कृष्ण गोपाल सिन्हा की कहानी - अपनेपन की तलाश

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ह यात बिंदास ज़िंदगी के चालीस साल देखने के बाद सदानंद के संपर्क में आयी थी. यहाँ आकर उसे कुछ ठहराव, कुछ सुकून, थोड़ा अपनापन मिलता महसूस हो रह...

यात बिंदास ज़िंदगी के चालीस साल देखने के बाद सदानंद के संपर्क में आयी थी. यहाँ आकर उसे कुछ ठहराव, कुछ सुकून, थोड़ा अपनापन मिलता महसूस हो रहा था. अब तक जो कुछ उसने देखा था उससे उसने पाया कम था खोया ज़्यादा था. बड़ी ही अजीबोग़रीब दास्तान उसके माजी से जुड़ा था जिसे वह अब न तो कतई याद करना चाहती थी न तो किसी से बयां करना चाहती थी. उसे लोगों ने छोड़ा था और उसने उस शहर को ही छोड़ दिया था. अब एक नए शहर में, नए माहौल में, नए रिश्ते और नयी शुरुआत के साथ उसने अपनी ज़िंदगी की नयी इबारत लिखने की ठान ली थी.

हयात तेज दिमाग, तर्रार मिज़ाज और खुली सोच की एक खूबसूरत लड़की थी. उसका ताल्लुक एक मिडिल क्लास फेमिली से था . कोलिज के दिनों में उसकी दोस्ती अपने ही क्लास के अंजुम से हो गयी थी. इस दोस्ती ने दोनों को प्यार का अहसास कराया तो दोनों एक दूसरे को बेइन्तिहा प्यार करने लगे थे. कोलेज की पढ़ाई पूरी करते करते दोनों ने ही आगे की ज़िंदगी साथ साथ जीने और मरने का फैसला किया था. अंजुम साधारण परिवार से भले ही था पर बड़ा ही होनहार और सुशील लड़का था इसलिए हयात के घर वालों को दोनों के बीच रिश्ते को लेकर कोई ऐतराज नहीं था. रजामंदी से यह रिश्ता तय हो गया पर इसी बीच अंजुम का फैसला बदल गया और वह हयात की जगह सलमा से निकाह के लिए अड़ गया. इधर उसके इस फैसले की वजह उसके घर वालों की समझ से बाहर था और वे लाचार थे और इधर हयात अंजुम के फैसले से टूटने लगी. उसने जो सपने बुने थे वे आनन फानन में ही बिखरने और टूटने लगे. जो उसने सपने में भी नहीं सोचा था वह अब उसे देखना और बर्दाश्त करना पड़ रहा था. टूटना और संभलना कितना मुश्किल होता है इसे हयात ही जानती थी या फिर वह जिसे ऐसे दौर से गुजरना पड़ा हो.

सब कुछ वक़्त के हवाले करने के सिवा और कोई चारा ही नहीं बचा था इसलिए हयात ने अपने को वक़्त के हवाले किया और खुद को संभालने की भरपूर कोशिश की. उसकी इस कोशिश में कामयाबी. मिलने के कुछ आसार दिखाई दिए जब उसका सेलेक्शन एक बैंक में बतौर एक्जीकुटिव हुआ. माँ

बाप को खुशी और कुछ तसल्ली हुयी और उसे भी अब जीने का एक सबब महसूस हुआ, उसके लिए अपने प्यार को, अपने अहसासों को भुला देना आसान तो था नहीं पर जिन्दगी में आने वाले पडावों और मोड़ों से रूबरू हुयी तो उसके सोच और नज़रिए में भी रफ्ता रफ्ता बदलाव आने लगा. चोट भी लगी, तकलीफ भी हुयी, वक़्त भी लगा पर तकदीर ने जो तय कर रखा था उसे तो होना ही था. हयात ने कभी किसी की शरीकेहयात न बनने का फैसला कर लिया था. अब कभी कोई रिश्ते की बात होती या कोई रिश्ता आता तो वह साफ तौर से इनकार कर देती थी.

सभी की तरह हयात को भी न तो पहले पता था कि आगे क्या होने वाला है और न तो आज ही यह अंदाजा है कि कल क्या होने वाला है . बैंक में नए लोगों से मुलाक़ात हुयी , पहचान हुयी , एक नया माहौल मिला तो सोच और नज़रिए में भी बदलाव आने लगा. अब आशीष और पहले प्यार के बारे में सोचने का समय भी कम होने लगा. इस बीच बैंक में साथ काम करने वाकों में ही एक था आशीष जो हयात में दिलचस्पी लेने लगा था. वह अक्सर काम में हयात का हाथ बताने और मदद करने को तैयार रहता. हयात को आशीष की इस तरह की दिलचस्पी और नज़दीक रहने की कोशिश का पूरा अहसास था पर उसने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया. आशीष और हयात कभी भी एक दूसरे की अब तक के ज़िंदगी के बारे में न पूछते न बातें करते. आशीष ने न कुछ जानना चाहा हयात ने भी कुछ नहीं पूछा. दोनों के बीच नजदीकियां बनने और बढ़ने लगी. आशीष और हयात ने अपने बीच घटती दूरियों के बावजूद न तो कभी प्यार की कसमें खाए और न ही एक दुसरे के लिए जीने और मरने का वादा ही किया.हयात बिंदास थी तो आशीष लापरवाह था. उन्होंने अपनी नजदीकियों को कभी सीरिअसली नहीं लिया. शायद इसीलिये दोनों को वह बेताबी या बेचैनी या तड़प महसूस नहीं होता था जो प्यार में मुब्तिला होने पर महसूस होता ही है.

अंजुम से हयात को अहसासों और ख्वाबों से रूबरू होने का हुनर मिला था और आशीष से उसे मुश्किल दौर से निकलकर कुछ सुकून और अपनापन मयस्सर हुआ था. दोनों के बीच नजदीकियां बनने और बढ़ने लगी. आशीष और हयात ने अपने बीच घटती दूरियों के बावजूद न तो कभी प्यार की कसमें खाए और न ही एक दुसरे के लिए जीने और मरने का वादा ही किया. हयात बिंदास थी तो आशीष लापरवाह था. उन्होंने अपनी नजदीकियों को कभी सीरिअसली नहीं लिया. शायद इसीलिये दोनों को वह बेताबी या बेचैनी या तड़प महसूस नहीं होता था जो प्यार में मुब्तिला होने पर महसूस होता ही है. इस तरह समय गुजरता गया और यह भी ध्यान नहीं रहा कि कैसे और कितना गुजरा है. लेकिन इसी बीच अब हयात को यह महसूस होने लगा था कि आशीष की उसमें दिलचस्पी कम होने लगी थी. वह अब हयात को पहले की तरह न तवज्जो देता और न ही उसके लिये उसके पास समय ही होता. हयात अब आशीष के बदले हुए रुख से हैरान तो थी पर परेशान नहीं थी.

हयात को आशीष के बदले रुख की वजह भी जल्दी समझ में आ गयी. पिछले कुछ समय से वह महसूस कर रही थी कि आशीष बैंक में ही उम्र में अपने से बड़ी मिसेज अस्थाना की तरफ ज़्यादा ही ध्यान देने लगा था. हयात को इस बात का अंदाजा देर से इस लिए लगा क्योंकि आम औरतों की तरह उसे मर्दों की फितरत का न तो अंदाजा था और न ही शक करने का कोई ठोस कारण ही समझ में आया था. एक दिन आशीष ने हयात को साफ़ साफ़ बता ही दिया कि अब वह उसे समय नहीं दे पायेगा क्यों मिसेज अस्थाना को उसकी ज़रूरत थी. हयात की समझ में यह बात पहली बार आया कि संबंधों का आधार ज़रूरतें भी होती हैं. हो सकता है कि आने वाले समय में मिसेज अस्थाना और आशीष को किसी और की ज़रूरत पड़े. अपने ज़हन में अजीब सी हलचल और बेचैनी हयात महसूस कर रही थी. पहले अंजुम से उसे प्यार में रुसवाई मिली थी और अब आशीष से उसे मर्दों की एक और फितरत और रिश्तों में खोखलेपन का नमूना सामने आया.

हयात और आशीष के बीच नजदीकियों और संबंधों पर कभी किसी ने न तो कुछ कहा और न ही इस ओर कोई ध्यान ही दिया. पर दोनों के बीच मिसेज अस्थाना के आने पर ज़रूर लोगों का ध्यान गया. हालांकि किसी ने न कुछ पूछा न कहा पर हयात को लगने लगा जब भी कोई मिलता है या किसी से बातें होती हैं तो उसकी निगाहें यह सवाल करती हैं यह सब क्यों और कैसे हुआ. ऐसे में वह अजीब सी घुटन महसूस करने लगी थी और इसीलिये लोगों के साथ उठाने बैठने और बातें करने से वह कतराने भी लगी थी. फिर आशीष और मिसेज अस्थाना भी तो वही थे जिनसे काम के सिलसिले में मिलना और बातें करनी ही पड़ती थी. उस यहाँ आकर जो थोड़ी सुकून और राहत नसीब हुयी भी थी वह इस तरह और इतनी ज़ल्दी ख़त्म हो जायेगी इसका उसे सपने में भी कभी ख़याल तक नहीं आया. आखिर वह कब तक इस घुटन को झेलती और बर्दाश्त करती. वह बिलकुल अकेली थी, न किसी से कुछ पूछ सकती थी न किसी को कुछ बता ही सकती थी. ऐसे में उसे बस एक ही रास्ता दिखाई दिया कि वह इस शहर से बाहर चली जाय और इसके लिए उसका तबादला ज़रूरी था.

बैंक में अपने इरादे और ज़रूरत के बारे में वह बिना कुछ बताये ही कोशिश शुरू कर दी. इस सिलसिले मिस्टर चावला से दो चार बार मिलने के बाद भी उसे अपना काम बनता नज़र नहीं आ रहा था. हयात ने महसूस किया कि मिस्टर चावला उसके तबादले के लिए तैयार भी नहीं लगते थे और साफ़ साफ़ मना भी नहीं करते थे. उसने अब तय कर लिया था वह इस बारे में मिस्टर चावला से खुलकर और साफ़ साफ़ बात कर ही लेगी क्यों कि वह अब और घुटन और अनिश्चितता में लटके रहना नहीं चाहती थी. इस बार जब वह मिस्टर चावला से मिली तो उन्होंने तबादले के लिए अपनी शर्तों और इरादों का खुलासा कर ही दिया. कई बार मिलने पर भी गोलमोल बातों से हयात को मिस्टर चावला की नीयत पर शक ज़रूर हुआ था पर अपनी इस शक पर वह यकीन नहीं करना चाहती थी. उसका शक सही और यकीन ग़लत निकला. उसके सामने अब ऐसी बात के लिए फैसला करने का दबाव था जिसके लिए उसका मन कत्तई तैयार नहीं हो रहा था. मिस्टर चावला से अपना जवाब देने के लिए उसने एक हफ्ते का समय माँगा क्योंकि उन शर्तों को मानने के लिए मानसिक तौर पर तैयार होना कत्तई आसान नहीं था. मर्दों की एक और फितरत से रूबरू होने के दर्द से गुजरने के सिवा उसे और कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था. हफ्ता बीतने से पहले ही मिस्टर चावला को फोन करके मिलने का समय और जगह ले लिया,

इसके बाद से लेकर मिस्टर चावला से मिलने से पहले हयात के दिमाग में बहुत ही उथल पुथल हो रहा था. उसे लग रहा था कि वह अपने मन और तन के साथ न्याय नहीं कर रही है. हयात अब यह अच्छी तरह समझ रही थी कि बेबसी, मजबूरी और लाचारी क्या होती है. मिस्टर चावला से मिलने के बाद उसे लग रहा था कि उसका जिस्म बेजान है. घर लौटने के बाद घंटों वह बेजान पडी रही. काफी देर बाद जब वह कुछ सामान्य महसूस कररही थी तब भी उसकी आँखों के सामने उसकी मजबूरियों और बेबसी का वह हादसा वैसे ही घूम रहा था जिससे होकर उसे गुजरना पडा था. थकी हारी हयात बिना खाए पीये पुरी रात पड़ी रही. सुबह उठी तो अपने को संभालने की कोशिश की और बैंक के लिए तैयार हुयी. बैंक पहुँच कर अपनी सीट पर गयी तो उसके ट्रांसफर का फैक्स रक्खा था. फैक्स देखकर उसे कोई खुशी नहीं हुयी क्योंकि इसके लिए उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी. दोनों हथेलियों में अपना चेहरा समेटे बैठी रही और फिर खुद को संभालते और समझाते हुए नार्मल होने और दिखने का जतन करने लगी. उसने यह सब इस शहर को छोड़ने के लिए किया था इसलिए तबादले से जुड़ी फोर्मैलिटी आज ही पुरी कर लेना चाहती थी. बिना किसी फेयरवेल पार्टी वगैरह के उसने बैंक में सभी को अलविदा कहा और घर आकर नए शहर के लिए सामानों की पैकिंग करने लगी और अगले ही दिन उसने इस शहर को भी अलविदा कह दिया.

नए शहर में आकर उसने घुटन से निजात महसूस की. हवा में ताज़गी और फिज़ा में बदलाव महसूस कर रही थी. एक अपार्टमेन्ट में अपने सामान को जमाते हुए उसने तय किया कि अब वह ज़िंदगी को अपने अंदाज़ से जियेगी. चालीस पार कर रही थी पर उम्र का असर उसने अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया था. अगले दिन बैंक जाकर ज्वाईनिंग दी और सरसरी नज़र से सभी का जायज़ा भी लिया. चेहरे से किसी की फितरत और नीयत का पता लगाना मुश्किल होता है और वह अब इस पहलू पर कुछ भी सोचने से बचना चाहती थी. इस नए माहौल में उसने महसूस किया कि अब किसी की नज़रें उससे किसी तरह का सवाल करती नहीं महसूस हो रही थीं.

हयात जिस अपार्टमेन्ट में रहती थी उसी में उसके सामने वाले फ्लैट में सदानंद त्रिपाठी रहते थे. हयात को यह जानकारी उनके फ्लैट के बाहर लगी प्लेट से हुयी थी. आते जाते और निकलते देखकर दोनों एक दूसरे को पहचानते तो थे पर जानते नहीं थे. हयात को यह अंदाजा लगाने में मुश्किल नहीं था कि सदानंद प्रौढ़ और परिपक्व थे. उनका व्यक्तित्व सुदर्शन और प्रभावी था. एक दिन हयात बैंक जाने के लिए अपार्टमेन्ट के बाहर आयी तो उसी समय सदानंद अपनी कार से बाहर निकल रहे थे. हयात को देखकर कार रोकते हुए बोले,"आओ, मै तुम्हे ड्रॉप करता हुआ अपने इंस्टीट्यूट चला जाउंगा." इस आवाज़ ने हां या ना करने या कुछ पूछने का कोई मौक़ा ही नहीं दिया. उसके बैठ जाने और चल देने के बाद सदानंद ने पूछा, "कहाँ काम करती हो?" हयात ने जवाब तो दिया पर उनसे कुछ पूछ नहीं सकी. सदानंद ने खुद ही बताया कि वह उसके बैंक से थोड़ी दूर पर ही एक इंस्टीट्यूट में प्रोफ़ेसर हैं. हयात को सदानंद की आवाज़ और लहज़े में कुछ नया लगा. उनसे कुछ जानने और पूछने की हिम्मत वह नहीं कर पाई थी और बिना कुछ पूछे अपने बारे में कुछ और बताने में भी उसे संकोच हुआ. दोनों के बीच की खामोशी बैंक पहुँचने तक बनी रही जब कार से उतरकर उसने 'थैंक यू' कहा. बिना कुछ कहे सदानंद ने सर हिलाकर जवाब देते हुए चल पड़े. बैंक जाते हुए अब अक्सर इनकी भेंट हो जाती थी और दोनों साथ जाते. 'आप कैसे हैं?' और 'तुम कैसी हो?' जैसे सवाल और ' मैं ठीक हूँ.' और 'मैं अच्छी हूँ' जैसे जवाब का परिचय और सम्बन्ध दोनों के बीच कुछ समय तक चला.  'आप कैसे हैं?' और 'तुम कैसी हो?' जैसे सवाल और ' मैं ठीक हूँ.' और 'मैं अच्छी हूँ' जैसे जवाब का परिचय और सम्बन्ध दोनों के बीच कुछ समय तक चला. 'आप कैसे हैं?' और 'तुम कैसी हो?' जैसे सवाल और ' मैं ठीक हूँ.' और 'मैं अच्छी हूँ' जैसे जवाब का परिचय और सम्बन्ध दोनों के बीच कुछ समय तक चला.

उस दिन इतवार था और सुबह के नौ बजे थे. हयात के फ्लैट की काँलबेल बजी, हयात ने दवाजा खोला तो देखा सदानंद खड़े थे. 'कैसी हो, क्या कर रही थी?' 'आइये' कहकर वह एक तरफ हो गयी. ' बस, ऐसे ही कुछ नहीं. सोच रही थी कि छुट्टी है तो आज क्या किया जाय.' हयात के कहते ही सदानंद ने पूछा, 'क्या चाय-कॉफ़ी कुछ नहीं पूछोगी?' ' आप ने ऐसा कैसे सोच लिया', कहते हुए वह किचेन की और बढ़ी. सदानंद पास रखी मैगजीन पलटने लगे. हयात चाय लेकर आयी और सामने सोफे पर बैठ गयी. हयात की समझ में नहीं आ रहा था क्या बात करे. इस बीच सदानंद ने उसकी उलझन को भांप लिया और बोले, " देखो हयात, ज़िंदगी अपने ढंग से अपनी शर्तों पर चलती है. हम इसमें कितना दखल दे सकते हैं, हम ही नहीं समझ पाते. मैं न जाने क्यों तुमसे अपनी ज़िंदगी के बारे में सब कुछ शेयर करना चाहता हूँ पर तुम्हारी ज़िंदगी के बारे में कुछ पूछकर या जानकार उसमे किसी तरह का दखल बिलकुल नहीं करना चाहता. उस दिन इतवार था और सुबह के नौ बजे थे. हयात के फ्लैट की काँलबेल बजी, हयात ने दरवाजा खोला तो देखा सदानंद खड़े थे. 'कैसी हो, क्या कर रही थी?' 'आइये' कहकर वह एक तरफ हो गयी. ' बस, ऐसे ही कुछ नहीं. सोच रही थी कि छुट्टी है तो आज क्या किया जाय.'हयात के कहते ही सदानंद ने पूछा, 'क्या चाय-कॉफ़ी कुछ नहीं पूछोगी?' ' आप ने ऐसा कैसे सोच लिया', कहते हुए वह किचेन की और बढ़ी. सदानंद पास रखी मैगजीन पलटने लगे. हयात चाय लेकर आयी और सामने सोफे पर बैठ गयी. हयात की समझ में नहीं आ रहा था क्या बात करे. इस बीच सदानंद ने उसकी उलझन को भांप लिया और बोले, " देखो हयात, ज़िंदगी अपने ढंग से अपनी शर्तों पर चलती है. हम इसमें कितना दखल दे सकते हैं, हम ही नहीं समझ पाते. मैं न जाने क्यों तुमसे अपनी ज़िंदगी के बारे में सब कुछ शेयर करना चाहता हूँ पर तुम्हारी ज़िंदगी के बारे में कुछ पूछकर या जानकार उसमे किसी तरह का दखल बिलकुल नहीं करना चाहता. वादों और शर्तों पर मैं यक़ीन नहीं करता और संबधों में शर्तें हों तो वह भी मैं ठीक नहीं समझता. फिर भी इसे मेरी शर्त मत समझो तो एक बात तुमसे ज़रूर कहना चाहूंगा कि जब तक तुम्हारा मन किसी भी बात को मानने के लिए तैयार न हो तुम भी अपने मन की ही मानो. किसी को क्या अच्छा या बुरा लगता है इस बारे में कभी भी अपने मन पर कोई बोझ या दबाव मत डालना. "

हयात सदानंद की बातें बड़े ही गौर से सुन रही थी. वह अपनी तरफ से कुछ कहती या पूछती इससे पहले ही सदानंद ने कहा कि आज शाम को हम दोनों बाहर चलेंगे और मेरा मकसद बस तुमसे अपनी बीती ज़िंदगी को शेयर करना है. हयात कुछ कहती इससे पहले ही सदानंद खड़े हो गए और 'फिर मिलते है' कहकर बाहर आ गए. हयात बैठ गयी और सदानंद की बेबाकी और बेतक़ल्लुफ़ी के बारे में सोचने लगी. पता नहीं क्यों हयात को लगने लगा कि सदानंद के साथ बाहर जाने और उनकी बातें सुनने में कोई हर्ज़ नहीं है. उसे यह भी लगने लगा कि खोखलापन हो या खालीपन हो या अधूरापन हो इनमें से किसी के भी साथ पूरी ज़िंदगी नहीं बिताई जा सकती. इन सब के बारे में वह बस अनुमान लगा रही थी और अनजाने ही शाम का इंतज़ार भी कर रही थी.

सदानंद के साथ हयात उस शाम एक पार्क में बैठी थी. आज ज़िंदगी के कुछ नए पहलू से वह रूबरू होने जा रही थी. उसे कुछ अजीब महसूस होना चाहिए था पर ऐसा नहीं हुआ. अपनी सोच में उसे भारीपन नहीं बल्कि वजन महसूस हो रहा था और वह कुछ हल्का, कुछ नया और कुछ अच्छा महसूस कर रही थी. आज की शाम के बारे में आज सुबह सदानंद से मुलाक़ात होने तक उसने सोचा तक नहीं था. आज तो बस उसे सुनना था. शेयर तो सदानंद को करना था इसलिए वह खामोश थी. सदानंद ने खामोशी तोड़ी. कहने लगे," हयात, मैंने अब तक जितने बसंत और पतझड़ देखे हैं उनमें पतझड़ ही ज्यादा रहे. जब बसंत आये भी तो पता ही नहीं चला और वे निकल गए. माँ की ममता और पिता की अंगुली और डांट कभी मिली भी होगी तो याद नहीं आता. बड़ा होता गया और कब, कैसे, किधर से मदद मिलती गयी यह ज़रूर याद है. यूनीवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करके वही जॉब भी मिल गयी, यह मेरे लिए बहुत ही अच्छा हुआ. परिवार और खानदान के लोगों की तरफ से बहुत कुछ मिला पर उसकी एवज में मुझे कुछ करना या देना नहीं पडा. यूनीवर्सिटी में ही रिसर्च के सिलसिले में मै मिसेज वर्मा के संपर्क में आया जो मेरी गाइड थी. उनके यहाँ आना जाना भी होता था. वे मेरा बहुत ख़याल भी रखती थीं. मुझे महसूस होता था कि मिस्टर वर्मा और मिसेज वर्मा के बीच सब कुछ ठीक नहीं था. इस बात को लेकर मुझे न कोई सरोकार था और न ही मैं मिसेज वर्मा के लिए कोई अतिरिक्त हमदर्दी ही मेरे मन के किसी कोने में थी. धीरे धीरे मैं यह महसूस करने लगा कि मेरा हर तरह से वह पूरा ध्यान रखने लगी थीं. इस बीच कब और कैसे मैं उनकी ज़रूरत बनता गया और उनकी मर्जी को मानता गया मुझे पता ही नहीं चला. गलत और सही, जायज़ और नाजायज़, नैतिक और अनैतिक का सवाल कभी मन में उठा ही नहीं. समय कब और कैसे निकलता जा रहा था यह भी ध्यान नहीं रहा. "

कुछ समय बाद मेरे परिवार वालों ने मेरा रिश्ता एक अत्यंत संपन्न परिवार की लड़की कांता से कर दिया और अब मेरी हैसियत एक पति की थी. मुझे यह सब ठीक और अच्छा भी लगा. मेरा वैवाहिक जीवन भी ठीक था और मिसेज वर्मा को भी इससे कोई परेशानी नहीं हुई. पर एक दिन मै असहज और परेशान हो गया जब कांता ने विवाहपूर्व अपने एक सम्बन्ध के बारे में बताया. मैंने इस बात को पूरे धैर्य और शांत मन से लिया. मुझे लगा की मेरी सारी कोशिशों के बाद भी अगर कांता को अपना जीवन अधूरा लगता है तो हम कब तक और कैसे अपने सम्बन्ध को निभायेंगे.

मैंने सब कुछ साफ़ साफ़ कांता के पिता को बता और समझाकर रास्ता निकाला और अपनी तरफ से सम्बन्ध ख़त्म करते हुए तलाक़ की पहल की और कांता के नए रिश्ते और जीवन का रास्ता खुल गया. उसके बाद क्या हुआ मैंने इससे कोई सरोकार नहीं रखा. इधर मिसेज वर्मा और मेरे बीच के सम्बन्ध में कोई अंतर नहीं पड़ा और मैं यंत्रवत उनके निर्देशों का अनुसरण करता गया. इस सम्बन्ध में कही कोई भावनात्मक लगाव या जुड़ाव हो ऐसा नहीं था. इसलिए मैं न तो परेशान रहता था और न तो इस बारे में कुछ सोचता ही था.

इन्हीं दिनों मेरी भेंट एक स्वामी जी से हुयी. वे जीवन के खालीपन और अधूरेपन को भरने के लिए आध्यात्मिक बातों पर अधिक बल देते थे. मुझे उनकी बातों ने प्रभावित किया तो मैं उनके संपर्क में आता गया. धीरे धीरे यह संपर्क और घनिष्ट होता गया. उनिवार्सिती के बाद काफ़ी समय मैं उनके सानिध्य में बिताने लगा. घनिष्टता बढ़ी तो मैंने उनका दूसरा ही रूप देखा और मेरा उनके स्वामी के स्वरुप से मोह भंग होने लगा. उनका तर्क होता था कि वे जो भी करते हैं दूसरों की सहमति से और दूसरों के अधूरेपन को भरने के लिए करते हैं. कही कुछ खाली और अधूरा है और उसे भरने और पूरा करने की इच्छा और अवसर है तो उसे खाली क्यों रहने दिया जाय. मैं स्वामी जी के कृत्यों और तर्कों पर ज्यादा सोचना नहीं चाहता था और फिर मैंने उनके पास जाना या उनसे मिलना धीरे धीरे बंद ही कर दिया.

हयात यह बात मैंने किसी के भी सामने ज़ाहिर ही नहीं होने दिया कि जिस माहौल से मैं गुजर रहा था उसमें न तो मैं खुश था और न ही अब और आगे उसमे रहना चाहता था. मुझे अब यह लगने लगा कि न तो मैं किसी का हूँ और न ही मेरा कोई है. अब यक की ज़िंदगी से आगे की मैं सोच भी नहीं पा रहा था और ऐसे में मैंने वहाँ से निकलने की कोशिश की और इस शहर में आ गया. अब मुझे कुछ सुकून है, अब मेरे मन में न तो कोई सवाल है और न कोई दुविधा है. आज मैं तुमसे यह स्वीकार कर सकता हूँ कि मेरे लिए खोखलापन, खालीपन और अधूरेपन का कोई अहसास नहीं है पर अपनेपन की तलाश ज़रूर है जिसकी ज़रूरत इंसान को पूरी उम्र रहती है और इसी अपनेपन के अहसास के साथ वह अपनी अंतिम सांस लेना चाहता है. "

सदानंद को लग रहा था कि उनकी बातों से हयात का मन कुछ भारी हो गया है. उसे हल्का करने की गरज से सदानंद ने कहा कि मुझे कहाँ मालूम था कि एक दिन हयात मुझे मिलेगी और मैं उसके सामने सब कुछ इस तरह रख दूंगा. आखिरकार, सब सुनने और जानने का हक़ तुमने कब और कैसे ले लिया यह तो मैं भी नहीं जान पाया. हयात सदानंद के सामने शायद पहली बार मुस्कराई थी.

सदानंद अपनी बातें कहकर हल्का महसूस कर रहा था और हयात को सदानंद की बातें सुनकर कुछ भी बुरा नहीं लगा बल्कि वह यह सोचने लगी कि किसी भी रिश्ते या सम्बन्ध से ज़्यादा अहम् होता है अपनेपन का अहसास. इस अहसास से अब तक वह अनजान थी. दोनों लौटकर अपार्टमेन्ट आये. पूरी रात हयात अपने बीते रिश्तों को अपनेपन के तराजू पर तोलती और उनका भाव लगाती रही. अब तक जो कुछ उसने देखा था उसने उसे खालीपन दिया था, अधूरापन दिया था. अब तक जिनको वह जान पाई थी उनमें उसे खोखलापन ही देखने को मिला था. इसी ताने बाने और सोच विचार में कब उसे नींद आ गयी, सुबह उठी तो याद नहीं आ रहा था. बस उसे आज की सुबह नयी लग रही थी. वह कुछ भी करने से पहले सीधे सदानंद के यहाँ पहुँची. इतनी सुबह हयात के आने से वे चौंके ज़रूर पर बिना इसे ज़ाहिर किये पूछा,'कैसी हो हयात?' 'अच्छी हूँ' कहते हुए वह सीधी किचेन में गयी और चाय बना लाई. अब तक दोनों में से किसी ने इस तरह साथ बैठकर चाय नहीं पी थी. अब दोनों एक दूसरे का ध्यान रखने लगे. एक दूसरे के खाने पीने की फ़िक्र भी उन्हें रहने लगी. साथ साथ बाहर भी आने जाने लगे. दोनों को ही एक दूसरे का साथ अच्छा लगाने लगा. दोनों को ही एक दूसरे में अपनापन महसूस करने लगे. एक दिन आया जब दोनों ने एक साथ रहने का फैसला कर लिया और एक दूसरे अपार्टमेन्ट में शिफ्ट करके एक साथ रहने लगे.

हयात और सदानंद अब एक साथ थे. उन्होंने अपने रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया था. उन्हें किसी रिश्ते के नाम की कोई ज़रूरत भी महसूस नहीं होता था. इस नए शहर में अब न तो किसी की नज़रें हयात से कोई सवाल करती थी और सदानंद भी इन सब सवालों से निजात पा चुका था. दोनों अपने काम में, अपने रिश्तों में मशगूल रहते. दोनों के लिए अपनी पसंद, अपनी ख्वाहिशें, अपनी ज़रूरतें एक दूसरे की पसंद, ख्वाहिशें और ज़रूरतें बन चुके थे. लगता था जैसे वे दोनों एक दूसरे को सदियों से जानते थे और कई जन्मों से साथ रहते आ रहे थे. अपने इस साथ से पहले वे न तो एक दूसरे को जानते थे और न ही कभी एक दूसरे के बारे में कभी कुछ सोचा ही था. दोनों ही एक दूसरे की ज़रूरतों का भरपूर ख़याल रखते थे और एक दूसरे के जज़्बात की बेपनाह कद्र भी करते थे. दोनों ही मंदिर और मस्जिद साथ आते जाते. उन्होंने कई बार अजमेर शरीफ गए तो कई बार काशी, अयोध्या और मथुरा की भी यात्रा की. तीर्थों और दरगाहों पर जाकर दोनों ही पुण्य और सुकून महसूस करते थे.

हयात और सदानंद के हर फैसले में दोनों की रजामंदी होती थी. किसी भी मौके पर या किसी भी मामले में किसी प्रकार के मतभेद होने का तो कभी सवाल ही नहीं उठा. एक ने कभी अकेले कोई फैसला कर भी लिया तो वह दोनों का फैसला होता ही था. अब ज़िंदगी से उन्हें न कोई गिला थी न शिकायत. उन्हें अपने रिश्ते पर फ़ख्र तो था ही वे इसे दुनिया के सारे रिश्तों से ऊपर और बेमिसाल मानते थे. उन्हें कल के बारे में न तो कोई चिंता थी न ही किसी बात को लेकर कोई उहापोह. उनके जीवन का वह एक अनमोल क्षण था जब उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बारे एक अनमोल फैसला किया था. उनका यह फैसला था अपनी मृत्यु के बाद देहदान का जिससे उन्होंने पूरी कायनात से अपना रिश्ता जोड़ने के जज़्बे का इज़हार किया था. कुछ अरसे बाद उन दोनों की मौत होने पर मौत की मनहूस घड़ी भी एक मुबारक घड़ी बन चुकी थी जब दोनों के प्राणहीन शरीर को मेडिकल कॉलेज के हवाले किया गया. हयात और सदानंद की ज़िंदगी और उनके रिश्ते तो मिसाल थे ही अब उनकी मौत भी बेमिसाल बन गयी थी.

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कृष्ण गोपाल सिन्हा

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कृष्ण गोपाल सिन्हा की कहानी - अपनेपन की तलाश
कृष्ण गोपाल सिन्हा की कहानी - अपनेपन की तलाश
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