प्रमोद भार्गव का आलेख - भूखे आदमी का पेट भरने की पहल

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  किसी लोकतांत्रिक देश की जनता के वोट से चुनी सरकार के लिए यह कितनी दुर्भाग्‍यपूर्ण एवं शर्मसार करने वाली बात है कि इंसान भूखा न रहे इसकी ह...

 

किसी लोकतांत्रिक देश की जनता के वोट से चुनी सरकार के लिए यह कितनी दुर्भाग्‍यपूर्ण एवं शर्मसार करने वाली बात है कि इंसान भूखा न रहे इसकी हिदायत देश की शीर्ष अदालत को देनी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने फौरन सरकार को देश के सबसे गरीब 150 जिलों की आबादी के लिए अतिरिक्‍त 50 लाख टन खाद्यान्‍न आबंटित करने का आदेश दिया है। अदालत को चूंकि सरकार और उसके मातहत काम करने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भरोसा नहीं है, इसलिए आबंटन का काम भी अदालत की ओर से तैनात समिति की निगरानी में किया जाएगा। अनाज वितरण इन्‍हीं गर्मियों में किया जाए यह बाध्‍यकारी शर्त भी आदेश से जुड़ी है। यह शर्त इस लिहाज से जोड़ी गई है क्‍योंकि बरसात निकट है। गोदाम अनाज से भरे हैं। बम्‍पर पैदावार से लाखों टन अनाज खुले में पड़ा है। ऐसे में यदि इस अनाज का वितरण बरसात से पहले नहीं होता तो अनाज का सड़कर नष्‍ट होना तय है। अदालत द्वारा ऐसी ही हिदायत कुछ समय पहले दी थी, पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उल्‍टे अदालत को अपनी सीमाओं में रहने और नीतिगत मामलों में हस्‍तक्षेप न करने का सबक दिया था। लेकिन एक संवेदनशील सरकार के मुखिया को अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए कि ऐसे हालात की पुनरावृत्ति न हो इस नजरिए से, उन्‍होंने अनाज के सुरक्षित भण्‍डारण और उचित वितरण की क्‍या पहल की ? और वे क्‍यों अदालत के बार-बार दिशा-निर्देशन के बावजूद इस मामले की अनदेखी कर रहे हैं।

दरअसल हमारे देश में सड़ता अनाज आदमी की प्राकृतिक भूख की जरूरत से नहीं लाभ-हानि के विश्‍वव्‍यापी अर्थशास्‍त्र से जुड़ा है। इसलिए यही बात जब सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने बीते साल कही थी तब प्रधानमंत्री ने चुनिंदा संपादकों से बातचीत करते हुए कहा था कि अनाज को यों ही भूखों को बांट दिया गया तो किसानों को पैदावार के लिए प्रोत्‍साहित नहीं किया जा सकेगा। कैसी विडंबना है कि यह बात उस समय प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं निकली जब आर्थिक मंदी के दौरान न केवल बड़े औद्योगिक घरानों को पैकेज दिए, बल्‍कि करों में भी भारी-भरकम छूटें दी गईं थीं। तब प्रधानमंत्री ने नहीं कहा कि इन प्रोत्‍साहन पैकेजों से औद्योगिक उत्‍पाद प्रभावित होगा। शायद भूख और सड़ते अनाज के अर्थशास्‍त्र को समझते हुए ही अदालत को पीपुल्‍स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कहना पड़ा है कि देश में दो ऐसे भारत नहीं हो सकते, जो गरीबी और अमीरी में बंटे हों। न्‍यायालय ने यह बात भी रेखांकित की, कि जब सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह खाली नहीं है और कई कारणों से अनाज नष्‍ट हो रहा है तो उसे सस्‍ती दाम पर गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले पात्र परिवारों को बांट क्‍यों नहीं दिया जाता ? जबकि हम इस अनाज की खरीदी और भण्‍डारण पर भारी रकम खर्चते हैं। अदालत ने बेहद साफगोई से कहा है कि गरीबी को लेकर सरकार आमदनी के आंकड़ों में न उलझे। देश की हालिया जनगणना को भी गरीबी का आधार बनाया जा सकता है। वैसे सरकार गरीबी का अपना पैमाना तय करने के लिए स्‍वतंत्र है, लेकिन आखिर में डीपी वाधवा समिति कि फैसले को ही अंतिम माना जाएगा।

हमारे यहां कृषि एवं खाद्य आपूर्ति मंत्रालय की अनाज भण्‍डारण से लेकर वितरण तक की नीतियां परस्‍पर इतनी विरोधाभासी और अनुपयोगी हैं, जिनके चलते उत्‍पादक, उपभोक्‍ता एवं व्‍यापारी तीनों लाचारी में हैं। जवाबदेही के लिए जिम्मेवार प्रशासन इन खामियों पर व्‍यवस्‍थाओं की कमी जताकर पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है, जबकि जरूरत है, इन हालातों से सबक लेते हुए उन नीतियों को बदलने की जो अनाज को हानि पहुंचाने वाली साबित हो रही हैं। इस परिप्रेक्ष्‍य में हकीकत यह है कि देश में 30 से 35 लाख टन अनाज भण्‍डारण की क्षमता है, लेकिन समर्थन मूल्‍य पर अनाज खरीदा जाता है 60 से 65 लाख टन। ऐसे में आधा अनाज खुले में भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। इसके बावजूद हैरानी में डालने वाली जानकारियां यहां तक आई हैं कि भारतीय खाद्य निगम के कुछ गोदामों को बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को सस्‍ती दरों पर किराए पर उठा दिया गया है। इन हालातों के चलते कंपनियों का माल तो गोदामों में सुरक्षित है, किन्‍तु गरीब की भूख मिटाने के लिए खरीदा अनाज खुले में पड़ा है। इन्‍हीं हालातों के चलते बीते साल बरसात में 168 लाख टन गेहूं खराब हुआ था। जो निगम के कुल जमा गेहूं का एक तिहाई हिस्‍सा है। इस अनाज से एक साल तक लगभग दो करोड़ लोगों की भूख मिटाई जा सकती थी।

वितरण प्रणाली भी दोषी नीतियों की शिकार है। पिछले साल केंद्र सरकार ने तीस लाख टन गेहूं और दस लाख टन चावल बेचने का ऐलान किया था। किंतु विक्रय नीति की जटिलता के कारण गेहूं चावल नहीं बिक सके। इसी दुष्‍परिणाम के चलते खुले बाजार में गेहूं चावल के दामों में भी उछाल का सिलसिला बना रहा। यदि इन बढ़ते भावों को नियंत्रित करने के नजरिये से नीति निर्धारित की जाती तो आटा व मैदा कारखानों को ‘पहले आओ, पहले पाओ' की दूरदृष्‍टि से अनाज बेचा जा सकता था। इस नीति के अमल में आने से अनाज के दाम भी नहीं बढ़ते और गोदाम भी खाली हो जाते। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दोषपूर्ण बनाऐ रखने के लिए हमारी कुछ राज्‍य सरकारें भी दोषी हैं। कोटा आबंटित हो चुकने के बावजूद राज्‍य सरकारें समय पर गोदामों से अनाज नहीं उठातीं। दरअसल ढुलाई खर्च राज्‍य सरकारों को ही भुगतना होता है। पिछले वर्ष हापुड़ में जो गेहूं नष्‍ट हुआ था, वह उत्तर-प्रदेश में गरीब तबकों के लिए जारी योजनाओं के हिस्‍से का था। राज्‍य सरकार ने जहां इस गेहूं को उठाकर सुरक्षित भण्‍डारण की जरूरत नहीं समझी, वहीं निगम ने वितरण की कागजी खानापूर्ति कर अनाज निगम परिसर में खुला छोड़ दिया। अच्‍छा होता अदालत के आदेश का पालन करते हुए ऐसे अनाज को नष्‍ट होने से पहले गरीबों को मुफ्‍त में बांट दिया जाता।

यदि भारतीय खाद्य निगम विकेंद्रीकृत भण्‍डारण नीति अपनाए तो ग्राम स्‍तर पर भी अनाज भण्‍डारण के श्रेष्‍ठ प्रबंध किए जा सकते हैं। स्‍थानीय स्‍तर पर भारतीय ज्ञान परंपरा में ऐसी अनूठी भण्‍डारण की तकनीकें प्रचलन में हैं, जिनमें रखा अनाज बारिश, बाढ़, चूहों व कीटाणुओं से बचाकर पूरे साल सुरक्षित रख लिया जाता है। गांव में अनाज खरीदकर एफसीआई उसके भण्‍डारण की जवाबदारी किसानों को सौंप सकती है। किसान के पास अनाज सुरक्षित बना रहे इसके लिए प्रति क्विंटल की दर से किराया दिया जाए। यदि ऐसे उपाय अमल में लाए जाते हैं तो सरकार ढुलाई, लदाई और उतराई के खर्च से भी बचेगी। इसी अनाज को पंचायत स्‍तर पर मध्‍यान्‍ह भोजन और बीपीएल व एपील कार्डधारियों को पीडीएस के जरिए स्‍थानीय स्‍तर पर ही उपलब्‍ध कराया जा सकता है। इस तरकीब को यदि नीतिगत मूर्त रूप दिया जाता है तो कालाबाजारी और भ्रष्‍टाचार की आशंकाएं भी नगण्‍य हो जाएंगी।

अनाज भण्‍डारण में एक नई तकनीक भी हाल ही इजाद हुई है। इस तरकीब से वायुरहित ऐसे पीपे तैयार किए गए हैं, जिनमें अनाज का भण्‍डारण करने से अनाज पानी व कीटों से शत्‌ प्रतिशत सुरक्षित रहता है। लेकिन हमारे देश में फिलहाल नीतिगत सुधार नमुमकिन हैं, क्‍योंकि नीतियों में सुधार से विरोधाभास व विसंगतियां समाप्‍त हो जाएंगी तो कंपनियों को लाभ पहुंचाने का गणित गड़बड़ा जाएगा और लालफीताशाही के भ्रष्‍टाचार पर किसी हद तक अंकुश भी लग जाएगा ? बहरहाल शीर्ष अदालत की फटकार के बावजूद अनाज भण्‍डारण व वितरण की नीतियों को दुरूस्‍त किया जाएगा ऐसा लगता नहीं है ?

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ई-पता pramodsvp997@rediffmail

ई-पता pramod.bhargava15@gmail

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551

लेखक वरिष्‍ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।

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प्रमोद भार्गव का आलेख - भूखे आदमी का पेट भरने की पहल
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