1․बादल
रोज निहारूँ नभ में तुझको,
काले बादल भैया।
गरमी से सब प्राणी व्याकुल,
रँभा रही घर गैया॥
पारे जैसा गिरे रोज ही,
भू के अन्दर पानी।
तल-तलैया पोखर सूखे,
बता रही थी नानी॥
तापमान छू रहा आसमां,
प्राणी व्याकुल भू के।
बिजली खेले आँख मिचोली,
झुलस रहे तन लू से॥
जल का दोहन बढ़ा नित्य है,
कूँए सूख गए हैं।
तुम भी छुपकर बैठे बादल,
लगता रूठ गए हैं॥
गुस्सा त्यागो, कहना मानो,
नभ में अब छा जाओ।
प्यासी नदियाँ भरें लबालव,
इतना जल बरसाओ॥
छप-छप, छप-छप बच्चे नाचें,
अगर मेह बरसायें।
हर प्राणी का मन हुलसेगा,
देंगे तुम्हें दुआयें॥
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(2) धूप
जाने कब घुसती खिड़की से,
कमरे में ये प्यारी धूप।
सुबह को मीठी आती नींद।
मुझे बहुत ही भाती नींद॥
सोती रहती, सोती रहती,
मुँह को चूमे न्यारी धूप।
देख रही में अपना पिटना।
समझ रही मैं देखूँ सपना॥
पीट रही माँ कहती अब उठ,
लगी लौटने सारी धूप।
जाड़े में लगती है प्यारी।
धूप सेकना है हितकारी॥
पर सरदी में ये हो जाती,
बहुत बड़ी नखरारी धूप।
मन को कभी सुहाती धूप।
तन को कभी जलाती धूप॥
बिना कहे संध्या को जाती,
ऐसी है बजमारी धूप।
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सन्तोश कुमार सिंह
कवि एवं बाल साहित्यकार
मथुरा।
मोबाइल 9456882131
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