कहानी संग्रह - आदमखोर - 3 : पुष्पा रघु की कहानी - पत्थर की आँख

SHARE:

कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ प्रथम संस्करण : 2008 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन ...

kahani sangraha aadamkhor dahej vishyak kahaniya dinesh pathak shashi

कहानी संग्रह

आदमखोर

(दहेज विषयक कहानियाँ)

संपादक

डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’

प्रथम संस्करण : 2008

मूल्य : 150

प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन

विवेक विहार,

शाहदरा दिल्ली-32

शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा

----

पत्थर की आँख

श्रीमती पुष्पा रघु

कस्बे की पुरानी बस्ती के उस मौहल्ले में सर्दियों में दिन मुदते ही रात दबे पांव बिल्ली की तरह उतर आती थी। उस दिन भी मुश्किल से नौ बजे होंगे कि पूरा मोहल्ला सन्नाट पड़ा था। बाहर खंभों पर लगे बल्ब पीली बीमार सी रोशनी लिए जाग रहे थे या कुत्ते हर नुक्कड़ पर मुस्तैद पहरेदार की तरह थोड़ी-थोड़ी देर बार भूं-भूं कर जैसे ‘जागते रहो’ की टेर लगा देते थे। रेल के डिब्बे जैसे एक दूसरे से सटे मकानों के खिड़की-दरवाजों झिरि्रयों से निकलकर रोशनी की लकीरें गली के ईंट के खरंजे पर मॉडर्न आर्ट के से आड़े तिरछे बिम्ब बना रही थीं।

इस सन्नाटे को चीरती गुस्से से भरी एक मर्दाना आवाज गूंजी-‘‘किशन की माँ आखिर दिखा ही दिया तूने अपना ओछापन।’’

रज्जो अपनी तीखी आवाज को दबाती सी बोली-‘‘आधीरात मौहल्ले को बुलावा देने गई थी आओ देखो हमारी बहू की पत्थर की...........’’ ‘चटाख’ बात पूरी होने से पहले ही रज्जो के गाल पर पति का भारी-भरकम हाथ पड़ चुका था। .कृष्णा भागा-भागा ऊपर से नीचे आया। अम्मा पत्थर बनी बैठी थी। लाला जी स्वयं सन्न से खड़े थे। जीवन में पहली बार पत्नी पर हाथ उठा था उनका। कृष्णा विमूढ़ सा दरवाजे में खड़ा था। ना उस से कुछ कहते बन रहा था ना ही ऊपर जाते। हालाँकि पाँच मिनट पहले वह भी ये सब बातें बताने आ ही रहा था लाला जी के पास।

यूं तो मणि कई दिनों से अनमनी लग रही थी। परन्तु आज जब कृष्णा लाला जी के पैर दाबकर अपने कमरे में गया तो मणि सिर तक रजाई ओढ़े लेटी थी। कृष्णा ने पूछा-‘‘आज बड़ी जल्दी सो गईं।’’

पर दबी सिसकियों की आवाज ने बता दिया कि मणि सो नहीं रही थी, बल्कि रो रही थी कृष्णाने रजाई उघाड़ी तो देखा-मणि की सुकुमार देह हिचकियों की लहर में कांप रही थी। मुँह लाल, होंठ सूखे, काली पलकें आँसुओं से भीगी कपोेंलों पर चिपक गईं थी। .कृष्णा व्याकुल हो गया उसकी दशा देख। चार महीने हो गए थे। मणि को दुल्हन बन इस घर में आए उसे ऐसे रोते अधीर होते पहली बार देख रहा था कृष्णा। अनुमान तो उसे था कि अम्मा ने अवश्य कुछ किया-कहा होगा। वह अपनी जननी के स्वभाव से भली-भांति परिचित था। घर के सभी सदस्य उसकी गर्जन-तर्जना सुनने के आदी थे। कृष्णा ने मणि को भी प्रारम्भ में ही समझा दिया था- ‘‘अम्मा की आदत जरा जोर से बोलने की है, मन की वह बहुत अच्छी हैं, उनके गुस्से का बुरा मत मानना।’’

और मणि वास्तव में ही सास की कड़वी बातों को कड़वी दवा की भांति पी जाती थी। उसने सास को डॉक्टर साहब की उपाधि दे दी थी।

.कृष्णा ने मणि को मनाने के लिए बात को हल्का करना चाहा-‘‘लगता है आज तुम्हारे डॉ. साहब ने कुछ ज्यादा ही खुराक दे दी।’’

मणि की हिचकियाँ रुकने के स्थान पर क्रंदन में बदल गईं। कृष्णा के हाथ-पैर फूल गए-यह सोचकर कि मणि की रोने की आवाज सुन लाला जी और अड़ौसी-पड़ौसी क्या सोचेंगे। उसने मणि के आँसू-भीगे, कांपते होठों पर अपने अधरों का ताला जड़ दिया। बड़ी देर तक प्यार-मनुहार के बाद मणि के बोल फूटे थे- ‘‘मुझे मेरे घर छोड़ आओ। मुझसे अब यहाँ नहीं रहा जाता। पिता जी ने आप लोगों से कोई बात छुपाई तो नहीं थी। सब कुछ जानकर ही ब्याह लाए थे और अब........

मणि का रुलाई का वेग फिर बढ़ गया। .कृष्णा को यह जानने के लिए बड़ी देर तक प्रयास करना पड़ा कि ‘‘अब’ क्या हो गया है। मणि ने रोते-सुबकते जो कथा सुनाई उसका सार कृष्णा की समझ में यह आया कि- रज्जो की अक्सर चलती रहने वाली बकबक से पड़ौस की औरतों को पता चल गया कि मणि की एक आँख असली नहीं है। सो घर में ऐसा मेला लगा रहता है कि पूछो मत।

शुरु-शुरु में मोहल्ले की बड़ी-बूढ़ियाँ आई, रज्जो ने बहू से पीढ़े-मूढें में बड़े आदर से उन्हें धूप में बिठाया।

मणि उनके पैरों लग कर जाने लगी तो उसे रोककर, सामने बिठा कर लगीं घूर-घूर कर देखने। अब कई दिन से रोज ही आदमियों के काम पर जाते ही औरतें .कृष्णा की बहू को देखने पहुँच जातीं थीं। उनकी फूहड़ इशारे बाजी से मणि का जी तो कुढ़ता ही उसके काम-काज में भी बाधा पड़ती। रज्जो को भी उनका यह नित्य आ बैठना खटकने लगा। एक दिन उसने झल्लाकर कह दिया- ‘‘क्यों मेरे घर में कोई अजूबा है? बहुएँ नहीं देखीं कभी?’’

इस पर मुँहफट अतरी बुआ बोल उठीं थीं- ‘‘अये-हये रज्जो भाभी। बहुएँ तो बहत देखी हैं, पर पत्थर की आँख नहीं देखी ना।’’

रज्जो की जुबान की कैंची इस बात को काटने में असमर्थ रही तो उसने मणि के बाप को कोसना शुरु कर दिया-‘‘मेरे सोने से बेटे के पल्ले कानीन्धी बाँध दी और वो भी इतनी घुनी कि आते ही पति को मुट्ठी में कर लिया।’’ अरे मैंने तो पहले ही मना किया था कि लोग क्या कहेंगे कि रिश्ता हो ही नहीं रहा था तो.... असल में लालाजी, .कृष्णा के पिता बहुत ही व्यवहारिक तथा सीधे-साधे व्यक्ति थे। रज्जो के एतराज पर उन्होंने कहा था -

‘‘किशन की माँ जरा ठंडे दिमाग से सोच! कहाँ हम और कहाँ बैंक-मैनेजर! यदि उसकी लड़की में जरा सा नुक्श न होता तो क्या वह उसे अपने एक क्लर्क के संग ब्याहने की सोचता। रज्जो ने कुछ बोलना चाहा था तो उन्होंने उसे रोक कर रहा था - ‘‘पहले मेरी पूरी बात सुन ले, फिर तेरी जो मर्जी हो करना। घर की हालत तुझे पता ही है दोनों लड़कियों की शादी का कर्जा सिर पर है। .कृष्णा सालभर से एम.काम. करने के बाद भी धक्के खा रहा था। अब मैनेजर की मेहरबानी से लगा है। जिसने लगाया है वह हटवा सकता है। फिर बेटी किसी की क्वारी रही है? वह भी कहीं न कहीं ब्याही ही जाएगी। अपनी तू सोच ले।’’

कृष्णा की नौकरी की बात आई तो रज्जो को सोचने और बोलने को कुछ न बचा। अधिक सोचने का अवसर मणि के पिता ने भी नहीं दिया। वे तो .कृष्णा को देखते ही लट्टू हो गए थे। फिर छः महीने से देख-परख रहे थे। वे स्वयं क्लर्क से मैनेजर परिश्रम से प्रोन्नति पाकर बने थे। उच्च पद और पैसे से अधिक मूल्य सद्गुणों, चरित्र का समझते थे। मणि उन्हें प्यारी भी बहुत थी। उसकी अतिरिक्त चिन्ता से वह व्याकुल रहते थे। उसके लिए किसी अफसर की अपेक्षा उन्हें कृष्णा उपयुक्त लगा था। उन्होंने उसे एक-दिन अपने घर बुला मणि से परिचय करवा दिया था और उस दुर्घटना के विषय में भी बता दिया था जिसके कारण मणि की आँख चली गई थी।

मणि पांच छः साल की रही होगी जब एक दिवाली उसका, दुर्भाग्य बन गई थी। वह अन्य बच्चों के साथ, फुलझड़ी वगैरह छुटा रही थी। एक अनार फूटा और उसके बारूद से मणि की आँख ऐसी जख्मी हुई कि रोशनी ही चली गई।

.कृष्णा का रुख देख एक रविवार को मणि के पिता फलों का टोकरा तथा मिठाई का डिब्बा ले पहुँच गए कृष्णा के घर। जब उनकी मारूति उस संकरी सी गली के नुक्कड पर रुकी तो वहाँ कंचे व गुल्ली डंडा खेलते बहुत से बच्चे आस्तीन से नाक पोंछते उनकी अगवानी करने पहुँच गए। कृष्णकान्त का घर पूछते ही वे उन्हें एक छोटे से दो मंजिले मकान के द्वार पर छोड़ आए।

रज्जो यूं तो अनमनी सी मणि को देखने गई थी परन्तु देखने में ठीक-ठाक लगी वह। आँखें दोनों एक सी ही लगती थीं। चेहरे पर भोलापन और सौम्यता थी। फिर समधी द्वारा की गई खातिरदारी और भारी भरकम भेंट-मिलाई, विरोध कैसे ठहरता।

इतना सामान, दान-दहेज दिया मणि के पिता ने कि घर में रखने को स्थान न रहा। पड़ौसी-रिश्तेदार सभी .कृष्णा के भाग्य को सराहते। रज्जो प्रसन्न थी परन्तु यह प्रसन्नता अधिक दिन न टिक सकी। मणि के घर के रहन-सहन से ससुराल का माहौल भिन्न था। उसके यहाँ झाडू, बरतन सफाई का काम नौकर करते थे। यहाँ सारा काम उसे करना पड़ता। वह करती भी थी पर उसके अनाड़ी हाथों से कभी कुछ गिर जाता, कभी कुछ टूट जाता। रज्जो को यह सब बी.ए. पास, मैनेजर की बेटी के नखरे लगते। वह बड़बड़ाती, गाली देती। मणि को रोना आ जाता तो वह अपने कमरे में जा तेज आवाज में रेडियो चला कर मन का गुबार निकाल हल्की हो लेती पति के सामने सामान्य ही रहती। असल में पति का प्यार, ससुर का स्नेह-सम्मान सास के व्यवहार की क्षतिपूर्ति कर देते थे।

पर अब गली की औरतों का यह अपमानजनक व्यवहार उससे सहा नहीं गया पहली बार सास को जवाब दिया, खाना नहीं खाया और अपने कमरे में जाकर रोने लगी। रज्जो ने जब लालाजी से शिकायत करने की गरज से सबसे बात बताई तो वे यह सब सुन इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने रज्जो के मुँह पर तमाचा जड़ दिया। वे गरज कर बोले थे - ‘‘कह देना अपनी पड़ौसनों से यदि बहू के बारे में कुछ कहा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। बहू घर की लक्ष्मी होती है। उसका अपमान हमें सहन नहीं होगा।’’

इस घटना से सास-बहू के बींच की खाई और बढ-गई। वैसे ऊपर से सब कुछ सामान्य था। .कृष्णा के छोटे भाई केशव ने एम.सी.ए. कर लिया था। उसकी नियुक्ति पास के शहर में हो गई थी। वह सुबह ही टिफिन लेकर चला जाता। मणि के बच्चे छोटे थे, अतः रज्जो ही केशव के लिए सब्जी पराठे बनाती यदि वह चाहती भी यही थी परन्तु मणि की बुराई करने का एक बहाना तो मिल ही गया था। लाला जी उसकी बात हंसी में टाल देते। वे कचहरी में मुंशी थे। वहाँ से आकर अपने पोते पोती को खिलाकर मस्त रहते थे। घर में अब पहले की भांति तंगी नहीं थी। लाला जी हजार-डेढ़ हजार ले आते, केशव का वेतन भी आता था और कृष्णा की भी पदोन्नति बराबर हो रही थी। काम की चख-चख के कारण कृष्णा ने ऊपर के कामों के लिए महरी रख ली। रज्जो ने घर सिर पर उठा लिया- ‘‘पीसना न खोटना दो चंदिया ही सेंकती है फिर भी नौकर चाहिए महारानी को।’’

जब से केशव घर आया था रज्जो को बड़ा सुख हो गया था कि उसे सामने दिल खोल कर मणि की बुराई कर लेती। केशव के मन में भाभी के प्रति तो नफरत भर ही गई वह उस भाई से भी दूर होता जा रहा था जिसके पैसे से वह योग्य बना था। वह माँ की तरह ही मणि पर व्यंग्य वाण छोड़ता रहता उस के कामों में दोष निकालता रहता मणि को भी घर में आए पांच साल हो गए थे। दो बालकों की माँ बन गई थी। देवर की बातें सहन न कर जवाब पकड़ा देती। सासू हंगामा मचा देती। इस क्लेश से कृष्णा यदि माँ को समझाने का प्रयत्न करता तो मणि का शिकायतों का खाता खुल जाता। उसके पास सैकड़ों बातें थीं सास के खिलाफ। .कृष्णा को चुप रह जाना पड़ता। इतना तो वह भी जानता था कि माँ बेटे-बहू में ही नहीं दोनों बेटों में भी पक्षपात करती है।

घर के माहौल में हर समय धुंआ सा घुटा रहता। तभी एक घटना और घटी। .कृष्णा ने बैंक से लोन लेकर मोटर साइकिल ले ली तो रज्जो ने चंडी रूप धारण कर लिया -

लालाजी से उलझ गई, बोली- ये तो वो बात हुई ‘‘गांठ जुही’ घर साझा कुनबा बारा-बाट।’’

लाला जी ने केशव को भी स्कूटर खरीद कर दिया तब जाकर तूफान थमा परन्तु माँ के इस व्यवहार से कृष्णा टूट गया। वह शुरु से ही पूरा वेतन लाला जी को दे देता था, वे उसे स्वयं आवश्यक खर्च के लिए रुपये देते थे। मारे क्रोध के उसने मोटर साइकिल बेच दी। स्नेह के सारे धागे जैसे चटाक से टूट गए। एक दिन बैंक से आकर .कृष्णा ने कह दिया -

‘‘लाला जी मैंने बैंक के पास ही मकान किराये पर ले लिया है। अगले रविवार को चले जायेंगे।’’

लालाजी को जैसे किसी ने गहरे पानी में धकेल दिया। जानते-समझते थे कि धुंए को हवा मिल चुकी है और अब जो पट निकली है उसे दबाना संभव न होगा, पर पोते-पोती से बिछुड़ने की कल्पना उन्हें भयभीत कर रही थी उन्हें ढाल बना कर किसी तहर बोले-बच्चे बहू को परेशान करेंगे, कैसे संभालेगी अकेली उन्हें?’’

.कृष्णा के पास उत्तर तैयार था - ‘‘विकास को तो वहीं पास के गोल्ड मैरी स्कूल में दाखिल कराना है और जूही भी इतनी छोटी नहीं है अब।’’

रज्जो भौंचक रह गई। बहू-बच्चों के बिना घर भांय-भांय करता सबकों खाने को आता। अब उसे केशव के विवाह की जल्दी थी। रिश्ते तो बहुत आ रहे थे परन्तु केशव कह देता था - ‘‘मुझे नहीं करनी शादी वादी। एक बहू ने तो निहाल कर दिया अब दूसरी लाने की पड़ रही है।’’

उधर रज्जो ने घोषणा कर दी कि केशव की शादी में वह किसी की नहीं सुनेगी। .कृष्णा की बारी उसकी बात नहीं मानी गई थी तो ऐसी बहू आई। उसने लाला जी से साफ कह दिया - ‘‘देखो ! हमें बड़े घर की बी.ए., एम.ए. पास लड़की ना लेनी है। दहेज का भी लालच नहीं है। अपने घर में कोई कमी है क्या? मैं तो ठोक-बजाके सुंदर और कमेरी लड़की लाऊंगी। जो घर की शोभा बढ़ावे और सेवा-टहल करें’’

रज्जो ने अपने मैके के निकट के गांव की दसवीं पास लड़की पसंद की। माता-पिता के दबाव में केशव विवाह के लिए तैयार तो हुआ परन्तु ऐसा लग रहा था जैसे वह शहीद होने जा रहा है। रज्जो बहुत खुश थी। उसने बड़े चाव से बहू के लिए डबलबैड, ड्रेसिंग टेबल, अल्मरी स्वयं ही बनवा ली थी। बहू आई तो जैसे वह बिछी जा रही थी। मणि इस लाड़-प्यार को देख उदास हो जाती। बेटियों को भी माँ का यह व्यवहार विचित्र लग रहा था। औरतें बहू की मुँह दिखाई के लिए आतीं तो वह उसकी प्रशंसा सुनने के लिए सब काम-धाम छोड़कर उसी के पास जा बैठती। किसी ने पूछ लिया-‘‘क्या-क्या ले आई बहू?’’ तो रज्जो ने हाथ झटका कर कहा - ‘‘ऐ! क्या करना था दान-दहेज का? वो वाली बात नई है- आत-दात बह गई मेरी बार-बिगोवा रह गई। लाखों में एक है मेरी बहू! यह किसी दहेज से कम है क्या?’’

रज्जो तो वैसे ही नई बहू को पलकों पर बिठा रही थी उस पर एक चमत्कार और हुआ-विवाह के एक सप्ताह बाद ही केशव की पदोन्नति हो गई। अब तो बहू साक्षात लक्ष्मी ही हो गई। परन्तु वह जान कर उसे अच्छा नहीं लगा कि केशव को लखनऊ जाना पड़ेगा।

खैर! केशव को तो जाना ही था, पर वह पन्द्रह दिन बाद ही लौट आया और अकेले रहेने के सौ दुखड़े माँ को सुना दिये। रज्जो ने तुरन्त बहू को लेकर बेटे के साथ चलने की तैयारी कर ली। बेटे की नई गृहस्थी के लिए जितना सामान वह ले जा सकती थी ले गई। महीने भर बाद रज्जो को लालाजी की अस्वस्थता के कारण लौटना पड़ा।

समय बीतने के साथ-साथ केशव के खतों के बीच अन्तराल बढ़ता गया और माँ-बाप को भेजा जाने वाला रुपया घटता गया। दिवाली आकर चली गई, रज्जो ने चिट्ठी पर चिट्ठी डलवाई, पर केशव नहीं आया। .कृष्णा सपरिवार तीन दिन पहले आ गया था। दोनों लड़कियाँ भाई-दूज लेकर आईं। घर में खूब गहमा गहमीं तथा रौनक थी, परन्तु रज्जो को केशव और छोटी बहू के बिना सब फीका लग रहा था। उसने तो सबसे छिपा कर छोटी बहू के लिए बनारसी साड़ी भी खरीदकर रख ली थी।

कई पत्रों के बाद केशव का पत्र आया कि कम्मों की तबियत खराब थी इस लिए दिवाली पर नहीं आ सके, परन्तु अब ठीक है चिन्ता की कोई बात नहीं है। हेाली से बीस दिन पहले ही रज्जो ने केशव को पत्र लिखवा दिया कि कम से कम आठ दिन की छुट्टी लेकर आना। परन्तु केशव के पत्र में जो शुभ समाचार आया इस ने रज्जो को निहाल कर दिया। कम्मो उसकी प्यारी बहू आस से है। वह सफर कैसे करेगी, अतः उसने लाला जी के साथ लखनऊ जाने की तैयारी शुरु कर दी। बाजार के चक्कर लगवा-लगवा कर लाला जी की नाक में दम कर दिया उसने। सोंठ-अजवाइन, गोला-गोंद, काजू-बादाम और भी न जाने क्या-क्या मंगवाया। गाँव से देशी घी मंगवाया। छठे दिन की रिजर्वेशन थी, पांच दिन तैयारी में फूटर हो गए। छठे दिन स्टेशन के लिए राम-मनाती रज्जो पति के संग-तांगे में बैठ ली।

रेल में बैठी रज्जो सोच रही थी कितने खुश हेांगे केशव और कम्मो हमें देखकर। कम्मो बेचारी घबरा रही होगी पहलौटी की बात है। इन्हीं विचारों में डूबते-उतराते न जाने कब लखनऊ आ गया पता ही न चला। जब उनकी रिक्शा केशव के फ्लैट के सामने रुकी तब दिया-बत्ती का समय हो गया था। रज्जो उतावली सी रिक्शे से उतर गेट पर पहुँची। झुटपुटे में दिखाई पड़ा कि एक आदमी और बलकटी औरत लॉन में बैठे हैं। गेट खुलने की आवाज सुन कर आदमी गेट पर पहुँचा वह तो केशव था। उन्हें देख कर कोई उत्साह नहीं दिखाया उसने। नौकर को आवाज लगाई और माँ-बाप के पैर छुए। रज्जो तेजी से उस औरत के पास पहुँची तो यह देख कर हैरान रह गई-कि यह बलकटी मैक्सी पहने बैठी औरत और कोई नहीं अपितु उसकी मनपसंद मैट्रिक पास बहू कम्मो ही है। कम्मो ने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सास के पैरों की ओर इशारा सा किया और बोली-‘‘आप लोग ऐसे कैसे आ गए ना चिट्ठी ना पत्री।’’

रज्जो जैसे पत्थर की हो गई। बड़ी कोशिश करके फंसे गले से कहा- ‘‘तेरे लालाजी भी आए हैं तू भीतर चली जा।’’

लाला जी ने बहू को देख भी लिया था और सास-बहू का वार्तालाप भी सुन लिया था। वे स्वयं ही अंदर चले गए। जो देखा और अनुभव किया उससे धक्का लगना स्वाभाविक था। गला सूख रहा था। रसोई में खटर-पटर कर रही औरत से उन्होंने एक गिलास पानी मांगा तो वह उनपर बरस पड़ी-‘‘तुम कौन हो जी जो सीधे घर में घुस आए? केशव बाबू तो लॉन में बैठे हैं।’’

पीछे से केशव की आवाज आई-‘‘माताजी ये लाला जी हैं। अम्मा भी आईं हैं बाहर कम्मो के पास बैठी हैं।’’

लाला जी झुंझला कर बोले - ‘‘तुमने नौकरानी को बहुत सिर चढ़ा रखा है केशव।’’

केशव घबरा कर जल्दी से बोला -‘‘नहीं-नहीं ये तो कम्मों की माताजी हैं।’’

‘‘मुझे बुलवाकर! तुम्हारे वाप ने तो नौकरानी ही बना दिया।’’

सफर में थके लालजी का दिमाग उल्टी रामलीला देखकर भन्ना गया। उनसे कहे बिना न रहा गया - ‘‘तो बेटी के घर आकर मालकिन बनने की सोच रही थीं समधिन।’’

कम्मो की माँ पैर पटकती हुई बेटी के पास चली गई।

‘‘लाला जी आपने कम्मो की माता जी को नाहक नाराज कर दिया बेचारी दो महीने से सेवा कर रही हैं हम लोगों की। कम्मों को तो रसोई में जाते ही मतली आती है।’’ केशव के यह कहने पर रज्जो बोली-‘‘क्यों मैं क्या मर गई थी? मुझे लिखता तो मैं पहले ही आ जाती।’’

परन्तु वह सोच रही थी कि वे यहाँ कैसे रह पायेंगे? लालाजी क्या उससे भी बेटे-बहू के ये रंग ठंग नहीं देखे जा रहे हैं। उधर लाला जी ने तुरंत लौटने का फैसला कर लिया था। नौकर जब चाय लेकर आया तो उन्होंने उसे रिक्शा लाने को कह दिया। ‘‘.कृष्णा की अम्मा चल रिक्शें में बैठ अभी स्टेशन चलना है।’’ केशव का कहीं पता न था, हाँ कम्मो अपने उसी लिबास में आकर खड़ी हो गई। लाला जी तेजी से बाहर निकल गए। कम्मों ने रज्जो का लाया सारा सामान नौकर से रिक्शे में रखवाया तो रज्जो का दिल रो उठा-‘‘ये सब तो मैं तेरे लिए लाई थी मैं क्या करूँगी इनका?’’

‘‘नहीं-नहीं मुझे तो डॉक्टर जी ने ये सब-खाने को मना किया है।’’

कम्मों ने अपनी सुंदर नाक चढ़ाते हुए कहा।

जब वे स्टेशन पर पहुँचे तो उनके शहर जाने वाली अन्तिम गाड़ी भी जा चुकी थी। भूखे-प्यासे रात भर स्टेशन पर अपनी-अपनी सोच में डूबे पड़े रहे। अगली शाम जब उनका तांगा.कृष्णा के घर के सामने रुका तो रज्जो की चुप्पी टूटी-‘‘अभी एक से बेइज्जती करवा कर मन नहीं भरा जो यहाँ आए हो। लाला जी तीखे स्वर में बोले - ‘‘तो जग हँसाई करवाता घर जाकर। किस-किस को सफाई देगी मोहल्ले में कि कैसे बैंरग लौट आए।’’

वे दरवाजे पर खड़े ही हुए थे कि विकास उनके पैरों से आकर लिपट गया। जूही अपने नन्हें हाथ हिलाती दादी की ओर भागी। मणि ने फुर्ती से सामान उतरवाया सिर पर आँचल ढक सास-ससुर के पैर छू सास को सहारा देकर भीतर ले गई। तभी कृष्णा सब्जी लेकर आ गया। अम्मा-लाला जी को आया देख हुलस कर बोला - ‘‘अहा! अब मनेगी होली मौज से।’’

पर उनके थके-बुझे चेहरे और साथ का सामान देख कर वह चुप हो गया। उसे याद आया ये तो लखनऊ गए थे कहीं कुछ........अपनी शंका और जिज्ञासा को मन में ही दबा, उन्हें हल्का करने की चेष्टा में लग गया-’’ देख तो विकास! रोज याद करते थे आ गए न दादा जी! और अम्मा तुम्हारे लिए कित्ती सारी चिज्जी लाईं हैं।’’

मणि इतनी देर में चाय और हलुआ बना लाई। कृष्णा बच्चों की भांति चहक उठा-‘‘लो अम्मा तुम्हारे साथ आज हमारी भी मौज हो गई।’’

‘‘अम्मा जी क्या सब्जी बनाऊँ?’’ तभी मणि ने पूछा। रज्जो के गले में जैसे कुछ अटक गया -हाय! कितना सताया मैंने इस लक्ष्मी बहू को।’’ बीती याद कर रज्जो की आँखें छलक उठीं। मणि घबराए स्वर में बोली-‘‘क्या हुआ अम्मा जी?’’ ‘‘कुछ नहीं गरम हलवा खा गई हलक जल गया।’’ विकास ताली बजाकर हँसा-‘‘देखा पापा! दादी को भी सब्र नहीं है मेरी तरह।

जूही ने नन्हें रुमाल से दादी के आँसू पोंछ दिये और बोली-‘‘मम्मी दादी की आँखें आपकी आँखों जैसी क्यों नईं हैं?’’

मणि सकपका गई पर रज्जो आत्म ग्लानि में डूबी सोच रही थी ‘‘मेरी आँखें तो बेकार हैं, दोनों ही पत्थर की हैं जो हीरे को न पहचान सकी।’’ ’’’

पुष्पा रघु ,

पुष्पांजली, 27 ए., सैक्टर-1,

चिरंजीव विहार, गाजियाबाद - 201002

---

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी संग्रह - आदमखोर - 3 : पुष्पा रघु की कहानी - पत्थर की आँख
कहानी संग्रह - आदमखोर - 3 : पुष्पा रघु की कहानी - पत्थर की आँख
http://lh4.ggpht.com/-Qg4oWQT7a98/TleI0vN-isI/AAAAAAAAKiM/QumBJahlafI/aadamkhor1%25255B2%25255D.jpg?imgmax=800
http://lh4.ggpht.com/-Qg4oWQT7a98/TleI0vN-isI/AAAAAAAAKiM/QumBJahlafI/s72-c/aadamkhor1%25255B2%25255D.jpg?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2011/08/3.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2011/08/3.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content