सुधा ओम ढींगरा की कहानी - बिखरते रिश्ते

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एयर पोर्ट से बाहर निकलने तक वह बहुत उद्विग्न थी, पता नहीं वे लोग उन्हें लेने आते भी हैं या नहीं। अगर ना आए तो क्या होगा। बात इतनी क्यों बढ़ ...

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एयर पोर्ट से बाहर निकलने तक वह बहुत उद्विग्न थी, पता नहीं वे लोग उन्हें लेने आते भी हैं या नहीं। अगर ना आए तो क्या होगा। बात इतनी क्यों बढ़ गई कि, रिश्तों को आँच आ गई। क्या वह कसूरवार है या परिस्थितियाँ ही ऐसी हो गईं, तिड़क कर रह गए रिश्ते सारे। रिश्तों में जब दरार आती है तो भीतर कुछ टूटता है। इन्हीं सोचों से वह परेशान है। बाहर निकल कर उन्होंने चारों तरफ देखा, कोई लेने नहीं आया।


आकाश ने तो जहाज़ में बैठते ही कहा था, एयर पोर्ट पर कोई नहीं आने वाला, किसी तरह की उम्मीद मत रखना। पर ना जाने क्यों रिमझिम ने आशा का दामन पकड़ा हुआ था, हालाँकि वह महसूस कर रही थी कि यह दामन, बहुत कमज़ोर और घिस चुका है। जिस तरह इंसान मृत्यु शैया पर भी जीने की चाह रखता है..ठीक वैसी ही स्थिति उसकी है। कुछ सम्बन्धों पर बहुत मान होता है, एक उम्र तक जिया होता है उन्हें।


आकाश ने टैक्सी बुलानी चाही पर उसने यह कह कर रोक दिया..''आकाश रुकें ..शायद उन्हें आने में देरी हो गई हो या रास्ते में ट्रैफिक मिल गया हो ..कुछ देर इंतज़ार कर लेते हैं। ''


आकाश मुस्करा कर रुक गए ....जब भी वह तनाव में होती है, वे बस मुस्करा देते हैं, कहते कुछ नहीं।


उन्होंने बाहर ही अटैची ज़मीन पर रख दिए और उस पर बैठ कर इंतज़ार करने लगे, बिल्कुल सामने ताकि किसी को ढूँढने में कठिनाई ना हो। इसी तरफ से वे हर बार एयर पोर्ट से बाहर निकलते थे और बाहें फैलाए भाई सामने खड़े होते थे।


टैक्सी वाले बार -बार आकाश को पूछ रहे हैं..''साहब कहाँ जाना है.?'' वे उन्हें मना कर रहें हैं --''कोई लेने आने वाला है भाई, हम उनका इंतज़ार कर रहे हैं। हमें टैक्सी नहीं चाहिए।''


रिमझिम कई बार अपने -आप से पूछ चुकी है-- कितना चाहिए एक इंसान को ज़िन्दगी में...चाहतें ही तो इंसान को भटका देती हैं, चाहतों के जंगल में ही तो भटक गए हैं उसके भाई.. भटके कहाँ वे तो गुम हो गए हैं। वह भी तो गुम हो गई है, बाहर के शोर से बेखबर अपने भीतर के शोर में। उसके इर्द- गिर्द लोगों की आवाज़ें हैं, टैक्सी वालों की ग्राहकों से नोंक- झोंक है, कारों और टैक्सियों के हार्न की आवाज़ें, बच्चों की चिल्ल पों हैं,  पर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है.. उसे तो सुनाई दे रही हैं सिर्फ अन्दर की ऊँची -ऊँची आवाज़ें..दोनों भाइयों की, भाभियाँ की..  बाबू जी से लड़ते हुए ऊँची आवाज़ें, कितनी ऊँची की होंगी सब ने अपनी आवाज़ें कि बाबू जी उनसे दूर जाना स्वीकार कर लिया।
उस घर को छोड़ते हुए बेहद तकलीफ़ हुई होगी उन्हें। माँ की आवाज़ों को भी पीछे छोड़ दिया उस घर में..जो उन्हें माँ के बाद रोज़ सुनाई देती थीं। और वे उन्हीं आवाज़ों को सुनते-सुनते सो जाते थे।


कहते थे -''रिमझिम तेरी माँ मेरे आस- पास ही रहती है। रात को जब नींद नहीं आती तो वे अपनी सुरीली आवाज़ में मुझे मेरा प्यारा गीत सुनाती हैं--''आप की नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, और मैं सो जाता हूँ..'' पर अब वे कैसे सोएँगे ? माँ की आवाज़ को तो वे पीछे छोड़ गए हैं..उस घर में, माँ के प्यारे कमरे में।
माँ की आवाज़ थी भी बहुत मधुर और सुरीली। प्यार से माँ जब पुकारती, सब उनकी एक पुकार पर भागे चले आते थे और उस घर की एक -एक ईंट प्यार और मोहब्बत से लगवाई थी माँ ने। हरेक को गर्व से कहती थीं --''यह मेरा महल है, ये मेरे दो राजकुमार, यह मेरी राजकुमारी और ये मेरे राजा हैं..और मैं इनकी रानी.'' बाबू जी के चेहरे पर बड़ी ही सुन्दर मोहक मुस्कराहट आ जाती थी।


उसकी मुस्कान भी तो बाबूजी जैसी है, माँ अक्सर हँस कर कहा करती थी-- ''रिमझिम की शक्ल बाबूजी की तरह है और मुस्कराहट भी। नौ महीने पेट में मैंने रखा, और है बाबू जी की कार्बन कॉपी।'' वे उसके सिर पर हाथ रख कर, उसकी ओर देख कर मुस्करा पड़ते।


माँ के बाद तो बाबू जी ने मुस्कराना ही छोड़ दिया। सैर करते हुए टाँगों की चोट जब से उन्हें व्हील चेयर पर लाई थी, माँ पर पूरी तरह से निर्भर हो गए थे, माँ उनका बहुत ख़याल रखती थी। माँ के बाद उन्हें सम्भलना नहीं आया। अपने -आप में खोए रहते थे। बिखर गए थे वे।


साथ ही बिखर गए सब रिश्ते.. भाभियों का काम बढ़ गया। पहले तो बाबू जी को और घर के कामों का बहुत सा हिस्सा माँ स्वयं ही सम्भाल लेती थीं। दोनों भाभियाँ नौकरी करती थीं। घर में नौकर- चाकर थे। माँ के बाद बाबू जी को सँभालने के साथ -साथ घर के वे काम भी बढ़ गए थे, जो पहले माँ सम्भाला करती थीं। भाभियों को वे बोझ लगने लगे थे। अकेली माँ ने पूरा घर सम्भाला हुआ था और भाई- भाभियाँ मिल कर एक बाबू जी को नहीं सम्भाल सके।


आकाश ने उसके कन्धे पर हाथ रख कर चौंका दिया उसे, ऐसा लगा कि आवाज़ों के समन्दर में डूबने से पहले ही सम्भाल लिया।


आकाश बड़ी देर से चुपचाप सड़क की रौनक देख रहे थे। बीच- बीच में घड़ी पर निगाह भी डाल लेते थे.. पूरा एक घंटा हो गया था इंतज़ार करते-करते ..हवाई जहाज़ से उतरते ही उन्होंने दोनों भाइयों के मोबाइल मिलाए थे, वे बंद थे और घर का फ़ोन कोई उठा नहीं रहा था। आकाश ने फिर कोशिश की, पहले की तरह ही हुआ, कोई फ़ोन नहीं उठा रहा।


भाई उसकी ईमेल से नाराज़ हो गए थे--बाबू जी को वृद्ध आश्रम छोड़ने के भाइयों के निर्णय पर, गुस्सा कर उसने एक लम्बी -चौड़ी ईमेल लिख डाली थी। शायद बहुत सच और कड़वा लिख गयी थी और भाइयों से अधिक भाभियों ने अपमानित महसूस किया था। वह सबसे छोटी है और शादी शुदा। मायके में बोलने का अब उसका अधिकार ही कहाँ है ?


बड़े भाई ने लिखा था ---'' बाबू जी तुम्हारे भी तो हैं, इतनी पीड़ा है, तो उन्हें अपने साथ क्यों नहीं ले जाती..हम कब मना करते हैं। किसी पर उँगली उठाने और छींटाकशी करने का हक़ मैं तुझे नहीं देता। जो बातें तुमने लिख दी हैं, उन बातों से बेहद चोट पहुँची है, अब इस घर में क्या मुँह ले कर भाभियों के पास आओगी। तुम अविवाहिता नहीं कि बच्ची समझ कर क्षमा कर दिया जाए। तुमने अपनी भाभियों को इंसान नहीं समझा। '' हैरानी होती है कि जिन्होंने अपने बाप को इंसान नहीं समझा और किस घर की बात करते हैं, जो माँ की एक भूल से उनका हो गया है। घर तो माँ -बाबू जी का है। उनकी पूरी जिन्दगी की कमाई लगी है उस पर। कौन सा भाइयों ने बनवाया है, किस बात पर अकड़ते हैं, जाते -जाते ममता वश माँ वह घर भाइयों के नाम लिखवा गईं और बाबू जी ने रोका नहीं, सोचा होगा कि उनके मरने के बाद भी तो बेटों का होगा तो जीते जी क्यों नहीं। लड़कों को कह गईं ---अपने बाबूजी और रिमझिम का ख़याल रखना। ख़याल ही तो नहीं रखा बेटों ने। बाबूजी भी अंतर्मुखी होते गए। वे माँ को कभी कुछ नहीं कहते थे...


काश! उस दिन कागज़ों पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने माँ का हाथ रोक लिया होता। माँ ने घर दो मंजिला बनवाया था--ऊपर का अवरोह भैया के लिए, नीचे का आरोह भैया के लिए और नीचे ही दो कमरे अलग से बनवाये थे, एक कमरा माँ -बाबू जी ने अपने लिए और दूसरा उसके लिए.. .उसका कमरा तो भाई के बच्चों ने सम्भाल लिया और बाबू जी उन सब को चुभने लगे..महलनुमा घर में उनका कमरा खलने लगा।


वे सब महसूस करते और अन्दर ही अन्दर घुलते, घुटते रहे। चाहतों की भूख ने हद कर दी.. उनका बैंक में पड़ा पैसा भी भाई धीरे-धीरे अपने नाम करवाने लगे, किसी ना किसी बहाने उनसे चैकों पर हस्ताक्षर करवा लेते। यह कह कर कि बाबू जी से हिसाब नहीं होता। उन्होंने अपनी सम्मोहक मुस्कान के साथ कहा था--'' रिमझिम मुझे सब हिसाब रखना आता है, मैं सब कुछ इस लिए इन्हें देता जा रहा हूँ, देखना चाहता हूँ, मेरे बेटों की हद क्या है..?''


हद ही तो पार कर दी बेटों ने। उसके साथ रिश्ता ही तोड़ दिया। उसने भारत आने की सूचना दी थी उन्हें। ईमेल में सब कुछ लिख भेजा था, डेट, टाइम, फ्लाईट नम्बर। एयर पोर्ट के बाहर बैठे कब से उनके आने का इंतज़ार कर रहे हैं। २४ घन्टे के सफर के बाद अब और कितना इंतज़ार करें। फ़ोन भी नहीं उठा रहे..अरे बहन हूँ उनकी..ऐसे कैसे रिश्ता तोड़ दिया? रिश्ते चुने नहीं जाते, निभाए जाते हैं। माँ की आत्मा कितनी तड़प रही होगी, बाबू जी पर हुए अत्याचार से पीड़-पीड़ हो गई होगी और बच्चों के बिखरते रिश्तों से तो बेहाल हो चुकी होगी।


आकाश ने टैक्सी बुला ली और हयात होटल चलने को कहा। हयात के नाम पर रिमझिम ने आकाश को देखा -- ''क्या देख रही हो..? मुझे पता था कि ऐसा ही होगा, मैंने अमेरिका से ही हयात होटल की बुकिंग करवा ली थी और होटल वालों को एयर पोर्ट लेने आने के लिए मना कर दिया था, ताकि अगर तुम्हारे भाई आएँ तो बुरा ना माँ लें।''
टैक्सी में बैठ कर उसने अपने शहर को देखा, जो कभी उसका अपना था, अब पराया लग रहा है, सब कुछ बदला -बदला, उसके अपने रिश्तों की तरह। एक पत्र ने कितनी दूरियाँ कर दी थीं। भाइयों ने तो राखी की लाज भी ना रखी। बाबू जी को वृद्ध आश्रम भेजने के विरुद्ध थी वह, रोष में पत्र लिख दिया था, वे उन के साथ अन्याय कर रहे थे। उन को इस समय घर, बच्चों के प्यार और देख भाल की ज़रुरत है।


बड़े भैया ने बड़ी बेशर्मी से पत्र में लिखा था--''हर शाम को हम लोग देर से घर आते हैं, बच्चे भी घर में नहीं होते, वे भी अपनी -अपनी दुनिया में व्यस्त रहते हैं..रिमझिम बाबूजी अकेलेपन से अवसाद का शिकार हो रहे हैं, सब कुछ भूलते जा रहे हैं..डाक्टरों का कहना है कि उन्हें उनकी उम्र के लोगों के साथ रखा जाए, तभी ठीक होंगें और हमने एक बहुत अच्छा वृद्ध आश्रम देख लिया है, बज़ुर्ग वहाँ बहुत ख़ुशी से रहते हैं..सहायक का इंतजाम भी हो गया है। बाबू जी जाने के लिए तैयार हैं। तुम डाक्टर हो, आई होप यू विल अंडरस्टैंड। उनका भला इसी में है...''


           ''इसी'' शब्द पर तो भड़क गई थी वह , डाक्टर ही समझाता है कि उनको घर चाहिए, सहायक घर में भी रखा जा सकता है। दिन भर के अकेलेपन के बाद शाम को बच्चों की चहल-पहल और रौनक का सुख तो ले सकते हैं, वे अकेलेपन से नहीं, उपेक्षा से अवसाद में आए हैं..सब बहाने थे। युवा बेटे दिन में अपनी महिला मित्रों को घर नहीं ला सकते थे, बाबू जी सब देखते थे और अब आज़ादी ही आज़ादी. माँ- बाप तो सुबह के गए शाम को घर आते हैं। आश्रम में तो अब बाबू जी दिन रात अकेले हैं....सोचते -सोचते आँखों में नमी आ गई  .....


आकाश ने पीठ पर हाथ रख कर कहा---'' क्यों अपने आप से लड़ रही हो..तुम्हारा कोई क़सूर नहीं...कल सुबह बाबू जी को मिलने चलेंगे और उन्हें साथ ले जाने के लिए मना लेंगे।''


            ''आप को कैसे लगा कि मैं अपने- आप से लड़ रही हूँ ...बस आत्मविश्लेषण हो रहा था, कहाँ क्या ग़लत हो गया।''


            '' नज़रें बाहर सड़कें नाप रही हैं...और दिमाग कहीं और भाग रहा है...तुम्हारी सारी प्यारी जगह निकल गईं और तुम्हें पता भी नहीं चला, कोई भाव नहीं, कोई उत्साह नहीं। कोई कहानी नहीं.. आकाश हम यहाँ बैठा करते थे, हम वहाँ उस कोने में बातें करते थे। रिमझिम क्यों अकेली जूझ रही हो। समय के परिवर्तन के साथ जीवन मूल्यों में जो बदलाव आया है, उसे स्वीकार कर लो। ''


             '' आकाश परिवर्तन के नाम पर हम स्वार्थी होते जा रहे हैं..चाहतों ने हमारी सोच को सिमटा दिया है.. मैं , मेरी पत्नी, मेरे बच्चे बस यही परिवार समझने लगे हैं हम ..माँ -बाप, भाई बहनों को विस्तृत परिवार मानने लगे हैं -परिवार नहीं।''


             '' रिमझिम इतिहास के पन्ने पलट कर देखो, किसी भी देश काल में जब सामाजिक चेतना जागृत होती है, आर्थिक सम्पन्नता आती है, भौतिक वादी संस्कृति पनपने लगती है, तो बहुत कुछ टूटता है, नई सोच जन्म लेती है। परम्पराएँ, मान्यताएँ और जीवन मूल्य तो सबसे पहले टूटते लगते हैं। परिवर्तन में कुछ का बचाव हो जाता है और कुछ बिखर जाते हैं। भारत उसी दौर से निकल रहा है, जिसमें अमेरिका सिक्सटीज़ में गया था। काल चक्र इसी को कहते हैं, कुछ पुराना मिटता है और कहीं कुछ नया पनपता है। यह सब परिवर्तन का एक हिस्सा है। चिंता ना करो, घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा मैं तुम्हारे साथ हूँ..''


आकाश का यह कहना कितनी उर्जा दे गया रिमझिम को। उसका मुरझाया चेहरा खिल उठा।


ड्राइवर ने कार रोक दी ..ट्रैफिक रुका हुआ है, आगे कोई दुर्घटना हुई है। सड़क दोनों तरफ से खुदी हुई है, उसे ठीक करने का काम चल रहा है। सारे वाहन एक दूसरे के पीछे पंक्ती बद्ध खड़े हैं। कहीं से कोई कट भी नहीं ले सकते। ड्राइवर ने किसी से मोबाइल पर बात की, बोला--'' साहब घंटा-डेड़ घंटा लग जाएगा, बहुत दूर तक जाम है..।''
आकाश ने घड़ी देखी, सुबह के सात बज गए थे। चार बजे उनके जहाज़ ने एयर पोर्ट पर लैंड किया था।


               '' अच्छा देवी सहाय आश्रम तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। ''


               ''साहब, आगे एक कट है, वह ले लूँ तो आधे घन्टे में पहुँचा दूँगा ..पर होटल के लिए तो यही रास्ता छोटा है..दूसरा रास्ता और भी लम्बा पड़ेगा।''


               ''अच्छा आश्रम चलो '' आकाश ने ड्राइवर को कह कर रिमझिम की ओर देखा। रिमझिम सोच रही थी कि उसे होटल में कुछ समय मिल जाएगा और वह अपने -आप को समेट लेगी। इस मानसिक स्थिति में वह बाबू जी के पास नहीं जाना चाहती थी, पर अब कोई चारा नहीं।


उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई। बाबूजी को कैसे मिलेगी, क्या कहेगी? क्या उनको कह पायेगी..जिन बच्चों के लिए आप ने अपना पूरा जीवन होम कर दिया, कोई बात नहीं बाबूजी, अगर उन्होंने आप को घर से निकाल दिया, धीरे -धीरे सब ठीक हो जाएगा... यह घर बाबू जी के नाम होता तो क्या आसानी से निकाल पाते भाई उन्हें।
आकाश आश्रम फ़ोन करने लगा। धड़कन में थोड़ा ठहराव आया.. आँखें बरस पड़ीं..बाबूजी का वह कैसे सामना करेगी?


नैंसी की आँखें अपने डैड को नर्सिंग होम छोड़ कर आने के पश्चात् भर -भर आईं थीं...'' आई डोंट वांट हिम टू गो देयर, बट ही वांट्स कम्पनी ऑफ़ पीपल ऑफ़ हिज़ ओंन एज। ही नोज़ आई हैव टू डू थ्री जोब्स टू रन माई फैमिली...'' (मैं नहीं चाहती कि वे वहाँ जाएँ ..पर वे अपनी उम्र के लोगों में रहना चाहते हैं..वे जानते हैं कि मुझे तीन नौकरियाँ करनी पड़ती हैं, अपने परिवार को चलाने के लिए) ...


उसके रोने से विचलित हो कर उसके फादर को देखने जाने के लिए तैयार हो गई थी वह।


आकाश ने बड़े प्यार से कहा था --'' रिमझिम तुम अभी नई आई हो, नर्सिंग होम हस्पताल नहीं, जहाँ तुम उन्हें देखने जाना चाहती हो .. यहाँ वृद्ध आश्रम कहलाया जाता है..'' 
खुली आँखें और चेहरे के भाव देख कर आकाश ने समझाया था--'' तुम्हें यह पता नहीं कि नैंसी विधवा है..दो बेटे हैं उसके और उसका पति उसके नाम कोई पैसा नहीं छोड़ गया...बच्चों और घर को सँभालने के लिए उसे तीन नौकरियाँ करनी पड़ती हैं.... छोटी -छोटी नौकरियाँ करती है,  बड़ी नौकरी करने के लिए उसके पास डिग्री नहीं....  उसके डैड अकेले हो जाते थे...वह उन्हें समय नहीं दे पाती थी। रिमझिम बुढ़ापे में अकेलापन शरीर को दीमक की तरह चाटने लगता है, एकान्तवास सोच को कुंद करने लगता है, यह दीमक बहुत सी बिमारियों के लिए स्थान बना देती है... मेरी उनसे लम्बी बात हुई थी..बहुत दिनों से वे कोई बढ़िया नर्सिंग होम ढूँढ रहे थे, जहाँ वे अपनी हम उम्र के लोगों के साथ रह सकें।''


                 ''तो अब वे वहाँ रहेंगे?'' वह बहुत हैरान हो गई थी।


                  ''हाँ, और नैंसी ने उनका एक भी पैसा नहीं लिया, वे नैंसी को पैसा देना चाहते थे, पर उसने सारा पैसा उनके नाम कर दिया है, ताकि वे वहाँ आराम से रह सकें। '' 
क्या त्रासदी है कि आज वह अपने बाबू जी को वृद्ध आश्रम में मिलने जा रही है।


उस दिन भी तो वह आराम से बैठी बाहर धूप सेंक रही थी, जब मेल लेने के बाद नैंसी उसे देखते ही बोली थी --''रिम (अमरीकन रिमझिम नहीं बोल सकते)  एवेरी सन्डे आई ऍम नाट गोइंग टू चर्च बट टू सी माय डैड, दैट इज़ माय प्रेयर...''( हर रविवार मैं चर्च ना जा कर अपने डैड को देखने जाती हूँ.. यही मेरी प्रार्थना है )


                    ''वंडरफुल...नैंसी '' शब्द अधर में रह गए थे ...अमरीकन के मुँह से ये शब्द सुन कर अजीब लगा था।
                     ''या आई टोल्ड माय गोड..आई ऍम सर्विंग हिम थ्रू हिज़ क्रिएशन. '' (मैंने अपने ईश्वर को कह दिया है, कि मैं आप के इंसानों की सेवा करके, आप की सेवा कर रही हूँ)


नैंसी का अंतिम वाक्य बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर गया था ...


हस्पताल में डॉ. प्रसिल्ला ने भी उसे मजबूर कर दिया था, लगभग उसे खींचती सी अपनी बेसमेंट दिखाने ले गई थी, जो उसने अपने सास- श्वसुर के लिए तैयार की है..वह उन्हें नर्सिंग होम में नहीं छोड़ना चाहती ...वह ख़ुश हो कर कह रही थी.......बेसमेंट में वे पूरी स्वतंत्रता के साथ रहेंगे..जैसे अपने घर में ..छोटी सी रसोई .. सोने का कमरा...बाथरूम ...बैठने का कमरा...टी.वी देखने की अलग जगह...धूप सेंकने और खुली हवा में बैठने के लिए स्थान..वह सब दिखाती जा रही थी और वह उसके पीछे हैरान सी घूम रही थी..वह कहती गई....उसकी इच्छा है कि वे वहाँ अपनी आज़ादी से रहें, पर अगर दुःख -सुख आए, तो वह और उसका परिवार उनका पूरा ध्यान रख सकें... प्रसिल्ला के घर से लौट कर उसे आकाश की बात कितनी सही लगी, वह अकसर उसे कहते हैं  - ''रिमझिम , अच्छे बुरे लोग तो हर देश, हर कल्चर में होते हैं... लोग ऐसे ही कल्चर की दुहाई देकर बवाल मचाते रहते हैं। '' 


उसके भीतर भी कितना बवाल मचा हुआ है, वह भाइयों को अच्छा कहे या बुरा...


बवाल पर विराम लग गया..जब आश्रम के सामने आ कर टैक्सी रुक गई। टैक्सीवाले का भाड़ा देकर वे आश्रम के अन्दर गए।


आफिस में उस समय कोई नहीं था, पर चपरासी ने उन्हें देखते ही कहा -- '' आईये- आईये आप का ही इंतज़ार हो रहा है..आप का सन्देश हमें मिल गया था..।''


चपरासी आगे-आगे चलने लगा और वे दोनों उसके पीछे -पीछे। कोरिडोर और कुछ कमरों को पार करके चपरासी एक कमरे के सामने आ कर रुक गया, उस कमरे का दरवाज़ा पहले से ही खुला हुआ था, सहायक ने उन्हें देखते ही हाथ जोड़ कर नमस्ते की। बाबू जी व्हील चेयर पर हैं, अपने ख़्यालों में खोए हुए शून्य में देख रहे हैं ..रिमझिम ने कमरे को देखा, कमरे में दो सिंगल बेड, एक मेज़ और दो कुर्सियाँ हैं, दो अलमारियाँ एक दीवार के साथ सटी हुई हैं, कोने में एक और मेज़ पड़ी है, जिस पर एक जग, दो ग्लास, दो प्लेटें, दो कटोरियाँ, दो चम्मच पड़े हैं। साथ ही सटा हुआ बाथरूम है..


                     ''बाबूजी, मैं रिमझिम..'' कह कर उनसे लिपट गई, पर उन्होंने कैसे भाव हीन आँखों से देखते हुए, हाथ बढ़ा दिया, जैसे हाथ में पेन पकड़ा हो..


उनके सहायक ने बताया '' साहब लोग अंकल से चैकों पर हस्ताक्षर करवा कर चले जाते हैं। जब से अंकल वृद्ध आश्रम में आए हैं, किसी से बात नहीं करते, बस दीवारों को देखते रहते हैं और जब कोई उन्हें बुलाता है, तो हाथ आगे बढ़ा देते हैं कि कहाँ साइन करने हैं..''
एक समृद्ध, सशक्त व्यक्ति की यह दुर्गति..... आकाश बाँहों में ना थामते तो वह गिर पड़ती। पलकें आँसुओं को सम्भाल ना सकीं, बह निकले वे ..बिलख उठी --''आकाश, बाबू जी को ले चलो, बाबू जी यहाँ अब एक पल भी नहीं रुकेंगे ..।'' सिसकियाँ सुन बाबूजी ने उसकी ओर देखा--'' रिमझिम क्यों शोर डाल रही हो..'' आकाश, वह और सहायक तीनों चौंक गए।


उन की पुरानी रोबीली आवाज़ गूंजी --'' मैं यहाँ बहुत ख़ुश हूँ , मुझे चैन से मरने दो। अमेरिका ले जा कर मेरी मिट्टी ना खराब करो..हाँ मेरा अन्तिम संस्कार तुम्हीं करोगी..बेटे या पोते नहीं..वसीयत करके जा रहा हूँ.. । '' उनकी आवाज़ की गर्जन कमरे में बिखर गई।


                      '' मैं तेरी माँ के आने का इंतज़ार कर रहा हूँ...कब लेकर जाती है..देखो..तब तक बैठा हूँ। ''


इतना कह कर वे फिर शून्य में देखने लगे...

----


संपर्क--101 Guymon Ct., Morrisville, NC-27560, USA., Email-sudhaom9@gmail.com.,

--

(चित्र - ज्ञानेन्द्र टहनगुरिया की कलाकृति)

COMMENTS

BLOGGER: 12
  1. aap ne etne sundar lekha hai parak parak ke lekha hai,
    aap ke daat dane hai

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  2. मर्मस्‍पर्शी कहानी।

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  3. ant me aansuon ne bagawat kar di
    bahut hi maarmik kahani
    hamare aas-paas ki, parivesh ki har din ki kahani

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  4. सुधा जी!
    यह कहानी नहीं समय है... समय जिसके साक्षी हम-आप सब हैं. इस कहानी ने रुला दिया है. आँखों मने घूम रहे हैं माँ-पापा और ससुर जी जिन्हें समय ने सुला दिया है. हम साथ होकर भी उनके साथ कहाँ रह पाते हैं? एक साथी न रहे तो दूसरा रहकर भी नहीं रह पाता. हम सेवा कर आशीष ले पाए... पर उनके अकेलेपन को दूर न कर पाए... शायद वे स्वयं ही अकेले रहकर माँ की यादों में खोये रहना चाहते थे. हर पूजा, हर पर्व, हर सुबह, हर साँझ हम सब साथ थे... पर होकर भी नहीं थे. पापा सबको सराहते... अशीषते... कहते ऐसी संतान सबको मिले पर फिर भी अकेले होते... क्यों? क्या हम सबकी नियति यह अकेलापन है?

    आपकी कहानी मन को छू गयी. साधुवाद.

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  5. bahut marmik kahani hai aaj ke smy ki baat ko bahut sunder tarike se chun chun ke likha hai
    badhai
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  6. बेनामी2:03 pm

    आपने समय के साथ भावनाओं को बखूबी निभाया है, अत्यंत संवेदनशील कहानी - पंकज त्रिवेदी (विश्वगाथा)

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  7. नमस्ते सुधा जी
    आपकी मार्मिक कहानी अभी अभी पढी और ऐसा लगा मानों
    यह हमारी कथा है
    ये हमारी त्रासदी है
    ये हमारा विषय है
    हमारी दुनिया है ,
    पीड़ा भी अपनी है और बाबूजी भी आपने हैं .
    बुढापा सहारा चाहता है और बिरले परिवार इस जाती हुई पीढी को सन्मान दे पाते हैं
    जिनके वे हकदार होते हैं .
    कथा मे पश्चिमी सभ्यता का सामंजस्य भी ,
    विरोधाभास के बीच मानवता की ओर उन्मुख करता है
    और अंत मे हमारे अवसाद को यही सांत्वना मिलती है कि ,
    काश हर संतान , माता पिता के बुढापे की लाठी बने ...
    यही सदाषा व शुभकामना मेरे ह्रदय से उठी है -
    आप इसी तरह संवेदनाशील रचना करती रहीये .
    यही तो सच्ची रचना धर्मिता है
    और लोग चाहें हमे ' प्रवासी रचनाकार ' क्यों न कहें ,
    मानवता का पाठ हमारे भीतर ज़िंदा रहे, ये क्या कम है ?
    सुसंकृत संभ्रांत परिवार की परम्पराएं सुद्रढ़ रहें
    चाहे हम देस मे रहें या विदेस मे -
    ये हम कभी ना भूलें --
    बहुत स्नेह के साथ, आपको शाबाशी, बधाई व आशिष ,
    - लावण्या दीपक शाह.

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  8. sudhaa mem !
    pranam !
    shaayad har ek ke man ki baat har kisi ko chhute hue man pe asar karti hai . maano hum aap ke saath saath hum bhi chal rahe ho , drishya rakhti ek sunder kahaani .badhai .
    saadar

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  9. नमस्कार , सुधा ढींगरा जी , बिखरते रिश्ते कहानी ,आँखे नम कर गयी / हर घर में ऐसा ही होगा , ये भरम कर गयी //

    Dina Nath,
    Nerul(W),Navi Mumbai

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  10. ISKO KAHTE HAIN GHAR - GHAR KEE DAASTAAN .
    KAMAAL KEE KISSAGOEE KE LIYE SUDHAA DHEENGRA
    DHER SAAREE BADHAAEE KEE HAQDAAR HAIN.

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  11. बेनामी5:53 pm

    sudha jee aapki kahani padi bahut hee marmik tathaa apne samay ke ythaarth ko vayakt kartee huee hai aaj kis kadar vayakti atmkendrit ho gayaa hai ghar ke bade budon ko to bojh samajhne lagaa hai unke liye uske paas thodaa sa vakt bhee nahee hai isiliye aaj hamare rishte tutan ke kagaar par hain, phir iss kahani ko aapne khubsurat treatment diya jo iski saphalta ko chaar chand laga deta hai.iske liye aap badhai ki patr hain.

    जवाब देंहटाएं
  12. बेनामी2:00 pm

    sudha jee aapki kahani padi bahut hee marmik tathaa apne samay ke yathaart ko vayakt kartee huee hai aaj kis kadar vaykti atmkendrit ho gayaa hai ghar ke bade budon ko to bojh samajhne lagaa hai unke liye uske paas thodaa sa vakt bhee nahee hai isiliye aaj hamare rishte tutan ke kagaar par hain,phir is kahani ko aapne khubsurat treament diya jo iski saphalta ko chaar chand laga deta hai iske liye aap badhai ki patr hain,ashok andre

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रचनाकार: सुधा ओम ढींगरा की कहानी - बिखरते रिश्ते
सुधा ओम ढींगरा की कहानी - बिखरते रिश्ते
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