आज कल हर कोई मध्यावधि चुनावों का बाजा बजा रहा है। हर हारा हुआ दल या नेता मध्यावधि चुनावों का बाजा आम चुनाव के तुरन्त बाद बजाने लग जाता है। चुनाव कब होंगे कोई नहीं जानता मगर हर दल मध्यावधि चुनावो का राग अलापता रहता है। चुनावों के लिए कमर कस कर तैयार नेता हार जीत की परवाह नहीं करता वो तो बस ये जानता है कि हो सकता है अगले आम चुनाव में उसकी लाटरी लग जाये। उत्तर प्रदेश में जीतते ही मुलायम सिंह ने दिल्ली में धावा बोलने के लिए मध्यावधि चुनावों के तबले पर थाप दी। ममता ने बंगाल से ही सुर मिलाया और दिल्ली में मध्यवधि चुनावी बाजा अपने सुर में बजने लगा। सत्ताधारी पक्ष जानता है कि इस बेसुरी सारंगी से संगीत नहीं बन सकता है ये तो बस शोर-गुल है, मगर सरकार के गठबंधन वाले दल इस मामले को हवा में देने में क्यों पीछे रहे। सरकारी सुविधाओं वाले सभी जानते है कि यदि चुनाव हुए तो लुटिया डूबते देर नहीं लगती।
अपनी डूबती नैय्या को बचाने के लिए इस बेसुरे आलाप को प्रलाप घोपित करना अनिवार्य है सो सरकारी भोंपू हर मंच पर इस मध्यावधि बाजे से ज्यादा तेज आवाज में चिल्ला चिल्ला कर इस दावे की हवा निकालने में लगे रहते हैं। सब जानते है यदि चुनाव हुए तो कई महावीर इस चुनावी महा भारत में खेत रहेंगे। कई नये महावीर आयेंगे और चुनावी अर्थ शास्त्र के मुताबिक अगले चुनाव के बाद मंहगाई इतनी बढ़ जायेगी कि कोई दल शायद चुनावों का नाम ही नहीं ले। एक-एक सीट पर दस से बीस करोड़ का खर्चा है श्रीमान। और जीतने की संभावना फिफ्टी फिफ्टी। याने कम से कम आधे उम्मीदवार तो दस-बीस करोड़ के नीचे आ जायेंगे। ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनावों का बाजा बजाने का मतलब लेकिन, राज नेताओं को कौन समझाये।
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अक्सर बता देते हैं कि मेरी कुर्सी पक्की है। मैं रिटायर होने वाला नहीं हँ देश हर छः महीने में चुनाव नहीं चाहता। कभी कभी जोश में वे यह भी कह देते है- मेरी सरकार बहुमत में है, अच्छा काम कर रही है। मध्यावधि चुनावों का सवाल ही नहीं उठता। जनता कृपया अफवाहों पर ध्यान नहीं दे। वैसे चलती सरकार को लत्ती मारने का आसान रास्ता है मध्यावधि चुनाव।
मध्यावधि बाजा राज्यों में भी बजता रहता है। जहाँ भी अल्पमत सरकार है वे बहुमत की आशा में मध्यावधि बाजा बजाते रहते है, मगर सब जानते है कि कोई नहीं जानता चुनाव का उॅट किस करवट बैठ जाये, क्यों रिस्क ले। कहीं आधि छोड़ पूरी को धावे और आधि भी हाथ से जावे।
वैसे होना तो ये चाहिये कि पूरे देश में एक साथ चुनाव हो जाये और कम से कम पांच वर्पो के लिए शान्ति से देश आगे बढ सके। लेकिन देश की परवाह किसे है सब अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग बजा रहे हैं। चुनाव हो या नहीं हो बाजे, ढोलक, सारंगी, हारमोनियम, तबले, ढपली और नवकारखाने में तूती बजती रहनी चाहिये। रंगले का चुनावी बाजा बजता रहे। क्योंकि सरकार की धोती खोलने का सबसे आसान रास्ता है मध्यावधि चुनाव का बाजा और ढपली।
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यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर - 2, फोन - 2670596
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