेरे पिता चिंतित हैं अत: वे चिन्तामुक्त हो जाएं।’’

-‘‘एवमस्तु।’’ यमराज बोले।

-‘‘दूसरा वर मैं स्वर्ग प्राप्ति की विद्या जानना चाहता हूं।’’

-‘‘यह विद्या तुम्हें समय पर अपने आप प्राप्त होगी।’’

-‘‘तीसरा वर मैं जीवन विद्या का रहस्य जानना चाहता हूं।’’

यमराज बहुत प्रसन्न होकर बोले, ‘‘हर मनुष्य के सामने दो रास्ते हैं- एक श्रेय का, दूसरा प्रेय का। एक आत्मिक कल्याण का, दूसरा भोग का। एक उत्थान का, दूसरा पतन का। इसमें पहला मार्ग कठिन है और दूसरा सरल है। मनुष्य के सामने जब संकट आता है, तो इसमें से जो पहले मार्ग को चुनता है, वह सच्चा वीर है और जीवनयात्रा का सफल यात्री है। तुमने आज उसी मार्ग को स्वीकार किया है अतएव मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’’

कहते हैं, उसके बाद से नचिकेता जीवन विद्या के जिज्ञासु विद्यार्थी के नाम से पहचाने गए।

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बाल कहानी

तोता रटंत

किसी जंगल में एक महाऋषि का आश्रम था। आश्रम के बगल से कल-कल स्वर गुंजाती हुई गंगा नदी बहती थी। वहीं महर्षि अपने शिष्यों को वेद, पुराण और नीति शास्त्रों का अध्ययन कराते थे। ऐसे ही एक दिन अध्यापन कराते समय एक तोता तेजी से उड़ता हुआ महर्षि को अपनी ओर आता हुआ दिखा। महर्षि आश्चर्यपूर्वक तोते को देखते हुए सोचने लगे ‘‘कि क्यों न इसे पकड़ कर ज्ञान की बातें सिखाई जाएं।’’ तभी तोता आकर महर्षि के कंधे पर बैठ गया। महर्षि ने देखा तोता बहुत भयभीत था और कांप भी रहा था।

कुछ ही समय में एक बहेलिया भी तोते की आने वाली दिशा से आया। अब महर्षि तुरंत तोते के भयभीत होने का कारण समझ गए। दरअसल बहेलिया तोते को अपने जाल में फंसाने के चक्कर में था। पर किसी तरह तोता बहेलिया के चंगुल से भाग निकल था। इसी कारण बहेलिया तोते को पकडऩे के लिए पीछा कर रहा था।

महर्षि के इशारे पर शिष्यों ने बहेलिया को वहां से भगा दिया। तब महर्षि ने तोते को एक पाठ पढ़ाना शुरू किया-

‘‘शिकारी आएगा,

जाल बिछाएगा,

दाना डालेगा,

पर तुम लालच में आना नहीं,

दाना चुगना नहीं,

दाना चुगोगे नहीं,

तो जाल में फंसोगे नहीं।’’

कुछ ही दिनों में तोते ने महर्षि के उपदेश को अक्षरश: रट लिया। अब वह हमेशा इसी उपदेश को रटता रहता। महर्षि ने एक दिन सोचा कि अब तो यह तोता उपदेश सीखकर समझदार हो गया होगा अत: अब यह जाल में नहीं फंसेगा। इसलिए इसे अब बंधन मुक्त कर देना चाहिए। अन्तत: महर्षि ने तोते को बंधन मुक्त कर दिया।

तोता कुछ समय के लिए इधर-उधर जाता और फिर महर्षि के आश्रम के पास मंडराने लगता। वह हमेशा महर्षि के उपदेश को रटता रहता। एक दिन महर्षि के मन में तोते के ज्ञान को लेकर शंका उत्पन्न हुई। उन्होंने सोचा कि यह तोता मेरे उपदेश को सिर्फ रटता है अथवा दैनिक जीवन में उतारता भी है या नहीं ? अपनी शंका के समाधान के लिए महर्षि ने तोते की परीक्षा के लिए एक बहेलिया को बुला भेजा।

बहेलिया ने महर्षि से कहा, ‘महाराज मैं इस तोते को जाल में कैसे फंसाऊंगा ? यह तो मेरे विरोध में पहले से ही बोल रहा है ?’

महर्षि बोले, तुम, ‘मैं कहता हूं वैसा करके देखो तो सही। मुझे तो इस तोते की परीक्षा लेनी है।’

बहेलिया ने आश्रम से कुछ दूर जाकर जाल फैलाकर उसमें दाना डाल दिया। वह तोता उपदेश रटता हुआ आया और दाना देखते ही उसके मन में लालच आ गया। तालाब आते ही वह दाना चुनने लगा और जाल में फंस गया। बहेलिया जाल समेटकर महर्षि के पास पहुंचा। महर्षि ने जब देखा कि उनका पढ़ाया हुआ तोता जाल में फंस गया है तो उन्हें बेहद दुख हुआ। तोता अभी भी महर्षि का उपदेश रटे जा रहा था। महर्षि ने अपने शिष्यों को तोते का उदाहरण देते हुए कहा, ‘‘बच्चों उपदेश एवं ज्ञान प्राप्त करने के बाद उसे दैनिक जीवन में भी उतारना चाहिए अन्यथा ज्ञान बस मूर्ख ज्ञानी तोते की तरह व्यर्थ है।’’

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कहानी आइसक्रीम की

हां तो बच्चों जब भी आपके मोहल्ले में आइसक्रीम बेचने वाला ठण्डी-मीठी आइसक्रीम के गुणगान गाता बेचने आता होगा तब जरूर आपके मुंह में पानी आ जाता होगा। आइसक्रीम चखने के लिए जीभ लपलपाने लगती होगी। आखिर चीज भी तो ऐसी ही है कि बड़े-बूढ़ों के मुंंह में भी पानी आ जाए। लेकिन बच्चों जब आप अपने मम्मी-पापा से आइसक्रीम खाने के लिए पैसे मांगते होंगे तब जरूर उनके चेहरे पर गुस्सा उतर आता होगा और वे झल्लाकर कहते होंगे, ‘‘आइसक्रीम खाकर क्या बीमार पडऩा है ?’’ खाई और उधर सर्दी, जुकाम, खांसी पेट की गड़बड़ी शुरू ? और आप अपना सा मुंह लेकर चुपचाप मम्मी-पापा के गल से खिसक जाते होंगे। पर बच्चों ऐसा नहीं है कि आइसक्रीम में दोषी ही दोष हों। यह निर्भर करता है आइसक्रीम निर्माताओं के बनाने के तरीके पर। यदि आइसक्रीम साफ स्वच्छ तरीके से अच्छे दूध-मलाई से बनाई गई होगी तो वह हानि नहीं पहुंचाएगी।

खैर अब आप आइसक्रीम की जन्म कथा पढि़ए....

बच्चों हजारों वर्ष पुरानी बात है....रोम देश में नीरो नाम का एक राजा रहता था। वह बहुत ही बुद्धिमान, जिज्ञासु एवं प्रयोगवादी व्यक्ति था। नई-नई बातें जानने समझने एवं खोज करने का हमेशा राजा की उत्कट अभिलाषा रहती थी। राजा भोजन प्रिय आदमी था। देश-विदेशी के तरह-तरह का भोजन खाने की उसकी हमेशा इच्छा रहती थी। वह अपने मंत्रियों को भी तरह-तरह के व्यंजन बनाने की विधियां जानने के लिए सरकारी खर्चे पर दौरे पर भेजता रहता था।

एक बार गर्मियों का मौसम था। ऐसे में राजा के दिमाग में ठण्डा भोजन करने की बात सूझी। बस फिर क्या था राजा ने अपने देश के ठण्डे इलाके से मंत्रियों को बर्फ मंगाने का हुकम दे दिया। राजा के आदेश का पालन हुआ। बर्फ राजा के सामने प्रस्तुत की गई। राजा ने एक दासी को बुलाकर बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े करवाए राजा द्वारा बनवाए जा रहे ठण्डे भोजन को रानियां दास-दासियां एवं मंत्रीगण सभी आश्चर्य से देख रहे थे कि राजा इन बर्फ के टुकड़ों को खाएंगे कैसे ? राजा ने एक दासी को आदेश दिया, ‘‘जाओ शहद लेकर आओ।’’ बस फिर क्या था देखते ही देखते शहर प्रस्तुत की गई। राजा ने बर्फ के टुकड़ों में शहर मिलाई और बड़े मजे के साथ मुस्कराकर सोने की चम्मच से एक-एक बर्फ का टुकड़ा खाने लगे। ऐसे विशिष्ट ठण्डे और स्वादिष्ट भोजन को खाने का तो आनंद ही अलग था। राजा ने वहां उपस्थित सभी लोगों को वह ठण्डी-ठण्डी बर्फ खिलाई। ठण्डा भोजन करके सबके चेहरे पर तृप्ति के भाव झलक आए। यही रोम में इस प्रकार आइसक्रीम बनारक खाने का चलन चल निकला।

रोम के बाद चीन में सबसे पहले तरीके से आइसक्रीम को बनाकर खाने का चलन प्रारंभ हुआ। लगभग 1224 वर्ष पूर्व इटली में एक इटालियन व्यक्ति मार्कोपोलो ने आइसक्रीम बनाकर प्रचार करके बेचना प्रारंभ की। इस तरह मार्कोपोलो के स्वजन्य से आइसक्रीम उद्योग की शुरूआत हुई और उसके ठण्डे-मीे स्वाद की सारी दुनिया में धूम मच गई।

1851 ईसवीं में जेकब फसेल नामक एक अमेरिकन व्यापारी ने वाशिंगटन और बाल्टीमोर में आइसक्रीम के बड़े-बड़े कारखाने खोले। अब तो आइसक्रीम का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने दो माह में ही अपने सहकर्मियों के साथ लगभग 300 डालर की आइसक्रीम खा डालीं। वर्तमान वैज्ञानिक युग में अनेक प्रकार के रासायनिक एवं भौतिक साधन सुलभ हो जाने के कारण अब आइसक्रीम दो सौ से भी अधिक प्रकार की बनने लगी हैं। मुख्यत: आइसक्रीम दूध,मक्खन, मलाई, काजू, किसमिस, कंद, मूल एवं सभी प्रकार के फलों से बनाई जाती हैं। अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देशों में तो अब आइसक्रीम दूध और मक्खन की ही तरह मुख्य भोजन मानी जाती है।

हां तो बच्चों अब पढ़ ली आइसक्रीम की जन्मकथा। आइसक्रीम खाते वक्त यह हमेशा ध्यान रखिए कि आइसक्रीम उत्तम प्रकार की सामग्री से बनी हो। (शब्दिता)

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मध्यप्रदेश की लोक-कथा

हांडी बनाम जोखिम

एक गांव में एक बुढ़िया और उसकी बेटी गीता रहती थी। बुढ़िया मेहनत-मजदूरी करके अपना और बेटी का पेट पालती। उसकी बेटी बहुत चतुर और वाकपुट थी।

एक बार चार चोर कहीं से सोने से भरी हुई हांडी चुराकर बुढ़िया के गांव से गुजरे। बुढ़िया द्वार की देहरी पर ही बैठी हुई थी।

बुढ़िया के घर के सामने ही चार-छह आम के पेड़ खड़े थे वहीं एक कुआं भी था। चारों चोरों ने सोचा क्यों न यहीं नहा-धोकर, दाल-बाटी बना-खाकर आगे बढ़ें और तब तक के लिए यह जोखिम (सोने से भरी हुई हांडी) बुढ़िया के पास रख दें।

चारों आपस में सलाह-मशविरा करके बुढ़िया से बोले, ‘‘अम्मा, हम यहां कुएं पर नहा-धोकर खा-पीकर आगे बढ़ेंगे, तब तक के लिए यह जोखिम तुम्हारे पास रखे देते हैं यह जोखिम हममें से किसी एक को नहीं देना, जब हम चारों इसे मांगे तभी देना।’’

बुढ़िया ने ‘हां’ में सिर हिला दिया और हांडी लेकर घर में संभालकर रख दी।

गीता भी उस समय वहीं खड़ी थी। सारा वार्तालाप उसने भी देखा एवं सुना था।

रात घिरने लगी थी। चारों नहा-धोकर बनिये की दुकान से आटा-दाल लाकर आम के पेड़ों के नीचे खाना बनाने लगे। उनमें से एक चोर के दिमाग में चालाकी सूझी। उसने मन ही मन बुढ़िया और अपने साथियों की आंखों में धूल झोंककर सोने से भरी हांडी उड़ा ले जाने की योजना बना डाली वह अपने साथियों से बोला, ‘‘क्यों न बुढ़िया से एक हांडी मांगकर उसमें दाल पकायी जाए।’’

‘‘हां.... हां.....यह ठीक रहेगा।’’ शेष तीनों बोले।

तीनों की सहमति लेकर वह बुढ़िया के पास जाकर बोला, ‘‘अम्मां, वह जोखिम दे दो।’’

बुढ़िया बोली, ‘‘उन तीनों से और कहलवाओ तब दूंगी।’’

वह अपने साथियों की ओर मुंह करके चिल्लाया, ‘‘हांडी ले जाऊं....?’’

बुढ़िया ने सोने से भरी हांडी लाकर उसे सौंप दी। वह हांडी लेकर भाग खड़ा हुआ।

बहुत देर तक जब वह हांडी लेकर नहीं आया तो शेष तीनों ने सोचा शायद बुढ़िया हांडी न दी हो और वह गांव में घूमने निकल गया हो। अत: बाल्टी में ही दाल बना डाली।

बहुत देर इंतजार करने के बाद भी जब उनका चौथा साथी नहीं आया तो वे खा-पीकर डकारें लेते हुए बुढ़िया के पास आकर बोले, ‘‘अम्मां अब हम जाएंगे, हमारी जोखिम दे दो।’’ बुढ़िया की तो पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। वह माथा पकडक़र वहीं बैठकर वहीं बैठकर रह गईं। पर गीता सब समझ गयी कि इनका चौथा साथी सबको बेवकूफ बनाकर जोखिम ले नौ-दौ ग्यारह हो गया है। अत: वह वाक्चातुर्य के साथ बोली, ‘‘तुम लोगों ने जोखिम मांगे तभी देना। अत: अपने चौथे साथी को भी लेकर आओ तब जोखिम मिलेगी।’’

तीनों को अपनी शर्त का अहसास हुआ और वे चौथे की तलाश में निकल गए।

बुढ़िया ने अपनी चतुर बेटी को छाती से चिपका लिया। (शब्दिता)

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बाल कहानी-

आदमी और सुअर की दोस्ती

बहुत पुरानी बात है। जंगल में एक सुअर रहता था उसकी अहीरा नाम के आदमी से बड़ी गहरी दोस्ती थी। जब अहीरा जंगल आता तो सुअर के साथ बैठकर घण्टों बातचीत करता रहता।

एक बार गांव में अकाल पड़ा और महामारी फैली। सैकड़ों लोग मारे गए। बचे लोगों में से ज्यादातर फसलें चौपट हो जाने के कारण कारोबार के लिए पलायन कर गए। अहीरा भी अकाल की मार से प्रभावित था। उसके खेतों की फसलें चौपट हो गईं थीं। कुठीले में भण्डार किया गया अनाज खत्म हो गया था। वह बहुत परेशान था।

जब अहीरा जंगल गया तो उसका सुअर मित्र उसकी परेशानी को ताड़ गया और बोला, ‘क्या बात है दोस्त बड़े परेशान दीख रहे हो ?’

अहीरा बोला, ‘परेशान तो हूं दोस्त! पर क्या बताऊं....., कुछ समझ नहीं आता ?’

‘ऐसी भी क्या परेशानी है मुझे बताओ ? हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।’

‘तुम मेरी क्या मदद कर पाओगे ? तुम तो हो ही..... सुअर!’

सुअर को अपने प्रिय मित्र की बात कांटे की तरह चुभी। लेकिन उसने विवेक नहीं खोया। बोला, ‘मित्र ! दोस्त भले ही सुअर क्यों न हो, दोस्त-दोस्त ही होता है। और संकट की घडिय़ों में जब सगे-संबंधी साथ छोड़ जाते हैं तो दोस्त ही काम आता है। तुम मुझे अपनी परेशानी बताओ, मैं तुम्हारी मदद करने की कोशिश करूंगा।’

अहीरा कुछ इस लहजे में कि चलो इस सुअर के सामने अपनी परेशानी बयान करने में लाभ नहीं तो हानि भी क्या है कि तर्ज पर बोला, ‘मित्र गांव में अकाल पड़ा है। पूरे इलाके में त्राहि-त्राहि मची है। मेरा भी अन्न भण्डार खत्म होने को है। ऐसे में मुझे कुछ सूझ नहीं रहा कि मैं अपने परिवार की उदरपूर्ति कैसे करूं ?’

सुअर कुछ देर सोचने के बाद बोला, ‘दोस्त, आदमी की दृष्टि में मैं बड़ा ही घृणित जीव हूं। शायद आदमी ने मेरा इसीलिए नाम ‘सुअर’ रखा। मानव समाज में तो नीच आदमी को सुअर कहकर गाली भी दी जाती है और दुत्कारा भी जाता है। यह कहावत भी प्रचलित है, ‘दोस्ती भी की तो किससे सुअर से’। यानी पूरी सुअर वन्य जीव प्रजाति को ही बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है।’

‘हां मित्र, सो तो है।’ अहीरा बोला।

‘लेकिन आज मैं अपनी दोस्ती निभा और मानव सेवा कर इस कहावत को झुठलाना चाहता हूं, जिससे सुअर प्रजाति पर नीच होने का लगा कलंक मिट जाए।’

‘लेकिन कैसे मित्र ?’ अहीरा की जिज्ञासा बढ़ी।

‘मित्र मेरे पास ऐसी तरकीब है जिससे मैं तेरे और तेरे परिवार की आजीविका के लायक साधन जुटा सकता हूं। और जब तक इस दुनिया में मेरा जीवन है तब तक तुझे यह सुविधा मिलती भी रहेगी। लेकिन एक शर्त है मित्र ?’

‘क्या क्या शर्त है बताओ ?’

‘मैं तेरी उदरपूर्ति के लिए जो साधन मुहैया कराऊंगा उसके सिलसिले में तू मुझसे यह रहस्य नहीं उगलवाएगा कि यह इंतजाम मैं कैसे करता हूं।’

‘ठीक है।’ अहीरा ने सुअर की शर्त मान ली।

‘अब तू ऐसा कर मेरे शरीर में जहां तुझे अच्छा लगे वहां से उदरपूर्ति के लायक मांस निकाल ले। चाहे तो तू इसे पका कर खा लेना और चाहे नगर में ले जाकर विक्रय अथवा विनिमय कर अनाज जुटा लेना। और इतना ही मांस कल भी निकाल लेना । मैं तुझे भरोसा दिलाता हूं कि जब तक मेरा जीवन है तब तक मेरे शरीर से मांस निकालते रहना।’

अहीरा आश्चर्यचकित होकर बोला, ‘नहीं दोस्त मैं ऐसा नहीं कर सकता इससे तू मर जाएगा।’

‘मैंने तुझसे कहा न मुझे कुछ नहीं होगा। बस मुझसे तू इस रहस्य के बारे में मत पूछना कि मैं स्वस्थ्य कैसे होता हूं।’

‘अब तू नहीं ही मानता तो निकाले लेता हूं मांस.....।’

और अहीरा ने सुअर के पेट में हंसिया चलाकर तीन-चार किलो मांस निकाल लिया। इस बीच सुघड़ जीव सुअर सांस रोके जमीन पर पड़ा रहा। मांस निकाले जाने के बाद सुअर खड़ा होकर बोला, ‘मित्र कल फिर इतना ही मांस निकाल लेना।’ और सुअर बियावान जंगल में लुप्त हो गया।

अगले दिन जब अहीरा जंगल पहुंचा तो सुअर को पूरी तरह भला-चंगा देखकर हैरान रह गया। सुअर ने अहीरा से ठीक होने के रहस्य को न पूछने की शर्त पहले ही रख दी थी इसलिए अहीरा ने कुछ पूछा नहीं। और अहीरा ने सुअर के शरीर से फिर उतना ही मांस निकाल लिया।

इस तरह मांस निकालने का सिलसिला कई दिन चलता रहा।

वर्षा ऋतु आई। खूब पानी बरसा। मौसमी फल-फूल व वनस्पतियां खेत, खलिहान व जंगलों में उगकर फल देने लगे। धीरे-धीरे अकाल की मार से गांव के लोग उबरने लगे। गांव वालों ने खेतों में फसलें बोईं और कुछ दिनों बाद ही खेतों में फसलें लहलहाने लगीं। अहीरा के खेतों में भी अच्छी फसलें थीं और उसे उम्मीद थी कि कुछ दिनों बाद उसे सुअर के शरीर से मांस नोंचने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

धीरे-धीरे कुछ दिन और बीत गए। सब सामन्य होने लगा। तब एक दिन सुअर के शरीर से मांस निकालने से पहले अहीरा बोला, ‘मित्र संकट के दिनों में तुमने मेरी बड़ी मदद की लेकिन तुमने स्वस्थ्य होने का रहस्य नहीं बताया। मित्र जब तुम मुझ पर इतना मेहरबान हो और मुझ पर पूरा भरोसा भी है फिर मुझे रहस्य बताने में क्या दिक्कत है, भला ?’

‘मित्र अब तुम्हारी इतनी ही जिद है तो मैं तुम्हें वह रहस्य भी बताए देता हूं। लेकिन एक वचन दो तुम किसी अन्य आदमी को तो वह रहस्य नहीं बताओगे ?’

-‘नहीं बताऊंगा मित्र, वचन दिया।’

‘अच्छा तो तुम मेरे शरीर से पहले मांस निकाल लो ?’

अहीरा ने मांस निकाल लिया। सुअर उठ कर खड़ा हुआ। और तकलीफ झेलता हुआ घने वनों में चल दिया। पीछे-पीछे उसने अहीरा को आने का इशारा कर दिया।

घने वन में कुछ कोस चलने के बाद एक झरना आया। झरने के किनारे पर कुछ कल्पवृक्ष खड़े थे। सुअर कल्पवृक्ष के पास गया और उसने कल्पवृक्ष के तने से अपने शरीर का घाव रगडऩा शुरू कर दिया। देखते-देखते घाव का शरीर पर कोई चिन्ह नहीं रहा। और सुअर भला-चंगा होकर अपने प्रिय मित्र अहीरा के पास खड़ा हो गया। अहीरा हैरान था।

अगले दिन अहीरा फिर जंगल पहुंचा। आज उसने सुअर के शरीर से बड़ी ही निर्दयता पूर्वक और दिनों की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा मांस नोंचा। अहीरा के चेहरे पर कुटिल मुस्कान भी थी।

मांस लेकर अहीरा तो गांव की ओर चला गया लेकिन तकलीफ झेलता हुआ सुअर जब कल्पवृक्षों के पास पहुंचा तो उसे रोना आ गया। सभी कल्पवृक्ष वहां कटे पड़े थे। सुअर को गुस्सा आया और वह चीखा, ‘आदमी तुमसे दोस्ती करने का यह फल ? सुअर हमारे जंगल के प्राणी नहीं तुम हो और तुम्हारी मनुष्य जाति है।’

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बाल कहानी-

एक ही माटी के लाल

लगभग 2300 वर्ष पुरानी बात है। कलिंग और मगध दो शक्तिशाली पड़ौसी राज्य थे। इन दोनों राज्यों में 100 वर्षों तक लगातार भयंकर युद्ध चलता रहा और अन्तत: हार कलिंग की हुई। मगध वासियों ने कलिंग वासियों का खूब अपमान किया, यहां तक कि उनकी धार्मिक भावनाओं को भी ठेस पहुंचाई। वे कलिंग की पवित्र एवं सम्मानित शीतलनाथ जिनकी मूर्ति भी उठा ले गए।

ईसा से लगभग दो सौ पच्चीस वर्ष पूर्व कलिंग के राजा महा मेघवाहन का पुत्र खारवेल गद्दी पर बैठा। खारवेल बहुत चतुर, दूरदर्शी, उदार और साहसी राजा था। सबसे पहले उसने अपनी मृतप्राय: और हौसलापस्त सेना में प्राण फूंके। उसे प्रोत्साहन किया। अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में उसने नगर का पुन: निर्माण कराया। तालाब और कुओं की मरम्मत करायी। बाग-बगीचे ठीक कराए। पेड़ लगाए। इन सभी कार्यों में भरपूरा पैसा खर्च करने के बाद भी राजा ने प्रजा से कर आदि नहीं लिया। सारा पैसा खजाने से खर्च किया। राजा के इस उदार निर्णय से प्रजा में अपार हर्ष फैल गया। एक वर्ष में ही राजा ने प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया।

अपने शासन काल के दूसरे वर्ष में खारवेल ने अपने राज्य की सीमा विस्तार का प्रण लिया और उसने सातकर्णी नामक राजा के राज्य पर आक्रमण करने के लिए कूच कर दिया। खारवेल ने कृष्णा और मूसी नदियों के संगम पर स्थित ऋषीक नगर पर आक्रमण किया और अपने कब्जे में ले लिया। इस आक्रमण से खारवेल को पर्याप्त यश और संपत्ति की प्राप्ति हुई।

कलिंगवासियों ने वर्षा बाद विजय देखी थी। उनका खोया हुआ आत्मविश्वास और हौसला वापस लौट आया। गर्व से उनका सिर ऊपर उठ गया। प्रजा में से अधिकांश लोग स्वेच्छा से सेना में शामिल होने लगे। खारवेल को कलिंग पर शासन करते हुए सात वर्ष हो चुके थे इस दौरान उसकी सफलतायें कुछ कम नहीं थी। उसने राज्य को बल, संपन्नता और सीमाओं को विस्तार दिया। फिर भी वह संतुष्ट नहीं था। मगध द्वारा कलिंग का अपमान किए जाने का बदला लेने की ललक उसके मन में थी। मगध को पराजित कर वह शीतलनाथ जिन पवित्र मूर्ति वापस लाना चाहता था। मगर यह कार्य बहुत कठिन था। मगध पर आक्रमण करके उस पर विजय प्राप्त करना लोहे के चने चबाने जैसा था। मगध की राजधानी पर सीधे घेराबंदी नहीं की जा सकती थी। राजधानी की सुरक्षा उसके दक्षिण में स्थित गोरथगिरी किले द्वारा की जाती थी। लेकिन खारवेल ने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपने सेना नायकों से परामर्श की और गौरथगिरी पर देखते ही देखते कब्जा कर लिया और आगे बढक़र मगध की राजधानी के राजगृह के चारों ओर से घेराबंदी कर ली।

इसी समय खारवेल को अपने जासूसों द्वारा सूचना मिली कि यूनान के यवन (ग्रीक यूनानी) राजा दिमित्र (डिनिट्ियस) एक बड़ी सेना के साथ मगध पर हमला करने आ रहा है।

एक क्षण के लिए खारवेल के मन में विचार आया कि दिमित्र के साथ हाथ मिलाकर मगध पर आक्रमण करने से विजय आसान हो जाएगी। किन्तु दूसरे ही क्षण उसके मन विचार आया कि दिमित्र कौन है ? क्या भारतवासी है ? नहीं ....। नहीं ....॥ वह भारतीवासी नहीं है। विदेशी है....। भारत की धन संपदा को लूटने आया है। आज वह मगध को लूटने की सोच रहा है। कल कलिंग को लूटने की सोचेगा। ऐसी विकट स्थिति में मुझे मगध की सहायता करनी चाहिए और दिमित्र को खदेडऩा चाहिए। यही मेरा राष्ट्रीय दायित्व है, कर्तव्य है। आखिर मगध का राजा तो हममें से ही है और भारतीय ही है। खारवेल ने अपनी सेना को दिमित्र से युद्ध करने का आदेश दिया।

दिमित्र को जब यह सूचना मिली कि खारवेल की सेनायें मुझसे लडऩे आ रही हैं तो उसने अपनी सेनाओं को वापस लौटने का आदेश दे दिया। वह एक साथ मगध और कलिंग की सेनाओं से नहीं लड़ सकता था। उसका तो यह अनुमान था कि खारवेल दक्षिण दिशा से मगध पर आक्रमण करेगा और वह पश्चिम से मगध पर हमला करेगा। और अंत में खारवेल से हाथ मिलाकर विजय आसान हो जाएगी और लूट का माल आधा-आधा बांट लेंगे। किन्तु दिमित्र ने एहसास किया कि खारवेल जितना पराक्रमी है उतना ही देश भक्त और दूरदर्शी है। वह एक विदेशी और भारतवासी का मतलब अच्छी तरह समझता है।

अंतत: दिमित्र अपनी सेना के साथ वहां से भाग निकला। उसके बाद किसी भी यवन राजा ने भारत की ओर आंख उठाने का प्रयास नहीं किया।

मगध के राजा ने खारवेल के प्रति आत्मीय भाव से कृतज्ञता व्यक्त की और शीतलनाथ जिनकी मूर्ति वापस करते हुए कहा, ‘‘महामहिम। आपने मगध को हताहत होने और लूटपाट से तो बचाया ही साथ ही भारत में किसी विदेशी के पैर जमने से पहले ही उखाड़ दिए। मगधवासी आपका यह उपकार जीवन भर नहीं भूलेंगे। हम सब आपके ऋणी हैं।’’

खारवेल मुस्कराते हुए बोला, ‘‘आखिरकार हम भारतवासी भाई-भाई हैं। एक ही माटी के लाल हैं। किसी भी विदेशी द्वारा भारत के किसी भी राज्य पर आक्रमण करने पर हमें एक हो जाना चाहिए तभी हमारी अखण्डता, संप्रभुता सभ्यता और संस्कृति जिंदा रह सकेंगे।’’

काश! भारत के खारवेल के बाद के राजा ऐसी ही बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का परिचय देते और मुसलमान एवं अंग्रेजो के आक्रमण के समय अपने मतभेद भुलाकर कंधे से कंधा मिला लेते तो संभवत: भारत वर्ष की दो हजार वर्षों की लंबी गुलामी की अवधि न गुजारनी पड़ती।

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बाल कहानी

शासन करने की इच्छा

प्राचीन समय में हिमालय के निकट एक बरगद का विशाल वृक्ष खड़ा हुआ था। उसके पत्ते बहुत घने थे इस कारण गर्मियों में बरगद के नीचे खूब लुभावनी छाया रहती। कई जानवर धूप से बचने के लिए दोपहर बरगद की शीतल छाया में बिलमाते। अपनी शरण में जानवरों को देख बरगद का सिर अभिमान से ऊंचा हो जाता। वह सोचने लगता मैं बहुत बड़ा हूं मेरा महत्व सर्वाधिक है, तभी तो दुनिया भर के जानवर मेरी शरण में आते हैं।

कुछ दिनों बाद तीन मित्र बरगद के आश्रय में आकर रहने लगे। वे पहले भी कई बार बरगद की छाया में दिन काट चुके थे। पर अब उन्होंने स्थायी डेरा जमा लिया। वे तीन मित्र थे- हाथी, वानर और तीतर।

एक दिन अंहकार में डूबकर बरगद ने सोचा, ये लोग लगातार मेरे संरक्षण में पल रहे हैं, क्यों न मैं इन पर शासन करूं। फिर बरगद को ख्याल आया शासन तो वही कर सकता है जो ज्येष्ठ हो, बड़ा हो। ये तीनों प्राणी तो मुझसे बड़े हो ही नहीं सकते ? अत: पहले मैं इनके सामने ‘ज्येष्ठ कौन है’ के प्रमाण मांगू जब ये लोग प्रमाण प्रस्तुत न कर पाएं तब अपने ज्येष्ठ होने का प्रमाण पेश कर इन पर शासन करूं।

तब बरगद ने एक दिन बड़ी चालाकी से हाथी, वानर और तीतर से कहा, ‘‘बंधुओं मेरे मन में ऐसा विचार आया है कि हममें जो ज्येष्ठ हो, उसकी हम सेवा करें, गौरव मानें और उसका आधिपत्य स्वीकारें ? अत: तुम सब ऐसी यादें सुनाओ जो तुम्हारे जीवन में सबसे पुरानी हों।’’

तब हाथी, वानर, तीतर बोले, ‘‘बरगद भाई सबसे पहले तुम्हीं अपनी कोई पुरानी यादगार सुनाओ।’’

बरगद बोला, ‘‘मेरे आसपास जितने भी पेड़ हैं मेरे ही सामने पैदा हुए। मैंने इनको शैशव से किशोर और किशोर से प्रौढ़ होते देखा है।’’

तब बरगद, वानर और तीतर ने हाथी से कहा, ‘‘बंधु तुम्हें कौनसी पुरानी बात याद है ?’’

हाथी बोला, ‘‘जब मैं बालक था तब, इस बरगद को पैरों के बीच में करके लांघ जाता था। इसके आकार लेते छोटे-छोटे पत्ते मेरे पेट का स्पर्श करते थे। भाईयो मुझे सबसे पुरानी यही बात याद है।’’

तब बरगद, हाथी और तीतर ने वानर से पूछा, ‘‘बंधुवर तुम बताओ तुम्हें कौनसी पुरानी बात याद है।’’ वानर बोला, ‘‘जब मैं बालक था, तब धरती पर बैठकर बड़े मजे से इस बरगद की फुनगियों के अंकुरों को खाता था।’’

तब बरगद, हाथी और वानर ने तीतर से पूछा, ‘‘मित्रवर तुम्हें कौनसी पुरानी बात याद है ?’’

तीतर बोला, ‘‘एक स्थान पर बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। उसके फल खाकर मैंने इस जगह विष्ठा की तब कहीं जाकर यह बरगद पैदा हुआ। उस समय में युवा था।’’

तीतर की बात सुनकर बरगद का अहंकार मिट्टी में मिल गया। कहां तो वह शासन करने की सोच रहा था और अब कहां एक छोटा सा पक्षी उस पर अधिकार जमाएगा। बरगद यह भूल गया था कि आकार में छोटा दिखने वाला प्राणी उम्र और अनुभव में भारी भरकम काया वाले बरगद से भी ‘ज्येष्ठ’ हो सकता है।

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बाल कहानी

प्राणी

बात बहुत प्राचीन है। एक बार यूं ही हंसी मजाक करते हुए प्राण, वाणी और अन्य इन्द्रियों में अपने-अपने महत्व को लेकर तू-तू, मैं-मैं हो पड़ी। विवाद-प्रतिवाद छिड़ गया। प्राण बोला, ‘‘मैं बड़ा।’’ इन्द्रियां बोली, ‘‘हम बड़ी।’’ अंत में इन्द्रियां जब किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची तो सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के पास पहुंची और ब्रह्मा को सादर प्रमाम करने के बाद पूछा, ‘‘हे जग के निर्माता परमेश्वर यह बताओ कि हम सब इन्द्रियों में कौन श्रेष्ठ है, बड़ी है। शरीर के लिए सबसे ज्यादा महत्व किस इन्द्री का है।’’

ब्रह्मा शांत और गंभीर होकर बोले, ‘‘तुम में से शरीर के बाहर निकल जाने के बाद शरीर निष्क्रिय हो जाए, किसी काम का न रहे। जिंदा रहने के गुण नष्ट हो जाएं। वहीं इन्द्री उत्तम है, श्रेष्ठ है, बड़ी है।’’

इन्द्रियों को ब्रह्मा की बात युक्ति-युक्त लगी और सबसे पहले वाली शरीर से बाहर वाणी निकल गई। और एक वर्ष उपरांत वाणी ने लौटकर शेष इंद्रियों से पूछा, ‘‘मेरे बिना तुम जीवित कैसे रही ?’’

इन्द्रियां बोली, ‘‘जैसे गूंगा व्यक्ति न बोलते हुए भी प्राण से सांस लेता है, आंखों से देखता है, कानों से सुनता है मन से विचारता है और जीता है, ऐसे ही हम जीवित रहे। वाणी ने सोचा मैं शरीर के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हूं और वह पुन: शरीर में प्रविष्ठ हो गई।

फिर आंखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर निकल गई। लौटकर आंखों ने पूछा, ‘‘मेरे बिना तुम जीवित कैसे रहीं ?’’

इन्द्रियां बोली, ‘‘जैसे अंधा आंखों से नहीं देखने पर भी प्राणों से सांस लेता है, वाणी से बोलता है, कान से सुनता है, मन से विचारता है और जीता है, ऐसे ही हम जीवित रहीं।’’ अपनी श्रेष्ठता को थोपने का विचार छोडक़र आंखें शरीर में प्रवेश कर गई।

इसके बाद कान शरीर से बाहर निकल गए और एक वर्ष के बाद कानों ने लौटकर इंन्द्रियों से पूछा, ‘‘तुम जीवित कैसे रहीं ?’’

तब इंद्रियां बोली, ‘‘जिस तरह बहरे बगैर सुने प्राणों से सांस लेते हैं, वाणी से बोलते हैं, आंखों से देखते हैं। मन से विचारते और जीते हैं, उसी तरह हम भी जीवित रहे।’’ इंद्रियों की बात सुनकर कान अपना झूठा घमण्ड छोडक़र शरीर में प्रवेश कर गए।

तब मन शरीर छोडक़र बाहर निकल गया और एक वर्ष बाद लौटकर इंद्रियों से बोला, ‘‘तुम जिन्दा कैसे रही ?’’

तब इन्द्रियाँ बोली, ‘‘जिस प्रकार छोटा बालक बिना मन के सांस लेता है, वाणी से बोलता है। आंखों से देखता है। कानों से सुनता है और जीता है उसी प्रकार हम जिंदा रहे।’’ यह सुनते ही मन का अभिमान समाप्त हो गया और वह शरीर में प्रवेश कर गया।

अंत में प्राण की बारी आई। और जैसे ही प्राण शरीर से बाहर निकलने को हुए कि सब इन्द्रियों का दम घुटने लगा, वे छटपटाने लगी, निष्क्रिय होने लगी। तब सभी इंन्द्रियां प्राण से सादर विनयपूर्र्वक बोलीं, ‘‘हे प्राण ! तुम शरीर मत छोड़ो। अपने स्थान पर रहो। तुमसे ही हमारा अस्तित्व जुड़ा है। हम सब इन्द्रियां यह स्वीकार करती हैं कि तुम ही हम सब में श्रेष्ठ हो, बड़े हो महत्वपूर्ण हो। तुमसे ही हमारा जीवन है, अस्तित्व है।’’

यही कारण है कि स्त्री पुरुष को वाणी, नेत्र, कान और मन नहीं बल्कि प्राण अथवा प्राणी कहते हैं।

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लोक कथा

दो कुएं

एक राजा की राजधानी में दो कुएं थे। एक प्रजा के लिए और दूसरा राजपरिवार के सदस्‍यों के लिए। प्रजा के लिए राजा के कुए से पानी पीने पर पूर्ण प्रतिबंध था। एक साल अवर्षा के कारण भयंकर सूखा पड़ा। जल स्‍त्रोत सूखने लगे। प्रजा वाले कुए में दिन-प्रतिदिन पानी कम होने लगा। इस कारण प्रजा ने महामंत्री के माध्‍यम से राजा तक गुहार लगाई कि प्रजा को राजा वाले कुए से भी जल उपयोग की अनुमति मिले।

लेकिन राजशी ठाठबाट और प्रजा व सामंतशाही के बीच भेद रखने वाले राजा को प्रजा की मांग नहीं सुहाई और राजा ने प्रजा की बात अनसुनी कर दी।

दिन-प्रतिदिन जल संकट गहराने लगा। प्रजा में चिंता बढ़ने लगी। इसी समय राजधानी में एक पहुंचे हुए संत का पदापर्ण हुआ। उनका प्रजा ओर राजा पर समान प्रभाव था। प्रजा ने जल समस्‍या से संतजी को अवगत कराया। संत ने घोषणा की कि जो भी कोई प्रजा वाले कुए से पानी पियेंगा, वह विक्षिप्‍त (पागल) हो जाएगा।

दूसरा कोई जल स्‍त्रोत नहीं होने के कारण जनता जाती कहॉ ? मजबूरन उसे प्रजा वाले कुए से ही पानी पीना पड़ा। जो-जो पानी पीता गया वह पागल होता गया और देखते-देखते पूरी की पूरी प्रजा पागल हो गई।

देखते-देखते पागलों की भीड़ राजमहल के सामने इकट्‌ठी हो गई ओर भीड़ ने एकमत से राजा को पागल घोषित कर दिया और प्रजा चिल्‍लाने लगी, ‘‘ राजा पागल हो गया है। इसे हटाओ.....।''

घबराया राजा संत के पास पहुंच कर उनके चरणों में सिर रख गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘ मेरे राज की रक्षा करो महाराज।''

संत मंद-मंद मुस्‍कराये और बोले, ‘‘ जा तू भी प्रजा वाले कुए से पानी पीना शुरू कर सब ठीक हो जाएगा.........। तथास्‍तु।''

राजा दौड़कर प्रजा वाले कुए पर पहुॅच और गटागट पानी पी गया। देखते-देखते उसका व्‍यवहार भी प्रजा जैसा हो गया। और राजा प्रजा के बीच पहुॅच कहने लगा, ‘‘ आओ हमारे कुए से पानी पिओ। हमने प्रतिबंध हटा दिया।''

और फिर प्रजा कहने लगी हमारा राजा तो बड़ी जल्‍दी अच्‍छा हो गया।

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प्रमोद भार्गव

शाही निवास, शंकर कालोनी,

शिवपुरी (म.प्र.) पिन- 473-551

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का बाल कहानी संकलन
प्रमोद भार्गव का बाल कहानी संकलन
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