कृष्ण गोपाल सिन्हा का व्यंग्य - देश का पाचन तंत्र

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जनार्दन जी के यहाँ मेरा प्रवेश लेने और उनके डकार लेने की क्रिया लगभग एक ही साथ संपन्न हुयी. मेरे लिए यह अनुमान लगाना अत्यंत सहज था कि इससे ...

जनार्दन जी के यहाँ मेरा प्रवेश लेने और उनके डकार लेने की क्रिया लगभग एक ही साथ संपन्न हुयी. मेरे लिए यह अनुमान लगाना अत्यंत सहज था कि इससे पहले जनार्दन जी ने एक महत्वपूर्ण क्रिया के कर्ता रहे होंगे जिसका सम्बन्ध किसी खाद्य पदार्थ के सेवन से रहा होगा.मुझे तभी यह भी याद आया कि मेरी माताश्री भी अक्सर दो-चार डकार लिया करती थीं जिनमे कुछ मध्यम तो कुछ निम्न स्वर में होते थे. मुझे अत्यंत उच्च स्वर में डकार सुनने का भी सौभाग्य मिलता था जब मै अपने ननिहाल जाता था और वहाँ पड़ोस में रहने वाले एक दद्दा जी डकार लेते थे या दहाड़ते थे यह मै तब समझ नहीं पाटा था.खैर, अब आप कि तरह मेरे भी समझ में यह तो आ ही गया है कि यक एक शारीरिक मौखिक क्रिया है जो पाचन तंत्र से जुड़ा है और क्षुधा के शांत होने तथा संतुष्टि का एक्नोलेजमेंट है.

जनार्दन जी यह महसूस कर रहे थे कि इस तरह डकार लेते मैंने उन्ही शायद पहली बार देखा है और इसीलिये उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि आप को भी क्या कभी डकार आती है. मेरा ध्यान डकार से जुडी क्रिया पर गया तो मैंने उन्हें बताया कि हाँ, जब कभी आती है तो ले लेता हूँ. जनार्दन जी के चहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आयी तो मैंने भी मुस्कुराकर रिस्पोंस दिया. उन्होंने मुझे बताया कि डकार तो उनके नानाश्री भी लेते थे पर इसका पता अपने घर के लोगों के अलावा पास पड़ोस के लोगों को भी चल जाता था कि मुंशी जी अब भोजन करके निवृत्त हुए हैं.

मेरी बुद्धि के अनुसार डकार आने कि क्रिया भोजन ग्रहण कर लेने के पश्चात कि ऐसी क्रिया होती है जिससे पेट और पाचन तंत्र के सही ढंग से सही संचालन किये जाने का एलान होता है. मैंने जनार्दन जी से कहा कि यह तो एक स्वस्थ शरीर की स्वस्थ और स्वाभाविक प्रक्रिया है. मेरा इतना कहते ही उनके चहरे का भाव बदलने लगा. कुछ निराशा, कुछ क्षोभ,कुछ आक्रोश और कुछ वेदना का भाव लेकर वे बोले," भैया, भोजन के बाद डकार का आना या डकार लेना तो स्वस्थ लक्षण है परन्तु डकार जाने और डकार भी न लेने कि क्रिया और इसका बढ़ता प्रचलन एक बहुत ही गंभीर और चिंताजनक मुद्दा बन गया है.”

मुझे लग रहा था कि जनार्दन जी किसी गंभीर और शास्त्रीय विषय पर आने वाले है इसलिए मै उनकी बातों की गहराई थहाने की नाकाम कोशिश की जिसे वे भांप गए. कहने लगे, डकारें तो गायें और भैसे भी लेती हैं पर उन्होंने कभी भी इस बात की शिकायत नहीं की कि उनके हिस्से का चारा उनसे इतर योनि के जीव डकार जाते हैं.

मेरा ज़हन अब उनकी बातों को समझने और ग्रहण करने को तैयार लग रहा था. जनार्दन जी इस बात को ताड़ते ही कहने लगे कि हाजमा ठीक हो, अपच और अनपच की शिकायत न हो तो डकारों का स्वाद खट्टा नहीं होता. डकार आ भी जाए और डकार ले भी ले तो ठीक ही होता है परन्तु हाजमा इतना दुरुस्त हो कि आप बहुत कुछ या कभी कभी सब कुछ खा जाए यानि डकार जाए और डकार भी न लें तो यह अच्छी बात नहीं है.दरअसल, हमारे लोकतंत्र में कई और तंत्र उभरे है और उभरते ही जा रहे हैं.

इसी क्रम में देश का पाचन तंत्र भी बहुत मजबूत होकर उभरा है. किसका हाजमा कितना दुरुस्त है, कौन कितना ज़्यादा हजम कर जाता है, किसमे कितना डकार जाने का हौसला और हुनर है, किसने डकार जाने और फिर भी डकार तक न लेने के कितने नए कीर्तिमान बनाए है, इन सब को थहाने की कोशिश आप और हम करने की गुस्ताखी करते भी है तो यह बात पक्की है कि हमें मुंह की खानी ही पड़ेगी.

जनार्दन जी ने जब डकार जाने के कीर्तिमानों की बात की तो मै मन ही मन ऐसे कीर्तिमानों और कारनामों को थहा तो नहीं सकता था इसलिए दहाने लगा कि संख्या और मात्रा के पैमाने से से ये कितने और कैसे रहे होंगे. मेरा यह सौभाग्य है कि मेरी तरह ही जनार्दन जी को भी मेरी अक्षमता और सीमाओं का शतप्रतिशत अहसास है और इसीलिये शायद उन्होंने यह अनुमान सही और मौके से लगाया कि डकार प्रकरणों के बारे किसी नतीजे पर पहुँचना मेरी समझ और बूते से परे था.बकौल जनार्दन जी डकारने के मामले में उन लोगों की मोनोपोली है जो बड़े है, बड़ी औकात और हैसियत वाले है, बड़े ओहदे पर काबिज़ है, छोटे-मोटे पद और पावर वालों के हिस्से में तो डकारने के लिए छोटी-मोटी चीजे ही होती है पर उसे ही डकार जाने का कोई भी मौक़ा वे हाथ से कत्तई जाने नहीं देते. आखिर यह भी तो नसीब की बात है कि आप के मुक़द्दर में जो आया है वही तो आप डकार सकेंगे. गोया, जो भी जहा है और जैसा भी उसे मौक़ा और गुंजाइश नसीब है उसे डकारने के अपने मूल अधिकार का इस्तेमाल किये बिना नहीं रह सकता. आखिर उसे भी तो ऊपर वाले को यह क़फियत देनी पड़ेगी कि माल और मौके के होते हुए उसने अपने इस राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन क्यों नहीं किया.

जनार्दन जी का डकार आख्यान चल ही रहा था कि मैंने बीपीएल और एपीएल की तर्ज पर योजना आयोग और आयकर विभाग द्वारा मिलकर बीडीएल ( डकार रेखा से नीचे) और एडील (डकार रेखा से ऊपर) का पता लगाने का सर्वेक्षण करवाए जाने की बात अभी सोचा ही था कि जनार्दन जी कहने लगे कि इस सिलसिले में कोई मानक या पैमाना तय करना आसान नहीं होगा क्योकि कई रेखाएं खीचनी पड़ेंगी. उन्होंने तर्क दिया कि नीचे से ऊपर तक डकारने वालों और डकारे जाने वाली चीजों की संख्या और वेराइटी बहुत ही बड़ी और व्यापक है. कोई सीमेंट तो कोई कोयला, कोई खाद्यान्न तो कोई चीनी, कोई सड़क तो कोई जहाज,कोई बजट तो कोई योजना ही डकार के फ़िराक में रहता है. यकीन मानिए, डकार जाना किसी डाका डालने से कम असुविधाजनक, असुरक्षित और आपराधिक होता है और कानूनन भी इसे साबित करने और दोषी ठहराए जाने की प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है कि बहके रहने और अंत में बच जाने की काफी गुंजाइश रहती है.

जनार्दन जी के डकार चर्चा के बीच बोलने की ज़रा सी गुंजाइश दिखाई दी तो मैंने उनसे यह पूछने में कोई कोताही नहीं की डकारने वालों के बारे में सरकार ने अगर कोई श्वेत पत्र जारी नहीं किया तो कम से कम टॉप टेन की दो चार सूचियाँ तो जारी कर ही सकती थी. जनार्दन जी ने मेरे पूछने की लाज रखते हुए बोले," ऐसी सूचियों का तो कोई अंत ही नहीं होगा. टॉप टेन के जगह टॉप हंड्रेड या टॉप थाउजेंड या लैक भी गिनाये जाय तो भी लाखों के छूट जाने की पूरी गारंटी ली जा सकती है.”

स्वभाव से संकोची होते हुए भी मैंने उनसे यह पूछने में संकोच करना कत्तई मुनासिब नहीं समझा कि आखिर इसके लिए भी कोई मौसम, स्थान, अवसर या 'मोडस ओपरेंडी' तो होता होगा. आदतन अनर्गल शंकाओं और जिज्ञासाओं पर धान न देने वाले जनार्दन जी ने मेरी बात को शायद इसलिए इग्नोर कर दिया क्योकि डकारने के लिए किसी ख़ास स्थान, अवसर, मौके और कार्य प्रणाली की ज़रूरत नहीं पड़ती. बस जब, जहां, जैसा, जितना और जैसे तैसे डकारने की गुंजाइश हो इससे बाज आना नासमझी और नादानी ही मानी जायेगी.

अब आगे बिना मेरी किसी जिज्ञासा या कुतूहल के ही वे बताने लगे कि डकार जाने के कौशल का प्रदर्शन अब अलग अलग स्तरों पर होने लगा. लोकल और छुट-पुट मामलों को दरकिनार कर दिया जाय तो क्षेत्रीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर कई रिकॉर्ड बनाए जाने लगे हैं. इस दिशा में इर्ष्या कम और स्पर्धा की भावना ज्यादा देखी और पायी जाती है. डकारने वालों को इस बात पर गर्व और यकीन होगा कि कॉमनवेल्थ गेम्स की तर्ज पर एशियन गेम्स और ओलिम्पिक में भी उनका प्रदर्शन पहले की अपेक्षा ज़्यादा शानदार और उत्साहजनक होगा. जहां तक इर्ष्या और स्पर्धा की बात है तो डकारने के मामले में एक बड़ी ही स्वस्थ और स्थापित परम्परा यह देखी जाती है कि जब कोई डकारता है उसका प्रतिस्पर्धी इस बात को जोर-शोर प्रचारित और प्रसारित करता है. लेकिन जब डकारने का सुयोग ऐसे किसी के हाथ लगता है तो पहले डकार चुका 'मानव' अपनी बारी आने पर शोर मचाने के रोल में आ जाता है.

मेरे ज़हन में देश के स्वनामधन्य 'डकार पुरुष' के नए पुराने संस्करण बारी बारे से आने लगे. मई यह तय ही नहीं कर पा रहा था कि उन्हें किस क्रम में सजाएं या बिठाएं. भीड़ बढ़ती जा रही थी. इतने में शायद मेरे भीड़ में फसते जाने का अनुमान जनार्दन जी को हो ही गया. मुझे बाहर निकालने की कोशिश में वे कहने लगे कि डकारने वालों के के लिए पिछला दो दशक काफी भाग्यशाली साबित हुआ है. देश ने चालीस साल में जितनी उन्नति या अवनति देखी उस सब को मिलाकर भी उससे कई गुना ज़्यादा और तेज़ रफ़्तार से डकारने वालों ने अपना कौशल और हुनर दिखाते हुए जितना डकार सकते थे उससे भी ज़्यादा डकारा है. दरअसल, कोशिश तो यह भी रही कि पूरा देश ही डकार जाय पर अचानक अन्ना के आ जाने से पूरा डकारतंत्र सहम गया है.

इतनी देर तक जनार्दन जी से कोई प्रश्न न पूछने से पेट में गैस बनने की वजह से एक अलग प्रकार के डकार लेने की संभावना लगी तो पूछ बैठा कि क्या विश्वव्यापी मंदी के दौर में भी इसके फलने फूलने के आसार हैं. मोंटेक और मनमोहन सरीखे अर्थशास्त्री होने के अंदाज़ में आने की कोशिश में वे बताने लगे कि कच्चे तेल और सोने- चांदी के भाव में भले ही उतार-चढ़ाव आये, सेंसेक्स और मुद्रा-स्फीति घटे बढे, महंगाई बढे ज्यादा और घटे नाम भर को, पर डकारने के इंडेक्स ने अभी तक कभी नीचे का रुझान तो नहीं किया,आगे की अन्ना जाने या फिर देश की जनता जाने. पल भर के लिए जनार्दन जी ने सांस ली पर मै तो जानता था कि उनका चुप रहना पल को पार कर सवा पल का भी नहीं हो सकता था. उन्होंने अपनी एक तजबीज ये रखी कि सरकार को एक टास्क फ़ोर्स यह पता लगाने के लिए बनाना चाहिए कि अगर बजट में ही डकारने के लिए अलग से पर्याप्त धन की व्यवस्था कर कर दी जाय तो डकारने में सहूलियत तो होगी ही साथ ही दूसरे मदों के बजट पर डकारने वालों की नज़र नहीं होगी.

जनार्दन जी की इस तजबीज पर कोई राय या प्रतिक्रया देने से मैंने खुद को बचा कर रक्खा क्योकि मै यह महसूस करने लगाता कि डकारने वालों की तरह मेरा हाज़मा इतना दुरुस्त नहीं था कि डकारने के किसी भी पहलू को अब और आगे हज़म कर पाता. मुझे लग रहा था कि लोग हैं कि क्या क्या हज़म कर जाते हैं और एक मै हूँ कि डकारने से जुडी बातों को अब और सुनने और उन्हें हज़म में खुद को नाकामयाब पाने लगा था. मैंने एक बहुत ही साधारण और धीमे स्वर में अपने खाते वाला डकार लिया ही था कि जनार्दन बाबू यह समझ गए कि अब और आगे सुनने या जानने की मेरी औकात नहीं थी. उन्होंने आज के इस डकारनामे को समापन की और धकेलते हुए कहने लगे, "बन्धु,यह डकारनामा भी हरिकथा की ही तरह अनंत है, आप के लिये आज बस इतना ही बहुत है पर आगे भी जब मिलेंगे और आप की रूचि और उत्कंठा होगी तो इस पर और चर्चा की जा सकती हैं क्योकि अभी इस बात की कत्तई गुंजाइश नहीं दिखाई देती कि डकारने के भाव और सेंसेक्स में कोई मंदी या गिरावट के आसार हो."

मुझे जनार्दन जी के इस विराम पर आकर बहुत राहत मिलता महसूस हुआ और उनसे अनुमति के साथ आशीष लेकर मैंने  वहाँ से प्रस्थान किया.

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रचनाकार: कृष्ण गोपाल सिन्हा का व्यंग्य - देश का पाचन तंत्र
कृष्ण गोपाल सिन्हा का व्यंग्य - देश का पाचन तंत्र
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