प्रेमशंकर शुक्ल का कविता संग्रह - झील एक नाव है

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  झील एक नाव है कविताएँ प्रेमशंकर शुक्‍ल -- रचना समय संपादक : हरि भटनागर सहयोग : बृजनारायण शर्मा --   वक्तव्‍यः प्रेमशंकर शुक्‍...

 

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झील एक नाव है

कविताएँ

प्रेमशंकर शुक्‍ल

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रचना समय

संपादक :

हरि भटनागर

सहयोग :

बृजनारायण शर्मा

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वक्तव्‍यः प्रेमशंकर शुक्‍ल

    मेरे पहले कविता संग्रह कुछ आकाश में भी जल सीरिज की कुछ कविताएँ हैं। उन्‍हीं कविताओं की भावभूमि रही होगी कि मैंने इधर के सात-आठ सालों में पानी को अपनी कविता का विषय बनाया और पानी के सहारे कविता की बोली-बानी में बहता रहता रहा।

    भोपाल ताल इतना प्रसिद्ध है कि वह कहावत की जु़बान पर लहराता है, इस ताल के किनारे मैं पिछले बीसेक वर्षों से आ रहा हूँ। भोपाल ताल का एक नाम बड़ी झील भी है। यह इतनी आत्‍मीय संज्ञा है कि इसके सामने स्‍त्रीलिंग या पुलिंग का सम्‍बोधन बह जाता है। चाहे आप भोपाल ताल कहें या बड़ी झील ज़रूरी यह है कि प्‍यास नहीं मरनी चाहिए और जीवन की सुन्‍दरता का आल-बाल हराभरा रहना चाहिए। बड़ी झील का ताना-बाना प्रकृति-सौन्‍दर्य और मनुष्‍य की स्‍वेद-गंगा से मिल कर बना है।    बड़ी झील में महाकवि कालिदास के परम मित्र राजा भोज का सुयश लहराता है- विद्यानुरागी और प्रजा-पालक राजा भोज।
    बड़ी झील ने पहली मुलाकात में ही मेरा मन मोह लिया और इस रागात्‍मक रिश्‍ते ने मेरी कविता की जमींन को बहुत सींचा-संवारा और पानीदार किया जिसके लिए मैं बड़ी झील के प्रति हृदय से आभारी हूँ।
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    मैं जानता हूँ मेरी जुबान जब भी मैली होगी उसे धोकर पानी ही कहने लायक बनायेगा, मेरा कण्‍ठ जब भी बेसुरा होगा अपनी उदात्त्‍ा तरलता से पानी ही उसे सुर में लायेगा और होंठ जब ठस हो रहे होंगे बोली-बानी का पानी ही इन्‍हें नम और मुलायम बनायेगा। पानी की ये कविताएँ यदि अपना तरल पाठ प्रस्‍तुत कर सकीं हैं तो मैं विश्‍वास कर सकता हूँ कि ‘कहने-बोलने' का मेरा अभ्‍यास ठीक चल रहा है।

    सौभाग्‍य से यह वर्ष (2010) हमारे पूर्वज कवियों अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और फै़ज़ का शताब्‍दी वर्ष है। मैं अपनी इन परम्‍परा विभूतियों को कृतज्ञतापूर्वक झील एक नाव है की कविताएँ सादर समर्पित करता हूँ।


प्रेमशंकर शुक्‍ल (परिचय)
    16 मार्च 1967 में मध्‍यप्रदेश के रीवा के गाँव गौरी (सुकुलान) में जन्‍मे प्रेमशंकर शुक्‍ल बीसवीं शती के उत्त्‍ारार्द्ध में आये प्रतिभावान कवि हैं। ‘कुछ आकाश' शीर्षक से उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है और ‘झील एक नाव है' नाम से दूसरा काव्‍य संग्रह शीघ्र प्रकाशनाधीन है। कविता के क्षेत्र में इन्‍हें सुप्रतिष्‍ठित नवीन सागर सम्‍मान, रजा पुरस्‍कार,दुष्‍यन्‍त कुमार पुरस्‍कार, अभिनव शब्‍द शिल्‍पी सम्‍मान आदि प्राप्‍त हुए हैं। देश की लगभग सभी महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। इन्‍होंने भोपाल दूरदर्शन के लिए वरिष्‍ठ कवि भगवत रावत पर केन्‍द्रित वृत्त्‍ाचित्र का स्‍क्रिप्‍ट लेखन किया है। श्री शुक्‍ल की कविताओं के शिल्‍प का ताना-बाना उत्‍कृष्‍ट तो है ही विषयवस्‍तु भी अनजूठी है। समकालीन हिन्‍दी कविता में श्री शुक्‍ल एक युवा कवि के रूप में बहुचर्चित और प्रशंसित हैं। सम्‍प्रति ः भारत भवन, भोपाल में सहायक प्रकाशन अधिकारी पद पर कार्यरत और प्रतिष्‍ठित आलोचना पत्रिका ‘पूर्वग्रह' में सहसम्‍पादक।

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    प्रेमशंकर शुक्‍ल की यह कविता - श्रृंखला बड़ी झील को केन्‍द्र में रखकर जैसे उसके आसपास पानी का एक पूरा नगर ही तामीर कर देती है। वह बड़ी झील को पानी के एक ऐसे रूपक में बदल देती है जिसमें पानी की व्‍यापक चिन्‍ताएँ भी हैं और मन में बसी पानी की अनेक स्‍मृतियाँ भी।

    भोपाल के नागरिक के लिए बड़ा तालाब जितना यथार्थ है उससे कहीं ज्‍़यादा वह उसका स्‍वप्‍न है। वह उसके बारे में तरह-तरह की किंवदन्‍तियाँ बनाता है, कहावतें रचता है और किस्‍से गढ़ता है। फिर अपने या अपने पूर्वजों द्वारा रचे किस्‍सों, कहावतों पर इस तरह यकीन करता है जैसे उन्‍हें किसी और ने रचा हो। उसके लिए इससे बड़ा और इससे ज्‍़यादा सुन्‍दर धरती पर कोई दूसरा तालाब नहीं है। उसके लिए तो इसके आगे सब तलैयाँ हैं। वह जब भी उसकी तुलना करना चाहता है तो उसे समुद्र से कम कुछ याद नहीं आता। इस तरह की अतिशयोक्‍तियाँ उसके सहज स्‍वभाव का हिस्‍सा नहीं, ये उसके और तालाब के बीच के आत्‍मिक सम्‍बन्‍ध का प्रतिफल है। पानी के प्रति आकर्षण नैसर्गिक आकर्षण है। बड़ा तालाब शहर का केन्‍द्र है। शहर की आत्‍मा या हृदय․․․ कुछ भी कहा जा सकता है।

    कवि जब आहत होता है तो कविता का जन्‍म होता है। प्रेमशंकर शुक्‍ल भी बड़े तालाब के सूखने से आहत होते हैं और अचानक तालाब का यह दृश्‍य उनके लिए क्रौंचवध बन जाता है। मेरी याददाश्‍त में बड़े तालाब का इतना बड़ा हिस्‍सा कभी नहीं सूखा। भोपाल के इतिहास में सम्‍भवतः यह पहली घटना है जो 2009 में घटित हुई। प्रेमशंकर शुक्‍ल का कवि मन आहत हुआ और कविता का एक अबाध सिलसिला शुरू हो गया।

    ये कविताएँ वस्‍तुतः तालाब के एक बड़े हिस्‍से के सूखने की वास्‍तविकता और स्‍वप्‍न में उसके लहराते हुए बिम्‍बों के युग्‍म से बनी हैं। इसमें झील से आने वाली हवाओं में कम होती नमी का अहसास है तो दूसरी ओर इस बात का भी कि झील ही देती है, मेरे भीतर के पानी को लहर। छोटी-बड़ी कविताओं की यह �ाृंखला एक कालखण्‍ड का कविता आख्‍यान रचती है। इसमें झील की स्‍मृतियाँ, सूख जाने का वृत्त्‍ाान्‍त है और पानी के बरसने के बाद झील के लहक उठने की खुशी भी है। इसलिए इसका पेट भरने वाली कोलांस नदी की खुशी भी इसमें दर्ज है। ये कविताएँ अक्‍सर अदीठ कर दिये जाने वाले कई छोटे-छोटे ब्‍यौरों को समेटती हैं। इन कविताओं में पानी की तरलता और बहाव दोनों हैं। कम शब्‍दों की नाव से यह एक बड़े विस्‍तार को नापने का उपक्रम है।
                                            -राजेश जोशी

 

‘पानी का कवित्‍व'


किसी एक विषयवस्‍तु पर देर तक टिकने के दृश्‍य हमारी कविता में कम होते जा रहे हैं। ऐसे दृश्‍य जहाँ कल्‍पना या विमर्श का विस्‍तार किसी एक वस्‍तु, भाव, विचार, या प्रत्‍यय की सीमाओं के भीतर, इन सीमाओं के अधिकतम सम्‍भव विस्‍तार में फलित हो सके। ठहरने, एकाग्र होने, बारबार लौटने के दृश्‍य। आविष्‍ट होने के दृश्‍य। पुनरुक्‍ति की प्रक्रिया में अपूर्वकथित के उद्‌बुद्ध हो उठने के दृश्‍य। यह कमी, कहीं न कहीं, सूक्ष्‍मता और गहराई की, कवि-सुलभ तत्त्‍वान्‍वेषी या दार्शनिक दृष्‍टि की कमी की तरह देखी जा सकती है।


    प्रेमशंकर शुक्‍ल की इन कविताओं को पढ़ते हुए अगर इस अल्‍पता की ओर हमारा ध्‍यान जाता है तो इसलिए ये कविताएँ इस दृश्‍य में कम से कम इस एक स्‍तर पर तो हस्‍तक्षेप करती ही हैं कि वे अनन्‍य रूप से एक ही विषयवस्‍तु पर केन्‍द्रित हैं, और यह विषयवस्‍तु है, पानी। ज़ाहिर है कि यह एक अत्‍यन्‍त अर्थगर्भी, सघन रूप से श्‍लेषात्‍मक, अनेकार्थक प्रत्‍यय है। वह अस्‍तित्‍व का एक संघटक, संरक्षक, संहारक तत्त्‍व है; उसमें गहराई, विपुलता, असीमता के, वेग और ऊर्जा के, सभ्‍यताओं और संस्‍कृतियों के उत्‍प्रेरक होने के अर्थ निहित हैं। वह एक साथ एक तत्त्‍वान्‍वेषी, सूक्ष्‍मदर्शी और व्‍यापक दृष्‍टि का विषय बनाये जाने की माँग करता है। इसलिए कविता के एक विषय के तौर पर उसको चुनना कविता को एक मुश्‍किल चुनौती के समक्ष ले जाना है। लेकिन उसके अर्थ का एक दूसरा स्‍तर भी है, जहाँ वह आर्द्रता, तरलता, सरलता, चंचलता के भी भाव जगाता है, और तमाम अर्थों से पहले उसका अपना एक असाधारण रूपात्‍मक सौन्‍दर्य भी है, जो कवि-कल्‍पना के लिए कम विमोहक नहीं है। बावजूद इसके कि इन कविताओं में ‘‘गहराई'' के, ‘‘पैठने'' और ‘‘डूबने'' के प्रत्‍यय आते हैं, और वे ‘‘कविता में पानी का तनाव'' होने की बात भी करती हैं, वे मुख्‍यतः अर्थ के इस दूसरे स्‍तर पर, और पानी के रूपात्‍मक सौन्‍दर्य पर अपने को एकाग्र करती हैं।

बारबार उसकी ओर लौटती हुईं और हर बार एक अलग कोण से उसको देखती हुई, वे सुन्‍दर चाक्षुष बिम्‍बों और अर्थध्‍वनियों के माध्‍यम से पानी की अनेक लीलामय छवियाँ पेश करती हैं, उसके नये रूपक गढ़ती हैं, और अनेक पुराने रूपकों का आह्‌वान करती हैं ः  ‘आकाश-गंगा के साथ दूरभाष पर मशगूल बड़ी झील, आसमान को पानी पहनाती हुई हवा को नहलाती हुई बड़ी झील, ‘मछरी की तरह छटपटाती बड़ी झील', ‘बड़ी झील के जल का आचमन कर धीरे-धीरे शहर पर उतरती हुई सन्‍ध्‍या-सुन्‍दरी', ‘बडी झील में बारबार मुँह धोता आसमान', ‘झील के गले में लहरों की हँसी', ‘झील के जल-दर्पण में चेहरा निहारते बादल', ‘झील के पानी में अल्‍सुबह नहाकर निकली हवा', ‘हवा के अलंकार से श्रृंगार करती लहरें', ‘एक बूँद से मुलाकात', ‘झील पानी से भरी परात', ‘अपने पानी में मुस्‍कराती बड़ी झील के डिम्‍पल', ‘धूप के उबटन से चमकता झील का चेहरा', ‘सुनहरी चिडि़या के जूड़े में झील की हथेली पर खिला फूल', ‘पानी की गोद में अपनी फूल-हँसी हँसता हुआ फूल', और ‘‘रूह का पानी'', ‘अन्‍तस का पानी', ‘आत्‍मीयता का जल', ‘खुशी का आब', ‘पानी है तो जि़न्‍दगानी है', ‘लहरों में लहू की ललक', ‘स्‍मृति की झील', ‘पानी का कवित्‍व'․․․आदि।     


पानी इन कविताओं में हालाँकि एक जातिवाचक-भाववाचक संज्ञा भी है, लेकिन पानी के इस जातिवाचक-भाववाचक अर्थप्रवाह में कल्‍पना को ढीला छोड़ देने से पहले कवि ने इस प्रवाह को एक ठोस, व्‍यक्‍तिवाचक संज्ञा के तटबन्‍ध के भीतर बाँधा और ‘लोकेट' किया है। भोपाल की बड़ी झील (जिसका अनेकशः जि़क्र ऊपर के उद्धरणों में है) नामक यह व्‍यक्‍तिवाचक संज्ञा अपनी ठोस स्‍थानिकता में, अपनी वास्‍तविक कायिक पहचान में, पूर्णता के साथ उभर सके, इसके लिए कवि ने भरसक प्रयत्‍न किया है। यह प्रसिद्ध स्‍थानिक सन्‍दर्भ, बदले में, इन कविताओं को भी एक स्‍थानिक पहचान देता है। और जैसे यह ‘बड़ी झील' अपने तटबन्‍धों में पानी को बाँधकर उसको एक विशिष्‍ट काया प्रदान करती है, और इस तरह स्‍वयं अपनी पहचान को गढ़ती है, अपने नाम को सार्थक करती है, वैसे ही ये कविताएँ ‘पानी' के अर्थ को एक विशिष्‍ट वाग्‍देह में बाँधने की प्रक्रिया में अपनी पहचान गढ़ने का प्रयत्‍न करती हैं। अपनी विषयवस्‍तु के साथ तन्‍मयता के स्‍तर का अनुराग साधती हुई वे उसका प्रतिबिम्‍ब हो जाने की कोशिश करती हैं, और इस कोशिश में, मानों, पानी और झील के रिश्‍ते के तद्‌भव के रूप में उभरती हैं। यह इसी तन्‍मयता और अनुराग का सहज फल है कि ये कविताएँ पानी को और झील को, पानी और झील के रिश्‍ते को, और इनको घेरते नैसर्गिक और सांस्‍कृतिक परिवेश को, जैसा कि ऊपर के उद्धरणों में भी देखा जा सकता है, ऐसी छवियों में बाँधने की कोशिश करती हैं, जो ‘प्रिय' और ‘सुन्‍दर' हैं, और जिनकी प्रियता और सौन्‍दर्य का स्‍त्रोत उन छवियों को गढ़ने वाले अवयवों के बीच के प्रत्‍याशित और मैत्रीपूर्ण सम्‍बन्‍ध हैं।

 
वस्‍तु के साथ, या कहें, यथार्थ के साथ, इन कविताओं के रिश्‍ते की प्रकृति यही है ः तन्‍मयता, तद्‌भवता, अनुराग। यथार्थ के साथ तनाव, अलगाव, विमर्श साधने, उसको विवेक-विद्ध करने की बजाय वे उसके साथ एकत्‍व की आकांक्षा की प्रतीति दिलाने में अधिक विश्‍वास करती हैं। वे उसके बहुत करीब जाकर उसको पूरी उत्‍कटता के साथ निहारती हैं; उसपर मुग्‍ध और मोहित होती हैं (‘‘झील पर मुग्‍ध/झील को निहारती है आँख'' और यही नहीं बल्‍कि ‘‘दोनों में इतना अपनापा, इतना एका/कि झील कहो तो आँख सम्‍बोधित हो जाती है/और आँख कहो तो झील बोल पड़ती है/‘हाँ'''); वे उपमाओं, रूपकों से उसको अलंकृत करती हैं; उसके सुखों, दुःखों की उत्‍प्रेक्षा करती हैं और उनपर द्रवित होकर उनको जुबान देती हैं; उसमें अपने सुखों, दुःखों, आशाओं, आकांक्षाओं का आश्रय रचती हैं․․․। यह भी इस आवेश और तादात्‍म्‍य का ही एक लक्षण है कि ये कविताएँ अपने रूपक गढ़ने के लिए उपमेय और उपमान के दूरस्‍थ बिन्‍दुओं को खोजने और उनको एक दूसरे के करीब लाने की बजाय अपनी विषयवस्‍तु के भीतर ही, एक तरह की अन्‍तःप्रजनन (इनब्रीडिंग) की प्रक्रिया से ये बिन्‍दु रचती हैं, जिसके अनेक उदाहरणों में से एक को इन पंक्‍तियों में लक्ष्‍य किया जा सकता है ः ‘‘झील एक नाव है/जो धरती में तैर रही है''।


और यह अन्‍तःप्रजनन सिर्फ़ कविताओं की विषयवस्‍तु को ही विकसित नहीं करता, बल्‍कि स्‍वयं इन कविताओं की अपनी बनावट को, उनकी शैली को भी गढ़ता चलता है। विषयवस्‍तु के गुण ही जैसे कविताओं की लयगति के, उनकी संरचना या निर्मिति के गुण बन जाते हैं। वे कुछ इस तरह पानी से आविष्‍ट हैं कि पानी यहाँ कवि-कल्‍पना को भिगोता और द्रवित तो करता ही है, उसको वह प्रशमित, मन्‍थर गति भी प्रदान करता है (‘‘पानी बह रहा है मन्‍द-मन्‍द'') जो झील के पानी की ख्‍़ाासियत होती है। वह उनके अर्थ-प्रवाह को झील पर तैरती नौका की गति प्रदान करता है। यह द्रवणशीलता और आर्द्रता, यह सन्‍तरणशील, मन्‍थर गति, इन कविताओं को एक ऐसी निर्मिति में ढालती हैं जो अपनी देहयष्‍टि की गद्यात्‍मकता के बावजूद अपने स्‍वभाव में गीत के बहुत करीब की लगती है।

यह अकारण नहीं है कि गीत, संगीत, छन्‍द, गाने, गुनगुनाने आदि के अभिप्राय कविताओं के दिल-दिमाग पर छाये हुए हैं ः ‘‘इस तरह/बड़ी झील को निहारना/संगीत हो जाता है,'' ‘‘चलो मझधार में/मीठे गीत गा-गा कर/हम पानी का मन बहलाते हैं,'' ‘‘बड़ी झील गगग/संगीत की महफि़ल सजाती हुई,'' ‘‘कोई प्राचीन लिपि/करुणा  का बहुत सुन्‍दर छन्‍द/बुदबुदा रही है,'' ‘‘पानी प्‍यार है/जो अनुरागी चित्त्‍ा में बजता है,'' ‘‘वे जब-तब रोचक जलगीत गाती रहती हैं,'' ‘‘गीत के लय की/मेरे भीतर लहर उठ रही है लगातार,'' ‘‘पानी के बुलबुले/खुशी के/ख्‍वाब के/गीत गुनगुनाकर बुझ गये,'' ‘‘दर्द भरे गीतों को सुनकर/आँख की कितनी भी गहराई में हो पानी/छलक आता है बनकर आँसू/और गीतों में दर्द का रंग/गाढ़ा करता रहता है,'' ‘‘चिडि़याँ जब पानी के मीठे-मीठे पद गाती हैं,'' ‘‘अपनी चाँदनी के लिए/पानी मालकौंस गाता है,'' ‘‘धूप एक छन्‍द है,'' ''पानी जितना पुराना वह गीत,'' ‘‘मुझे कोई प्राचीन लिपि में धड़कता हुआ/छन्‍द गुनगुनाना है,'' ‘‘उसकी पत्त्‍ाियों के साथ/विरह के गीत झरते हैं,'' ‘‘पानी गावत राग मल्‍हरवा'' आदि। इस गीतात्‍मक संवेदना को सिर्फ़ इन अभिप्रायों में ही नहीं, कविताओं की समूची भाषा में अनुभव किया जा सकता है, उसके आर्द्र और तरल शब्‍दों और वाक्‍यविन्‍यास में। और यह अकारण नहीं, बल्‍कि कवि की इस आकांक्षा के सर्वथा अनुरूप है कि ‘‘मैं जटिल वाक्‍यों में/ पानी का गुन मिलाना चाहता हूँ गगग लहराती झील के लिए/ भाषाओं में रखना चाहता हूँ/ माननीय जगह/जिससे लिपियों में तरलता हो/सरलता हो संवाद में''। मानों कविता को स्‍वयं ही अपनी भाषा की इस आर्द्रता का अहसास है, जब वह कहती है कि ‘‘झील/लहराता हुआ/एक शब्‍द/कि जिसे देखकर/कविता के मुँह में/पानी आ जाय,'' बशर्ते कि हम इस ज़ाहिर सी व्‍यंजना को अलक्षित न करें कि ‘‘कविता के मुँह में पानी'' का अर्थ कविता की ‘‘जुबान'' (भाषा) में पानी (भी) है।


इस तरह यह ‘‘पानी का कवित्‍व'' है, और सिर्फ़ इस बात में नहीं है कि ये कविताएँ पानी के बारे में हैं, बल्‍कि वह इस बात में भी है कि वे पानी और कवित्‍व को एक दूसरे के करीब लाती हैं, और दोनों के बीच अन्‍तर्क्रियाशील रिश्‍तों की उत्‍प्रेक्षाएँ भी करती हैं। ‘‘कविता'' इन कविताओं में सर्वव्‍यापी है; वह ‘‘कविता'' के उल्‍लेखों में तो है ही (यथा-  ‘‘कविता के भीतर/पानी का तनाव है'', ‘‘बड़ी झील गगग/कभी सुन्‍दर कविता पंक्‍तियों पर/देती हुई दाद'', ‘‘लहरें फाँस लेती हैं/कवि का मन'', ‘‘मेरे खयाल में/पानी का/कवित्‍व जगमगाता है'', ‘‘प्‍यास में गगग/पानी ही कविता-कथा है'', ‘‘पानी में/सुन्‍दर कविता''), लेकिन इससे ज्‍़यादा वह इन तमाम कविताओं में व्‍याप्‍त उस केन्‍द्रीय चेतना (जिसे हम इन कविताओं का स्‍वत्‍व कह सकते हैं) के नाते है जो अद्वितीय रूप से कविता की चेतना है। इस तरह, वह वहाँ पर सिर्फ़ है नहीं बल्‍कि अपने होने के अहसास के साथ है, पानी के सक्रिय सान्‍निध्‍य में होने के अहसास के साथ, जहाँ वह पानी से व्‍याप्‍त और संस्‍कारित होकर होकर कृतज्ञ भाव से उसको भजती है, उस पर अपने रूपकों-उपमाओं के नैवेद्य अर्पित करती हुई।
                                                                             -मदन सोनी

 

 

पानी एक आवाज़ है

 

पानी


पानी है तो धरती पर संगीत हैः
झील-झरनों-नदियों-समुद्र का,
-घूँट का!

पानी है तो बानी है

पदार्थ हैं इसलिए कि पानी है
और गूँगे नहीं हैं रंग

पानी भी जब पानी माँग ले
तो समझो कीच-कालिख की
गिरफ्‍़त में है वक्‍़त

जि़न्‍दगानी को जो नोच-खाय
तो जानो उसके आँख का पानी
मर गया!

भर गया जो गला
सुन कर चीख-पुकार
वह पानी है!

पानी जो दौड़-दौड़ कर
पृथ्‍वी का चेहरा
सँवारता रहता है!

 


एक गिलास पानी


एक गिलास पानी
घूँट-घूँट भर जाता है जिस से
प्‍यास का दरिया
और फैल जाती है तृप्‍ति की लहर

एक गिलास पानी न होता
तो कितना गूँगा होता हमारा प्‍यार
और रात पार करा देने वाले लम्‍बे किस्‍सों का
सूखने से कैसे बचता कण्‍ठ

एक गिलास पानी कभी-कभी
लेकर आता है यादों का समंदर
जिसमें गिलास को थामे हथेली पर
मुस्‍कुराहट की धूप पड़ रही है
और हो रही हड़बड़ाहट को
थोडे़-से सम्‍पादन की ज़रूरत है!


किसी भी घर की
सबसे कोमल, तरल और सम्‍मानजनक चीज़ है
एक गिलास पानी। दरवाजे़ पर आए अतिथि को
मानदान से दिया जाता है जिसे।
(जलपान आतिथ्‍य की अलख है!)

ताना-बाना की तरह एक गिलास पानी
बुनता है हमारी परस्‍परता
और आपासदारी को करता है गझिन

पनघट से गिलास तक आने की
पानी की यात्रा कितनी कठिन है
जानती हैं जिसके बारे में
सबसे अधिक स्‍त्रियाँ। आरम्‍भ से
स्‍त्रियाँ ही जि़न्‍दा रखती आयी हैं
पानी और प्‍यास।

एक गिलास पानी देने की इच्‍छा
उजड़ने से बचाए रखती है
मनुष्‍यता का घर

हलक में उतरता पानी
धन्‍यवाद है
झील-झरनों, नदियों-कुओं के प्रति

भाषा सम्‍प्रति है
पानी की कायनात
बूझने की!

 


कुछ पंक्‍तियाँ

पानी की ताकत,  सरलता और तरलता
पठनीय है
(लेकिन पानी की कोमलता रोम-रोम को
जुबान दे देती है)

बादल बरस कर लुप्‍त हो जाते हैं
पर्जन्‍य!

रात एक वृक्ष है
जिसकी छाया में सब सोते हैं
(ओस को छोड़कर!)

पानी का पाट
बहुत चौड़ा है। बहते-बहते, तैरते-तैरते
पृथ्‍वी हुई गोल

तुम्‍हारे लट की (लटकी) बूँद!
मेरे सीने में झर कर
भर देती है अंतस्‌ की पूरी एक झील
(यह सूखती नहीं कभी इसीलिए जब-तब
मेरे भीतर झुरझुरी उठ आती है!)

यह गोल पृथ्‍वी ला कर खड़ा कर देती है वहीं
चले थे जहाँ से हम!

तुम्‍हारी हँसी का अँजोर
मेरी खिलखिलाहट में बहता है!

 

 

पानी बहता है

पानी बहता है
चाहे कहीं भी हो पानी
वह बह रहा है

पत्‍तेे पर रखा बूँद बह रहा है
बादल में भी पानी बह रहा है

झील-कुआँ का पानी
बहने के सिवा और वहाँ
कर क्‍या रहा होता है!

गिलास में रखा पानी भी
दरअसल बह रहा है

घूँट में भी पानी
बह कर ही तो पहुँचता है प्‍यास तक

सूख रहा पानी भी बह रहा है
अपने पानीपन के लिए

मेरे शब्‍दो! तुम्‍हारे भीतर भी तो
बह रहा है स्‍वर-जल
नहीं तो कहना कैसे होता प्रांजल

पानी बहता है
तभी तक पानी
पानी रहता है!

 


नदी एक गीत है


नदी एक गीत हैः
जो पहाड़ के कण्‍ठ से निकल
समुद्र की जलपोथी में छप जाती है
जिस के मोहक अनुरणन से हरा-भरा रहता है
घाटी-मैदान

अपने घुटने मोड़ जिसे पीती है बकरी
हबो-हबो कहने पर पी लेते हैं जिसे गाय-गेरू
खेत-खलिहान की मेहनत की प्‍यास में
पीते हैं जिसे मजूर-किसान

नदियों में पानी है तो सदानीरा है जुबान

रेत में हाँफती नदियाँ
भाषा के हलक में खरखराती हैं
कीचड़-कालिख में तड़पती नदियों से
बोली-बानी का फेफड़ा हो रहा है संक्रमित
आँख का पानी भी उतार पर है
और उस पानी की कमी से
आदमी का करेजा हो रहा है काठ!

नदियों की बीमारी से
गाँव-जवार, नगर का चेहरा उतरा हुआ लग रहा है
जैसे कि यमुना की बीमारी से
दिल्‍ली का चेहरा है बेनूर
वेतवा को मण्‍डीदीप दबोच रहा है
क्षिप्रा की दशा देख विलख रहा है मेघदूत
महानद की उपाधि बचाने में सोन की
फूल रही है साँस

गंगा के प्रदूषण पर रोना रोने के सिवा
क्‍या कर रही है सरकार!

नदी एक गीत हैः
जिस के घाट पर ही हमने किया ग़मे-रोजगार

लोककण्‍ठ गाते हैं कि नदियों से ही जीवित हैं
हमारे सजल-संबंध
पार्वती गाँव की मेरी माँ
हर नदी की अपने मायके की सम्‍पदा कहती है

नदी एक गीत हैः
खानाबदोश कंकर भी
जिस से अपनी धुन में बहता है!

 


प्यास में


प्‍यास में
पानी ही भूमिका है
पानी ही विचार है
पानी ही कविता-कथा है
पानी ही उपसंहार है!

 

 

 


बारिश में भीग-भीग

बारिश में भीग-भीग
धान रोपने के लिए लेउ लगाता खेतिहर
हुलक कर कहता है-
पानी पा गया
तो किसानी बन गयी
लगता है बाल-बच्‍चों के
नसीब में बदा है
भात!

सानी-पानी के नशे में डूबे हुए बैल
जड़ता जोत रहे हैं
जैसे कहानी से चलकर हल में नध
गए हैं प्रेमचंद के ‘हीरा-मोती'

खेत भी पानी पाकर
तन गया है चम्‍मेल
और ज़र्रा-ज़र्रा महक उट्‌ठा है
माटी का मन

किसान की घरवाली
निहाल हो रही है
निहार-निहार कर अपने खेत

किसान के विश्‍वास में
मेहनत की चमक है!

 


नमक

नमक के साथ
हमारे भीतर समुद्र है
और चीजें़ बेस्‍वाद नहीं हैं

हथेलियों का नमक कि जिसने
फी़की होने से बचाया जि़न्‍दगी की उमर
और रोटी में नमक की तरह बना रहा परस्‍पर विश्‍वास

चुटकी भर नमक और माड़-भात
हमारे जनपद की कितनी औरतों की
जि़न्‍दा रखे हुए है भूख-पिआस
(जहाँ लोन-रोटी का इंतजाम
आज भी हाड़-तोड़ मेहनत है!)

सारी रसोई परोस
चुपचाप लोन-पानी पीकर
भूख को सुला देना
होता है स्‍त्रियों में ही ऐसा हुनर
पुरुष के तो ढीले पड़ जायेंगे हाथ-पाँव

अक्‍सर नमक चेहरे पर सलोनापन होने से अधिक
आँसुओं में बह जाता है बहुत
जिन स्‍त्रियों के चेहरे पर नमक है
वही जानती हैं कि क्‍या होता है
इस सभ्‍य समय में चेहरे पर नमक
होने का अर्थ!!

काम-धन्‍धे से लौट खीरा की फाँक के साथ
गदिया (हथेली) पर रखा नमक चखता है जब भाई
तो यह छप्‍पन भोग के बाहर
एक अनूठा स्‍वाद होता है

महात्‍मा का प्रताप कि भारत की आज़ादी के पहले
डाँडी में आज़ाद हुआ नमक!

अपनी ज़बान में इतना चढ़ गया है नमक
कि बिना नमक का ख़याल भी
देता है फ़ीकी-फ़ीकी प्रतीति
और इबारत होंठ पर नहीं ठहरती

टर्रा नमक और हरी मिर्च के साथ
चना की भाजी खाना
चैत में आम की टिकोरी (अमिया) खाने के बाद
गदिया पर बचा भुर-भुरा नमक
स्‍मृति में उतार देता है जब-तब अपनी लुनाई

हमारी देह में तप रही थी जब दोपहर
और चीख लिया था हमने एक-दूसरे की देह का नमक
ताज़ा है आत्‍मा में वह जस का तस

नमक के इतने किस्‍से हैं
कि बहुरियों को स्‍वप्‍न में भी घेर लेती है
दाल में नमक बिसर जाने की थरथराहट
और वे नींद के विमान से रसोई में गिरती हैं धड़ाम!

बाजारू-वक्‍त कि नमक भी अपने नमकपन के लिए
जूझ रहा है दिनरात
और विज्ञापन का नमक झर-झर कर
आम आदमी की पहुँच से होता जा रहा है दूर!

दाल-रोटी-चटनी से हुलस रही है थाली
कौर तोड़ा नहीं कि नमक ही तय करेगा
जेवनार का स्‍वाद!

 


प्यास


जि़न्‍दगी प्‍यास को जि़न्‍दा रख
पानी को मरने से बचाती है

प्‍यास की पगडण्‍डी
नदी-घाट तक जाती है
झरने के पास सुदूर पहाड़ तक

पनिमास (पनघट) हमारे जनपद की दिनचर्या हैं
बहुरियों की हँसी-खुशी से शीतल होता रहता है
जल
प्‍यास की रस्‍सी से
कुएँ का पानी हलक में गिरता है
लोटा-गगरी-कलश-बाल्‍टी-गिलास
प्‍यास की खिदमत में हैं दिन-रात

प्‍यास के बहुत अड़गड़ होने के भी हैं वृत्त्‍ाान्‍त
यदि वह अकड़-अड़ जाती है तो
फूल जाती है जि़न्‍दगी की साँस

कण्‍ठ को पानी देना
मनुष्‍यता का सामुद्रिक विस्‍तार है

प्‍यास ने ही पानी को
घूँट होने का हुनर दिया
प्‍यास से ही पानी है तरल
और प्‍यास से ही उत्‍कर्ष पाया पानी का कवित्‍व

(माटी की काया में)
घूँट की गहराई
प्‍यास का रकबा तय करती है!

 

 

पानी बहुत उदास है


पानी बहुत उदास है
बोेतल में पानी का चेहरा उतरा हुआ है
याद आ रही हैं उसे अपनी लहरें
वह पार्वती नदी याद आ रही है
जिसका वेग उसे बाँधता था

सोचा था उसने किसी मटके में हो वह खूब ठण्‍डाएगा
और बुझाएगा किसी अतिथि की प्‍यास
अब भी वह सोच रहा है मन ही मनः
काश! उसे चुल्‍लू से पीता कोई भर प्‍यास
या काम-धन्‍धे से लौट
लोटे से पी जाता एक साँस,
गिलास में भर जाता जब वह पूरम्‍पूर
उसे पीने के बाद कहा जाता
कितना मीठा है इधर का पानी!

बाज़ार में बिकने से वह बेहद खफ़ा है
घुटन-खामोशी ने कर दिया है उसे अधमरा

सोचता जा रहा है पानी
और बढ़ती जा रही है उसकी उदासी
उसके समझ में नहीं आ रहा
कि उस में भी रह गया है अब कितना पानी

कस्‍बे की सड़क पर चमचमाती इम्‍पोर्टेड कार
खड़ी हो चुकी है
जिसके भीतर से ही तैरती आवाज़ आ रही है-
‘विसलरी वाटेल मिलेगी क्‍या इधर'
और दूकानदार पूरे जोर से कहता जा रहा है-
‘जी साहब जी'!
- !!!

 

पानी से ही जाना

पानी में
सुन्‍दर कविता

पानी में
बड़ी कहानी

पानी-पानी-पानी

पानी में अपनी पीड़ा
पानी में अपना प्‍यार
पानी से ही जाना
दुर्गम से होना पार


कोई पूर्वाभ्‍यास नहीं


पानी कोई पूर्वाभ्‍यास नहीं करता
और मंच पर प्रकट हो जाता है सीधे
फिर भी इतनी अभिनय कुशलता-
इतना सुन्‍दर खेला
कि भीतर का पानी हँस-हँस कर
हो जाता है लहालोट
मंच पर नाट्‌य पारंगत
और मंच परे की भी उसकी भूमिका सुदक्ष

एक ओर पात्र को इतनी संजीदगी से
वहीं दूसरी ओर पूरी निर्लिप्‍तता के साथ जीकर बताना
यह है पानी के ही बूते की बात

कोई पूर्वाभ्‍यास नहीं
फिर भी अभिनय में इतनी तल्‍लीनता
कि पानी न कोई संवाद भूलता है
न बिसराता है कोई मुद्रा या भाव
और जरा भी कमतर नहीं होने देता है
प्‍यास बुझाने का अपना गुन

यह चमत्‍कार नहीं तो और क्‍या है
कि दिनमान एक बूँद में पानी उतार लेता है सारे रंग
उनकी पूरी रंगत के साथ
जिसे देखकर सृष्‍टि की समूची रंगशालाएँ
तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठती हैं

कोई पूर्वाभ्‍यास नहीं
लेकिन पानी मजा हुआ कलाकार है
पात्र के अनुसार रूप धरने के
हासिल हैं उसे बहुतेरे हुनर!

 

पानी के हँसने में


पानी के हँसने में
हयात है

लहरों में जि़न्‍दगी का
पैगाम हुआ करता है

जाहिली से घूँट भरने से
पानी को चोट पहुँचती है

प्‍यास और पानी का रिश्‍ता
बहुत पाक है
इसे समझने में बात है

 

बारिश


न बादलों की आवाजाही
न बिजली की कड़क
न घटा घहरानी
फिर भी मैं भीग गया हूँ
पोर-पोर
भर गया हूँ रंध्र-रंध्र
तुम्‍हारे प्‍यार की उन उतप्‍त बदलियों ने
कर दिया मुझे लहालोट
और बाढ़ में बह गया
हम दोनों का शरीर
सुबह के घाट पर
रूह की नमी से याद रहा
कि बारिश
प्‍यास के एक रिश्‍ते का नाम है!


रेवा छन्‍द

रेवा से पहले रेवा के पानी के संगीत से
हुआ अपना आत्‍मीय साक्षात्‍कार
फिर दरस-परस कूल-कछार से

रेवा! किलक-हुलस बहती है
कहती हैः जीवन! जीवन! जीवन!
जीवन से बड़ा नहीं कोई उद्‌गार
नहीं कोई चमत्‍कार
जीवन ही रचता है अपना प्रिय संसार

रेवा कुलीनः
जिसके कूल भरे हैं
जीवन की गरिमा-महिमा से
सुख का अंतरा
हर रहा जन-जीवन का संघर्ष ताप

रेवा सदानीरा
जिस की कुशलक्षेम के लिए
आत्‍मा अधीरा
जन-गन की!

अमरकण्‍ठक से निष्‍कण्‍टक निकल
रेवा लगती है धरती के कण्‍ठ से
फूट पड़ा मीठा जलगीत
प्‍यासे हलक जिसे पी-पी कर
रचते हैं पानी का महाकाव्‍य

जल-रव रेवा का बहुत मोहता मन
गुल्‍म-लता-तरु गाते हैं जिसे राग देश में
घास अपने मधुर हरे आलाप में सुनाती है चारुकेशी
विंध्‍य-सतपुड़ा के आँगन में बहता है रेवा का संगीत
सुन कर जिसे धान का दूध होता है गाढ़ा
और वनस्‍पतियों की बाढ़ बनी रहती है
दिशाओं में भी रहता है जिसका उछाह
रेवा का प्रवाह पी कर हँसता है सूरज धूप-हँसी
उतारता अपनी परकम्‍मा की थकान
घाटी की हवा सीखती है रेवा से बहना
रेवा ही देती है अपने अंचल को अन्‍न-जल

रेवा का गुणकारी चरित
लोक गीतों में अंचल-रीतों में देख-सुन
देता है रेवा को बहुत आदर
खंभात में अरब सागर!

 


पानी-प्‍यास


पानी की जुबान पर
प्‍यास रहती है

प्‍यास भी
जब बोलती है
तो केवल पानी कहती है

 

पानी का मतलब

पानी का मतलब
दुनिया को मतलब देना है
और आदमी को बचाना है
मतलबी होने से

पानी का मतलब
एक तिहाई भू-भाग है
लेकिन घूँट भर की प्‍यास को
सूखने नहीं देना उससे भी बड़ी चुनौती है

पानी का मतलब
कविता में तैनात मतलब को छुट्‌टी देना है

पानी का मतलब
‘ठण्‍डा मतलब कोका कोला' नहीं
प्‍यास की वर्तनी को
बाजार बना देने की प्रवृत्‍ति के
खिलाफ होना है!
सख्‍त खिलाफ!!

 


मल्‍हार

सुनते हैं उमर पचास तक रीवा में रहे थे तुम
इस लम्‍बी अवधि में कितना गाया होगा तुमने तानसेन
और पूरा रेवांचल तुम्‍हारे राग-रागनियों की खुशबू से
रहा होगा सराबोर और उस समय
कोई कलेजा काठ न हुआ होगा

जब तुम मल्‍हार गाते रहे होगे
विंध्‍य को बरबस भिगोते रहे होंगे मेघ
नाचते अघाते न होंगे मोर-मोरनी
और यह विंध्‍या-भूमि हरीतिमा, फूल-फल से
लदी रही होगी

जनश्रुति कि पाँच वर्ष की आयु में गूँगेपन के बाद
बारिश में ही खुला था तन्‍ना तुम्‍हारा कण्‍ठ

धन्‍य है गुनग्राही राजा रामचन्‍द्र जो तुम्‍हारे कण्‍ठ की मिठास से
निर्मल करता रहा अपना हृदय
और पूरे जनपद को कराता रहा ‘सुरराज' के कण्‍ठ का
मधु-रस-पान

अकबर के राज में तो तुम नवरत्‍नों में से थे एक
पर विंध्‍यभूमि में तो तुम ही थे सर्वोच्‍च रत्‍न
आज भी विंध्‍यप्रदेश की इन घाटियों-पहाडि़यों
की पगडण्‍डियों से गुजरते लगता है-
झरनों में बह रहा है तुम्‍हारे कण्‍ठ का संगीत
तुम्‍हारे ही राग से खिले हैं, ये फूल
नदियों में खिलखिला रहा है प्रसन्‍न-जल
और हवा में भी सुर-ताल का असर है
सुनते हैं तुम्‍हारे तान पर मुग्‍ध थे वत्‍सल-हृदय महाकवि सूरदास

वर्षा-मंगल निहारते खड़ा हूँ बारिश में सुनते हुए मियाँ की मल्‍हार
और मेरे अंतस्‌ में भरता जा रहा है
पूरे वनप्रान्‍तर की हरियाली का छन्‍द
तन्‍ना! तुम्‍हारे गहरे आलाप में तानी का विरह उठ रहा है
और मेघ करुणा बरस रहे हैं भीगेमन

आह! बूँदों को भी संगीत का कितना रियाज़ है!

 

 

लोटा

यही है जिसके पानी को
खेत-खलिहान से लौट
ओसरिया के डेहरौते पर बैठ
गटागट पी जाते थे बाबा
यही हाल पिता का रहा

अब घर में इतने बड़े लोटे से
कोई नहीं पीता पानी
उस तरह से अब खेत-खलिहान से कोई
घर भी कहाँ लौटता है!

बैशाख के मेले से
बाबा ने ही खरीदा था
काँसे का यह लोटा
इस लोटे के मुँह पर
बाबा के होंठ के निशान हैं
पिता के भी

लगता है हर घर में
पिता का कोई न कोई लोटा
ज़रूर होता होगा
जिस पर दर्ज़ होंगे होंठों के
अनन्‍त निशान
और थोड़ा आँख गड़ाकर देखा जाय
तो मिल सकता है उस पर प्‍यास का आद्यन्‍त वृत्त्‍ाान्‍त

एक समय पानी से छलकता हथेली पर
रहता था यह लोटा
लेकिन एक कोने में पड़ा दिखता है अब यह पूरा उदास
जब इसे माँ माँज देती है
जी उठती है इसकी धातु

संस्‍कृत भाषा की तरह काम-प्रयोजन पर
यदा-कदा होता है इसका ज़रूर इस्‍तेमाल
लेकिन अधिकतर यह पानी के ख्‍वाब में
पड़ा-पड़ा धूल पीता रहता है

भूसी से माँजकर पत्‍नी ने चमकाया
आज फिर इसका अन्‍तस्‌-बाह्‌य
और दिया मुझे इसी लोटे में
लरजता-हँसता नीर
लेकिन पता नहीं क्‍या है मेरे भीतर
कि उठाते से ही यह लोटा
काँप रहे हैं मेरे हाथ और होंठ!

लोटे में तीन पीढि़यों का वजन है!!


नदी-घाट


पसरी चट्टानों पर कपड़े सूख रहे हैं
नहान-स्‍नान में डूबे नर-नारी
नदी को पवित्र कर रहे हैं अपने श्रमशील विचार से-व्‍यवहार से
खेत काटकर आयी औरतों ने अँजुरी भर-भर
जल पिया और नदी को सदानीरा रहने का दिया असीस
तदर्थ चूल्‍हों में कहीं रोटियाँ पक रही हैं
कहीं बलक रहा है दाल-भात
आलू भुन रहे हैं आदिम आँच में अद्‌भुत सुगंध के साथ
अपने घाट पर अन्‍न-गंध से
नदी भी नहा उट्‌ठी है पोर-पोर
घाट के गूलर-जामुन दरख्‍तों की छायाएँ
हँसी-मजाक और सहकार से हैं आबाद
जिनका रोटी-पानी हो गया
बाँह का तकिया और गमछे का बिस्‍तर बना
डूबकर सो रहे हैं बिना बेंचे अपने छोड़े!

गनीमत है कि इस पहाड़ी नदी पर
अभी पड़ी नहीं किसी कुबेर की दीठ!

गेंहूँ-कटाई की ऋतु है यह
चहुँओर महुवा फूल की महक भी उठ रही है
दिशाएँ धूप के नशे में हैं!

रेत कलमुँहे बर्तनों का मुँह चमका रही है
अपने पानी में सुस्‍ता रही है नदी
घाम से व्‍याकुल बादल
घाट के पानी में उतर चुके हैं!

 

 


पानी के पोर्ट्रेट

ख्‍जैसे कि मैं हरहमेश
रचना या देखना चाहता हूँ
धरती, आसमान, हवा, आग के
सुन्‍दर पोर्ट्रेट,

कविता का पानी चीखते से ही
मैं पानी का पोर्ट्रेट बनाना चाहता हूँ
कितनी कोशिश करता हूँ
पर ला नहीं पाता वह तरलता,
न प्‍यास बुझाने का वह गुन
न वह कोमलता
और न वह दुर्धर्ष स्‍वभाव

सोचता हूँ दिखे जहाँ पानी
अपनी सम्‍पूर्ण रंगत के साथ
वक्‍त का मिजाज कि वहाँ
फ़ीकापन घेर लेता है

करीने से शब्‍दों को जोड़-जोड़ कर
जैसे ही तैयार करता हूँ
पानी का खूबसूरत चेहरा
धरती के किसी न किसी पट्टी पर
हो चुका बम का धमाका
कतरा-कतरा बिखेर देता है उसे

पानी बहुत कष्‍ट में है
संकट घिर गया है उसके चहुँफेर
और मैं हूँ कि उसका हँसता-खिलखिलाता
पोर्ट्रेट बनाने की जि़द में हूँ

पानी का पोर्ट्रेट बनाना
वह भी दिखे जिस में
पानी का पूरम्‍पूर प्रसन्‍न-प्रवाह
कितना मुश्‍किल है इस समय
जु़बान से काम लेने वाले
किसी भी मनुष्‍य के लिए!
ओह! धरती की कितनी कम वीथियों में
मनमोहक हो सका है
पानी का अपना पोर्ट्रेट!

 

 

एक दिन!

धरती पर बढ़ रहा तापमान
एक दिन सोख लेगा
सारी बर्फ, झरने,झील, नदियाँ

झुलस जाएँगे जंगल-पहाड़
खेत-खलिहान

दिशाएँ दिखेंगी मुँहझौंसी

अपने ही पानी में
उबल पड़ेगी हमारी देह
और बिना रात के ही
दिनमान आँखों में बैठ जाएगी रतौंधी

जिनकी करतूतों से भूमण्‍डल का पारा हो रहा है गरम
घोर कलयुग! कि टर्की में खूब बहाया उन ने घडि़़याली आँसू
ग्‍लोबल वार्मिंग कि जबरा देश लबरा बयान दे रहे हैं
अमरीकी बघनखा का आतंक है․․․

वैसे भी कितने वर्षों से
बीमार चल रही है बारिश

दिनोंदिन धरती पर बढ़ रही है
कार्बनडाइआक्‍साइड गैस
और तेजी से बिगड़ता जा रहा है
प्राकृतिक-संतुलन

पृथ्‍वी के नाड़ी-वैद्य
चीख-चीख कर कह रहे हैं
कि बढ़ता तापमान
चेतावनी है-कि धरती को घेरने वाली है अब
बेमियादी बुखार!!


समुद्र निहारते हुए

 

इन्‍हीं लहरों से
बनी हैं
आँख मेरी


शायद इसी से
देखते सागर
उमड़ती जा रहीं ये
फैलती भी जा रहीं


जिनमें समाता आ रहा
विस्‍तार सागर का

 

 

 


सगवन के पात पर खिचड़ी


दहबोर कर - पैर कर नहाना
मारते हुए मुँह से कुल्‍ला
फिर सगवन (सागौन) के पात पर खिचड़ी का भोग
और दोना में पानी


महुआ की छाँव में
नींद को दोपहर का सुख देना


मेरे चरवाहा - मन को
पहाड़ी नदी कितनी सांस्‍कृतिक लगती है!


पूर्वजों ने पानी से ही बोलना सीखा होगा
और भरा होगा कण्‍ठ में
गीत - संगीत!

 

 

 


पानी एक आवाज़ है


पानी एक अवाज़ है ः
कभी विलम्‍बित, कभी दु्रत
कभी मध्‍य लय में बहती हुई
कभी मौन मैं धड़कती हुई बहिर्ध्‍वनि के बिना

‘कामायनी' की शिला की शीलत छाँह में बैठकर
भीगे नयनों से सुनता है जिसे मनु

मिट्टी की अनेक परतों के भीतर जड़ जिसे पीकर
वृक्ष की सबसे ऊपर की फुनगी तक को
कर देती है हरा-भरा। फसलों की बालियाँ जिसका कोरस गाती हैं
खेत-खलियान में भर-भर चुल्‍लू पीते हैं जिसे मजूर-किसान
हल में नधे बैल लौटने पर सार के नाद में पी जाते हैं जिसे
एक साँस। बच्‍चे जिसमें नहाते हैं उछलकूद
और चिरई-चुनूगुन चुगते हैं जिसे बूँद-बूँद
घाट पर जिसके हँसी-मजाक, बोली-ठिठोेली के
झरने फूटते हैं और अनुरागी मन भीजता है

अपनी जललिपि में लहरें जिसे लिखती हैं। बूँद जिसे तत्त्‍वतः गहराई
देती है। जिसे सहेजकर रखती है प्‍यास कलश में।
बर्फीले पहाड़ों में-झीलों के घाट में, नदियों के पाट या वहाव में
पीता रहता है जिसे पत्‍थर और पानी से अपने समवयस्‍क रिश्‍ते को
करता रहता है घनीभूत!

पानी एक आवाज़ हैः
घूँट के व्‍याकरण में बुनी हुई गूँजती हुई बूँद से समुद्र तक
जो हँसिया-खुरपी को देती है धार और हल की फाल को
करती है चोख। दीए और घट गढ़ने के लिए मिट्टी को देती है जो लोच।
जो अयस्‍क को करती है वयस्‍क
क्‍वाथ, रिष्‍ट, आसव आदि जिसके औषधीय संस्‍करण हैं

जिस में नहाकर जनगण के मन में
भर जाती है तरलता-आ जाती है तरावट
और चलती नहीं लू की कोई राउरमाया!

भीग-भीग कर जिससे कालिदास ने रचीं उपमाएँ
दण्‍डी के पद में ललित आया। भारवि को मिला अर्थ-गौरव
और माघ ने तो पाया ये त्रयोगुण

पानी एक आवाज़ है ः
जो माँ के कलेजे से निकलकर बेटे की आँख में ढरकती है
जो घुटन और खामोशी के खिलाफ़ है
बचाती हुई आत्‍मा को बर्फ होने से
जिसमें है मुक्‍तिबोध का आत्‍मप्रश्‍नः
‘अब तक क्‍या किया, जीवन क्‍या जिया
ज्‍़यादा लिया, और दिया बहुत-बहुत कम'

निकल पड़ती है जो क्रौंच-वध पर
आदि कवि की आत्‍मा से एकाएक
जो व्‍यास की महाभारत वाणी है
लिखते हैं जिसे गणेश


तानसेन के कण्‍ठ से निकल पिघलाती है जो पत्‍थर
और अपने दीपक राग से जला देती है जो चिराग
जिसमें जैसलमेर - बाड़मेर के रेगिस्‍तान का घर
अण्‍टार्कटिकन इग्‍लू की कुशलक्षेम सोचता है
कुएँ में बालटी डूबने का जिसमें संगीत है
जो घाट में कलश से चलकर कण्‍ठ तक खनकती है
आधी रात में खटखटाती है जो प्‍यास का दरवाजा
उजाड़े-काटे जा रहे वनों से सूखती जा रही है जो
और अवर्षा से मुरझा गया है जिसका चेहरा
जो पहाड़ और समुद्र के बीच सेतु है
जिसके सहारे कितनी तो बोली-बानी
होती हैं इधर से उधर या उधर से इधर

पानी एक आवाज़ है ः
मोर की आँख से पीती है जिसे मोरनी
स्‍वामी हरिदास के धु्रपद में जो नाद सौन्‍दर्य है
भरत के नाट्‌यशास्‍त्र में जो भाव, रस, अभिनय, मुद्रा है
भवभूति में करुणा-जल। प्रांजलता वाणभट्ट के आख्‍यान में
अमीर खुसरो के खयाल में जो गमकता हुआ सुर है
और ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की' एक पूरा जीवन दर्शन।

पानी एक आवाज़ है ः
सुना था जिसे लक्ष्‍मण ने पंचवटी में
सीता और राम के संवाद में और दौड़कर लाये थे
गोदावरी का निर्मल शीतल जल

जिसमें मृगया के लिए जंगल में गया कथा का राजा
भटकता है प्‍यास से व्‍याकुल। और पाखियों के प्‍यास के रोचक किस्‍से हैं
मृगतृष्‍णा भी इसी की खोज है

जो रवीन्‍द्र रचित राष्‍ट्रगान में
करोड़ों भारतीयों की उच्‍छल (स्‍वर की) जलधि-तरंग है
‘भारत दुर्दशा' पर जो भारतेन्‍दु का हाहाकार है
प्रेमचन्‍द के ‘ठाकुर का कुआँ' में उजागर होता है जिससे सामन्‍ती चरित्र
और ‘गोदान' में जो होरी की पगड़ी है

पानी एक आवाज़ है ः
बारिश में जो थिगड़े लगे छप्‍पर के नीचे सोए
गृहस्‍थ की नींद में टपकती है और गृहस्‍थिन
टपके और चुअना की जगह रखती हैः
लोटा, टाठी, कठौता, गगरा, बटुई-बटुआ, करचा, खोरा, तसला, बाल्‍टी

पानी एक आवाज़ है ः
ऐसी कि सोमालिया के बच्‍चे की भूख
‘व्‍हाइट हाउस' के बच्‍चे को कर दे बेचैन
जिसमें मिटा दिये गये तालाबों की चीख है
और उजड़ रही नदियों की सूखी रेत

जिसमें गहरा आक्रोश है
कि क्‍यों कर रहे हैं विदर्भ के किसान आत्‍महत्‍या
क्‍यों दाल, नमक दिनोंदिन महँगे हो रहे हैं
जबकि सस्‍ती हो रही हैं कारें

पानी एक आवाज़ है ः
जो मरने नहीं देती प्‍यास
तैरती है जिसमें बच्‍चों की नाव
जिसमें विन्‍ध्‍य का झरना
आल्‍पस की घाटी से बात करता है
जिसमें केरल के धान का खेत
यूक्रेन के घास के मैदान की हरियाली से बतियाता है
जिसमें नर्मदा का पानी
सहारा की प्‍यास के लिए तड़पता है
जिसमें वैमर का कुंज
सतपुड़ा के आँगन में मँहकता है
जिसमें है आपसदारी का अचूक रसायन
और पारायण जि़न्‍दगी के समग्र पाठ का

पानी एक आवाज़ है ः
जो अमरीकी बमवारी में अपने माँ-बाप खो चुके
और अपना पाँव गवाँ चुके ईराकी बच्‍चे की आँख में
डबडबाये आँसू और गुस्‍से के साथ फूटती है

पानी एक आवाज़ है ः
महाप्राण जिससे ‘तुलसीदास' को
‘भारत के नभ के प्रभापूर्य-शीतलच्‍छाय सांस्‍कृतिक सूर्य' कहते हैं
‘बादल राग' में गाते हैं मेह-नेह-राग और ‘सरोज स्‍मृति में'
करते हैं दुःख का तर्पण।
झंकृत है जो बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ के वाद्य वृन्‍द में
‘सब सर्जन आँचल पसारकर लेना' में है
जो अज्ञेय का हृदय सत्‍य। ‘वरुण के बेटे' लिखते हैं जिससे
यात्री नागार्जुन और ‘बादल को घिरते देखा है' में भेंटते हैं कालिदास से

जो मीरा-वाणी है
जिसे एम․एस․सुब्‍बलक्ष्‍मी ने गाया है उतने ही महान कण्‍ठ से
और ताई किशोरी अमोणकर के ‘म्‍हारो प्रणाम' से
कृतकृत्‍य हुआ है राग। ग़ालिब की जुबान में जो एक पूरे जमाने की
मुकम्‍मल दास्‍तान है और दर्द को जीने की तमीज

पानी एक आवाज़ है ः
सान्‍द्र,तरल,हिम-आलय
जो पृथ्‍वी का सबसे गहराई और शिखर तक
साथ देती है। जो खारा होने से बचाती है आत्‍मा का जल
और बंजर नहीं होने देती भाषा की ज़मीन
फसलों और वनस्‍पतियों की हरीतिमा में जिसका मन रमता है
बाजारू चकाचौंध से जो घबराती नहीं
और उठाती नहीं पूंजीवाद के नाज-नखरे
जो प्रजातंत्र के सामन्‍ती व्‍यवहार का
साहसपूर्वक करती है प्रतिरोध
बड़प्‍पन के सामने जो विनम्र है
और चालूपन के सामने है तनेन

पानी एक आवाज़ हैः
लिंकन,लेनिन,गांधी,नेल्‍सन मण्‍डेला के संघर्ष राह की
जूझने का संविधान बनाती हुई और चुनती हुई न्‍याय-पथ
मनुष्‍यता का उंचा माथा है जो टालस्‍टाय के आाख्‍यान में
जो पूछती है सवाल कि क्‍यों दिया गया सुकरात को जहर?
मरीना स्‍वेताएवा ने क्‍यों की आत्‍महत्‍या? क्‍यों मारा गया पाश?
और वानगाग का कैसे हुआ इतना त्रासद अंत?
पानी एक आवाज़ हैः
आवाज़ के पानी से भीगी हुई-
हलक में बजती हुई।आलोड़न-गात! अथाह! पारदर्शी!
गंगा,यमुना,ब्रह्रमपुत्र,कृष्‍णा,कावेरी,
नर्मदा,सोन,महानदी,सिंध,पद्‌मा,मस्‍कवा,वोल्‍गा,नील,सीन,
अमेजन,सिक्‍यांग,सरयू,मिसीसिपी,राइन,डेन्‍यूब का संगम
जिसकी जुबान है और जिसका चेहरा महासागरों जितना विशाल है
जो महीने के कृष्‍ण और शुक्‍ल राग में अपना निस्‍तार करती रहती है
दिशाएं जिसके प्‍यास का उच्‍चारण करती हैं
और ब्रह्रमाण्‍ड के लोटे से पीता रहता है जिसे प्रत्‍येक होंठ!

पानी एक आवाज़ हैः
दुनियादारी से घर लौटकर
चेहरे पर जिसके छींटे मार-मार कर
उतारते हैं हम थकान
और अपमान!
घूंट के आयतन से गिलास का पानी
हमारे दिल का हाल जान लेता है!     

   

 


झील एक नाव है

 

 

 

 

झील एक नाव है


झील एक नाव है
जो धरती में तैर रही है

लिए हुए यह इच्‍छाएँ ः
कि पानी है तो जि़न्‍दगानी है
और पानी पाने से
प्‍यास नहीं होगी खंख

प्‍यास मर जाना
जि़न्‍दगी के
जि़न्‍दा न रहने की
कैफि़यत है

शताब्‍दियों को
उनके घाट उतारती
झील एक नाव है
और कविता के भीतर
पानी का तनाव है

 

 


बड़ी झील

बड़ी झीलः पानी को रहना सिखाती हुई
और प्‍यास को जीना

बड़ी झीलः कभी नर्मदा के
बहते आलाप को सुनती हुई मगनमन
कभी अपनी चुप्‍पी में अथाह
कभी अपने आवेग में
सम्‍पूर्णतः बाचाल

बड़ी झीलः जिसका पानी दिखता है
भोपाल के चेहरे पर खिला-खिला
और रहता है
हिन्‍दी-उर्दू की तरह मिला-जुला

बड़ी झीलः मुग्‍ध भाव से कभी भारत भवन की
कला दीर्घाएँ निहारती हुई
कभी संगीत सुरों को करती हुई आत्‍मसात
कभी सुन्‍दर कविता पंक्तियों पर देती हुई दाद
कभी जिरह करती हुई परिसंवाद में
कभी नेपथ्‍य में कलाकार को रटाती हुई संवाद

कभी लोरी सुनाती हुई
कभी चाँदनी से बतियाती हुई
कभी अपने घाटों पर रहल में रख
बाँचती हुई दिन और रात की पोथी
कभी आकाश-गंगा के साथ दूरभाष पर मशगूल
कभी परखती हुई कि किस बदली में पानी है
और कौन है छूँछ

बड़ी झीलः समुद्र की बेटी
अपने पिता की तरह जिसका चेहरा-मोहरा
अपनी दीर्घायु में भोपाल को पानीदार बनाती हुई
दो पहाड़ी जबड़ों के बीच (फैली) जुबान की तरह
मुलायमियत व्‍यवहार के लिए वक्‍़त को समझाती हुई

बड़ी झीलः
आसमान को पानी पहनाती हुई
हवा को नहलाती हुई
धरती के लिए गाती हुई जलगीत

बड़ी झीलः आसपास के खेतों में लहलहाती हुई
पकी फसलों के साथ गाती हुई राग बसन्‍त
किसानी सहजता के साथ गोबर लिये आँगन में बैठ
गाँव-खेड़ों को ढाढ़स बँधाती हुई
गाय-गोरू की प्‍सास के लिए
घूँट बन जाती हुई
मेहमान परिन्‍दों की करती हुई आवभगत

बड़ी झीलः कभी सायकिल और गाडि़यों के पंचर
ठीक होने के लिए मैकेनिक की दूकान की तगाड़ी में हलकती हुई
सुबह-शाम नल की पगडण्‍डियों से शहर के
घर-घर में दौड़ती हुई

बड़ी झीलः पूछती हुई जलठाउँ की कुशलक्षेम
वन विहार के नीलगाय की आँख में लहराती हुई
चिडि़यों की प्‍यास के लिए बूँद बन जाती हुई
महात्‍मा शीतलदास की बगिया में हो जाती हुई बनारस का गंगा-घाट
कहावत में ‘तालन में भोपाल ताल' बन
जुबान पर चढ़ जाती हुई

बड़ी झीलः कभी कन्‍याकुमारी के सनसेट से
अपना रिश्‍ता जतलाती हुई
कभी कथा का सरोवर हो जाती हुई
जहाँ सूर्य हर दोपहर पानी पीने उतरता है

बड़ी झीलः
भोपाल की खूबसूरत संस्‍कृति का नाम है
जो अपने अदब के साथ
दुनिया की हर सुन्‍दर चीज़ से मुखातिब है!

 

 

  

लहरें
(बेतरतीब पंक्तियाँ)


लहरें मेरी आँखों का सूनापन
बहा ले जाती हैं
लहरों की हर लीला नयी है
जैसे कि हमारी हर साँस
पहली है

मेरे बचपन का दोस्‍त सूरज
सुबह-सुबह मेरे हृदय का नीर पीता है
(अपने अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य के लिए)

झील पी गया हूँ
कई-कई बार
(इसीलिए शब्‍दों के होठ पर पानी की चमक है)

दोपहर मेरी दोस्‍त है
मेरे साथ वह झील में नहाती है

पानी की पीरा
शब्‍दों की चुप्‍पी में बलकती है
सफाई झील की चिकित्‍सा है

परदेस में भटकती है प्‍यास
इधर से उधर
और घर में माँ के हाथ का
लोटे में रखा ठण्‍डा पानी
काँपता है!

 

झील पर मुग्‍ध

झील पर मुग्‍ध
झील को निहारती है आँख

आँख का जादू
कि झील भी आँख से भेंटते
उड़ेल देती है
अपनी सारी मिठास

दोनों में इतना अपनापा-इतनी एका
कि झील कहो तो आँख सम्‍बोधित हो जाती है
और आँख कहो तो झील बोल पड़ती है�
‘हाँ'!

 

 


झील

झील
एक आकांक्षा है
जिसमें पानी का भाव
लहराता रहता है

समय की घाटी में
बड़ी झील
राजा भोज की जयगाथा है


बहुत तरफ़ से बहते पानी को
मुकाम देती हुई बड़ी झील
अपने एक नाम में
भोजताल है

इस तरह-
भोपाल के नामकरण में
बड़ी झील का ही पानी लगा हुआ है

 

 


झील से शहर है

अपनी झील के लिए
एक खिड़की खोले ही रहता है
शहर

झील भी
अपने शहर के लिए
तोड़ देती है अपनी सारी खामोशी
और लहर-दर-लहर
अपने शहर का श्रृंगार करती रहती है

शहर की जुबान पर चढ़ी हुई है झील
और झील भी हरहमेश अपने शहर की
कुशल-क्षेम जपती रहती है

झील से शहर है
और शहर में झील रहती है

 

 

 


पानी पर


पानी पर
थिरकता है पानी
(लहर बन)

इच्‍छा पर
नाचती है इच्‍छा
(बहर बन)

इस तरह
बड़ी झील को निहारना
संगीत हो जाता है

 

 

बड़ी झीलःतुम्‍हारी लहरों की ललक

दिन भर का थका-हारा सूरज
तुम्‍हारे पश्‍चिमांचल में आकर डूब गया बड़ी झील
खूबसूरत सनसेट देखने के लिए उमड़े लोग
लौटने लगे हैं अपने-अपने घर
इतनी दूर से भी कितना सुन्‍दर दिख रहा है
तुम्‍हारा कुंकुम-किलकित-भाल

सन्‍ध्‍या-सुन्‍दरी
तुम्‍हारे जल का आचमन कर
धीरे-धीरे शहर पर
उतर रही है

बड़ी झील!
तुम तो हमारे भोपाल की दर्पण हो
तुम्‍हारी हलचल में इस शहर की
झिलमिल है

जब तुम सूखने लगती हो बड़ी झील
हमारा प्रांजल मन झूर पड़ने लगता है
तुम्‍हारी सागर-मुद्रा को देख
मेरा मन डगमगाता है बड़ी झील
कहीं तुम बह न जाओ
हाड़ तोड़ अपने तट का !

तुम्‍हें गँदला किया जा रहा है बड़ी झील
जबकि तुम बेहद सफ़ाई पसन्‍द हो
जानती हो बड़ी झील!
धुर-दोपहर जब तुम अपने पानी में
सो जाती हो
तुम्‍हारे भीट पर मैं अपनी उदासी रख
चुपचाप घर लौट जाता हूँ
डालकर तुम्‍हारी मछलियों को
गूँथे हुए अपने दर्द की लोईयाँ

तुम्‍हारे तट से मैं
खाली हाथ नहीं लौटता बड़ी झील!
बाँध लाता हूँ अपने लहू में
तुम्‍हारी लहरों की ललक


कवित्‍व जगमगाता है!

मैं निषेध हूँ
एक शिला का
(दरअसल जो कि समय है!)

जितना बह जाता हूँ
उतना रह जाता हूँ
पत्‍थर होने से

अवाक्‌ प्रार्थना में
मेरा भी मौन है

बड़ी झील! तुम्‍हारी पानी-धुली
आवाज में
मेरी भी जुबान का
अंजोर है
(मद्वम ही सही)

मेरे खयाल में
पानी का
कवित्‍व जगमगाता है!

 

फैलाकर अपनी बाँह

हँसी ही फैलाऊँगा
फूल के गोत्र का हूँ

पानी के कुल का हूँ
उतरूँगा जड़ की ही तरफ़

हाँ, बड़ी झील!

पानी के कुल का हूँ
इसीलिए�
जहाँ पानी देखता हूँ
फैलाकर अपनी बाँह
ढरक जाता हूँ
उधर ही!

चट्टान की सन्‍तान


चट्टान की सन्‍तान
वह ढलुआ पत्‍थर
अपने चेहरे पर लादे हुए है
कितने समयों का बोझ

बड़ी झील! तुम्‍हारे जुड़वाँ किनारों को
वह पत्‍थर पानी के साथ रहने का
अपना अनुभव बाँटता रहता है

यह बात केवल पानी को पता है
कि कैसे वह पत्‍थर
हर बरस अपने को कुछ पानी करता जाता है
इसीलिए अक्‍सर पानी पीते हुए
हमारे कंठ से फूट पड़ता है
उस पत्‍थर का दरद

उसी आयतन के साथ इस दरद को
कविता में रूपान्‍तरित करना
बहुत कठिन है बड़ी झील

कवि विफलता का कारोबार करता है!

 

 


झील एक शब्‍द


झील
लहराता हुआ
एक शब्‍द
कि जिसे देखकर
कविता के मुंह में
पानी आ जाय

लहर ऐसी
कि कविता में
कहानी आ जाय
और कहानी में
कविता छा जाय

झील लहराता हुआ
एक शब्‍द
सहेजे हुए
कविता में पानी
और पंक्‍तियों के बीच
संवारे हुए प्‍यास
पानी की
पानी प्‍यार है

पानी प्‍यार है
पृथ्‍वी के लिए

झील
प्‍यार के लिए
खूबसूरत बस्‍ती है

कश्‍ती कहाँ है
चलो मझधार में
मीठे गीत गा-गा कर
हम पानी का मन बहलाते हैं


सन्‍त हिरदाराम

तुम्‍हारे बैरागढ़ी छोर पर
संत हिरदाराम की एक पावन कुटिया है
बड़ी झील!

यह संत सादगी और मानवीय करुणा का अवतार है
जीव-सेवा और प्रेम जिसकी दिनचर्या है
आज के बाजारू वक्‍़त में ऐसे संत का होना
ठगने-लूटने की प्रवृत्त्‍ाि का सच्‍चा निषेध है

कुछ दिनों पहले अपने भौतिक शरीर से
जा चुका है यह सन्‍त
पर उसके सुयश और संकल्‍प का
आज भी लोगों की आत्‍मा में अँजोर है

तुमने तो देखा है उस संत का सत्‍कर्म बड़ी झील!
उस सन्‍त की आँखें तुम्‍हें भी तो निहारती थीं
बहुत मान से

पत्‍थर

 

झील तल में
पड़ा पत्‍थर भी पानी की
एक मुकम्‍मिल दास्‍तान है। वह भी वहाँ कुछ न कुछ
कर ही रहा होता है अपने पानी के लिए


कहीं वह मछलियों का आश्रय है
कभी वह कीचड़ से बचता हुआ अपनी झील में


कितनी खुशी होती है हमें
जब हम उस पत्‍थर की पीठ पर बैठ
निहारते हैं बड़ी झील का विहंगम दृश्‍य
झील का कितना सगा है यह पत्‍थर
इसकी आँखों से एक पल भी ओझल नहीं है झील
लहरें खिलखिलाकर जब इसे नहला देती हैं
भीग जाता है भीतर तक यह


आदमी की उदासी और प्रेम के बारे में जानता है यह बहुत


पानी में छुपा पत्‍थर दरअसल फरार है
धन्‍नाशाह के भय से
कि चुनवा न ले कहीं वह अपनी हवेली में उसे


यह पत्‍थर झील में इतना रम गया है
कि झील की बात करो तो
हुँकारी में हिला देता है यह
अपना सिर।

 

हथेली पर फूल

झील की हथेली पर
वह जो फूल खिला है
लगाना है उसे
एक सुनहरी चिडि़या के
जूड़े में
मुझे


वक्‍त की झील में

वक्‍़त की झील में
हम पानी की
दो बूँद (हैं)

दो बूँदों की तरह
अलग-अलग

मिल कर
आवेग
लहर - दर - लहर!

 

हँसी की नमी

बहुत आवाज़ है तुम्‍हारे आसपास
बहुत सूनापन भी तो है
उसे कैसे लिखूँ
भाषा के बाहर कुछ सूझता नहीं
भाषा में कह नहीं पा रहा बड़ी झील

सूरज की किरने ज़रूर कहीं
किनारों की उन छायाओं को जगा रही हैं
जो कितने दिनों से सोयी पड़ी हैं

तट की झाडि़यों में
दुबके हुए हैं प्रेमी युगल
उनकी कनबतियों से वहाँ कुछ
फूल खिल गये हैं
पत्‍थरों में थोड़ी नमी आ गयी है उनकी
हँसी की

संग-साथ

बड़ी झील!
तुम्‍हारे आँगन में
हवा और पानी साथ खेल रहे हैं

लहरें खुशी से उछल रही हैं

सावन आ गया है
मौसम की मस्‍ती देखते हुए
हमारे भीतर भी
उमंग की-उल्‍लास की
हिलोरें उठ रही हैं

झुकी बदलियों के चेहरों पर
खुशी की लहर दौड़ रही है

किनारों पर भीगते
एक-दूसरे से सटे हुए प्रेमी युगल
प्रेम कविताओं के शब्‍दों में
अपनी साँसों की खुशबू
और आँच भर रहे हैं
और उनकी इच्‍छाएँ आग चीख रही हैं

देख लेना बड़ी झील!
कल बदलियों से
उनके प्रेम का शेषांश
बरसेगा

 

 

 

प्रथम नागरिक

हमारे भोपाल की प्रथम नागरिक हो तुम
बड़ी झील!
सब की श्रद्धेय
सब की माननीय

दुख-सुख में
सब तुम्‍हारे पास आते हैं
बड़ी झील!
यहाँ भोपाल में तुम
सबसे सयानी जो हो

तुम्‍हारी ही सत्त्‍ाा है यहाँ
चिर नवीन!
युग-युगीन

इसीलिए तो-
यहाँ जो बोलता-बतियाता है    
गाता है-गपियाता है
सब में
तुम्‍हारे आब की खुशबू दिखती है।

 

तुम्‍हारी ही तरह

तुम्‍हारी ही तरह
मेरे भीतर स्‍मृति की एक झील है
बड़ी झील!
देखो न मेरे भीतर ध्‍यान से
क्‍या-क्‍या नहीं लहरा रहा है
अपने-अपने राग में

और क्‍या-क्‍या नहीं जल रहा है
अपनी-अपनी आग में!
 

अपनी नीली तरलता में

अपनी नीली तरलता में
आकाश लहरा रहा है
हरीतिमा में हँस रही है
धरती

अल्‍सुबह तुम्‍हारे पानी में नहाकर
खेलने निकली है हवा

बड़ी झील!
एक दुख कहने आया था
तुम से
पर लख यह सब
बरबस ही फूट पड़ा सुख
मेरे मुख से!

 

उबटन

धूप के उबटन से
झील के चेहरे में
चमक आ जाती है

अपने पानी में
झील जब खिलखिलाती है
वह धरती की
सबसे खूबसूरत जलपरी नजर आती है!

 

अपने पानी में

अपने पानी में
जब तुम मुस्‍कराती हो
बड़ी झील!
तुम्‍हारी डिम्‍पल देखते ही बनती है
उन डिम्‍पल में
बड़ा अदब है
गज़ब है!
उन बल में
रूह-ए-सुकून की जगह

रूह-ए-सुकून की जगह
बड़ी झील!

बड़ी झील से
दुआ-सलाम के बिना
अपने आफ़ताब को भी
खुशी का आब कहाँ मिलता है!

 

पहर-दर-पहर


पहर-दर-पहर
बड़ी झील उत्‍सव रचाती है
देखने-सुनने में कला है
लहरों की थिरकन में
पूरा का पूरा जीवन ढला है

शाँत बैठी शिलाओं को
बार-बार छेड़ते देख
लगता है
पानी भी कितना मनचला है!

 


दो दिगन्‍त!

दो दिगन्‍त!
अपने कंधों पर
तुम्‍हें झुला रहे हैं
बड़ी झील!
और यह आसमान
कितनी बार मुँह धोएगा
तुम्‍हारे जल में

देखो न बड़ी झील!
दिन-दोपहर ये परिन्‍दे
अपने चोंच से
तुम्‍हारे पानी की तस्‍करी कर रहे हैं।

 

उसे भी एक दिन


देखो न बड़ी झील!
वह अल्‍हड़ मछली
मेरी ही आँखों के सामने
पी गयी है पूरा एक जल-गीत
और गीत के लय की
मेरे भीतर लहर उठ रही है लगातार

समझाओ न उसे बड़ी झील!
मानुस की भाषा में
न तैरा करे वह इस तरह
नहीं तो भाषा के शिकारी
मार खायेंगे उसे भी एक दिन!

 

मैं जटिल वाक्‍यों में

 

मैं जटिल वाक्‍यों में
पानी का गुन मिलाना चाहता हूँ
जो दौड़ता है प्‍यास की तरफ
जो रंगो में बोलता है

लहराती झील के लिए
भाषाओं में रखना चाहता हूँ
माननीय जगह
जिससे लिपियों में तरलता हो
सरलता हो संवाद में

झील एक संस्‍कृति है
जो हर हृदय के पानी में
जिन्‍दगी के मानी को
मान देती रहती है

मैं चाहता हूँं
झील कहूँ तो जुड़ा जाय तपती हुई आँख
और निगाह को लगे कि पानी से उसका रिश्‍ता है
नाभिनाल

 

तुम से बोलते-बतियाते


बड़ी झील!
तुम से बोलते-बतियाते
मेरी जुबान की मैल छूट जाती है
और धुल जाते हैं सारे दाग-धब्‍बे

कितना सारा मौन छुपा रखा है मैंने
तुम्‍हारे पानी में
एक दिन निकाल कर सारा मौन
उसे कहने में लाऊँगा
फिर भी जो कह न पाऊँगा
उसे ज़रूर तुम्‍हारे कान में
फुसफुसाऊँगा

 

कम पानी में

कम पानी में
जैसे मछरी जीती है
वैसे तो
वैसे ही जीते हैं हम
बड़ी झील!

गर मिल गयी कोई खुशी
बन गया कोई बिगड़ा काम
और हंँस कर किसी ने
कर ली बात

चहक उठते हैं हम
और उमड़ पड़ते हैं हमारे चेहरे पर
उमंग और उल्‍लास

हम इतने कच्‍चे पेट के हैं
बड़ी झील!
कि जल्‍दी से हमारा
सुख स्‍खलित हो जाता है!

 

झील में

झील में
पानी के बुलबुले
खुशी के-
ख्‍वाब के
गीत गुनगुनाकर बुझ गये

क्षणभर की
अपनी इस हैसियत पर
बहुत द्रवित हुआ पानी

तभी से-
दर्द भरे गीतों को सुनकर
आँख की कितनी भी गहराई में हो पानी
छलक आता है बनकर आँसू
और गीतों में दर्द का रंग
गाढ़ा करता रहता है

बावरा पेड़


कल ही भेंट हुई
उस बावरे पेड़ से
बड़ी झील!
तुम्‍हारे खिलाफ़ सुनना नहीं चाहता वह
एक शब्‍द

बहुत प्‍यार है तुम्‍हारे पानी से उसे
कहता है पीछे हटो लहरों की संख्‍या भूल जाऊँगा

उसकी टहनियों पर बैठ
चिडि़याँ जब पानी के मीठे-मीठे पद गाती हैं
वह मस्‍तमौला पेड़
ऐसे झूमता है
कि मौसम को हँसी आ जाती है!

 

 

सूर्य मगन है

सूर्य मगन है
अपने गगन में

बड़ी झील
अपने पानी में
ध्‍यानस्‍थ

किनारे दुपहर की
झपकी ले रहे हैं

बासन्‍ती धूप
पानी से लिपटी पड़ी है

डूबकर इन्‍हें निहारने में
मर्यादा है
खाँसने तक से
सुन्‍दरता का यह ताना-बाना
तार-तार हो जायेगा

 

 

साधुवाद

कितने मान से सहेज कर रखा है तुमने बड़ी झील
पीर शाह अली शाह का तकिया
लहरें भी उस माटी को
इज्‍जत से छूती हैं

धन्‍यवाद कहता हूँ
उन परिन्‍दों को
तकिया के पास के पेड़ों पर जिनका बसेरा है
और वे जब-तब रोचक जल-गीत
गाती रहती हैं

साधुवाद!
उस टापू की हरियाली को
हरहमेश जो इंसानियत को दुआ देती रहती है

 

सूख चली थी बड़ी झील

हर बरस की तरह
इस बरस भी चल रही थी जिन्‍दगी
सिवा इसके कि जितना सूख गयी थी बड़ी झील
उतनी ही सूख गयी थी शहर की सुंदरता

जैसे-तैसे पीने को पानी मिल ही रहा था शहर को
पर पानी की रंगत से शहर दूर था
शहर में कोई मेहमान आता था तो अब
दिखाने के लिए नहीं था कुछ खास
क्‍योंकि बड़ी झील सूख चली थी

चूंकि झील सूख चली थी
इसलिए हवा बिना नहाए ही
दौड़ती थी शहर में इधर-उधर

सुबह का चेहरा रूखा-रूखा लगने लगा था
दोपहर को दबाए थी गहरी तपिश
और शाम उदास रहने लगी थी

झील सूख चली थी
और झील में जो थोड़ा पानी शेष था
वह कीचड़ में लिथड़-लिथड़ कर दिनरात छटपटाता था
ऐसे में झील को देखकर
दिन की बोलती बन्‍द थी
और रात की भी थी वाकाहरन

इतना चुप रहने लगे थे झील के घाट
कि वहाँ बोलने में काँपता था अपना-मन

 


सूखी झील

सूखी झील को देखकर
आसमान के चेहरे पर
गहरी बेचैनी है

सतह का चेहरा भी
रूखा है
बिवाई की तरह फटा हुआ

बहुत सूख गयी है झील
तल की दरारों का अँधेरा
रात के पाँव में गड़ता है

जिस झील का पानी
पालता था पूरा शहर
वही झील आज
अपनी प्‍यास में छटपटाती है

उछलती लहरें बीत गयीं
और बचा हुआ पानी
गूँगा हो गया है!

 

वहाँ आज कीचड़


जहाँ पानी का जलसा होता था
वहाँ आज कीचड़ हँसता है

इतना सूख गयी है
झील
कि झील का ‘झ' झुलसा हुआ दिखता है!
‘ई' पपडि़याई हुई!!
‘ल' की लाज भर के लिए
केवल अब पानी है!!!

 

कोलांस


बड़ी झील को भरी-पूरी देख कर
लहक उठती है कोलाँस नदी

सुनते हैं आजकल कोलांस भी
झेल रही है सूखे की मार

दूरदराज से पानी लाकर
कोलाँस ही भरती रही है बड़ी झील का पेट
बारिश का अभाव कि कोलांस भी
मनमसोस कर रह जाती है

कोलांस सूखती है
तो बड़ी झील के मन में उदासी बैठ जाती है
और बड़ी झील मछरी की तरह
छटपटाती रहती है गाद में रात-दिन!


झील की माटी अब खुश है

झील से काढ़ी जा रही माटी का मन
पहले भारी था
लेकिन ट्राली में लदी हुई
झील की माटी अब खुश है
कि वह खेत में
हरियाली बन कर लहरायेगी
सुनेगी अंकुरित होते बीजों का संगीत
और अपने सम्‍पूर्ण वात्‍सल्‍य से उन्‍हें वह दुलराएगी

फसलों के फूल से
महकेगा अब उसका हिया
हवा में जब बालियों के दाने बजेंगे
मारे खुशी के वह झूम जायेगी

खेतों की तरफ़ ले जायी जा रही
ट्राली में मगन बैठी हुई मिट्टी
खेत के स्‍वप्‍न में है!


भीग-भीग कर झील

पानी से जगमग झील
लहरें जिसका उत्‍सव रचती रहती हैं

बारिश की बूँदे
पानी से भेंटते हुए
बादलों का वृत्त्‍ाान्‍त कहती रहती हैं

आसमान बरसता है
पानी पर पानी
और झील
भीग - भीग कर
प्‍यार हो जाती है

        बड़ी झील !
        भावलीन तुम
        और तुम्‍हारे प्र-भाव में
        डूबा हुआ मैं

        बड़ी झील !
        तुम तक
        आया मैं
        फिर हींठि

        दीदा फूटे उसका
        लागे जिसकी
        तुम पर दीठि

 

पानी पर बतख

पानी पर बतख
सुन्‍दरता
तैर रहे हैं

पार नहीं होना है
अपने कुटुम्‍ब के साथ घूमना-फिरना है
रोजी-रोटी जुटाना है
और झील का मन बहलाना है

मादा नर को रिझा रही है
और नर मादा पर प्‍यार बरसा रहा है

पानी पर बतख सुन्‍दरता तैर रहे हैं

झील लहरों की रस्‍सी से
आसमान झूल रही है

पानी तरलता के रियाज़ में है!


बूँदन-बूँदन

बूँदन-बूँदन
झरे है बदरवा
हँसि-हँसि भीजति
झील रे !

पानी गावत राग मल्‍हरवा
मन-मीन पिअत
रस खींचि रे !

झूला-कजरी
गाएँ सखियाँ
लहरें नाचत झूमि रे!

घाट-घाट में
मेला लागत
जा ते
सावन से
अति प्रीति रे!

बूँदन-बूँदन
झरे है बदरवा
हँसि-हँसि भीजति
झील रे !


आत्‍मा की झील में


कितने दिनोँ से पीड़ा-पराजय
पश्‍याताप की झड़ी लगी है
हृदय को धूप दिखाना है

होंठ ठस पड़ते जा रहे हैं
खुलकर मुस्‍कुराना है
हँसना-खिलखिलाना है

आँखों में बहुत धूल भर गयी है
आत्‍मा की झील में
तैर कर आना है

आकाश माथे पर दिन चढ़ आया है
पूजा का वह इंदीवर लाना है
इधर कंठ ने पिया नहीं कुछ मीठा-मधुर
झील के घाट पर बैठ
गा-गा कर इसे इमरित चखाना है

साधो! मेरे दिवस की दोपहर वेला है यह
आपके साथ अब खिचड़ी क्‍या पकाना है
अंतस्‌ के पानी के प्रेम में
मुझे कोई प्राचीन लिपि में धड़कता हुआ
छन्‍द गुनगुनाना है

 

 


आकाश एक ताल है

आकाश एक ताल है
हम जहाँ भी हैं उसके
घाट पर हैं। अपने संकल्‍प-विकल्‍प को
तिलक देते हुए

आकाश एक ताल है
महाताल-
जिसकी गगन-गुफा से अजर रस झरता है
कबीर का
(योगी जिसे पीता है)

आकाश एक ताल है
सुबह-सुबह जिसके एक फूल से
उजाला फैलता है। और रात में
जिसमें असंख्‍य कुमुदिनी के फूल
खिलते हैं जो हमारी आँखों के तारे हैं।
जब-तब एक चन्‍द्रमा उगता है
चाँदनी जिसकी खुशबू है।

आकाश एक ताल है
हमारे नयन-गगन में बहता हुआ
हँसी से जो उजला होता है
और खुशी से निर्मल
जिन्‍दगी के आब से जिसे लगाव है असीम

आकाश एक ताल है
जन्‍म लेते हैं जिसमें रंग-सप्‍तक
और वहीं खिलते-खेलते रहते हैं। सरगम आकाश से चलकर
आकाश में ही हो जाते हैं लीन
शब्‍दों का ऐसा ही स्‍वभाव है

आकाश एक ताल है
जिससे हमारा पैतृक सम्‍बन्‍ध है
हमारा पाखी मन आकाश से उड़कर
फिरि आकाश में ही आता है
आकाश के रस्‍ते ही विज्ञान के चमत्‍काऱः
इनसेट,  चन्‍द्रयान,  मंगल यात्रा
लेकिन मारक मिसाइलों से बेहद खफा है अपना आसमान

आकाश एक ताल है
डूबे रहते हैं जिसमें बड़े-बडे․ बादलों के पहाड़
और पिघल कर जब-तब धरती पर बरसते हैं

आकाश एक ताल है
धूनी रमाए हुए अपने घाट पर
सत्‍य की सपथ की तरह जो डिगता नहीं कभी। वह
अपने में ही डूबा हुआ। अपने में ही ध्‍यानस्‍थ और अपने में ही
प्रकाशित। उससे जो बोलता-बतियाता है वह भी हँस-बोल
लेता है। नहीं तो रहा आता है वह
महामौन!

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. jal hee jeevan hai.jal manav ke liye iswar ka vardan hai.jal ke itne vividh aayam dekh kar dang rah gaya.rachnakar badhai ke patr han.

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  2. jal hi jeevan hai ,iswar ka amooly uphar manav ke liye.rachnakar ka jal ke vividh aayamon kee prastuti sarthak avam safal hai.premshankar jee kee saraahna jitna kiya jay kam hai.

    जवाब देंहटाएं
  3. jal hee jeevan hai.jal manav ke liye iswar ka vardan hai.jal ke itne vividh aayam dekh kar dang rah gaya.rachnakar badhai ke patr han.

    जवाब देंहटाएं
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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: प्रेमशंकर शुक्ल का कविता संग्रह - झील एक नाव है
प्रेमशंकर शुक्ल का कविता संग्रह - झील एक नाव है
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