बहुत-कम लोग खुश होते
बहुत-कम लोग खुश होते
अनुराग में तड़प-तड़प होती
चाहत के उस नगर में
उसकी ही तस्वीर दिखती
पिंजरे मे बंद
तारों की महफिल-सजती है ।
टहनियों के हर छोर पर
काटें भरे सुमन खिलते
न चालाकी न चतुराई
बर्बादी के ढोल चारों ओर बजते हैं ।
पर्वतमालाओं से भी ऊँचा
प्रेम
किनारा की तरह वही नजर आता ।
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वह तारा-अकेला
अपनेपन की मुस्कान छोड़-गये
रह-गया वह-तारा अकेला
घोर-सा अंधकार
दीप नही जलते उस-पार
अंधर भी-सील गये
नही दिखता कोई पथ
ह्दय की बस्ती
दर्द का घरौंदा बन गया
छोटी-सी चिनगारी होती
जल-जल जाता सारा विपिन
फिर वही बात पुरानी
रह-गया वह तारा अकेला ....।
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ई-मेल pur_vyas007@yahoo.com
शानदार प्रस्तुति, बधाई ||
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