रमाशंकर शुक्ल की कहानी - कालेज का गणतंत्र

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कालेज का गणतंत्र डा 0 रमाशंकर शुक्‍ल लंबे भटकाव के बाद ऊपर वाले ने आखिरकार सुन ही लिया। अपने जिले में नौकरी लगी वह भी घर से महज पांच क...

कालेज का गणतंत्र
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डा0 रमाशंकर शुक्‍ल
लंबे भटकाव के बाद ऊपर वाले ने आखिरकार सुन ही लिया। अपने जिले में नौकरी लगी वह भी घर से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर। अखबारी जिन्‍दगी के बाद पहली बार जाना कि एक टीचर होना कितने जन्‍मों के पुण्‍य का फल होता है। 36 दिन ज्‍वाइन किये हुआ पर कक्षा दस दिन भी न चली। मौज ही मौज। इतनी छुट्‌टी कि बेरोजगारी का अहसास होने लगा। दिक्‍कत थी तो केवल इतनी कि नये होने के कारण कोई घास न डालता था। सीनियर तो सीनियर, चपरासी भी भाव न देते। हम चार जन इसी कोटि के थे। किसी दूसरे लोक के प्राणी की तरह खुद को महसूस करते हुए। अभी हमें विद्यालय की सेवा लेने संबंधी सुविधाएं मिलनी शुरू न हुई थीं। पानी पीना है तो खुद हैंडपंप से पानी खींच लाओ। बैठना है तो कक्षा से खुद कुर्सियां निकाल लो। सीनियर आ गये तो उनको जगह देकर अपने लिए दूसरी उठा लाओ। सीनियरों से दूर बैठो। उनके आने पर नमस्‍ते नहीं, पैर छूओ। अदब रखो। जोर से न हंसो। वगैरह-वगैरह। आला हाकिम ने कुछ सलीके खुद बताये थे और कुछ हमने डर के मारे जोड़ लिए थे। इसलिए हम दूर किसी कोने में अपनी जगह खोज लेते और कनफुंकवा वार्ता में समय बिताते रहते।

आज छब्‍बीस जनवरी थी, इसलिए सभी शिक्षकों और कर्मियों की उपस्‍थिति अनिवार्य थी। कई चेहरे हमारे सामने एकदम नये थे। पता चला कि ये इसी विद्यालय के शिक्षक हैं। हम चौंके, जब यही के हैं तो कभी दिखे क्‍यों नहीं! मालूम हुआ कि जनाब लोग कभी-कभार आते हैं और महीने भर का हस्‍ताक्षर मार कर चले जाते हैं। प्रिंसिपल साहब इन्‍हें गरिया कर प्रशासनिक व्‍यवस्‍था दुरुस्‍त रखते हैं। किसकी हिम्‍मत कि इस विषय में कुछ पूछें। यदि कभी किसी ने दाएं-बाएं पूछने का साहस किया तो साहब ने समझा दिया- ‘आप भी उन लोगों की तरह कुत्‍ते बनना चाहते हैं? नहीं आते हैं तो गाली कितनी खाते हैं, यह भी पता है आपको?'
लंबे समय से प्रताडि़त एक अध्‍यापक ने बताया, ‘मियां, हाकिमे आला गाली देकर ही गदगद रहते हैं। अब आपै बताओ कि गाली भी किसी कार्रवाई में आती है? अच्‍छा, गालियै दे रहे हैं तो जरा उनके सामने देकर देखो।'

‘क्‍या मतलब?' मैंने उत्‍सुकता में पूछा।
‘आप नहीं जानते हो, ई जो मास्‍टर लोग कभी-कभार आते हैं, बड़े ताकतवर हैं। न्‍ न, नहीं। ताकतवर न कहो, खोइहट हैं। पढ़ाने के अलावा वे सब कर सकते हैं। कहो भाषण दें, पत्रकारिता करें, नेतागिरी करें, भांग खाएं, दारू पियें, बिजनेश करें, गाड़ी चलवाएं, खेती करायें। बल्‍कि यही सब तो दिन-रात करते रहते हैं। अब उनकी ऐसे-ऐसे लोगों तक पहुंच है कि ये गरियाने वाले हाकिमे आला को दो दिन में धूल चटा दें।'
मन में बड़ी तसल्‍ली हुई कि चलो इस शेर महाशय पर कोई सवा शेर तो है इस कालेज में। दरअसल पीडि़त व्‍यक्‍ति प्रताड़क के प्रताड़क की कामना कुछ वैसे ही करता है, जैसे मथुरा के लोग कृष्‍ण की कर रहे थे। हालांकि हमें इन प्रपीड़कों से कोई डायरेक्‍ट फायदा न था, लेकिन चूंकि वे हाकिमे आला के प्रताड़क थे, इसलिए उनके प्रति स्‍वाभाविक लगाव-सा हो गया।

हाकिमे आला को ऊपर वाले ने कई सौगातें एक साथ बख्‍शी थीं। भारी डील-डौल और लंबी काया। पूरे शरीर पर जैसे काले पेंट की ब्रश मार दी गयी हो। तिस पर माता माई का कोप। पूरा चेहरा छोटी बिन्‍दियों के बराबर गड्‌ढों से अंटा पड़ा था। बायीं आख पत्‍थर की, वह भी नन्‍हीं सी। कुल मिलाकर हाथी की तरह। बड़ा शरीर, छोटी आंखें।

दो आंख रहने पर तो आदमी पूरी तरह से देख ही नहीं पाता। एक आंख कितनी रोशनी फेंकेगी? सो इस आंख ने हाकिमे आला को कई बार छकाया था। बताते हैं कि परीक्षा के दरम्‍यान जब छात्र-छात्राओं की भीड़ जमजमा जाती और कमरा व नंबर जांचने के लिए उनके अभिभावक भी पिले पड़े रहते तो हाकिमे आला का दिमाग बउरा जाता। वे गजराज की मानिंद अपने चेंबर से निकलते और दनादन गालियों के फब्‍वारे फेंकते भीड़ में कुछ ऐसे लाठी भांजने लगते, जैसे भरत मिलाप के लाग निकलने के पहले पहलवानों का जत्‍था भीड़ को हटाने के लिए भाला, बरछा, गड़ांसा लेकर भांजता है। हाकिमे आला की मंशा इसके पीछे कोई बुरी न होती थी, किन्‍तु भीड़ देखते ही उनका बउरा जाना आदत बन चुकी थी। इस दरम्‍यान छात्र-छात्रा तो गाली या लाठी की चोट पाते ही थे, उनके अभिभावक भी दो-चार प्रसाद पा जाते। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि वे परीक्षा में ड्‌यूटी करने आये कम उम्र के दूसरे कालेजों के शिक्षकों को भी छात्र ही समझ बैठे और दो-चार थप्‍पड़ रसीद कर दिये। बाद में पता चलने पर मोम की तरह दिल पसींज गया। ऐसे में उनके अफसोस का तरीका नायाब होता। वे संबंधित को बुलाते और पुचकारते हुए कहते, ‘अरे पगला, बताये नहीं कि तुम मास्‍टर हो। लड़के स्‍साले इतनी भीड़ लगा देते हैं कि दिमाग खराब हो जाता है। उन्‍हें नियंत्रित करने के लिए कोई चारा भी तो न था।․․․․․․․․․․․․बुरा मत मानना बेटा, हम तुम्‍हारे बाप जैसे हैं। समझो कि तुम्‍हारे बाबू ने ही तुम्‍हें दो-चार थप्‍पड़ दे दिया है।'
ऐसे में कोई कहेगा ही क्‍या! वह भी इज्‍जत बचाने की गरज से कहता, ‘कोई बात नहीं। ऐसा कभी-कभी हो जाया करता है।'

इस तरह की घटनाएं तब ज्‍यादा हो जाया करतीं, जब किसी डिग्री कालेज या विश्‍वविद्यालय के बीएड के छात्र टीचिंग प्रैक्‍टिकल के लिए आते।
बहरहाल, गणतंत्र दिवस की सारी तैयारी हो चुकी थी। ठीक दस बजे राष्‍ट्रध्‍वज फहराया जाना था। सरकारी और सहायता प्राप्‍त विद्यालयों की दशा पूरे प्रदेश में एक जैसी। आम तौर पर यहां वे ही छात्र आते हैं जो अधिक फीस चुकाने में अक्षम हैं। यानी अति निम्‍न वर्ग के। सत्‍तर फीसदी छात्रों के पास ड्रेस नहीं तो 20 फीसदी हाफ ड्रेस में। दस प्रतिशत ही बमुश्‍किल ड्रेस में आये थे। इससे साफ नहीं हो पा रहा था कि कौन यहां का छात्र है और कौन नहीं।

हम लोग इतनी भीड़ देखकर भौचक थे। अभी तक तो यही पाया था कि रोजाना सौ-पचास लड़के आते और इंटरवल के पहले ही गायब हो जाते। दूसरी पाली में तो छात्रों का पूत भी नजर न आता। हमें लगता कि इस कालेज में छात्रों की संख्‍या काफी कम है। लेकिन आज हजार से कम छात्र न थे। आखिर ये आये कहां से? यदि सभी अपने ही कालेज के हैं तो इतने दिन से पढ़ने क्‍यों नहीं आ रहे थे! आते कैसे रोज तो मिठाई मिलती कहां है। छब्‍बीस जनवरी को मिलेगी तो क्‍यों नहीं आयेंगे। आखिर प्रति छात्र 15 रुपये फीस के साथ वसूला भी तो गया है।

तब जाकर माजरा समझ में आया कि हाकिमे आला भीड़ देखते ही क्‍यों बउरा जाते हैं। आखिर जब कालेज आम तौर पर सुनसान रहता हो तो किसी को बहोरने की आदत बनेगी नहीं। किसी दिन अचानक हजार-बारह सौ लोग जमा हो जायें तो शांत वातावरण में चैन की वंशी बजाने वाले आदमी का दिमाग बउरा जायेगा ही। देखते नहीं, गांव-घर में कोई काज-प्रयोजन पड़ता है तो भीड़ देखकर दुवार पर बंधे तक मवेशी डिस्‍को डांस करने लगते हैं। कभी-कभी तो खूंटा-पगहा तुड़ाकर कुलांचे भरने लगते हैं। किसी को अपनी सींग से एक-दो बार हूंक भी देते हैं। तो हाकिमे आला ऐसा करते हैं तो क्‍या बुरा।

कालेज परिसर छात्रों से खचाखच भर गया। हाकिमे आला और उनके तीन खास शागिर्द इस भीड़ से बेचैनी की पराकाष्‍ठा तक परेशान।

हम सब एक कोने बैठकर कनफुंकवा कर रहे थे कि भीड़ के एक हिस्‍से में भगदड़ सी दिखी। भद्‌दी-भद्‌दी गालियों के साथ कुछ लड़के हाकिमे आला को घेर लिये हैं। कोई उनकी आंख को लक्ष्‍य कर ‘कनवा' पुकार रहा है तो कोई चेचक के दाग को देख ‘छप्‍पन टिकुलिया' की फब्‍तियां कस रहा है। कोई पीछे से उकसा देता-‘मार स्‍साले को'। छात्रों का रेला उधर ही गोलियाने लगा। कालेज के शेष शिक्षक धीरे-धीरे उठकर दहिने-बाएं फूट लिये। कोई कुछ बोल नहीं रहा। हाकिमे आला पर छात्रों का दबाव बढ़ता जा रहा है। इतनी भीड़ में हाकिमे आला हेरा गये। हां, गालियों का ज्‍वार रह-रह कर उठता और शांत हो जाता।

आखिर क्‍या माजरा है, मैं भी तो देखूं। दौड़ कर भीड़ में घुस गया। देखता क्‍या हूं कि गजराज हाकिमे आला को करीब दस लड़के घेरे गरिया रहे हैं। मारने की धमकी भी दे रहे हैं और हाकिमे आला पसोपेश में। न निकल पा रहे हैं न उनका बाल ही बांका कर रहे हैं। मेरा दिमाग सनसनाया। भीतर से एक आवाज आयी, ऐ बंदे, ये तेरा आला हाकिम है। यदि बेज्‍जत हो गया तो तेरी इज्‍जत कहां रह जायेगी? लग जा बेटा।'
सरक कर हाकिमे आला के पास पहुंचा और हिम्‍मत जुटा कर पूछा, ‘क्‍या हुआ साब्‌? ये लोग क्‍यों आपको घेरे हैं?'

तिनके का सहारा मिला, ‘द्‌ द्‌ देख रहे हो। ये बाहरी लोग जबर्दस्‍ती घुस आये हैं और․․․․․․․․․․'।
अभी बात पूरी भी न हुई कि एक तेज गाली धांय से आकर फिर हाकिमे आला की आंख पर लगी। मेरा तिलमिलाना स्‍वाभाविक था। मजमा देख रहे छात्रों को ललकारा, ‘हिजड़ों की तरह अपने प्रिंसिपल को गाली सुनते देख रहे हो, मार कर हरामखोरों को भगा नहीं सकते?'

मजमेबाज छात्रों में हलचल हुई। बात का असर देख मैंने एक शोहदे को तमाचा रशीद कर दिया। अब तक दुबकते नजर आ रहे हाकिमे आला को भी जाने कहां से तो जोश आ गया, उन्‍होंने भी भी दूसरे शोहदे का गला पकड़ा और तीसरे की जुल्‍फी। शेष आंख तो दिखा रहे थे, किन्‍तु प्रतिकार की हिम्‍मत न थी। छात्रों का दबाव बढ़ता जा रहा था और मैं हीरो की तरह लपक-लपक कर शोहदों की धुनाई करता जा रहा था। इसका असर एक और नवनियुक्‍त तथा एक पुराने शिक्षक पर पड़ा। वे भी हमारे साथ आ लगे। हम योद्धा थे और छात्र हमारे सैनिक। सैनिकों के न हाथ उठते थे और न मुंह से आवाज निकलती थी। साहस की इस जबर्दस्‍त कमी का शायद कारण उनका घरेलू परिवेश और जन्‍मजात हीन भावना थी।

पीटते-पाटते हम मुख्‍य द्वार पहुंचे ही थे कि एक शोहदे ने मेरी कुछ खूंखार आंख और दाढ़ी को लक्ष्‍य कर कहा, ‘इसी दढि़यलवा के कारण सब हुआ है। और अब इसे हम मजा चखाएंगे'।
उसने कमर में हाथ घुसा कर कुछ निकालने जैसा किया ही था कि मैंने भी पाकेट में हाथ डाल लिया। शोहदो को लगा कि रिवाल्‍वर निकाल रहा हूं। वे सभी इतनी तेजी से देखने की धमकी देते भागे कि हम कुछ समझ न पाये।

बला टल गयी। हमने छात्रों को वापस कालेज में भेजा। ताजा-ताजा पौरुष उन लोगों ने देखा था, सो बाअदब कैंपस में लौट गये। मैं भी अपने कालेज में पहले पराक्रम से मुग्‍ध होकर तना खड़ा था। लेकिन गजराज के पैरों के नीचे की जमीन हिलती नजर आ रही थी। हकलाते हुए बोले, ‘ब्‌ बेटा, देखना। वे स्‍स्‍साले अभी लौटेंगे।'
मैंने उन्‍हें कुछ इस अंदाज मे आश्‍वस्‍त किया जैसे राम ने विश्‍वामित्र को किया था, ‘कोई बात नहीं। मेरे रहते आपका बाल भी बांका नहीं होगा।' और मोबाइल से तुरंत शहर कोतवाल के साथ ही सीओ सिटी को फोन किया। बताया कि कुछ शोहदे राष्‍ट्रीय पर्व में उत्‍पात मचा रहे हैं और झंडा फाड़ने की कोशिश किये हैं।
सूचना देकर हम लौट गये। पुलिस के आने में शंसय था। सो अपने से सावधान रहने का सारा बंदोबस्‍त कर लिया गया।

कालेज की बनावट जेल से भी अधिक सुरक्षित है। काहे कि जब-जब कोई जनांदोलन होता है तो जिला प्रशासन जेल के रूप में इसी कालेज का चयन करता है। जेल की ही तरह सबसे पहले एक मुख्‍य चहारदीवारी और वैसा ही बड़ा गेट है। वहां से सौ मीटर अंदर दूसरी चहारदीवारी और अपेक्षाकृत छोटा गेट। उसके अंदर एक गोलचक्‍कर चहारदीवारी, जिसके भीतर मां सरस्‍वती झाड़-झंखाड़ से जाम पौधों के बीच फंसी हुई।
हाकिमे आला और साथी शिक्षकों ने एहतियात बरतते हुए मुख्‍य द्वार समेत दूसरा द्वार भी बंद करा दिया। ध्‍वजोत्‍तोलन की प्रक्रिया शुरू हो गयी। तालियां बजीं और स्‍काउट के छात्रों ने ‘भारत माता की जय के नारे लगाये ही थे कि मुख्‍य द्वार भड़भड़ाने लगा। द्वितीय द्वार के सुराख से देखा गया तो मालूम हुआ कि पुलिस आ गयी है। और कोई दिन होता तो शायद ही पुलिस का कोई नुमाइंदा नजर आता, लेकिन गणतंत्र दिवस के नाते दस मिनट के भीतर ही एक जीप भर इंस्‍पेक्‍टर के नेतृत्‍व में पुलिस आ धमकी।

हाकिमे आला हड़बड़ा गये। हकलाते हुए मुझसे बोले, ‘जाओ देखो। तुम्‍ही ने बुलाया है। संभाल लो बेटा।'
पहली बार जनाब ने हमसे ठिकाने से बात की थी। वरना धमकी से बात शुरू होती और बेवजह की मौखिक चेतावनियों पर खत्‍म हो जाती। हर दिन अज्ञात संशय लेकर विद्यालय जाते और कोई न कोई मसोस लेकर घर लौटते। पहली बार लगा कि कुछ हूं। मेरा कोई वजूद है। पहली बार इस आदमी ने पहचाना है। फिर भी क्षोभ कायम रहा। लगा कि मेरी योग्‍यता का यहां किसी को कोई लेना-देना नहीं, गुंडई का जबर्दस्‍त सम्‍मान। शिक्षण संस्‍थान की यह कैसी पहचान? मैं ससम्‍मान पुलिस वालों को ले आया। इंस्‍पेक्‍टर ने मिलते ही ढेरों सवाल दागने शुरू कर दिये। दूसरे गेट से भीतर घुसते ही फिर से ताला लगवा दिया। मालूम हुआ कि आतंकी हमला होने वाला हो। सामने हाकिमे आला कुछ दुबकते से दिखे। मैंने लपककर परिचय कराया, ‘आप हैं हमारे प्रिंसिपल साहब। और सर, आप हैं शहर कोतवाल।'

हाकिमे आला ने हाथ जोड़े ही थे कि इंस्‍पेक्‍टर ने हाथ बढ़ा दिया। तब हमारे साब्‌ को याद आया कि हाथ मिलाना चाहिए। इससे उनके चेहरे पर थोड़ी तसल्‍ली उभरी।

छात्र भी सकते में थे। इतने साल से कालेज में पढ़ रहे हैं। पहली बार पुलिस के साये में कार्यक्रम होने जा रहा है। इंस्‍पेक्‍टर ने हाकिमे आला से कहा, ‘हमें विलंब होगा। ऐसा कीजिए कि मिठाई बंटवा दीजिए। आर्यक्रम-कार्यक्रम छोडि़ए।'

हाकिमे आला ने उसी हकलाहट में कहा, ‘हां, हां। छोडि़ये कार्यक्रम-फार्यक्रम फिर कभी हो जायेगा। पहले जो विपत्‍ति आयी है, उसे निबटाया जाये।'

शिक्षकों को मिठाई बंटवाने का हंकवा किया। चपरासियों के पंख लग गये। पीटी मास्‍टर की सिटी बजी। लड़के कतार में लग गये। चोर दरवाजे तक लाइन लगा दी गयी। वही मिठाई का टोकरा रख दिया गया। दो मास्‍टर हाथ में डंडा लिये पहरेदारी कर रहे थे, जबकि दो चपरासी बांटने में लग गये। आधे घंटे में पंचानबे फीसदी छात्र साफ हो गये। तभी दूसरे द्वार के भड़भड़ाने की आवाज आने लगीं। वहां खड़े चपरासी ने दरवाजा खोल दिया। करीब दो दर्जन लड़के अंदर घुस गये। हाकिमे आला का पारा गरम- ‘तूं सब कहां से आया रे?'

इंस्‍पेक्‍टर चीखा, ‘दरवाजा किसने खोला?' वह चपरासी की ओर झपटा। मुझे लगा कि बेचारा फितूर में दो-चार थप्‍पड़ पा जायेगा। सो इंस्‍पेक्‍टर के पहले मैं ही जा धमका और लगा डांटने-‘बद्‌तमीजी करते हो। देख रहे हो कि आफत मची है और दरवाजा खोल दिये? दिमाग ठिकाने है न?'

और दिन होता तो चपरासी मुझ नौसिखिया शिक्षक की पूरी मास्‍टरई निकाल देता, पर आज तो मेरी डांट उसके लिए वरदान साबित हो रही है। इसलिए वह कृतज्ञ नजर आया।

लड़के पूरे हो गये। हाकिमे आला ने मुझे धीरे से बुलाया, ‘पुलिस वालों को भी पानी पिलवा दो बेटा।'
लेकिन नहीं। पुलिस वाले पानी न पीयेंगे। ऐसे लड्‌डू पर तो उनके घर कुत्‍ता भी पेशाब नहीं करता। गाड़ी स्‍टार्ट हुई और वे चले गये।

एक कमरे में स्‍टाफ ब्रेकफास्‍ट का प्रबंध हुआ। हम सभी को उसमें ले जाया गया। बाकायदा छेने की चार-चार मिठाई, दो समोसे परोसे गये। इतनी मिठाई एक साथ खाने की कभी आदत न थी। यह तो पूरा भोजन था।
एक बुजुर्ग शिक्षक अपना प्‍लेट साफ कर चुके थे। ललकारे, ‘क्‍या भाई, काहे धीरे-धीरे चल रहे हो?'
‘मिठाई ज्‍यादा खाने की आदत नहीं।'

उन्‍होंने मदद की। बची हुई दो मिठाइयों को आसानी से मुंह में रख लिया। जुगाली करते हुए बोले, ‘आज के लड़के भी क्‍या हैं, चढ़ी जवानी माझा ढील। हम तो रिटायर होने को आ गये। भगवान की कृपा से खुराक पर कोई आफत नही। अभी भी पूरे भोजन के बाद कोई ढाई किलो तौल कर मिठाई दे दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता।'
हाकिमे आला की इकलौती आंख इस तरफ इनायत हुई, ‘अरे भाई खाते हैं तो करते भी तो हैं सबसे ज्‍यादा।(चपरासी को पुकारते हुए) ऐ, सुनो। ई मास्‍टर साब्‌ के सामने क्‍या मटर लाकर रख दिये। अरे रक्‍खो 25-30 लड्‌डू कि सुक्‍खी तुड़वा रहे हो।'

चपरासी ने करीब एक किलो लड्‌डू का थैला लाकर रख दिया। जनाब एक लड्‌डू सीधे मुंह रखते। एक बार मुंह हिलाते फिर दूसरे की बारी आ जाती। 15-20 मिनट में थैली साफ हो गयी। मगर अब हाकिमे आला इधर नहीं ताक रहे। अब इधर ताकेंगे भी नहीं। वे बाहर जा रहे हैं। बाकी का काम भचाक मास्‍साब संभालेंगे।
दरअसल, उनका यह नामकरण छात्रों ने कर दिया है। वैसे तो उनका नाम भगवान सूर्य का है, लेकिन उनके गुणकर्मविभागशः के अनुसार अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग नामकरण कर दिया है। चपरासी उन्‍हें दीनानाथ कहते हैं, तो क्‍लर्क लोग मिस्‍टर शकुनी, कुछ मास्‍टर केएनओ (कुकर्म निस्‍तारण आफिसर), अध्‍यापकों का एक वर्ग मिस्‍टर नटवर लाल कहता है। माने जाकी रही भावना जैसी।

हम नये शिक्षक परेशान थे कि आखिर अब कौन काम बचा है कि भचाक्‌ मास्‍साब्‌ देखेंगे?
तभी चार चपरासी अंदर दाखिल हुए। उनके हाथ में लड्‌डू के दो-दो थैले थे। सामान्‍य शिक्षकों को एक-एक थैला पकड़ाते हुए दफा किया जा रहा था। समझ न आया कि इसे शिक्षकों को क्‍यों दिया जा रहा है। फीस के पैसे तो छात्रों के हैं? लेकिन यह पूछा किससे जाये! एक नये साथी ने समझाया, ‘ज्‍यादा पूछताछ न कीजिए। बाद में तो खुद ही मालूम हो जायेगा।

हम बाहर आये। बाद के आये और इधर-उधर के कुछ लड़के अभी भी उम्‍मीद लगाये खड़े थे कि उन्‍हें लड्‌डू जरूर मिलेगा। गेट पर खड़ा चपरासी उन्‍हें लगातार दुत्‍कार रहा था। हमें थैलियों के साथ लड़कों ने देखा तो रहा न गया, ‘वाह गुरूजी, किसी को खाने को न मिले और कोई थैला भर गठियाये जा रहा है।'

हम शर्म से पानी हो रहे थे। आगे बढ़ते बन नहीं रहा था। पलट कर चपरासी के पास पहुंचे और उन्‍हें लड्‌डू दिलाने की पैरवी की। चपरासी ने मना कर दिया, ‘मास्‍साब आपै साहब से कह दीजिए। हम कहेंगे तो गरियाना शुरू कर देंगे। अब आज के दिन भी गाली सुनने को मिले तो अच्‍छा न लगेगा।'

तबियत हुई कि उन लड़कों को पुकार कर अपनी थैली पकड़ा दे। लेकिन ऐसा करने पर हाकिमे आला के सीधे अपमान की तोहमत लग जाती। माना जाता कि कालेज की व्‍यवस्‍था में व्‍यवधान पहुंचाया गया।

मैं निराश हुआ ही था कि भचाक्‌ सर आते दिख गये। उनसे मैंने छात्रों की पैरवी की। भचाक्‌ सर हत्‍थे से उखड़ गये। हाकिमे आला जैसी तो नहीं, लेकिन उससे कुछ कम पावर की गालियां उन्‍होंने छात्रों पर दागनी शुरू कर दी। उन्‍होंने एक शिक्षक की थैली ले ली और एक-एक लड्‌डू यूं उछालने लगे, जैसे कुत्‍ते को कौरा दिया जाता हो। लड़के लड्‌डू लपक लिये और चले गये। आजाद भारत के शैक्षिक संस्‍थान में राष्‍ट्रीय जलसे की खूबसूरत परिणति।
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मास्‍टर जी कहिन
सुबह की घटना भूलती न थी। मिस्‍टर एक्‍स विद्यालय के सबसे खर मिजाज के आदमी। मित्रता के मामले में कर्ण सरीखे। मित्र का अनभल होने न देंगे, लेकिन उसकी गलतियों पर खामोश भी न रहेंगे। सात पुश्‍त का सजरा लच्‍छेदार गालियों की छौंक लगाते हुए जब परोसेंगे तो किसी को भी मित्र से घृणा हो जायेगी, लेकिन मिस्‍टर एक्‍स भड़ास निकालकर मित्र के लिए फिर मन साफ कर लेते हैं।

शाम को उनके घर अनामंत्रित आतिथ्‍य लेने जा धमका। भगवान ने उन्‍हें खूब रौनक बख्‍शी है। लाल गौर वर्ण, भरा हुआ गठा वदन, बड़ी आंखें, रौबदार मूंछें। आमतौर पर शिक्षक संघ के लोग उनका उपयोग यात्राओं में या फिर जाम आदि के समय बतौर दारोगा कर लिया करते थे। मिस्‍टर एक्‍स की गालियों की शान के बरक्‍श कोई खड़ा न हो सकता था। बड़े से बड़ा गालीबाज दारोगा लजा जाये। प्‍यार में बोलते तो पुरबिया पुट फव्‍वारे की तरह पड़ता। गुस्‍सा होते तो डांटती हुई खड़ी बोली पीटने लगती।

अकेले वही ऐसे अध्‍यापक थे, जिनसे हमारी थोड़ी घनिष्‍ठता थी। हमारी नियुक्‍ति के पत्रजात तैयार कराने से लेकर कार्यभार ग्रहण कराने तक में सारी मेहनत मिस्‍टर एक्‍स ने की। लेकिन, क्‍या मजाल कि एक कप चाय भी स्‍वीकार की हो। ऐसा ही बर्ताव सबके साथ। इसीलिए अकड़ कर सबसे बात कर लिया करते हैं। इस समय उनके चेहरे पर प्‍यार की लुनाई है, ‘काहे भकुआइल बाड़ हो?'

‘वो भइया, सुबह वाली घटना भूलती नहीं। इतने सारे स्‍टाफ के लोग और प्रिंसिपल शोहदों के खतरे से घिर गये। कोई बचाने उठा तक नहीं!'

मिस्‍टर एक्‍स की लुनाई सूख गयी। एक गुस्‍से का कसाव माथे से लेकर आंखों में खिंच गया, ‘नये आये हैं, इसीलिए अफसोस कर रहे हैं। आप के चलते हम भी चल गये, अन्‍यथा ऊ स्‍साला लातै खाने लायक है।'
‘काहे भइया?'

‘काहे का? देखे नहीं? हम कहते हैं कि दसि गो लडि़का मान लीजिए मिठाई खातिर आ ही गये तो कौन बड़ा अपराध कर दिये। बीसियै गो तो लड्‌डुआ जाता। ई सरवा वही लड्‌डुवा बचाने खातिर उन्‍हें भगाने पहुंच गया। अब ई पड़ोसै के भूत हैं, उनका से कुछ छिपी है?'

मैं सकपकाया। बात कोई दूसरी है। अन्‍यथा हाकिमे आला के संकटमोचन मिस्‍टर एक्‍स क्‍यों इस तरह उबल पड़ते।
‘?'
‘और सुनिये, आगे से बवाल रोपने की जरूरत नहीं। नहीं तो पायेंगे कि इनके लिए लड़ गये और इन्‍होंने जाकर दुश्‍मनों से हाथ मिला लिया।'

‘अरे राम रे!'

‘त अउरी का। अब सबेरे का ही ले लीजिए। हर लड़के से 15 रुपये वसूले गये हैं। दो कुंटल मिठाई बनवाई गयी है। भचकवा को गरियाते भी हैं और सारा जिम्‍मा उसी को सौंपते भी हैं। ऊ सरवा हम लोगों को एक-एक किलो की थैली पकड़ा दिया। बाकी का 70 किलो लड्‌डू चार लोगों में बंट गया। कनवा (हाकिमे आला) पूरा 25 किलो ले गया। 20 किलो साढ़ू के घर भेज दिया। दस किलो हल्‍ला जी, दस किलो भचाक और पांच किलो मटरू जी।'
‘क्‍या कहते हैं भइया? ये सब कब हुआ? हम लोग तो वही थे?'

‘ई सब क्‍या करियेगा? ये हर साल होता है। जब सभी अपने घर चले जाते हैं तब ई सब करम किये जाते हैं। और तो और, हल्‍ला जी लड्‌डू का बचा हुआ सीरा और भचाक जी बेसन, चीनी, घी घर ले जाने के लिए शाश्‍वत अधिकारी नियुक्‍त कर दिये गये हैं।'

हल्‍ला जी के बारे में ऐसी बात हजम नहीं हो रही थी। दबे स्‍वर में बोला, ‘भइया, हल्‍ला जी तो बड़े सज्‍जन हैं। नाम भले लड़कों ने हल्‍ला जी रख दिया है, पर कितनी विनम्रता से रहते हैं और प्‍यार से मिलते हैं?'
‘यही तो बात है। प्‍यार से आपकी सारी खबर ले लेंगे और चुपके से सबमें बांट देंगे। आग लगाते हैं आग। ऐसे ही नहीं हल्‍ला नाम पड़ा है। पिछले साल जर्किन में सीरा भर कर घर ले जा रहे थे, पोखरा पर साइकिल कैरियर से सरक गया। प्‍लास्‍टिक फट गयी। बीस किलो सीरा सड़क पर फैल गया। दसियों कुक्‍कुर घेर कर चाटने लगे। चारों तरफ हल्‍ला हो गया। ई सब कहानी आसपास के लोग जानते हैं।

‘ओह। ऐसी बात है?'
‘और नहीं तो क्‍या। ऊ जो लड़के सबेरे गरिया रहे थे तो इसी कारन। आप भी बिना समझे बूझे कूद गये। आइंदा से सावधान रहिएगा। और भी सुनियेगा? जब आप लोग चले गये तो कनवा की लगी चोक लेने। डर रहा था कि रास्‍ते में लड़के मारने न लगें। तब हल्‍ला जी का बेटा बंदूक लेकर घर से आया। चार लोग साथ में किलोमीटर भर गये। तब कहीं वह घर गया।'

छब्‍बीस जनवरी हमारे लिए सबसे अच्‍छा दिन रहा। कम से कम इन घटनाओं के बहाने बड़े रसूख वालों के छोटे करतूत तो हमारे सामने थे।

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रचनाकार: रमाशंकर शुक्ल की कहानी - कालेज का गणतंत्र
रमाशंकर शुक्ल की कहानी - कालेज का गणतंत्र
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