राजस्थान की लोक प्रेमकथाएं शिरीष खरे जेठवा-उजली जेठवा-उजली जेठवा के विरह में उजली के छंदों को जोड़कर बुनी गई बड़ी मार्मिक लोककथा है. खा...
राजस्थान की लोक प्रेमकथाएं
शिरीष खरे
जेठवा-उजली
जेठवा-उजली जेठवा के विरह में उजली के छंदों को जोड़कर बुनी गई बड़ी मार्मिक लोककथा है. खास तौर पर गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में लोकप्रिय यह कथा यहां की संस्कृति के दो अहम पहलुओं ‘प्रेम’ और ‘शरणागत की रक्षा’ को रेखाकिंत करती है. कथा में शिकार खेलने निकला धूमिलीनगर का राजकुमार जेठवा अपने साथियों से बिछुड़ जाता है. एक तो पौष की ठंड भरी रात और उस पर भारी ओलावृष्टि से वह जंगल में ही बेहोश हो जाता है. उस अंधियारी रात को एक झोपड़ी से आती रोशनी देख जेठवा का घोड़ा उसे बेहोशी की हालत में झोपड़ी के पास ले आता है. यहां अमरा चारण अपने बूढ़े शरीर का बोझा लिए जाग रहा है. घोड़े की हुनहुनाहट सुन जब वह बाहर आता है तो एक अनजान आदमी का अकड़ा शरीर देख दंग रहा जाता है.
शरणागत की रक्षा को वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी तो समझता है लेकिन उसके शरीर को गर्म करने के लिए उसके पास न आग जलाने की लकडि़यां हैं और न पर्याप्त कपड़े. तब वह अपनी बेटी उजली को उसकी जवान देह की गर्मी से शरणागत के शरीर को गर्म करने के लिए कहता है. उजली के आनाकानी करने पर वह शरणागत की रक्षा को मनुष्य का पहला धर्म बताता है. यहां सामाजिक विवाह के सभी दवाबों को तोड़कर उजली अपनी देह की गर्मी से जेठवा को नया जन्म देती है. होश में आने के बाद परदेसी उसे अपना लगने लगता है. जेठवा भी उसे विवाह का वचन देकर धूमिलीनगर लौट जाता है. लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब जेठवा उजली की सुध नहीं लेता तो उजली उसे संदेश भेजती है, ‘जिम बिन घड़ी न जाय, जामवरो किम जावसी। बिलखड़ी बिहाय, जागण करग्यो जेठवा।।’ यानी जिसके बिना एक घड़ी बिताना कठिन हो गया है, उसके बिना यह जीवन कैसे बिताया जा सकता है. मुझ बिलखती को छोड़ गया रे जेठवा, तू मुझे जोगन कर गया.
उजली ने ऐसे कई और संदेश जेठवा को भेजे लेकिन जेठवा का जब कोई जवाब नहीं आया तो वह उससे मिलने धूमलीनगर जाती है. यहां राज्य की व्यवस्था उजली के त्याग को पहचान नहीं पाती और जेठवा का पिता चारण की बेटी को राजपूतों की बहन का हवाला देकर विवाह की बात नामंजूर कर देता है. जेठवा भी पिता के क्रोध का सामना नहीं कर पाता. इसके बाद उजली के रोम-रोम से आग फूट पड़ती है, वह जल उठती है, ‘कारण और न कोय, जात-तांत रो जेठवा।’ जिससे लौ लग गई वहीं प्रेम है, जाति-पांति का कोई कारण ही नहीं है.’ और नाराजगी जाहिर करते हुए उजली अपनी देहलीला को जल की अथाह गहराई में शांत कर देती है. राजस्थानी भाषा के महान हस्ताक्षर विजयदान देथा ने जेठवा-उजली कथा को स्त्री की अस्मिता और जातीय विमर्श की बहुत पुरानी कथाओं में से एक महत्वपूर्ण कथा के तौर पर चुना है.
ढोला-मारू
यों तो थार के चंपे-चंपे पर प्रेमकथाएं बिखरी पड़ी हैं लेकिन ढोला-मारू की प्रेमकथा सबसे लोकप्रिय है. यहां हर तीज त्यौहार पर गाये जाने वाले लोकगीतों से लेकर लोकचित्रों और लोकनाटकों में ढोला-मारू को आदर्श दंपति का दर्जा मिला हुआ है. कथा में पूंगल देश का राजा अपने यहां अकाल पड़ने पर नरवर राज्य आता है. यहां वह अपनी बेटी मारू का विवाह नरवर के राजकुमार ढोला से करता है. उस समय ढोला की उम्र तीन और मारू की डेढ़ साल होती है. सुकाल आने पर पूंगल का राजा परिवार सहित अपने महल लौट जाता है. दिन बीतते-बीतते कई साल बीत जाते हैं और ढोला बचपन के विवाह को भूल जाता है. बड़ा होने पर उसका दूसरा विवाह मालवणी से हो जाता है. मालवणी को अपनी सौतन मारू और उसकी सुंदरता का किस्सा मालूम है. इसलिए वह पूंगल से आया कोई भी संदेश ढोला तक नहीं पहुंचने देती. उधर मारू भी भावनाओं का भार उठाए कामनी हो उठती है.
एक रात वह सपने में ढोला को देखती है. उसके बाद उसके जी को चैन नहीं मिलता. मारू की यह हालत देख पूंगल का राजा एक चतुर गायक को नटवर भेजता है. गायक गाने के बहाने ढोला तक संदेश पहुंचाता है, ‘ढोला नटवर सेरियां, धण पूंगल गलियांह।’ इन गानों में पूंगल और मारू का नाम सुनते ही ढोला को अपने पहले विवाह की याद आ जाती है. गायक ने ढोला को बताया, ‘जे थूं साहिब न आवियो, सांवण पहली तीज। बीजल तणै झबूकड़ै, मूंध मरेसी खीज।।’ यानी अगर आप होली के पहले पूंगल नहीं आए तो मारू होली की लपटों में जल जाएगी. यह सुन ढोला मारू से मिलने के लिए बैचेन हो उठता है, मगर मारवणी उसे किसी न किसी बहाने रोकती रहती है.
एक दिन ढोला मारू से मिलने तेज ऊंट पर सवार होकर निकल ही पड़ता है. मालवणी रोती रह जाती है और ढोला कोसो दूर पूंगल पहुंच जाता है. मारू ढोला को देख झूम उठती है. जब वह मारू को लेकर नरवर के लिए लौटता है तो रास्ते में खलनायक उमर सूमरा मारू को छीनने की चाल चलता है. मगर मारू को जब उसकी चाल का पता चल जाता है तो वह ढोला से ऊंट पर छट चढ़कर भागने के लिए कहती है. उमर सूमरा घोड़े पर बैठ पीछा करता है लेकिन हवा की रफ्तार से ऊंट दौड़ाता ढोला कहां उसके हाथ आने वाला. ढोला कई और मुसीबतों का सामना करता है. यही उसकी साधना है. नरवर लौटकर वह मालवणी को भी मना लेता है. अंततः ढोला-मारू के साथ मालवाणी भी खुशी-खुशी रहने लगती है. राजस्थानी भाषा के नामी नाट्यकर्मी डॉ. अर्जुनदेव चारण ने दो स्त्रियों के बीच बंटी इस कथा को प्रेम की बजाय जीवन की समरसता और उसमें संतुलन बनाने की कथा माना है.
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Shirish Khare
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वाह खरे जी, बहुत ही उम्दा रचना है....मार्मिकता के साथ भावनाओं का संगम...अति सुन्दर...
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