प्रमोद भार्गव का आलेख - आभासी मीडिया और क्रांति की संभावना

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        पत्रकारिता के नए माध्यम आभासी (ऑन लाइन) मीडिया को क्रांति का वाहक माना जा रहा है। इसे वैकल्पिक या भविष्य का मीडिया भी कहा जा रहा है...


        पत्रकारिता के नए माध्यम आभासी (ऑन लाइन) मीडिया को क्रांति का वाहक माना जा रहा है। इसे वैकल्पिक या भविष्य का मीडिया भी कहा जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि मिस्त्र और ट्यूनिशिया में क्रांति का जो मुखर रुप देखने को मिला, वह फेसबुक ट्विटर या इस तर्ज की अन्य समाजिक अंतरजाल सेवाओं ;सोशल नेटवर्किंगद्ध का पर्याय था। लेकिन हाल ही में जर्मनी के बॉन में अंतरराष्टीय स्तर पर आयोजित ‘वैश्विक मीडिया संगोष्ठी’ में एक नए विचार के साथ नया शब्द ‘स्टीट बुक’ उभरकर आया है। मसलन ऐसी क्रांति जो आभासी मीडिया और सड़क दोनों पर संयुक्त रुप से लड़ी जा रही हो। क्योंकि सड़क पर उतरे बिना न तो कोई क्रांति संभव है और न ही कोई नीतिगत बदलाव लाना संभव है।

आभासी मीडिया व्यक्ति को अभिप्रेरित करने का सार्थक माध्यम तो हो सकता है, लेकिन कुंभकरणी नींद में सोए सत्तालोलुप शासन प्रशासन को सड़कों पर उतरी प्रत्यक्ष भीड़ के आंदोलन और उद्घोष से ही जगाया जा सकता है। देखने में आ रहा है कि आभासी मीडिया के जरिए विचार संप्रेषण की व्यापकता के बावजूद दुनिया में मानवाधिकारियों का हनन बढ़ रहा है और प्रकृति पर आश्रित रहने वाले समुदाय असुरक्षा के दायरे में आने के साथ आधुनिक विकास के संकट से जुझ रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में इस मीडिया की काई जनपक्षधरता सामने नहीं आ पा रही है, लिहाजा सड़कों - गलियों में उतरे भीड़ तंत्र के बिना राज्य सत्ताएं केवल आभासी दबाव में आ जाएंगी, ऐसा मुश्किल ही है।

        डॉयचे वेले की संपन्न हुई इस वैश्विक मीडिया संगोष्ठी में निकलकर आए इस विचार को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि शोसल नेटवर्किंग अपनी भूमिका जरुर निभाते हैं, लेकिन सड़क पर उतरे बगैर उससे न कोई क्रांति की उम्मीद की जा सकती है और न ही कोई क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सकता है। इसी यथार्थ विचार को मिस्त्र के युवा ब्लॉगर अह्मद जिदान ने ताकत दी। अहमद ने एक अन्य विचार यह भी दिया कि ऑन लाइन मीडिया से जुड़ा हर व्यक्ति पत्रकार है। लेकिन इसे लोगों ने भ्रम बताया कि इस माध्यम से जुड़ जाने भर से कोई व्यक्ति पत्रकारिता की काबलीयत हासिल करने में कामयाब हो जाता है।

वैसे भी हकीकत में पत्रकारिता एक गंभीर और रचनात्मक दायित्व बोध है और इसे इसी परिप्रेक्ष्य में लेना चाहिए। अंतरजाल या आभासी माध्यमों से हमें पर्याप्त संदर्भ सामग्री और किसी भी आंदोलन या गतिविधि से जुड़ी विश्वव्यापी जानकारी तो मिल सकती है, लेकिन उसका असर यदि राज्य सत्ताओं पर केंद्रित करना है ता इस मकसदपूर्ति के लिए भीड़ को सड़कों पर उतरना लाजिमी है। क्योंकि रुस और फ्रांस की क्रांति, भारत का स्वंतत्रता आंदोलन और फिर जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का आहवान किसी आभासी मीडिया के बूते संभव नहीं हुआ था, विभिन्न नेतृत्वकर्त्ताओं की अगुआई में व्यापक जन समर्थन से ही इन क्रांतियों की को फलीभूत सार्थकता हासिल हुई थी।

        आभासी मीडिया विस्फोटक बदलाव का वाहक इसलिए भी नहीं बन सकता क्योंकि उसमें व्यक्ति की अभिव्यक्ति मामूली टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं के रुप में सामने आती है। इनमें विचार तत्व या तो होता ही नहीं है और यदि होता भी है तो नगण्य रुप में होता है। वह भी कहीं से लिया हुआ अथवा उठाया हुआ होता है। इसमें विचार या मत संबंधी भिन्नता भी कम दिखाई देती है, क्योंकि आभासी मीडिया के ज्यादातर खातेदार टिप्पणियों की प्रतिलिपियों का ही संप्रेषण करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इसके बावजूद ये प्रतिक्रियाएं व्यक्ति की मनस्थिति में बदलाव का भले ही एकाएक कारक न बन पाती हों, लेकिन व्यापक जनसमर्थन जुटाने में इनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में भी आभासी मीडिया का आभास विश्व व्यापी स्तर पर देखने में आया।

        दरअसल किसी भी क्रांति का लक्ष्य महज सत्ता परिवर्तन जैसे फौरी बदलावों तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि व्यक्ति और समाज के चरित्र को बदलना होता है। चरित्र को बदले बिना न तो नीतिगत बदलाव संभव हैं और न ही उन पर ईमानदारी से क्रियान्वयन संभव है। इसलिए भारत समेत अन्य लोकतांत्रिक देशों में देखने में आता है कि राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के बावजूद प्रशासनिक व्यवस्था यथावत बनी रहती है। शासन-प्रशासन में तमाम संवैधानिक बदलावों के बावजूद हमारे देश में उत्तरोत्तर बढ़ता भ्रष्टाचार, निरंकुश होता प्रशासन इस बात का गवाह है कि चरित्र में बदलाव लाए बिना व्यक्तिगत आचरण में बदलाव संभव नहीं है। इसीलिए हमारे यहां कानूनी बदलाव प्रशासन की दहलीज पर जाकर ठिठक जाते हैं।

        क्रांति के लिए व्यक्ति-समूहों का संघर्ष, संागठनिक ढांचा, प्रचार तंत्र और एक प्रखर नेतृत्वकर्ता की जरुरत भी होती है। आभासी मीडिया प्रचार-तंत्र की मजबूत कड़ी तो बन सकता है, लेकिन संघर्ष, संगठन और नेतृत्व की उम्मीद व्यक्ति और बगैर व्यक्ति समूहों के नहीं की जा सकती है। इस तारतम्य में देखने में आ रहा है कि आधुनिक और प्रौद्योगिकी विकास मनुष्य के मौलिक अधिकारों को न केवल कुचलकर बल्कि उन्हें उनके मूल निवास स्थलों से बेदखल करके हासिल किया जा रहा है। इस सिलसिलें में भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इलेक्टोनिक मीडिया लाचारी की अवस्था में खड़ा है। जनपक्षधरता से मुहं फेर लेने की वजह से ही इलेक्टोनिक मीडिया के विकल्प के रुप में आभासी मीडिया की पृष्ठभूमि तैयार होने की परिकल्पना वैकल्पिक मीडियाकार कर रहे है। इलेक्टोनिक मीडिया वही दिखा रहा है जिसमें पूंजीपतियों के हित सधते हैं। मीडिया से गांव और ग्रामीण बाहर कर दिए गए हैं। घोर व्यावसायिकता की गुंजलक में फंसे मीडिया ने न्यूजरुम में बैठे मीडियाकारों के हाथ बांध दिए हैं। यहां तक की कहीं - कहीं मीडिया टेड यूनियनों की हड़ताल और जन पक्षधरता से जुड़े आंदोलनों से भी किनारा करने लगा है। गोया जरुरी है कि कारपोरेट मीडिया को जनता और जनसमस्याओं के प्रति उत्तरदायी और श्रमजीवी पत्रकार कानून को सशक्त बनाया जाए। मीडिया जिस तरह से विज्ञापनदाताओं तक उपभोक्ता को पहुचाने की मुहिम चला रहा है, उसे भी बाधित करने की जरुरत है।

इधर इलेक्टोनिक मीडिया में एक नए चलन की शुरुआत मालिकों ने की है। मीडिया में जो पत्रकार क्रांतिकारी दर्जे की निर्णायक भूमिका के हकदार कहे जाते रहे हैं, उन्हें संसथा का शेयरधारी बनाया जा रहा है। इस कारण उनका मूल स्व्भाव न्यूज रुम में वह नहीं रह गया है जो इलेक्टोनिक मीडिया के शुरुआती दौर में था। इन सब कारणों की प्रतिच्छाया में आभासी मीडिया से आम आदमी की चिंता उभर सकती थी, लेकिन इस मीडिया में भी संकट इलेक्टोनि मीडिया जैसा ही है। इसमे भी गांव, ग्रामीण और मजदूर तो गायब हैं ही, अपना पक्ष या समस्या सीधे-सीधे रखने के लिए यह तबका, फेसबुक या ट्विटर का खातेदार भी नहीं है।

        इसलिए हम देख रहे हैं कि आभासी मीडिया के विस्तार व असर के तमाम दावों के बावजूद दुनिया में मनुष्य के अधिकारों की रक्षा में मानवीयता की झलक दिखाई नहीं दे रही है। विश्व में अमेरिका के बढ़ते प्रभुत्व और अरब देशों में तेल के लिए उसके निरंकुश दखल को नकारा जाना संभव नहीं हो पा रहा है। अमेरिका के चंद मित्र देशों ने अपनी बहुराष्टीय कंपनियों को विकासशील देशों में प्राकृतिक  संपदा के दोहन के लिए खुला छोड़ दिया है। इन औद्योगिक घरानों द्वारा मानवाधिकारों के हनन के खुले उल्लंघन के बावजूद इन पर अंकुश के कोई उपाय आभासी मीडिया के आभासी धरातल पर परीलक्षित नहीं हो रहे हैं। पूंजीवादी तंत्र की मजबूती के चलते ही भूमि अधिग्रह अधिनियम, खाद्य सुरक्षा अधिनियम और लोकपाल जैसे जनहितैषी विधयकों को टाला जा रहा है जबकि अमेरिकी दबाव में परमाणु उर्जा विधेयक लाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सरकार तक कुर्बान करने को तैयार दिखाई दिए थे।

        इस दृष्टि से चीन की विस्तारवादी नीतियों पर भी नजर डालना जरुरी है। चीन का वजूद भी पूरी दुनिया में लगातार बढ़ रहा है। सकल घरेलू उत्पाद में उसने जापान को पीछे छोड़ दिया है और अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। चीन के कुल उत्पादों की खपत अकेले अमेरिका में पचास फीसदी है। इस दखल से अमेरिका आतांकित है। इसलिए बराक ओबामा बार-बार चीन और भारत के बौद्धिक खतरे से अपने देश के युवाओं को चेताते रहते हैं। चीन में मीडिया पर पांबदियां तो हैं ही, मानवाधिकारों का हनन भी वहां सबसे ज्यादा देखने में आ रहा है। चीन तिब्बत को कमोबेश संपूर्ण लील जाने का उपक्रम जारी रखते हुए वहां की मानवीय नस्ल भी बड़े पैमाने पर बदली जा रही है। इसके बावजूद वहां आभासी अथवा वैकल्पिक मीडिया क्रांति की कोई आवाज बुलंद नहीं कर पा रहा है।

फिर भी विचारों की प्रस्तुति के लिए यह एक ऐसा माध्यम जरुर है, जहां आप अपना विचार किसी संपादकीय बाधा के बिना पेश करने के लिए स्वतंत्र हैं। यहां संपादक की कैंची निरापद है। इसलिए इस मीडिया को चाहे आभासी मीडिया कहा जाए अथवा न्यू मीडिया, यह वैकल्पिक मीडिया के रुप में अपनी उपस्थिति जरुर बरकरार रखेगा।

प्रमोद भार्गव


शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.

लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - आभासी मीडिया और क्रांति की संभावना
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