कहानी लेखन पुरस्कार - 52 - रानू मुखर्जी की कहानी - पीले फूलों वाला घर

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पीले फूलों वाला घर -डॉ. रानू मुखर्जी उसके चारों ओर झाग इकट्ठा हो गया था। गुनगुनाते हुए कपड़े को मसल - मसलकर धो रहा था। पानी की बहती पतली धार...

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पीले फूलों वाला घर

-डॉ. रानू मुखर्जी

उसके चारों ओर झाग इकट्ठा हो गया था। गुनगुनाते हुए कपड़े को मसल - मसलकर धो रहा था। पानी की बहती पतली धार के कारण झाग भी ज़्यादा बन रहा था। पर वो अपने काम में मस्त कपड़े को रगड़ने में व्यस्त अपने चारों ओर से उसे कोई मतलब नहीं था।

इतने में -

‘ ननकू ओ ननकू आज नल पर ही दिन बिताएगा क्या ? ग्राहक के आने का समय हो गया है, चल अंदर आकर इधर का काम सँभाल। ‘

‘आया चच्चा। अभी आया। बस दो मिनिट। ‘

पंद्रह - सोलह वर्ष के ननकू को चाचा अपने साथ गाँव से लेकर आए थे। उनकी विधवा बुआ का एक मात्र बेटा। चच्चा कहता उनको। वैसे देखा जाए तो चाय की दुकान के लिए मदद के हाथों की संख्या जितनी भी हो ग्राहकी के वक्त पर कम ही लगती है पर वैसा कुछ सोचकर चाचा ननकू को नहीं लाए थे। माँ - बाप -भाई- बहनों की देखभाल करते- करते ही चाचा पूरे इलाक़े के चाचा बन गए थे। माँ - बाप ने भी अच्छी सेवा कराई सब अस्सी - पचास्सी के होकर दोनों हाथों से भर - भरकर आशीष उड़ेलते हुए बैकुठं गए थे।

पर एक मुँहबोली बहन, सबसे छोटी और चंट। उसको सँभालने का काम बड़ा भारी पड़ा था चाचा को। इधर देखो तो उधर से फुर्र और उधर देखो तो इधर से फुर्र। घर पर तो जैसे पाँव टिकता ही नहीं था बहन का। एक बार जो घुमने गई तो अजमेर से ख़बर आई कि ऐसी - ऐसी एक लड़की मिली है, हमको उसने ही आपका नंबर दिया है, अगर आपकी बहन हो तो आकर ले जाइए। दौड़े चाचा। जाकर देखा तो दरगाह के पास के एक मकान पर बहन अपनी एक दोस्त के साथ बैठी थी।

देखते ही रो- रोकर हलकान हो गई। ‘भैया , हमको माफ़ कर दो। हम बतलाकर आना भूल गए। बाबा से मरते वक्त वादा किया था कि एक बार हम यहाँ ज़रूर चादर चढ़ाने आएगें। इसने साथ दिया तो आ गए। ‘ एक ही कमी थी चाचा में बड़े कमज़ोर दिल के थे सो खींचकर बहन को सीने से लगा लिया। ‘नहीं मुन्नी ऐसे नहीं रोते। बस एक शिकायत है काहे इधर- उधर को दौड़ती हो एक बार को कह देती तो हम भी- - - । चलो ठीक है। जो किया सो ठीक किया। अब घर चलो। ‘ ऐसे और कितना दिन चलता सो एक सजीले नौजवान के साथ पाँच साल पहले ही मुन्नी की शादी कर दी। दूध, दही, पेड़ा, बर्फ़ी की दुकान लगवा दी अपने पास के ही शहर में। बस दहेज ही समझ लीजिए अउर का। जम कर अपनी गृहस्थी सँभाल रही है मुन्नी। दूध दही, पेड़ा, बर्फ़ी के साथ अब दो बच्चों को भी सँभालने लगी है। दुकान भी अब दुतल्ला हो गया है।

दो मुँहबोले छोटे भाइयों को भी शहर में पढ़ा लिखाकर अपने पैरों में खड़ा कर दिया चाचा ने। अब और नहीं अपनी गृहस्थी को अब वो ही बसाएँ। बस, हुआ नहीं कुछ तो चच्चा का। गाँव के घर को अब तक रख छोड़ा है एक विधवा बुआ के भरोसे। महीने छै महीने में जाकर धान –गेहूँ - दाल -तेल का हिसाब देख आते हैं मुनीम से बस।

दो साल पहले जो गाँव गए तो लौटते वक्त बुआ ने पाँव पकड़ लिया। ‘ननकू इधर गाँव में रहकर बिगड़ रहा है। आजकल उसके मुँह से बीड़ी की गंध आने लगी है। पर हम क़सम खाते हैं बबुआ ! वो ऐसा नहीं है, पढ़ने में बहुत नहीं तो थोड़ा बहुत मन है उसका। बस संगत का असर है।

तुम अपने साथ रखोगे तो उसके रोटी - पानी का जुगाड़ भी हो जाएगा और तुम्हारी सेवा टहल भी करता रहेगा। तुम्हारे हाथ में इसे सौंपकर मेरे बैकुंठ का रास्ता फिर एकदम साफ़ । ‘ ‘अरे बुआ, आप काहे पाँव पकड़कर पाप चढ़ाती हो। माय के बाद से तो आप से ही स्नेह मिलता रहा हमको। हमारी सेवा टहल का करेगा इ लड़का बस अपनी ज़िंदगी सँभाल ले तो बहुत २ बहुत हुआ। चल रे ननुआ अपना सामान उठा ले, चल चाचा के डेरे पर। दो रोटी मील बाँटकर खा लेगें। बुआ तुम इसकी चिंता मत करना। ‘ बस एक यही ख़ासियत थी चाचा में, चाहे कुछ भी हो जाए पेशानी पर शिकन तक नहीं आने थे।

बस वो दिन और आज का दिन ,न ननकू को चाचा से कोई शिकायत रही और न चाचा को ननकू से। हलचल तो उस दिन से शुरू हुई जिस दिन शाम को एक चमचमाती हुई झक्क सफ़ेद कार चाचा के दुकान के सामने आकर रुकी और - - - - दूर- दूर से लोग चाचा की दुकान पर चाय पीने आते थे। उनकी चाय की एक ख़ासियत यह होती कि दूध को चाय में डालने पहले उसे उबालकर ख़ूब गाढ़ा बनाया जाता और फिर उसे उबलते चाय की देगची में डाला जाता। स्पेश्यल चाय का मज़ा भी स्पेश्यल होता उसमें इलायची, गुलाब की पंखुड़ियाँ डाली जाती। दूर - दूर तक इसकी महक फैल जाती। और फिर कढ़कर जो चाय बनती उसका स्वाद खाने वाले की जीभ पर सारा दिन बैठा रहता।

मेन रोड के एक ओर चाचा के चाय की दुकान थी और दूसरी ओर बड़े- बड़े नीम, शीशम, गुलमोहर, रबर के पेड़ों की लंबी कतार थी। उसके बाद का इलाक़ा एक मैदान की तरह काफ़ी लंबा और फैला हुआ है। सुनने में आता है कि वहाँ पर पार्क बनने वाला है पर न जाने ये प्रोजेक्ट कब पूरा होगा। उस ख़ाली मैदान के एक ओर पुरानी छोटी - छोटी दुकानों की कतारें थी। जहाँ रोटी - सब्ज़ी, पाँव - भाजी, ब्रेड - आमलेट, छोले - भटूरे, पानी - पूरी, आलू - चाट, आइसक्रीम, कुलफ़ी, रबड़ी- दूध मलाईवाली से लेकर और न जाने क्या क्या बिकता था उन दुकानों में। उन दुकानों के ठीक पीछे की ओर काफ़ी फ़ासला रखते हुए एक पॉश कोलोनी है। उन कोलोनीवालों को अपने सामने की ये कतारोंवाली दुकान से बहुत नफ़रत थी। हॉलाकि उनके सुबह शाम का नाश्ता, गेस्ट आने पर उनके लिए चटकारे वाले खाना और बीमार पड़ने पर दो वक्त की रोटी सब्ज़ी सब कुछ वहीं से आता था। फिर भी ये झोपडपट्टी इलाक़े के पीछे वाला पॉश कोलोनी कहलाना उनको पसंद नहीं आता था।

सो वहीं के रहने वाले बिल्डर मिस्टर भल्ला ने दुकानवालों के सामने ये प्रोपोजल रक्खा कि इन दुकानों को तोड़कर एक बड़ा सा मॉल बनाएगें जिसमें यहाँ पर रहनेवालों को एक - एक दुकान दी जाएगी और बाक़ी के सभी दुकानें म्युनिसीप्लटी की प्रोपरटी होगी क्योंकि ज़मीन उनकी है उनका जो मन चाहे वो करें। म्युनिसीपाल्टी को बात जच गई। लोगों में ख़ुशियों की लहर फैल गई दुकानदार अपनी पक्की दुकानों को लेकर ख़ुश, आस - पास के लोग मॉल के बनने पर सोसायटी की मर्यादा में बढ़ौती होने पर ख़ुश , बाहर से खाना लाने पर घरवाले बड़े रेस्टुरेन्ट से खाना लाने के मान से ख़ुश और न जाने ख़ुशियाँ कैसे - कैसे फैलने लगी थी उस मॉल के बनने भर से। और केवल रेस्टुरेन्ट ही नहीं और भी दुकानें बनी फूलों की, कपड़ों की, दर्ज़ी की, इधर-उधर से आकर बैंक वालों ने अपनी शाखाएँ खोल ली और शहर की बेहतरीन ब्यूटी पार्लरवालों ने भी अपनी शाखाएँ खोल ली। भल्ला साब तो लोक सेवा कर रहे थे सो अपना फायदा तो उन्होने सोचा ही नहीं बस बेटे के नाम से एक और पत्नी के नाम पर दो दुकान ले ली। बाकी तो राम ही राखे - - - -

चाचा की दुकान भी इन सबके साथ धमधमाकर चलने लगी। वहाँ से खाना खाकर लोग चाचा की दुकान पर चाय पीने आते। चाचा ने सोचा पंद्रह साल के ननकू को दुकान पर काम कराना देखने में अच्छा नहीं लगता है सो उन्होने उसे अपनी गद्दी के पास बैठाकर रखा। बस केवल देखरेख ३ ननकू दुकान में रखे सामान का हिसाब रखता था। स्कूल में भी वो हिसाब किताब में काफ़ी होशियार रहा। एक तरह से उसे दुकान का क्वालिटी मैनेजर कहा जा सकता है। इस चाय को लोगों ने ज़्यादा पसंद किया। उस दिन की चाय के अधिक बिक्री का कारण क्या था ? चाय के प्यालों को बदल डालो। टेबल को और चकाचक होना माँगता। सुबह की चाय से शाम की चाय की खपत ज़्यादा है। चच्चा आपको उस ग्राहक ने पैसे नहीं दिए। छुट्टे के बहाने आपने उसे पैसे ज़्यादा वापस कर दिए। ऐसे काम आजकल चच्चा को समझ में कम आता था। इसलिए ननकू भी ऐसे काम में आजकल ज़्यादा होशियार हो गया था। इससे आजकल चाचा के दुकान की चाय की धाक दूर - दूर तक जम गई थी। और चाचा ने भी आजकल ननकू को इन मामलों में पूरी की छूट दे रखी थी।

एक दिन तो ग़ज़ब ही हो गया। अचानक कुछ लोग धड़ाधड़ दुकान पर घुस आए। कहने लगे हमें ननकूजी ने भेजा है , दुकान का माप लेकर नए टेबल बनवाने हैं।

सोलह साल का ननकू चाचा के घर का अच्छा खाकर अट्ठारह- बीस का लगने लगा था। चाचा का दुकान भी जो पहले अच्छा चलता था आजकल बहुत अच्छा चलने लगा था। ननकू भी आजकल ननकूजी बन गए थे। उसकी तरक्की से चाचा बहुत ख़ुश थे। अब उन्हें दुकान की चिंता उतनी नहीं सताती थी।

कभी - कभी चाचा को लगता कि ननकू अपनी दुकान को उस मॉल को रेस्टुरंट की तरह बनाने की सोच रहा है। सो जब उनके दुकान के सामने चमचमाती झक्क सफ़ेद लक्जरी कार आकर रुकी तो वो ज़्यादा चकित नहीं हुए। उनको लगा कोई दुकान के मामले में बात करने आया होगा। गाड़ी से भल्ला साहब को उतरते देख चाचा चकराए। ये यहाँ पर क्या लेने आया है ? मार्केट में भल्ला का रेपुटेशन बहुत ख़राब था। लोग उनके बारे में तरह-तरह की बातें करते थे। अक्सर अन्डरवर्लड के साथ भी उनके नाम को जोड़ा जाता। सो लोग उनसे बचने की कोशिश करते हैं।

‘नटराज यहीं पर रहता है ? ‘ चारों ओर नज़र दौड़ाते हुए भल्ला साहब ने पूछा।

‘जी, आइए न, अंदर आइए। ननकूजी बजार से दुकान के लिए माल लाने गए है। अभी आते होंगे। चाय पिलाऊँ क्या ?एकदम स्पेश्यल। ‘ चेयर टेबल साफ़ करते हुए एक लड़के ने जवाब दिया।

‘नहीं, ठीक है। कब तक आएगा ? चाचा कहाँ है ? ‘

‘बस , हम सब उनका ही इंतज़ार कर रहें हैं। सेठ जी सुबह की आरती कर रहें हैं। आप बैठिए न। ‘ लड़का टेबल पर बीसलरी के एक ठंडे बोतल को रखते हुए बोला।

‘ जय सिया राम ! अरे भल्लाजी ! आप कब आए? अरे भोला साब को चाय पिला और मेरी भी बनाना। बोलिए भल्लाजी इधर कैसे आना हुआ ?‘

‘ इस इलाक़े में तो आप की दुकान काफ़ी जम गई है। नटराजन आजकल काफ़ी मेहनत कर रहा है। बना बनया बेटा मिल गया आपको। पढ़ाई लिखाई कहाँ तक है लड़के की। ‘

‘बुआ का बेटा है भल्लाजी। गाँव में बिगड़ रहा था। सो साथ लेकर आ गया। वैसे पढ़ाई `लिखाई का मौक़ा इस लड़के को नहीं मिला। मन बहुत था साब लड़के का, कोशिश भी बहुत की इसने यहाँ आकर पर वही, होशियार होने पर भी लाईन में सबसे पीछे खड़ा करते,अच्छा लिखने पर भी नंबर कम मिलता। गंदा लड़का- - -गंदा लड़का सुन सुनकर तो लड़के को कपड़े धोने का रोग लग गया है साब। मैंने बहुत समझाया कि गंदगी कपड़े में नहीं है, वो तो लोगों के मन में है जिसे तू निकालने से रहा। पर वो माने तब न। सो यहाँ पर आकर भी उसने पढने से मना कर दिया। ‘

‘ आज के पढ़े लिखे लड़के इन बातों को कहाँ मानते हैं चाचा। सब बदलने लगे हैं। ‘

‘पर भल्ला साब लोग इसे भूलने भी तो नहीं देते। एक विभाजन रेखा खींच ही देते हैं। ‘

‘अब बताइए खेत में किसान काम नहीं करेगा तो खाएगा क्या ?पर ये शहर के लड़कों के लिए तो जैसे ये एक छूत का रोग है। गवाँर - गवाँर कह कर जीना मुश्किल कर दिया था। ‘

‘ ख़ैर छोड़िए इन बातों को चाचा मैं कह रहा था आपके बेटे की बात आजकल लोगों की जुबान पर चढ़ी हुई है। उसने आपके दुकान को सँभालने में जो होशियारी दिखाई है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। दिमाग़ बड़ा तेज है लड़के का सो मैं कह रहा था कि अगर वो मेरे साथ जुड़ जाए तो इस शहर में बहुत बड़ा मैदान हम मार सकते हैं। ‘

‘जुड़ने का मतलब साब ?‘ ‘अरे चाचा ! मेरे साथ मिलकर काम करेगा और क्या ?‘

‘दिमाग़ तेज हो सकता है पर देखा जाए तो अभी छोटा है ननकू। फिर भी बुआ से पूछे बग़ैर तो कुछ कह नहीं सकता मैं। उसे क्या जवाब दूँगा मैं। मेरे साथ तो बेटे की तरह रहता है। मेरी दुकान उसकी दुकान दोनों बात बराबर। फिर भी आप कह रहें हैं तो पूछ देखूँगा उसे। लीजिए चाय आ गई साब। ‘

‘ अरे चाचा पूछना उछना छोड़िए कल भेज दीजिएगा मेरे ऑफ़िस में बात करने के लिए आपके वो ननकू को। ‘ चाय तो पड़ी की पड़ी रही और भल्ला साब उठकर चले गए। चाचा भी चाय पीना भूल गए।

लगा जैसे भल्ला साब धमकाकर गए हो। चाचा को तो ननकू की जान ख़तरे में लगने लगी। इतने में ननकू बाईक पर धमधमाते हुए दुकान के सामने आकर रुका। चाचा को सर पर हाथ रखे सोचते देख सोच में पढ़ गया। सुनकर चाचा को दिलासा देकर ननकू ने कहा खेतों को बैल बनकर जोता है चाचा मेरे लिए परेशान मत होना। मन और शरीर दोनों से मैं मज़बूत हूँ। एक बार देखूँ तो जरा जाकर मामला क्या है सेठजी का। जो भी हो चच्चा आप निश्चिंत रहो मैं आप को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाला।

बस साफ़ सुथरा होकर जाने के लिए ही ननकू कपड़े धोने बैठा था। फिर सूखने पर उसे कलफ़ लगाकर इस्तरी करते वक्त तक उसका दिमाग़ सेठजी में उलझा रहा। शहर के इतने बड़े शेठ के साथ अगर जम जाय तो माँ को भी यहाँ लाकर रख सकता है। उनका घर - घर जाकर काम करना उसे एकदम नहीं सुहाता है। एक - दो बार चच्चा से माँ को यहाँ लाने के बारे में कहा था पर हर बार चच्चा ने यह कह कर टाल दिया कि वो दोनों का ख़र्चा नहीं उठा सकगें। सोचते ही उसके नाक तक पानी बह आया उसने उसे सुड़क लिया। बाहर बहने नहीं दिया।

शहर के इतने बड़े सेठ के मकान को ढूँढ़ना कोई मुश्किल नहीं था। पूछने पर हर कोई बता रहा था कि वो पीले फूलों वाला घर ही सेठजी का है। सच में घर की रौनक पीले फूलों के दो बड़े - बड़े पेड़ों से ही थी। एक झलक में लगा जैसे सूरज की रोशनी से पूरा घर नहा रहा है। गुच्छे - गुच्छे पीले फूलों से पेड़ भरा हुआ था। नीचे भी फूलों की पंखुड़ियाँ बिखरी पड़ी थी। हवा में हिल - दूल रहे थे गुच्छे। ननकू को लगा जैसे इशारे से बुला रहें हैं उसे। ननकू फूलों में इतना खो गया था कि गेट पर खड़ा दरवान उसे दिखा ही नहीं।

‘अबे ओ लड़के ! क्या चाहिए ? किससे मिलना है ? कोउनो काम है का ? ‘

‘जी सेठजी से मिलना है। उन्हेने ही बुलाया है। ननकू नाम है मेरा । ‘

‘ चलो इस कोने में बैठ जाओ। मैं अंदर से पूछ कर आता हूँ। ‘ एक नज़र में दरवान को ननकू ऐसा ही लगा। हाथ से धोए कपड़े पर इस्तरी फेरकर पहनने पर भी निचोड़ने के निशान कपड़ों से स्पष्ट झलक रहे थे। भले ही कपड़ा साफ़ हो। पर ऐसे कपड़े अपनी पहली छाप कुछ अच्छा नहीं छोडतें हैं। सो ननकू के साथ भी ऐसा ही हुआ। पीले फूलों तले के अँधेरे से अनजान ननकू कोने पर बैठा रहा, दरवान के स्टूल पर, सेठजी के बुलाने के इंतज़ार में।

भल्ला साब ने एकदम से कोई बात नहीं की। श्रीमती भल्ला का कहना था कि पहले लड़के को परखलो फिर ज़िम्मेदारी सौंपने वाली बात सोचना। एकदम से बस्ती के छोकरे को- - - । जरा ठोक बजा तो लो,एकदम से उसे साथ में लगा लेना ठीक नहीं। भूखे नंगों पर देख भालकर भरोसा करना चाहिए।

और फिर ननकू को भल्लाजी ने अपने ऑफिस के काम में मदद के लिए आने को कहा।

ननकू को ऐसा लगा जैसे उसे एकदम से अनमोल खजाना मिला गया हो। उसे पता था कि एक बार अगर उसे भल्लाजी परख लेंगे तो फिर उसकी बुद्धि का लोहा मानने लगेगें। तब उसके बिना उनका काम करना मुश्किल हो जाएगा। उसमें स्कुली बिद्या नहीं थी पर काम - काजी बुद्धि भगवान ने उसमें कूट- कूटकर भर दी थी। अपनी काबिलीयत के बल पर वो किसी भी क्षेत्र में सुई की तरह घुस जाता और फिर फाल बनकर निकल आता। गाँव की उबड - खाबड जमीन पर हल चलाकर फसल उगाई है उसने फिर तो ये शहर - - - -।

दरअसल भल्लाजी ननकू के लोगों से कनटेक्टस का फायदा उठाना चाहते थे। पर जब तक व्यवसाय के क्षेत्र में ननकू का फूल इनवोल्भमेंन्ट न हो इस मामले में उसकी कोई मदद नहीं मिल सकती थी। सच में देखा जाए तो भल्लाजी अपनी पत्नी की बातों से डर भी गए थे। उनकी पत्नी एक बहुत बडे व्यवसायिक परिवार से थी। शादी से पहले डायरेक्ट नहीं तो इनडायरेक्ट रूप से वो परिवार के व्यवसाय से जुडी रहती थी। आज भी कोई भी डील के फाईनल होने से पहले उसके पिता अपनी बड़ी बेटी से सलाह लेते हुए नहीं चूकते हैं। बहुत तेज दिमाग है उनका। पर है बुद्धू।

ननकू भी ऑफिस में होनेवाली हर मीटिंग का ध्यान रखता और भरसक भल्लाजी को मदद करने की कोशिश करता। वैसे अगर कपडे ननकू सही - सही पहन ले तो बडे बडों की छट्टी कर सकता है। खिलता हुआ रंग,चौडा माथा , लम्बी कद - काठी का होने के कारण एक नजर में उसे देखनेवाले भल्लाजी के परिवार का ही समझतें हैं। और आजकल तो बोल - बोलकर अंग्रेजी भी चुस्त बोलने लगा है।

आजकल भल्लाजी अपने केबीन के बगल में ही एक और केबिन बनवा रहें हैं। एकदम से मॉर्डन। लोगों में फुसफुसाहट है कि इसमें भल्लाजी बैठेगें और अपना पुराना वाला ननकू को सौंप देगें। चाचा के कान में बात गई तो चाचा सोच में पड गए। मदद की बात कही थी सेठ ने, और अब तो लग रहा है हाथ से छोकरा गया। ए. सी. वाले कमरे को छोडकर कहाँ यहाँ आकर रहने वाला है। और बुआ को फिर क्या मुँह दिखाएगें, बोलेगी बुढापे के सहारे को छीन लिया। नहीं ऐसा नहीं चलेगा ननकू से सीधे - सीधे बात करना पडेगा।

उधर तो ननकू भल्लाजी के कमरे का और अधिक ध्यान रखने लगा। कम्प्यूटर का क्लास करके उसमे भी बडी सफाई से काम करने लगा था। सेठ जी ने आजकल अपना सभी काम ननकू ६ पर छोड़ रखा था। श्रीमती भल्ला की शंका तो कच्ची मिट्टी के ढेले की तरह ढह गई थी। बल्कि भल्लाजी से छुप - छुपाकर करनेवाले श्रीमती भल्ला के बहुत से काम वो बड़ी सफ़ाई के साथ कर देता था। और भल्लाजी को उसकी भनक तक नहीं लगने देता ननकू। जैसे बड़ी बेटी का मैके में पैर रखना मना है क्योंकि जवाँई कोई काम धाम नहीं करता है और उसकी बाज़ नज़र भल्लाजी की गद्दी पर है। बेटी को समय - समय पर भल्लाजी से छुपाकर पैसे भेजने का काम आजकल श्रीमती भल्ला ननकू से करवाती हैं। रक़म कभी- कभी लाख तक को टाप जाती है तब तो ननकू भी डर जाता है। सेठजी की नाक के नीचे से इतनी बड़ी रक़म को निकालकर बेटी तक पाचार करना - --।

आजकल भल्लाजी विदेश भी जल्दी - जल्दी जाने लगें हैं। वहाँ पर भी एक बड़ी डील पर बात चल रही है। सो इधर का सारा काम ननकू के कंधों पर। ननकू आज कल में भल्लाजी से बात करना चाहता था कि उसे रहने के लिए एक कमरा अगर मिल जाता तो अच्छा होता। क्योंकि वो माँ को यहाँ पर लाकर रखना चाहता है। पर इस बार भल्लाजी दौरे पर ज़्यादा ही देर लगा रहें थे। चाचा का डर उनकी आँखों से छलक रहा था। डर ननकू को खोने का। ननकू को चाचा का परेशान होना भी खल रहा था। सो उसने कुछ दिन के लिए चाचा के साथ रहने की सोची। पर वही भल्लाजी का न होना, श्रीमती भल्ला का उसको बार - बार अपने काम के लिए बुला भेजना और ऑफ़िस के रोज़ के काम में ननकू इस तरह से लिपट गया था कि उसे और कुछ सोचने का समय भी नहीं मिल रहा था।

आधी रात को अमेरिका से भल्लाजी का फ़ोन आया कि डील फ़ाइनल हो गया है सो जश्न मनाओ। बस मैं आया। और ननकू अब तेरा काम सही तौर पर शुरू होगा। बात क्या थी सर पर बम फूटने जैसा था।

‘क्यों चाचा से बात क्यों नहीं कर पाएगा ? ‘

‘ जान माँगों तो चाचा दे देगें पर वो दुकान - - -। ‘

‘ अरे तू तो गधा के गधा ही रहेगा। किसने माँगी है दुकान ? जानता भी है कितना पैसा मिलेगा चाचा को उस ज़मीन का ? पूरे तीन करोड़। तेरे चाचा ने सोचा भी है कभी उस टूटी - फूटी झोपडी की मैं कितनी क़ीमत दे सकता हूँ ? ‘

‘ नहीं भल्लासाब ये काम मेरे बस का नहीं है। ‘ ‘ पहले ये तो पता कर कि उस जगह का मालिक कौन है। जैसे - तैसे चाचा से निपटे फिर पता चला चार और इसके हिस्सेदार हैं। फिर ? बस अब तू अपना दिमाग़ और मत चला मैं जो कहता हूँ सुन पता कर कि चाचा के बाद - - - कौन- - -? ‘

‘ नहीं - -- नहीं मेरे पूछने पर ही चच्चा गुस्साएगा । फिर ये सब बातें चच्चा मुझसे क्यों करने लगे ? कुछ गड़बड़ लगने पर देश भेज देगें। माँ के पास। वहीं गाँव में। ‘

‘अबे डरपोक कहीं का। चल तुझे मैं सिखाता हूँ कैसे चाचा से बात करेगा। ‘

रात को पत्नी बिगड़ने लगी क्यों लड़के को परेशान कर रहे हो। सीधा - साधा लड़का है उससे ये सब नहीं होगा। श्रीमती भल्ला को ननकू के भाग जाने का डर था। फिर उनका काम कौन करेगा ? ननकू एकदम से सेट हो गया था। बडी इमानदारी और सफाई से उनका काम करता था।

‘अरी मोटी बुद्धीवाली , उसको लाया ही मैं इसी काम के लिए कि उस जगह को हथियाने में मेरी मदद करेगा। म्युनिसीपील्टी की ज़मीन से तो जितना कमाया वो तो सब बाँटने - बुँटने में ही चला गया। मेरे हत्थे, इतना मगज खपाने के बाद भी कुछ नहीं आया। मैंने शांति कर ली । और तभी से इस टोह में लगा हूँ कि उसके बाद अगर कोई बड़ी ज़मीन इस इलाक़े में है तो ये लाले के चाचा की है जो मेरे काम की है। मुरख है। कोई दिमाग़ है नहीं उस चाचे का। बस बात करो कि आँखों में पानी। कच्चा - कच्चा सा मन है उसका। औरतों की तरह। लगाता हूँ लड़के को और निकालवाता हूँ कि लाइन में और कौन-कौन हैं उसके बाद। पता तो चले रास्ता और कितना साफ़ करना पड़ेगा। बच्चे नहीं न उसके। चाचे ने शादी नहीं बनाई। बस एक ननकू है। बड़ा दिल लग गया है तेरा भी उस ननकू के साथ। इसमें कोई शक नहीं कि लड़का अच्छा है। अच्छा हुआ। ऐसे ही लगा कर रखना। काम निबटाने में आसानी रहेगी। ‘

श्रीमती भल्ला को काटो तो ख़ून नहीं। भौंचक्की रह गई। उसे लगा अब तो गया ननकू हाथ से। अगर काम नहीं निकला तो खतम। भल्लाजी के पास कुछ अंट - संट लोगों का भी आना- जाना लगा रहता हैं। लुक छुपकर बहुत सुन - समझने की कोशिश की थी श्रीमती भल्ला ने पर हर बार मामला उनकी समझ से बाहर की निकलती । इतने बड़े परिवार से आई थी पर यहाँ पर उनकी कोई क़ीमत नहीं आँकी गई। सास ने भी जम कर राज किया और आदमी तो आख़िर आदमी ही निकला। अपनी बेटी के साथ वो ऐसा होता नहीं देखना चाहती थी। इसलिए लता ने जब सुभाष से शादी करने की बात की तो उसकी पूरी मदद की श्रीमती भल्ला ने। कम से कम पति का भरपूर प्यार तो मिले बेटी को। ऐसे तो सुभाष अच्छा लगा था उनको। पर राजनीति में उसकी इतनी रुची उनको एकदम पसंद नहीं आई। इसके चलते उसने नौकरी भी छोड़ दी। दिन - दरवेशों के बारे में ज़्यादा चिंता रहती है उसे। चलो ठीक है। कभी मंत्री-वंत्री कुछ बन जाए तो फिर तो मज़े ही मज़े हैं। लता कहती है अगर मंत्री बन गए न सुभाष तब तो पापा भी उनकी जी हजूरी करेंगे। और है भी कौन भल्लाजी के जायदाद को खाने वाला। जवाँई को बेटा नहीं मान सके और अब जेठ के बेटे को गोद ले लिया है। बेटी को मदद करने को कहो तो धमकी देते हैं उसे एक पैसा भी देने की बात मत करना अगर किया तो सारी जायदद बेटे के नाम कर दूँगा। चलो ठीक है उन्होने भी रास्ता निकाल लिया है।

जिसका हक़ है उसे कुछ तो मिले। चोरी छिपे ही सही। एक - एक करके धीरे -धीरे चारों गड्डियाँ निकाल कर चाचा के सामने रख दी ननकू ने। हज़ार - हज़ार की चार गड्डियों को देखते ही चाचा की आँखें फैल गई। लगा जैसे बत्ती चली गई हो और तेज रोशनी सामने आ गई हो। चाचा की आँखें गीद्द की आँखें बन गई। हड़बड़ाहट में चाचा की जुबान तालु से चिपक गई थी। ‘इतने पैसे किसके - -- ? कहाँ से लाया तू ? किसने दिए - -? इन पैसों से क्या करेगा - -- - ? अरे ननकू कुछ तो बोल - - पहले तो हटा ले इन पैसों को मेरे सामने से। कुछ ग़लत - सलत तो नहीं कर रहा है न तू - - -? ‘ जीतनी देर तक ननकू भल्लाजी की बातों कों रिपीट टेलीकास्ट की तरह सुनाता रहा उतनी देर तक चाचा की आँखें चारों धार बहती रही।

ननकू रुका और चाचा ने गहरी साँस ली। चाचा को समझ में आ गया था अब कि इस दुकान को भल्लासाब के हाथों से बचाना कठिन है।

उनकी आँखों के सामने हरे - भरे खेत लहलहाने लगे। खेत में काम करते हुए हट्टे- कट्टे किसान। औरत मर्द दोनों। औरतों की पीठ पर कपड़ों में पोटली की तरह बँधे लटकते हुए बच्चे। खेतों के चारों ओर बड़े- बड़े पेड़। आम, जामुन, गुल्लर, सहतूत के पेड़ मौसमानुसार फलों से लदे - फदे रहते। एक बड़े से जामुन के पेड़ के नीचे को गोबर से लीप पोतकर बैठने लायक बना दिया गया था। जिसके चारों ओर चार मज़बूत लकड़ी का खूँटा गड़ा था। चारों खूंटे पर छत की तरह सफ़ेद चादर तान दी गई थी। घर का पुराना चादर कहीं - कहीं से फटा हुआ भी था। दादा के मिमियाने पर दादी ने गरजकर कहा था,रहने दो कटा -फटा इससे लोगों की बुरी नज़र नहीं लगती और उस साल राखी पूनम के दिन तीन बड़े पत्थर पर सूखी लकड़ियों को आग लगाकर दादी ने पहली बार एक बड़ी सी टेढ़ी मेढ़ी देगची पर पानी चढ़ाया था। पानी गरम होने पर दादा ने उबाल कर गाढ़ा किया हुआ दूध उसमें डाल दिया। फिर दादा से चिपके खड़े बाबा ने उसमें चाय की पत्ती डाल दी और फिर माँ ने पाव भर चीनी उसमें उड़ेल दी। सभी ने बारी-बारी से चूल्हे में सूखी लकड़ियों को डाला और तब तक डालते रहे जब तक चाय उबल-उबलकर मस्त न बन गई।

फिर तो चाय की दुकान पर लोगों का ताँता लग गया। और कुछ ही दिन में दादा की चाय की दुकान बड़े ज़ोर शोर से चल पड़ी। पुरखों के घर को छोड़कर शहर में आकर बसना सफल हुआ। फिर तो एक- एक करके चाचा के आँखों के सामने ही अनेक बदलाव आए। चाचा को लगातार अपने साथ ही लगाए रखते। चाचा, दादा के हर पैंतरेबाज़ी के साक्षी रहे। वारिस जो थे। दादा ने धीरे - धीरे खूँटों को आगे -आगे खिसकाना शुरू कर दिया। पैसा भी आता रहा। इतना पैसा बनाया कि ज़रूरत पड़ने पर दादा किसानों को उधार भी देने लगे थे। समय पर उधार न चुका पाने पर किसानों की गिरवी रखी ज़मीन पर दादा कब्जा कर लेते। भोले भाले किसानों की बहुत बददुआ बटोरी दादा ने। दादा के पाँच बेटे थे। गाँववालों का कहना है कि असमय जवान बेटों के मौत का कारण असहाय लोगों की बददुआ रही। दादी पागल हो गई। अंतिम एक जवान बेटे को हर समय सीने से चिपकाए रहती और जब तक दादी ज़िंदा रही दादा को गाँव के पुरखों के घर में घुसने नहीं दिया। इससे चाय की दुकान के पास रहने के लिए दादा ने घर बनाया। घर के आस पास और-और ज़मीन जुड़ती गई। बददुआओं की कोई चिंता नहीं थी दादा को। सबकुछ बढ़ रहा था।

आज ननकू की बातों को सुन कर चाचा को ऐसा लग रहा था जैसे इस ज़मीन पर लगी गाँव वालों की बददुआ आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही है। बाबा का जीवन भी रोते कलपते बीता। निपट अकेले। दूर- दूर तक अपना कहने वाला कोई नहीं। एक मुँहबोली बहन,जो राखी बाँधती थी। उनसे जुड़ने के बाद विधवा हो गई। माँ के अंतिम दिनों में गाँव में उन्होने माँ की बहुत सेवा की। सो तभी से वहीं रह रहीं हैं। दुकान की ज़िम्मेदारी को सँभाल लेने पर चाचा ने बाबा को भी गाँव भेज दिया था। बहुत दौड़ धूप होती थी।

इधर दुकान , उधर गाँव में बीमार माँ - बाबा। चाचा की खोई -खोई नज़र और तेज चलती साँसों को देख कर ननकू भी सोच में पड़ गया। उसे लगा भल्लासाब से चाचा डर गए हैं। पर इस लंबे सफ़र से चाचा थक से गए थे। बस अब और नहीं। भल्लासाब के बढ़ते हाथों को अब अपने गरदन पर महसूसने लगे थे। आँखों को बंद करते ही सामने बड़े - बड़े ऊँचे -ऊँचे मॉल नज़र आने लगे थे। जो लगातार सिमटकर क़रीब आ रहे थे। इतने क़रीब की ननकू और चाचा के अस्तित्व को ही उसने निगल लिया ।

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डॉ. रानू मुखर्जी,

बडौदा - ३९००२३.

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार - 52 - रानू मुखर्जी की कहानी - पीले फूलों वाला घर
कहानी लेखन पुरस्कार - 52 - रानू मुखर्जी की कहानी - पीले फूलों वाला घर
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