आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 9 - मंजुला गुप्ता की कहानी : सच्चाई

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कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...

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कहानी संग्रह

आदमखोर

(दहेज विषयक कहानियाँ)

संपादक

डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’

संस्करण : 2011

मूल्य : 150

प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन

विवेक विहार,

शाहदरा दिल्ली-32

शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा

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सच्चाई

श्रीमती मंजुला गुप्ता

छम-छम-छम लगातार पाजेब की रुन-झुन के संग-संग, चूड़ियों की खनक की आवाज दूर से जब धीरे-धीरे क्रमशः पास आने लगी, तो मेरी उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच गयी। ऊपर का मकान अभी तक तो खाली पड़ा था बल्कि छः माह से खाली था। मेरे महीने भर के प्रवास में रहने से, कब लोग आ गये-चूड़ियों एवं पाजेब की खनक से मैंने सहज अनुमान लगा लिया कि उसमें आज के समान कोई माडर्न टॉप जिंस वाली लड़की नहीं, अपितु सिंदूर, बिंदी, चूड़ी, पाजेब एवं चटक शोख रंगों वाली साड़ी से सुसज्जित कोई पारम्परिक महिला होगी।

मेरा अनुमान सही निकला, सफेद झक दूध में मानों किसी ने थोड़ी सी केशर अथवा गुलाब की ताजा पंखुड़ियों को पीसकर उसका रंग मिला दिया हो- ऐसा दिप-दिप करता गौर वर्ण, गोल मुखड़े के बीचों-बीच नाक पर चमकती, सफेद हीरे की लौंग, घने काले रेशमी बालों की लम्बी कमर तक झूलती चोटी, चौड़े माथे पर लाल चमकती बिंदी, एवं बीचों बीच गहरे लाल पीले प्रिन्टेड नायलान की साड़ी से बार-बार उघड़ते सिर को ढंकते वह अपना परिचय देने लगी ‘‘यहाँ मेरी ससुराल हैं। मेरे पति पाँच भाई और तीन बहनें हैं। यह सबसे बड़े हैं। हम लोग आसाम में रहते हैं, वहाँ कोयले का बहुत बड़ा हमारा व्यापार है। हम लोग यहाँ अपने दोनों बच्चों के संग घूमने आये हैं। इस महीने की पच्चीस तारीख तक चले जायेंगे। आप कभी आसाम घूमने आना-, बहुत सुंदर जगह हैं।’’

‘‘सुंदर तो हमारा जयपुर शहर भी कम नहीं -’’ मेरे कहने पर उसकी मासूम, भोली सूरत पर हल्की सी मुस्कान दौड़ पड़ी और वह जैसे आयी थी, वैसे ही छम-छम करते हुए चली गयी।

अपने शहर में महिलाओं की आधुनिकता के प्रति दिनोंदिन बढ़ती ललक एवं गला काट स्पर्धा को देखकर मैं सोचने लगती ऐसी महिलायें, थोड़े दिनों बाद केवल गाँव में ही दिखायी पड़ेगी। बीच-बीच में हमारी मुलाकातें होती रहतीं। वह नीचे किसी न किसी काम से ही आती, कभी कपड़ा सुखाने, कभी सब्जी खरीदने, परन्तु उसकी सास की चौकस निगाहें मानों प्रतिपल उसके ऊपर लगी रहतीं। बातों में यदि तनिक भी देर हो जाती तो उसकी कर्कश गुहार आरम्भ हो जाती और वह जिस रफ्तार से आती थी उसी रफ्तार से सहमती सी चली जाती।

घनघोर वर्षा के उपरान्त, खिली, चमकती धूप सी, छायी रहने वाली, उसके चेहरे पर हँसी और मुस्कान की जगह उदासी की परत देख, मेरे पूछने पर, उसने बताया कि उसके पति की तबियत ठीक नहीं रहती। शरीर में दिनों-दिन दुर्बलता आती जा रही है। कई डाक्टरों को दिखाने, एवं कई तरह के टेस्ट के उपरान्त ‘‘पीलिया’’ बीमारी निकली और अब उसका इलाज चल रहा है।’’

मुझे आज भी वह दिन भुलाये नहीं भूलता जब दोनों सास-बहू ने करवा चौथ का व्रत रखा था। लाल सुर्ख लहंगा ओढ़नी में, नख-शिख सोलह सिंगार किये वे छत पर चंद्रमा की पूजा करने, अन्य महिलाओं के संग छत पर आयी थी। पूजा के उपरान्त कमला ने सबसे पहले अपनी सासू जी के चरण स्पर्श किये उसके उपरान्त अन्य महिलाओं के। बातों का सिलसिला चलने पर उसने बताया कि आज ही प्रातः उनकी तबियत अधिक बिगड़ने से हास्पिटल में भर्ती कराना पड़ा।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, इलाज के उपरान्त भी उसकी तबियत बिगड़ती चली गयी। कभी प्राईवेट अस्पताल, कभी सरकारी, कभी अंग्रेजी दवा, कभी आयुर्वेदिक होम्योपैथिक इतने डॉक्टर और दवाओं के उपरान्त भी लाभ होते न देखकर अब पूजा, पाठ, दान-पुण्य का सिलसिला आरम्भ हो गया। कभी भजन पूजन की यह मंडली बुलायी जाती, कभी वह मंडली। घर के लगभग सभी प्राणी आँखों में आँसू भरे हुए मानो ‘‘गजग्राह’’ की आर्तपुकार से भर जुगल किशोर के जीवन की भीख माँग रहे थे। जहाँ दो पड़ोसी इकट्ठे होते बस जुगल किशोर की बीमारी की चर्चा छिड़ जाती। अंत में सभी पास-पड़ोसियों ने उसके जीवन की भीख माँगनी शुरु - हे भगवान। हम सब की आयु में से पाँच-पाँच वर्ष तू कम कर दें परन्तु इसकी बढ़ा दें। छोटे-छोटे बच्चे, कच्ची गृहस्थी, कमला कुछ

पढ़ी-लिखी भी तो नहीं है कि आगे नौकरी करके अपना और अपने बच्चों का इज्जत से पेट भर सके।’’

परन्तु अंत में सबके सारे प्रयास अकारथ सिद्ध हुये। ईश्वर के अटल फैसले पर सबको सिर झुका देना पड़ा।

कोई भी व्यक्ति ईश्वर की इस क्रूर सच्चाई को सहज में स्वीकार नहीं कर पा रहा था। जितने मुँह उतनी बातें.....’’डाक्टरों की गलती से ऐसा हो गया। शायद उसने ही कोई गलत दवा किसी अनाड़ी के बताने से ले ली।’’‘‘हाय..हाय...तीन....चार महीने के इलाज में इतना पैसा पानी की तरह बहाया फिर भी नहीं......जान लेवा कष्ट सहा फिर भी नहीं बचा............खैर होनी को जो कुछ मँजूर था अंत में वह सब हो गया।

थोड़े दिनों तक तो आर्त स्वर में चीख-चीख कर रोने के संगमसंग प्रदू कर्म का तांडव नृत्य चलता रहा। सभी एक स्वर से स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन, कपड़े और दान दक्षिणा में सोने चाँदी का नाम ले रहे थे। दूर-दूर से रिश्तेदार भी ऐसा डेरा डालकर बैठे थे जैसे कोई घर में ब्याह शादी का आयोजन हो रहा हो। जुगल किशोर के माता-पिता अपने दिवंगत बेटे की आत्मा की शान्ति के लिए लाखों रुपये पानी की नांई बहा रहे थे। कमला बस चुपचाप निर्विकार भाव से आते-जाते लोगों को एकनजर देख लेती। उसे सबने बारहवीं के दिन नहला धुला कर सफेद साड़ी पहना दी थी। उसके शारीर से लगभग सभी आभूषण विशेष रूप से जो सुहाग के प्रतीक माने जाते हैं उतार लिए गये थे। उसका चेहरा अब श्रीहीन होने के संग-संग पत्थर की तरह सख्त हो चुका था। उसके चेहरे से समस्त कोमल भाव जैसे उड़न छू हो गये थे।

धीरे-धीरे सभी मेहमान विदा हो गये और मात्र परिवार के लोग ही रह गये। कमला के दुर्दिन तो पति के नेत्र बंद करते ही आरम्भ हो गये थे परन्तु अब उसके और उसके बच्चों के ऊपर पहले तो दबे ढके स्वर में, पुनः मुखर रूप में अत्याचार आरम्भ हो गया। बात-बात में जुगल-किशोर के पिता जिन्हें हम सब सेठ जी कहते थे और उनकी पत्नी सेठानी जी बहू को कुलच्छनी, अभागिनी, बेटों को खा जाने वाली कहती, कभी बच्चों को अभागा, उन्हें अनाथाश्रम में भेज देने को धमकाती, उनके ऊपर किया जाने वाला खर्च, उन्हें नागवार गुजर रहा था। दोनों बच्चे माँ से लिपट कर जब रोते और वह भी जब इस आघात को झेलने की हिम्मत जुटाने का प्रयास करतीं तो इस मर्मस्पर्शी दृश्य को देखकर मानों पत्थर भी पिघल उठता। कमला अक्सर अपने छोटे-मोटे जेवर चुपके-चुपके बेच कर अपने इस आपातकालीन संकट से निपटने का प्रयास करती थी परन्तु यहाँ पर भी वे लोग उसके संग अत्याचार करने से नहीं चूके। अब तो जुबान के संग-संग लात घूँसे और थप्पड़ों की नौबत आ गयी। गलती कोई करें, घर में किसी प्रकार का नुकसान होने पर घूम फिर कर निशान कमला या उसके दोनों बच्चों को बनाया जाता। नित्य प्रति इस तरह की घटनायें देख-देखकर हमारे मकान मालकिन की बूढ़ी अम्मा जो कि दया, करुणा, ममता की साक्षात्मूर्ति थी, और कालोनी की सभी महिलायें प्रातः काल मंदिर में उनका चरण स्पर्श करना अपना अहो भाग्य मानती थीं, उन्होंने कठोर शब्दों में सेठ जी एवं सेठानी जी को यह चेतावनी दे कि यदि तुम लोग जुगल किशोर की बहू और बच्चों पर इस तरह से जुल्म करोगे तो मैं तुम्हें अपने मकान में नहीं रहने दूँगी। तुम लोग अगले महीने ही मकान खाली करके यहाँ से चले जाओं। इन निर्दोष, बेसहारा लोगों पर इतना जुल्म देख-देखकर हमारा मकान ही नहीं सब अभिशप्त हो जायेंगे।

और वास्तव में थोड़े दिनों पश्चात् ही उन लोगों ने वह मकान छोड़ दिया और अन्यत्र चले गये।

मेरा उन लोगों से सम्पर्क लगभग टूट गया। इधर बेटी के जन्म, उसकी परवरिश एवं देखभाल में मैं इतना व्यस्त हो गयी कि उन लोगों का ख्याल भी मेरे मस्तिष्क से लगभग निकल चुका था। समय मानों पंख लगाकर चलाजा रहा था। इसी बीच कई वर्ष बीत गये। एक दिन में बाजार से कुछ आवश्यक सामान खरीद, शीघ्र से शीघ्र घर पहुँच जाने की उतावली में थी कि किसी नारी की क्षीण परन्तु मधुर परिचित स्वर सुनकर ठिठक गयी। ‘‘बहन जी जरा सुनिये......सुनिये बहन जी’’ का स्वर सुनकर मैंने जिसे देखा उसके दयनीय रूप का वर्णन शायद मेरी लेखनी के वश में नहीं हैं। बीमार, दुर्बल, काया पर जगह-जगह फटी मैली साड़ी को लपेटे अपने असमय हो गये सफेद केश, झुर्री लिये चेहरा और हाथ पाँव मानों महीनों से साबुन और तेल के दर्शन नहीं हुये हैं : मैं उसे देखते ही सहसा पहचान न पायी। उसकी दयनीय सूरत और करुणा की साक्षात मूर्ति देख मैं पलभर में सकते में भर बड़ी कठिनाई से बोल पायी ‘‘तुम!’’ उसकी आँखें पलभर में भर-भरा उठीं।

‘‘क्या बताऊँ बहन जी। वहाँ अम्मा जी ने जबसे मकान खाली करने को कह दिया तो इन लोगों ने यहाँ पर खूब बड़ा मकान किराये पर ले लिया है। यहाँ आस-पास किसी का मकान नहीं है। चारों तरफ सुनसान खाली प्लाट हैं। इन लोगों ने मेरे पति का पैसा जो कुछ उन्होंने बैंक अथवा ‘‘जीवन बीमा’’ के तहत जमा

किया था, मुझसे अंगूठा लगवा-लगवा कर निकाल लिया। जब तक पैसा निकालने का काम चल रहा था, तब तक तो यह लोग बड़े प्रेम एवं सहानुभूति से पेश आ रहे थे। ससुर जी बच्चों को गोद में बैठा-बैठा कर आश्वासन देते थे मैं हूँ न अभी,मेरे जीते जी तुम लोगों को कोई बाल-बाँका न कर सकेगा.....,’’ मेरे एवं बच्चों के लिए कुछ न कुछ बाजार से लाते रहते जिसे देख मैं प्रसन्न ही नहीं, अपितु पूरी तरह आश्वस्त भी थी कि चलो इनके पापा नहीं हैं, तो क्या इन लोगों की देखभाल में बच्चे कुछ बन जायेंगे। इनका भविष्य चौपट न होने पायेगा। वे बच्चों को दुलारते हुये कहते ‘‘देखो तो मेरी शक्ल तुम्हारे पापा से कितनी मिलती है।’’

लेकिन यह सब मानो किसी जालसाजी के तहत था। सारा पैसा बैंक से निकलते ही उनका असली रूप प्रकट हो गया। इन लोगों ने मकान भी ऐसी जगह सुनसान में लिया है कि उनके जुल्मों की दास्तां किसी को पता न चले। इन लोगों ने सुच्चा दूध पीने के लिए एक भैंस खरीद ली हैं। उसने सामने बंधी भैंस की ओर इशारा किया। मैं प्रातः काल पाँच बजे उठकर, इसकी सानी-पानी कर दूध निकालती हूँ। इन लोगों ने नीरजा की आठवीं क्लास में ही पढ़ाई छुड़ा दी। कहते हैं कि घर का कामकाज सिखाओ। ज्यादा पढ़ने पर लड़का नहीं मिलेगा। वह मेरे साथ ही घर का कामकाज में मदद करती हैं। दीपक को दसवीं पास करते ही, पास की दुकान पर बैठाने लग गये। कहते हैं कमाई कर...... कहाँ से खर्चा चलेगा। तीन-तीन प्राणी मुँह बायें मेरे सामने खड़े रहते हो, सबको रोजाना मौत आती है जाने तुम लागों को क्यों नहीं आती।’’

वह आँसुओं का घूँट पीते हुये, थोड़ा रुक कर इधर-उधर देखकर बोली ‘‘बहन जी दुनिया का असली चेहरा, एवं उसका बीभत्स रूप मुझे दीपक के पापा के न रहने पर दिखायी पड़ गया। यह जो आत्मीय जन हैं न, परिवार वाले, उन्हें मैंने कभी गैर नहीं समझा, मेरे दहेज का सारा जेवर और खास-खास सामान छोटी ननद की शादी में यह कहकर दिया कि पापा जी का हाथ अभी तंग है, बाद में नौबत ही न आयी, बनवाने की। व्यापार में मंदी, तो कभी ननदों की शादी। पैसा जुट ही न पाया। मेरे पीहर वाले इनके बारहवें के दिन आये थे। देन-लेन में तो कोई कमी न की। ससुर जी के हाथ में मोटी रकम नकदी की थमायी। सारे घर के लोगों को नये कपड़े पहनाये, उसके बाद पलट कर भी न देखा मैं जीती हूँ या मरती हूँ अथवा मेरे बच्चे किस हाल में हैं। उल्टे बातों-बातों में यह इशारा कर गये कि मुझे हर हाल में यहीं रहना है। चाहे कितना ही दुख क्यों न उठाना पड़े। उनका मानना है कि जो लड़की माता-पिता के घर से दुल्हन का जोड़ा पहन कर जाती है, ससुराल की देहरी से अर्थी पर कफन ओढ़कर निकलती है। दुबारा मायके में उसका स्थान नहीं है।

मैंने तो जीवन का यह सभी गरल, ईश्वर की देन समझकर ग्रहण कर लिया है। क्या करुँ? पढ़ी-लिखी होती तो पति के जाने के उपरान्त उसके रुपयों की जानकारी रखती। कहीं भी अगूँठा नहीं लगाती। अच्छी तरह पढ़कर दस्तखत करती।

और वह सुबकती आँसू पोंछती ‘‘चलूं, ढेरों काम पड़े हैं। सासू जी को तनिक भी आपसे मिलने का पता चल गया तो जान ले लेगीं।’’

और वह जैसे आयी थी, वैसे ही चली गयी।

सारे रास्ते मेरे दिमाग में बस एक ही वाक्य बारम्बार हथौड़े की तरह बज रहा था‘‘ काश! मैं पढ़ी-लिखी होती।’’

‘‘काश! वह पढ़ी-लिखी होती, सोचते-सोचते मैं अनायास ही उसके प्रथम मिलन की मुस्कराती छवि की तुलना आज के दिन से करने लगी। ’’’

9 बी.एस.रोड,

बाईपास गोदाम सकिल,

जयपुर (राज.)

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रचनाकार: आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 9 - मंजुला गुप्ता की कहानी : सच्चाई
आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 9 - मंजुला गुप्ता की कहानी : सच्चाई
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