एक शख्सियत ...हसीब सोज़ : विजेंद्र शर्मा का आलेख

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हसीब सोज़ हमने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है तुमने कपड़ों ही को किरदार समझ रखा है एक शख्सियत ... हसीब सोज़ अपने...

हसीब सोज़

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हमने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है

तुमने कपड़ों ही को किरदार समझ रखा है

एक शख्सियत ...हसीब सोज़

अपने माज़ी से लेकर आज तक ग़ज़ल अपना तवील सफ़र बड़ी शान से तय करती आ रही है। सदियों पहले ग़ज़ल ने अपना सफ़र फ़क़ीरों की ख़ानकाहों से शुरू किया फिर वक़्त के साथ-साथ शाहों के दरबारों से गुज़रती हुई , महबूब की ज़ुल्फों में उलझती हुई शराबख़ानों में आकर ग़ज़ल अपनी राह भूल गई। साक़ी और शराब की भूल-भुलैया से बाहर निकलकर ये कुदरत के बनाए ख़ूबसूरत रास्तों पे चलने लगी इसी सफ़र के दौरान इसने कभी समन्दर में अपनी कश्ती उतारी ,कभी लहरों से टकराई तो कभी साहिल पे खड़ी वक़्त के तूफां का नज़ारा करती रही। अपने इसी सफ़र के दौरान ग़ज़ल ने परिंदों के साथ आसमान में परवाज़ भी की मगर वक़्त के सैयाद ने इसे आसमान में ज़ियादा देर नहीं रहने दिया। रिवायत की राह पर ग़ज़ल के साथ सफ़र में बहुत से शाइर हमसफ़र हुए और अपनी ज़िन्दगी का सफ़र मुकम्मल कर ग़ज़ल का साथ छोड़ गये मगर ग़ज़ल ने आज तक उनका साथ नहीं छोड़ा। सत्तर के दशक के आख़िर में कुछ शाइरों को ग़ज़ल का रिवायत की पगडण्डी पे सफ़र अच्छा नहीं लगा और ग़ज़ल भी एक अरसे से एक ही सड़क पर चल - चल के उकता गई थी। जिन शउरा ने उस वक़्त तहज़ीब की हद में रवायत से बगावत कर ग़ज़ल को ख़्वाब के आसमान से उतार रोज़-मर्रा के मसाइल और हक़ीक़त के रास्तों का सफ़र करवाया उनमे से एक अहम् नाम है हसीब सोज़

हसीब सोज़ साहब का जन्म 5 मार्च 1952 को अलापुर (बदायूं ) में बाबू मियाँ के यहाँ हुआ। इनके वालिद मिठाई के बड़े कारोबारी थे सो घर में शाइरी का माहौल नहीं था और हसीब सोज़ साहब को भी मिठाई के कारोबार से कोई लगाव नहीं था। इनकी शुरूआती पढ़ाई अलापुर में हुई उसके बाद इन्होंने बदायूं से इंटर ,बरेली रूहेलखंड यूनिवर्सिटी से बी.ए. और आगरा यूनिवर्सिटी से एम्.ए. उर्दू में किया।

हसीब साहब को स्कूल और कॉलेज के दिनों से ही फ़िल्मी गीतों का बड़ा शौक़ था उस ज़माने में फ़िल्मी गीतों और ग़ज़लों का मेयार भी अर्श छूता था जो बदकिस्मती से आजकल फ़र्श छूने की फ़िराक़ में ही रहता है। कैफ़ी आज़मी, जाँ निसार अख्तर , शकील बदायूनी ,साहिर लुधियानवी ,नीरज और मज़रूह सुल्तानपुरी के गीत और गज़लें हसीब साहब अपनी डायरी में उतार लिया करते थे। हसीब साहब के इसी शौक़ की वजह से ऐसी कैफ़ीयत बनी कि उनकी रूह में छिपा शाइर बाहर झाँकने लगा। वे अपने इन्तिख़ाब के साथ - साथ दोस्तों को अपने कहे मिसरे भी सुनाने लगे। उन्होंने अपने अदबी सफ़र का आग़ाज़ इस मतले और शे'र से किया :--

तुम क्या जुदा हुए के मुक़द्दर बिगड़ गया

गोया चमन बहार से पहले उजड़ गया

देखा था एक ख़्वाब मगर आँख खुल गयी

एक नक़्शे आरज़ू था जो बन के बिगड़ गया

एक दिन अलापुर के ही मज़ाहिया शाइर मरहूम क़ाजी जलालुद्दीन ने इनका क़लाम सुना और कहा कि हसीब मियाँ आप कमाल का कहते है बस मिसरे थोड़े खुरदरे है अगर तराश दियें जाएँ तो शे'र कमाल के हो सकते हैं। हसीब सोज़ ने क़ाजी जलालुद्दीन साहब को अपना उस्ताद बना लिया और उनसे इस्लाह लेने लगे। हसीब सोज़ एक उम्दा शागिर्द साबित हुए और जब एक मज़ाहिया उस्ताद के शागिर्द ने शे'र कहे तो इस क़दर संजीदा कहे :----

मैं तो गुबार था जो हवाओं में बंट गया

तूं तो मगर पहाड़ था तूं कैसे हट गया

सेनापति तो आज भी महफूज़ है मगर

लश्कर ही बेवक़ूफ़ था जो शह पे कट गया

दामन की सिलवटों पे बड़ा नाज़ है हमे

घर से निकल रहे थे के बच्चा लिपट गया

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इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई

काग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई

फिर पूरे तीस दिन की रियायत मिली उसे

फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई

दिल ने मुझे मुआफ अभी तक नहीं किया

दुनिया की राय दूसरे दिन ही बदल गई

शाइरी की रेल में हसीब साहब 1972 में बैठे मगर मुशायरे का जंक्शन बीस साल के तवील सफ़र के बाद आया उन्होंने अपना पहला मुशायरा दिसम्बर 1992 में इटावा में पढ़ा। जब उस मुशायरे में हसीब साहब ने ये शे'र पढ़े तो मुशायरे को भी एकबार लगा कि इस दर्जा मेयारी शे'र कहने वाला सुख़नवर पहले कहाँ था!

ख़ुद को इतना जो हवादार समझ रखा है

क्या हमे रेत की दीवार समझ रखा है

हमने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है

तुमने कपड़ों ही को किरदार समझ रखा है

तू किसी दिन कहीं बे-मौत न मारा जाये

तू ने यारों को मददगार समझ रखा है

मुशायरों की दुनिया में आने से पहले हसीब सोज़ साहब बहुत से रसाइल में छपते रहे। मुशायरे हसीब साहब को ज़ियादा रास भी नहीं आये इसकी एक वजह ये भी रही की मुशायरों में तालियों के लिए कुछ शाइर तो किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। जहाँ किसी ज़माने में मुशायरे के मंच पे शाइरों के बीच एक-आध मुता शाइर (नौ-सीखिए )होता था वहाँ आज उन्हीं का कब्जा हो गया है। मुशायरों के इस हाल के लिए हसीब सोज़ अदब के कुछ बड़े माफ़ियाओं को भी ज़िम्मेदार मानते हैं! हसीब सोज़ ने कभी तालियों और वाहा - वाही की चाह में अपनी शाइरी की तस्वीर को मज़हबी फ्रेम में नहीं जड़ा उन्होंने सीधे - सीधे ज़िन्दगी बेच कर ज़िन्दगी खरीदी और अवाम के दुःख -दर्द को अपनी ग़ज़ल बनाया :---

कोई तो बात है बाक़ी ग़रीबखानों में

वगरना ज़िल्ले-इलाही और इन मकानों में

मुहाजिरों को पता है अजाब ऐ दरबदरी

हयात काटनी पड़ती है शामियानों में

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दवा का काम किया एक ज़रा सी दौलत ने

जो लोग उठ नहीं सकते थे सर उठाने लगे

तूं इस फ़क़ीर को इतना नवाज़ दे मौला

के मेरा बच्चा मेरे सामने कमाने लगे

ज़ुबान वही फलती -फूलती है जो दूसरी ज़ुबान के लफ़्ज़ों को भी अपने अन्दर इस क़दर समो ले कि वो लफ़्ज़ भी फिर उसी ज़ुबान का लगने लगे। एक ज़माने में बशीर बद्र ने अंग्रेज़ी के पुलोवर लफ़्ज़ को अपनी शाइरी में इस्तेमाल किया और फिर उसके बाद पुलोवर लफ़्ज़ उर्दू ज़ुबान का लफ़्ज़ लगने लगा। ये कमाल भी शाइर का ही होता है कि वो दूसरी ज़ुबान के आम-बोलचाल के लफ़्ज़ को बरतता कैसे है हसीब सोज़ ने भी अपनी एक ग़ज़ल में कुछ अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल इतनी ख़ूबसूरती से किया कि उस ग़ज़ल का हिस्सा बनने के बाद अंग्रेज़ी लफ़्ज़ यूँ लगने लगे जैसे उनका उर्दू से कोई पुराना रिश्ता रहा हो।उसी ग़ज़ल का मतला और दो शे'र मुलाहिज़ा हो :---

हमारे दोस्तों में कोई दुश्मन हो भी सकता है

ये अंग्रेज़ी दवाएं हैं रिएक्शन हो भी सकता है

किसी माथे पे हरदम एक ही लेबल नहीं रहता

भिखारी चंद हफ़्तों में महाजन हो भी सकता है

मेरे बच्चों कहाँ तक बाप के काँधे पे बैठोगे

किसी दिन फेल इस गाड़ी का इंजन हो भी सकता है

जिस तरह बुनियाद का पत्थर पूरी इमारत का बोझ अपने कांधों पे ले लेता है और किसी से इस बोझ का ज़िक्र तक नहीं करता ठीक उसी तरह हसीब सोज़ बड़ी तन्मयता और ख़ामोशी के साथ 1982 से मुसलसल अदब की ख़िदमत "लम्हा -लम्हा " रिसाला निकाल के कर रहें हैं वे इसकी कामयाबी का कहीं ढोल भी नहीं पीटते। जिन - जिन मुशायरों में हसीब सोज़ शिरकत करतें है वहाँ अपनी ज़मीनी और सच्ची शाइरी की छाप सामईन के दिल में ज़रूर छोड़ के आते हैं। काग़ज़ पे भी इनका क़लाम अपना वक़ार क़ायम रखता है। हसीब सोज़ ख़ुद छपने के मुआमले में थोड़े सुस्त रहे उनका मज़्मुआ-ए-क़लाम " बरसों बाद" इनके शाइरी शुरू करने के बरसों बाद 2009 में मंज़रे- आम पे आया।

हसीब सोज़ एज़ाज़ात और इनामात को जोड़-तोड़ का खेल मानते हैं उनकी नज़र में सबसे बड़ा एज़ाज़ वो है जो लोग उनके क़लाम को सुनकर उन्हें अपनी दुआओं से नवाज़ते हैं। वे आम आदमी की अकादमी से मिलने वाले इस इनआम को अदबी तंजीमों के एज़ाज़ से बड़ा मानतें हैं।

हसीब सोज़ की शाइरी में ग़ज़ल महबूब से गुफ़्तगू नहीं करती और ना ही वो तसव्वुर के पर लगा ख़्वाबों के आसमान में परवाज़ करती है। हसीब सोज़ अपनी ग़ज़ल को महलों के झूठे ख़्वाब भी नहीं दिखाते , वे ग़ज़ल को नंगें पाँव टेढ़े-मेढ़े रास्तों से उन छप्परों में ले जातें है जहाँ हक़ीक़त में ज़िन्दगी रहती है।

अवाम आज भी कच्चे घरों में रहते हैं

वो मर गये हैं मगर मक़बरों में रहते हैं

कमाल ये नहीं शीशे के हैं बदन अपने

कमाल ये है कि हम पत्थरों में रहते हैं

वो ढोल पीट रहा है बहुत तरक्क़ी के

उसे बताओ कि हम छप्परों में रहते हैं

हसीब सोज़ टूटे हुए शीशे को भी रफ़ू करना जानते हैं। जिन लफ़्ज़ों के साथ शाइरी में सौतेला बर्ताव किया जाता है उन लफ़्ज़ों को अपने तख़लीकी हुनर से जब हसीब सोज़ मिसरों की माला में पिरोतें है तो वो बेजान से अल्फ़ाज़ मोती की तरह चमकने लगते हैं। मिसाल के तौर पे ये ख़ूबसूरत माला और उस के मोती :--

अब और कितना तेरे घर का एहतराम करूँ

तुझे करूँ,तेरे बच्चों को भी सलाम करूँ

जिसे मैं चाय पिलाऊं उसी को ज़हर भी दूँ

अब एक हाथ से कैसे ये दोनों काम करूँ

****

यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है

हसीब साहब की शाइरी में ज़ुल्फ़, साक़ी, पैमाना ,चाँद ,सितारे , जुगनू कहीं नज़र नहीं आते और ना ही उनकी शाइरी में कोई तितली किसी गुल से लिपटी नज़र आती है। इसकी वजह ये है कि हसीब सोज़ ना तो बन्द आँखों से ख़्वाब देखते हैं और ना ही वे कभी कल्पना के घोड़े पे सवारी करते हैं। जैसी ज़िन्दगी वे जीते हैं ,जैसा महसूस करते हैं , जैसा अपने इर्द-गिर्द देखते हैं बस उसी सच के मफ़हूम को हक़ीक़त के लफ़्ज़ों के ज़रिये काग़ज़ पर उकेर देते हैं। हसीब सोज़ की शाइरी देखने में खुरदरी ज़रूर लगती है मगर जब उसे महसूस किया जाता है तो आम आदमी को वो अपनी आपबीती सी लगती है।

भीड़ को हाल सुनाने की हिमाकत करो

रेत का ढ़ेर वफ़ादार नहीं हो सकता

मैंने खूँ बेच के बच्चों को किताबें दी है

ये निशाना मेरा बेकार नहीं हो सकता

नंगे जिस्मों की नुमाइश भी मुबारक हो तुम्हे

हम ग़रीबों में ये त्यौहार नहीं हो सकता

समाज में आम आदमी के जितने भी मसाइल हैं उन सब से ग़ज़ल के पहलू निकाले जा सकते हैं मगर अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ती हुई खाई को हसीब साहब ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है और अमीरी -ग़रीबी के बीच बढ़ती हुई ये दरार उनकी शाइरी में साफ़ देखी जा सकती है :--

ग़रीबी में तो दो दिन भी बड़ी मुश्किल से कटते हैं

अमीरी चाहती है उम्र दो सौ साल हो जाए

ज़रूरत दिन निकलते ही निकल पड़ती है डयूटी पर

बदन हर शाम ये कहता है अब हड़ताल हो जाए

***

गाँव में जब तक रहा फूलों सा था मेरा मिज़ाज

मैं तुम्हारे शहर में आया तो पत्थर हो गया

तुम बड़े लोगों में रहकर भी फ़क़त क़तरा रहे

मैं ग़रीबों में रहा लेकिन समन्दर हो गया

हसीब सोज़ के अन्दर भी एक बच्चा है जो आज भी अपने माज़ी को याद कर खिलौने के लिए मचलने लगता है। मुफलिस तमाम उम्र खिलौनों के मोल-भाव में ही गुज़ार देता है उसके इस दर्द को भी हसीब सोज़ शाइरी बनाते हैं। इन्सान अपने बच्चों के ख़्वाब पूरे करने के लिए अपने आप को अधूरा छोड़ देता है, हसीब सोज़ आम आदमी की ज़िन्दगी से जुड़े इस तरह के संवेदनाओं से सराबोर मफहूम से भी शे'र निकालते हैं तभी तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि हसीब सोज़ ज़मीन से जुड़े आम आदमी के लिए शाइरी करते हैं खवास के लिए नहीं।

ग़रीब बच्चों की ज़िद भी न कर सका पूरी

तमाम उम्र खिलौनों के भाव करता रहा

****

वो मेरे बच्चों का नंगे पैर फिरना शहर भर में

और मेरा महसूस ये करना कि सड़कें जल रहीं हैं

****

ये ख़्वाब था मेरे बच्चों के ख़्वाब पूरे हों

सो अपने आपको मैंने अधूरा छोड़ दिया

नई नस्ल को हसीब सोज़ ऐसी शाइरी करने का मशविरा देते हैं जिस से माशरे का भला हो। हसीब साहब नई पीढ़ी को लोगों के जज़्बात को भड़का कर तालियाँ और शुहरत बटोरने के धंधे से कोसों दूर रहने की सलाह भी देते हैं।

हसीब सोज़ मानते हैं कि शाइर हिन्दू- मुसलमान हो सकता है मगर शाइरी का कोई मज़हब नहीं होता ,शाइरी तो वो होती है जिसे कान सुने और दिल महसूस करे।

हसीब सोज़ की शाइरी अपनी ही अदालत में अपने ज़मीर से जिरह करती नज़र आती है। हसीब सोज़ के बागियाना तेवर से रवायत नाराज़ नहीं होती बल्कि उनके इस तेवर को रवायत भी सलाम करती है। सच बयान करने के जुनून में हसीब सोज़ उस सिम्त चले जाते हैं जिस सिम्त लोग जाना तो दूर जाने का सोचते भी नहीं है। जहाँ आज हर कोई लिबास को तरजीह देता है वहाँ हसीब सोज़ की नज़र सिर्फ़ आदमी के किरदार पे रहती है। हसीब सोज़ शुहरत , नाम , और चन्द सिक्कों की खनखनाहट के लिए अपने ज़मीर की आवाज़ को घुटने नहीं देते यही उनकी शख्सीयत की सबसे बड़ी ख़ासियत है और यही उसूल उनकी शाइरी की शिनाख्त भी है।

आख़िर में इसी दुआ के साथ कि अदब का ये सच्चा सिपाही ग़ज़ल की हिफ़ाज़त इसी तरह अपनी बे-बाकी, साफ़गोई और इमानदारी के साथ करता रहे।...........आमीन।

पाँव में बाँध ली ज़ंजीर ख़ुशी से लेकिन

ताज रखने के लिए सर न झुकाया मैंने

अब तो क़तरे भी समझने लगे ख़ुद को दरिया

मैं समंदर था किसी को न बताया मैंने

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

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रचनाकार: एक शख्सियत ...हसीब सोज़ : विजेंद्र शर्मा का आलेख
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