राकेश कुमार सिंह की पहली कहानी : नाम : अज्ञात

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  झारखंड के पलामू जिले में जन्मे राकेश कुमार सिंह ने यूं तो विज्ञान- शाखा में पढ़ाई की और यही पढ़ा भी रहे हैं, परंतु हिंदी साहित्य जगत में भी...

 

झारखंड के पलामू जिले में जन्मे राकेश कुमार सिंह ने यूं तो विज्ञान- शाखा में पढ़ाई की और यही पढ़ा भी रहे हैं, परंतु हिंदी साहित्य जगत में भी इन्होंने काफी योगदान दिया है. अनेक कहानी संग्रह, करीब दर्जन भर उपन्यासों की रचना के साथ ही इनके नाम कई ऐतिहासिक-सांस्कृतिक किताबें भी दर्ज हैं. झारखंड का प्रतिष्ठित 'राधाकृष्ण सम्मान' (२०।)') इन्हें प्राप्त है. कहानी 'ठहरिए, आगे जंगल है' पर दूरदर्शन द्वारा इसी नाम से टेलीफिल्म निर्मित-प्रदर्शित हुई है.

(यह कहानी हंस के नवम्बर 1995 अंक में प्रकाशित हुई थी)

कहानी

नाम : अज्ञात

जंगल की एक भोर! बीड़ी - पत्तों के खलिहान से दूर किसी खेत में छुपा घुग्घू बड़ी डरावनी आवाजें निकाल रहा था. सुबह की हवा की सिहरावन ठंड...! झरिया ने एक बीड़ी सुलगायी. दम खींचते ही बीड़ी का सिरा दप्प - दप्प कर सुलग उठा. बीड़ी के सुलगते लाल सिरे को देख झरिया को तेतरी की याद आ जाती है. जलती बीड़ी की नोक कैसे दमकती है? ठीक तेतरी की छुंछिया के नग की तरह... दप्प लाल. जैसे लहू की बूंद...! झरिया ने भर मुंह धुआं आकाश की ओर उगल दिया. धुएं के पार पहाड़ी की चोटी पर टंगा भुरुकवा दपदपा रहा है.

हर साल बैशाख - जेठ में झरिया जंगल आता है. बीड़ी - पत्ते के खलिहान की रखवाली करता है. महुवे बटोरता है.

झरिया के पलाश के पत्तों से बने झोंपड़े के ठीक सामने एक विशाल महुवे का पेड़ है. छतनार पेड़ महुवे की टटकी फूलियों से गदराया हुआ है. भोर की सरसराती ठंडी बयार में घुल रही है महुवे की गमागम महक. झरिया ने लम्बी-लम्बी कई सांसें लीं, मानो वह सारी सुगंध को अपने फेफड़ों में समेट लेना चाहता हो. महक से मन तर हो गया.

''वाह रे दइब...! ई महुवा भी क्या चीज बनाया है! भोरहट के महुवा की महक से तो बिन पिये ही दस बोतल का निसा (नशा) हो जाता है. महुवे की कचराई फुलियों की गमक से बढ़कर कोई दूसरा सेंट -इत्तर नहीं है धरती पर...! पर तेतरी के बालों की महक...? पता नहीं ससुरी कौन- सा तैल- फुलेल लगाती है. ''

इस बार जंगल .से घर लौटते ही माई ( मां ) के कान में गौने की बात डालनी होगी. बहुत सिकाईत करती है माई भी कि घर - उगना बड़ा सूना- सपाटा लगता है. तेतरी आ जाएगी तो माई का अंगना झांझर की झमक-सुमुक से भर जाएगा और अपना भी मन.

टप्प-टप्प...! महुवे के फूल सूखी पत्तियों पर गिर रहे हैं. भोर के उजास से आसमान सफाने लगा है. महुवे के पेड़ तले पीले. महुवे की चादर - सी बिछ चुकी है. झरिया झोंपड़े से बाहर आ गया.

दूर वाली पहाड़ी की जड़ से सटे रेल की पटरियों को रौंदती भोर वाली पटना मेल धड़धड़ाती गुजर रही है. गाड़ी की आवाज से चिरई- चुरगुन रूख - बिरिख से हरहरा कर उड़ने लगे.

रोज इसी टैम महुवे जमा करना शुरू करता है झरिया, गाड़ी के धनकाई पुल पर से गड़गडाती हुई गुजर जाने के बाद...!

... अब गाड़ी बस पुल पर पहुंचने ही वाली होगी. अचानक... धड़ाम...! धड़ - धड़ धड़ाम! धड़ाम...! कानों के पर्दे फाड़ देनेवाला भीषण धमाका हुआ. फिर कई - कई धमाके...! झरिया चौंक पड़ा. साईत पास के गांव में किसी नेसलाइट ने बम पटक दिया! ढेर सारे कौवे कांव - कांव करते झरिया के सिर के ऊपर से उड़ते पहाड़ों की ओर निकल गये. वह अभी सोच ही रहा था कि बम की आवाज ऐसी होती भी है या नहीं कि तभी चीख -पुकार और मानवीय क्रंदन- कराहों से भोर का शांत वातावरण दहल गया.

झरिया के मन में बिजली के लट्टू की नाई शंका सुलगी- 'जरूर गाड़ी गिर गयी है...! पुलिया से गाड़ी के गुजरने पर गड़गड़ाहट की बजाय धमाके? ' घड़ी भर ? को वह सुन्न-सा हो गया, पर अगले ही क्षण वह गड्ढ़े - झाड़ लांघता, मेंड़ें- टोपरे फलांगंता गोली की गति से धनकाई नदी के पुल की ओर भागा.

पुल के नजदीक पहुंचकर झरिया को लगा जैसे देह का सून थक्का- थक्का होकर जमने लगा है. गाड़ी का इंजन मुंह के बल पुल से नीचे सीधा नदी में जा गिरा था. रेत में धंस गया था इंजन का मुंह. उसके पीछे लगी तीन बोगियां भी एक के ऊपर एक नीचे जा गिरी थीं और दियासलाई की डिब्बियों की भांति तुड़- मुड़ गयी थीं. एक बोगी तो किसी करिश्मे की तरह आधी पटरी पर और आधी हवा में ढेंकी की तरह झूल रही थी.

ऊपर साबुत बची बोगियों में से आतंक से थर्राये मुसाफिर भरभराकर टिड्डियों की तरह दनादन बाहर निकल कूद रहे थे. हर ओर चीख - पुकार का माहौल... .रोने - पीटने की आवाजें...! बचाओ- बचाओ का शोर...! हंगामा... हड़बड़ाहट...! अपनी - अपनी जान की फिक्र...! खिड़कियों के रास्ते रेल पुलिस के चलते दस्ते के राइफलधरी सिपाही मुसाफिरों की देह पर ही कूद रहे थे.

पुल की ढाल पर से नीचे उतरते झरिया की आंखें यह देखकर आश्चर्य से फटने लगीं कि गाड़ी से निकले पुलिस के जवान किसी घायल -फंसे मुसाफिर की मदद करने के बजाय मरे लोगों पर ही पिने पड़े थे. आनन - फानन वे मृत स्त्रियों के नाक- कान से गहने नोंच रहे थे. फटाफट मर्दों की कलाइयों से घड़ियां खसोट रहे थे. लाशों की जेबें तक खंगाले जा रहे थे. झरिया ढलान पर से ही चिल्लाया, ‘‘ठहरो जी साहेब...! ई का करते हो आपलोग? छीना- छोरी, लूट - पाट आपको सोभा देता है क्या? कल को लोग हमें ही दोष देंगे कि पुल के पास के गांववालों ने मुर्दों से भी लूट - पाट किया! ''

.. .पर झरिया की सुनता ही कौन था. सिपाही पूर्ववत अपने काम में तल्लीनता से लगे रहे. झल्लाया झरिया पास पहुंचा और आवेश में उसने एक जवान की बांह थाम ली. रेल - पुलिस के कड़क जवान की बांह थामने की हिम्मत एक देहाती भुच्च कर जाय! क्रोध से जवान की बोटी - बोटी थिरक उठी. क्रोध से कांपते हाथों से उसने राइफल कंधे से उतारी और कुंदे का एक भरपूर प्रहार झरिया की छाती पर किया. झरिया मुंह के बल नदी की रेत पर उलट गया.

‘‘स्याला... मादर...! गांव की इच्चत का ठीका ले रखा है क्या? हरिसचंदर की औलाद! अब तो पचास जगह जाकर गायेगा कि सिपाहीजी ने लूट -पाट किया. साले, तूने मेरी बांह क्यों पकड़ी? इतनी मजाल... स्याले? बोल... करेगा न अब हमारा प्रचार?'‘

‘' और मार किरपाराम... ? ' दूसरे सिपाही ने पहले को उकसाया.

अब तक तीन - चार और सिपाही वहां पहुंच गये और सभी मिलकर झरिया को सबक सिखाने लगे. झरिया चीखता रहा, चिल्लाता रहा पर झरिया को रुई की तरह धुनते हुए सिपाहियों की श्रवण- शक्ति समाप्त हो चुकी थी. जिसका जिधर मन

चाहा प्रहार करता रहा. झरिया के सामने के दो - तीन दांत टूट गये. होंठ फटकर लटक गये. रक्त - रंजित बिना दांत का चेहरा वीभत्स दीखने लगा. धोती - कुर्ता चीर - चीर होकर पता नहीं कहां गिर चुके थे. पांच - छ : जवानों के बीच फुटबॉल बना झरिया रिरियाता रहा.

'' अब ना ए दरोगाजी, अब छोड़ दें माई - बाप...! हमने कुछ नहीं देखा. हम कहीं कुछ नहीं कहेंगे...आह रे बाप... हाय रे माई... अब नहीं ए दरोगाजी...!''

जमीन पर गिरे झरिया ने लहूलुहान चेहरा पोंछते हुए घुटनों पर उठना चाहा पर चौकन्ने जवान ने भारी बूट की भरपूर ठोकर उसकी कनपटियों पर जड़ दी. झरिया

त्योराया... लड़खड़ाया और फिर जमीन पर गिरकर सिरकटे मुर्गे -सा फट-फट फड़फड़ाने लगा; दोनों कानों से भलभलाकर परनाले - सा रक्त बह निकला. एक बार उसका फड़फड़ाता शरीर जोर से ऐंठा और फिर... झरिया शांत हो गया.

एक सिपाही नै उसकी पसलियों में बूट की ठोकर मारी, झरिया निश्चल! दूसरे ने झुककर सीने पर हाथ रखा, धड़कन गायब थी! तीसरे ने नब्ज ढ़ंढ़ने की नाकाम कोशिश की पर नब्ज भी नदारद...! आंखों में तेतरी की सूरत, कानों में तेतरी की पायल की रुनझुन, सांसों में तेतरी के बालों की खुशबू की साध संजोये झरिया इस फानी दुनिया से कूच कर चुका था. इस साल जंगल में गुजरे चंद ही दिन उसकी मौत का सामान बन गये थे.

सिपाहियों ने उसे मरे सूअर-सा खींचकर एक गड्ढे में डाल दिया और फिर उसकी लाश की छाती में तीन -चार गोलियां झोंक 'दी! किस्सा खत्म!

दुर्घटनाग्रस्त रेलगाड़ी के यात्रियों ने आतंक से जड़ आंखों से सारा तमाशा देखा. मौन दर्शक बना रहना ही सुविधाजनक था. एक व्यक्ति सड़क पर गुंडों से पिटता हो तो कोई दखल नहीं देना चाहता. लोग आंखें मोड़कर आगे चल देते हैं. सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त कोई व्यक्ति अंतिम सांसें ले रहा हो, समय पर डोक्तरी सहायता मिल जाने पर शायद उसके बच जाने की उम्मीद बाकी हो, पर. .लोग ऐसा करने के बजाय अपना रास्ता ही बदल लेते हैं. पड़ोसी के घर में डाकू घुस आये तो लोग चिल्लाने, मदद के लिए किसी को पुकारने के बजाय अपने घर के खिड़की -दरवाजे और मजबूती से बंद कर लेते हैं. परायी आग में कौन हाथ डाले...! इस घोर अरण्य में यदि रक्षक ही उनका भक्षण करने लगे तो कौन सुनता है उनका अरण्य - रोदन...! और फिर मरनेवाला उनका सहयात्री भी तो नहीं था. वह तो पुल की दूसरी तरफ से आया कोई बेनाम - बेपता सिरफिरा अजनबी था जो बेकार ही पुलिस वालों से उलझ पड़ा था. दूसरों के पचड़े में कौन पड़े?

धीरे - धीरे आस-पास के गांवों - टोलों के लोग जुटने लगे. कई घंटों के बाद आखिर मलबा हटाने की क्रेनें आयीं. चलंत अस्पताल आया... और फिर बड़ी -सी पुलिस की लॉरी भी आ गयी. सहायतार्थ कैम्पों में घायलों की मरहम -पट्टी होने लगी. लाशों की संख्या न्यूनतम करने की अत्यावश्यक प्रक्रिया शुरू हो गयी ताकि कल के अखबारों में सुर्खियां दिखे- ‘‘पटना मेल दुर्घटनाग्रस्त! चार बोगियां चकनाचूर! दो मरे.. पचास घायल...''

अन्य लाशों के साथ ही झरिया की लाश भी लोरी में डाली जाने लगी तो रेल पुलिस के जवान किरपाराम ने टोका, ‘‘रहने दो इसको. मुसाफिर नहीं है. नक्सलाइट लगता है स्साला... लाशों पर से जेवर - घड़ियां उतार रहा था. हमने रोका तो हमसे ही उलझ गया!... राइफल छीनने लगा. बड़ी मुश्किल से मुठभेड़ के बाद आखिर मारा ही गया.

बात बड़े साहब तक पहुंची. साहब ने खुश होकर किरपाराम की पीठ ठोंकी, '' शाबास! तुम जैसे बहादुर और कर्त्तव्यपरायण जवान पर हमें नाज है. हम जरूर तुम्हारी तरक्की के लिए सिफारिश करेंगे.''

पूरब की पहाड़ियों के पीछे से सहमा - सहमा सूरज झांकने लगा. सूरज की टटकी किरणों की आभा में लाल ताजा फूलों से लदे जंगली पलाश दहक उठे, मानो जंगल में आग लग गयी हो झरिया की लाश एक टूटी बोगी की खिड़की में बांधकर लटका दी गयी. लाश पर बेतहाशा मक्यियों की एक चादर-सी पड़ गई. किसी भी ग्रामीण ने झरिया की लाश को पहचाना तक नहीं! कौन पड़े पुलिस... थाना... कोर्ट.... कचहरी... .गवाही और हाकिम के पचड़े में!'

झरिया की लाश की गर्दन में एक तखी. बांधकर लटका दी गयी जिस पर चूने से टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा गया –

नाम : अज्ञात.

उम्र : लगभग तीस वर्ष

पेशा : लूटपाट, आतंकवाद

अपराध : मृत यात्रियों के सामान खसोटने तथा पुलिस बल की राइफल लूटने का प्रयास

नोट : पुलिस-मुठभेड़ में मारे गये इस आतंकवादी की शिनाख्त करने वाले को पांच सी रुपये नकद इनाम.

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(साभार - नवनीत अप्रैल 2011)

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. बेनामी7:32 pm

    excellent rakeshraman@yahoo.com

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  2. हमारे जवान वाकई इतने बहादुर हैं, कई बार टीवी पर भी देखा है.

    जवाब देंहटाएं
  3. समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण सत्यवादी एवं ईमानदार लोगों को ऐसा ही अंजाम भोगना पड़ता है | यह वास्ताविक्ता है |

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी6:27 pm

    यह कहानी 'हंस' के दिसंबर १९९५ अंक में प्रकाशित हुई थी।
    राकेश कुमार सिंह

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: राकेश कुमार सिंह की पहली कहानी : नाम : अज्ञात
राकेश कुमार सिंह की पहली कहानी : नाम : अज्ञात
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