कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -67- वंदना अवस्थी दुबे की कहानी : नहीं चाहिए आदि को कुछ...

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कहानी                         नहीं चाहिए आदि  को कुछ...... वंदना अवस्थी दुबे ' ये क्या है मौली दीदी?" " आई-पॉड है." &q...

कहानी                        

नहीं चाहिए आदि  को कुछ......

वंदना अवस्थी दुबे

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' ये क्या है मौली दीदी?"

" आई-पॉड है."

"ये क्या होता है?"

" अरे!!!! आई-पॉड नहीं जानते? बुद्धू हो क्या?"

इतना सा मुंह निकल आया आदि का.  क्या सच्ची बुद्धू है आदि ? क्लास में तो अच्छे नंबर पाता  है.....हाँ, कुछ चीज़ों के उसने नाम  सुने हैं, लेकिन देखा नहीं है.

"अरे पागल,  ये आई-पॉड है, इसमें बहुत सारे गाने भरे हैं. पांच सौ से ज्यादा गाने डाउन-लोड कर सकती हूँ मैं इसमें. और हाँ ये एम्.पी. फ़ोर है."

" इत्ते सारे गाने? इसमें??? ..............वैसे मौली दी, ये एम्. पी. फ़ोर क्या है......?"

पूछते हुए अपने आप में सिमट गया था आदि, पता नहीं अब कौन से विशेषण से नवाज़ा जाएगा उसे..........

" अरे इधर आओ बसंतकुमार, मैं तुम्हें समझाती हूँ. "

आदि झिझकते-सकुचाते मौली के पास बैठ गया.

" ये देख , स्क्रीन दिखता  है इसमें?"

"............................"

" दिखता है या नहीं?" 

' दिखता तो है"

' तो जब हम कोई वीडियो क्लिप इसमें डाउन-लोड करेंगे तो वो हमें इसी स्क्रीन पर दिखाई देगी. समझा कुछ?"

" हां...समझा तो...."

" और गाने सुनने के लिए वही, ईयरफोन"

" ये कितने का आता है मौली दी?"

" मंहगा नहीं है यार, बस टू थाऊजंड का है."

" टू थाऊजंड..........यानि सौ के कितने नोट मौली दी..?"

सात साल का आदि , मुश्किल में पड़  गया था.........

" अरे बुद्धू, हंड्रेड के ट्वेंटी नोट यानि सौ-सौ के बीस नोट."

" सौ -सौ  के बीस नोट.................... तब तो बहुत सारे रूपये चाहिए....."

" अब इतने सारे भी नहीं हैं ये. अपने पापा से कहना, तो वे ला देंगे तुम्हारे लिए."

बारह साल की मौली ने अपना ज्ञान बघारा.

आदि, यानी पांडे जी का छोटा बेटा, जब भी मौली के घर जाता है, चमत्कृत होता है. कितना बड़ा घर, कितना सारा सामान..... सबके अलग-अलग कमरे..

कितने सारे सामानों के तो नाम ही नहीं जानता आदि.... वो तो मौली दी बहुत अच्छी हैं, सब सामानों के बारे में बताती हैं.

आदि हमेशा सोचता है, उसका घर मौली के घर जैसा क्यों नहीं है?  हम लोग किराए के घर में क्यों रहते हैं?  मौली दी कोई फरमाइश करें, तो उनके मम्मी-पापा तुरंत पूरी  करते हैं, मेरी फरमाइशें क्यों पूरी नहीं होतीं?  जब भी कुछ मांगो तो फट से सुन लो "  हमारे   पास पैसों का पेड़ नहीं है, जो तोड़-तोड़ के  तुम्हारी ऊटपटांग मांगें पूरी करते रहें."

मौली दी के बगीचे में पैसों का पेड़ लगा है क्या?

ज़रूर लगा होगा ! उसी से तोड़-तोड़ के सामान खरीदते होंगे.

आदि को मौली के घर में रहना बहुत अच्छा लगता है. सब एक दूसरे से कितने प्यार से बातें करते हैं. आदि भी पूरे घर में कहीं भी आ-जा सकता है. कोई मनाही नहीं. उसके घर में तो जब देखो तब चख-चख . मम्मी कुछ घरीद लें, तो पापा घर सिर पे उठा लेते हैं. कितना चिल्लाते हैं! दिन रात खटने की दुहाई देते हैं. हर बात में कह देते हैं, पैसा नहीं है....

पता नहीं , पैसों का पेड़ क्यों नहीं लगा लेते.....पौधा तो मौली दी के घर से मिल ही जाएगा. शायद कलम लगती हो.........

पूछेगा आदि मौली से.

मौली दी के पापा कितने अच्छे हैं. कितनी बड़ी बड़ी चॉकलेट लाते हैं उनके लिए. आदि को सब चॉकलेटों के नाम और स्वाद मालूम हैं. मौली दी उसे भी खिलाती हैं न!  चॉकलेट खाने के बाद जब मौली दी उसका रैपर फ़ेंक देती हैं , तो आदि चुपचाप उसे  उठा लेता है, एकदम नज़र बचा के. पूरा डिटेल पढ़ता है. बार-बार सूंघता है रैपर को ...और फिर सहेज के रख लेता है.

आदि के पापा तो कभी चॉकलेट खरीदते ही नहीं. कभी-कभार टॉफी ला देते हैं, तो वो भी बस दो-दो ही मिलती हैं दोनों भाइयों को. और मांगो तो डपट देते हैं कि  " दाँत खराब करना हैं क्या?"

मौली दी के दाँत  तो एकदम सफ़ेद हैं.....................

मौली दी के पापा गाड़ी से ऑफिस जाते हैं. एकदम चमाचम गाड़ी. सुबह सबसे पहले उनका नौकर गाड़ी ही साफ़ करता है. मौली दी का नौकर उनकी गाड़ी, और उसके पापा अपनी सायकिल लगभग एक ही समय पर साफ़ करते हैं.

अच्छा नहीं लगता आदि को......................

उसके पापा गाड़ी क्यों नहीं खरीदते? पूछा था आदि ने पापा से, लेकिन उन्होंने हंसी में उड़ा  दिया.....आदि समझ ही नहीं पाता पापा की बातें.

लेकिन आदि को मौली दी की तरह रहना अच्छा लगता है. उसके दोनों दोस्त , रोहन और अनवर भी तो मौली दी की तरह ही रहते हैं. पैरेंट्स-मीटिंग में उनके पापा भी तो गाड़ी से ही आते हैं. लेकिन आदि के पापा....................

पिछली बार सायकिल के डंडे पर बैठा आदि कितना शर्मिंदा हो गया था , जब रोहन की गाड़ी ठीक उसकी बगल में आकर खड़ी हो गई थी.

अब तो आदि भी कई बार झूठ बोल देता है............. सब बड़ी-बड़ी बातें हैं.....अगर वो झूठ न बोले और बता दे कि उसका कोई कमरा नहीं , वो तो रात को बाबा आदम  के ज़माने के , तांत की बुनाई वाले सोफे पर सोता है, तो कौन उससे दोस्ती करेगा? भला हो मौली दी का , जिनके कारण न केवल उसे हर आधुनिकतम सामान देखने को मिलता है, बल्कि उनका इस्तेमाल भी जानता हा. इसीलिये अपने दोस्तों के बीच किसी भी सामान के बारे में ऐसे बताता है , जैसे वो मौली का नहीं, उसका खुद का हो.

काश! उसने मौली के घर जन्म लिया होता!

अपने घर में वो जब भी आसनी बिछा के खाना खाने बैठता है तो उसे मौली दी की डाइनिंग टेबल  खूब-खूब याद आने लगती है. चमकती हुई...शीशे की.....उस पर क्रॉकरी....

कितनी नफ़ासत  से सब थोड़ा-थोड़ा खाना निकालते हैं प्लेट में...

उसके पापा तो जब खाना खाने बैठते हैं , तो मम्मी रोटियों कि पूरी गड्डी  ही रख देती हैं थाली में. सब्जी भी ऊपर तक भर देती हैं कटोरी में. मौली दी के यहाँ खाते समय कोई आवाजें नहीं करता, और आदि के यहाँ? 

पापा तो इतनी आवाजें करते हैं न, कि दूसरे  कमरे में बैठा आदि   बता सकता है, कि वे कब क्या खा रहे हैं. चाय भी ऐसे सुड़क-सुड़क के पीते हैं, कि आदि सोते से जाग जाता है.

पहले आदि को पापा की सारी आदतें बहुत अच्छी लगती थी. वो भी चाय सुड़कने लगा था. लेकिन  मौली दी की  मम्मी ने समझाया , उसने चाय सुड़कना  बंद कर दिया.

समझाया तो उन्होंने  ये भी था कि  बच्चे चाय नहीं पीते, तुम दूध पिया करो.

उसने मम्मी से कहा भी था कि  वे उसे  दूध दिया करें. लेकिन मम्मी ने कहा कि अभी कुछ दिन चाय पियो, फिर अगले महीने से दूध बढ़ा लेंगीं. लेकिन वो अगला महीना आया ही नहीं......

उसकी कोई भी बात मम्मी पूरी नहीं करतीं. पिछली बार अपने जन्मदिन पर आदि ने कहा था कि उसे भी मौली दी की तरह केक काटना है. मौली दी से कन्फेक्शनरी  का पता भी ले आया था. पापा गए भी थे दूकान तक, लेकिन फिर बिना केक के लौट आये . बोले- बहुत महंगे हैं. मम्मी झट से बोलीं-  मैं घर में बना दूँगी. आदि खुश.

लेकिन मम्मी ने क्या किया? हलवा बना के उसी को केक के आकार  में जमा दिया!  

कितनी अच्छी हैं मौली दी की  मम्मी.....एक उसकी मम्मी हैं...दिन भर काम करती हैं, और अपनी ही साड़ी से हाथ पोंछती रहती हैं. कभी आदि को डांटती हैं कभी भैया को.

काश! मौली दी कि मम्मी उसकी मम्मी होतीं.................

सुबह देर  से आँख खुली  थी आदि की. किसी ने जगाया ही नहीं. जब उठा तो घर कितना सूना-सूना लग रहा था. न मम्मी की आवाजें न पापा की. कहाँ गए ये लोग?

अन्दर से बाहर तक ढूंढ लिया मम्मी को, नहीं मिलीं. केवल भैया बाहर बैठा था. उसी ने बताया कि बड़े सबेरे मम्मी कि तबियत अचानक ही ख़राब हो गई, तो पापा उन्हें हॉस्पिटल ले गए हैं. और ये भी कि दस बजे जब भैया स्कूल जाएगा तब आदि को मौली के घर छोड़ देगा, पूरे दिन के लिए.

मौली दी के घर! पूरे दिन!! बांछें खिल गईं आदि की. मम्मी बीमार हैं, ये भी भूल गया. फटाफट नहा-धोकर तैयार हो गया.

मौली दी भी उस समय स्कूल में थीं, जब आदि उनके घर पहुंचा. आंटी ने उसे ढेर सारी स्टोरी बुक्स दे दीं.

लेकिन कितनी देर पढता आदि? थोड़ी देर में ही बोर होने लगा. तभी आंटी ने उसे ब्रेक-फास्ट के लिए बुलाया . आदि प्रसन्न. टेबल पर आंटी, अंकल और आदि. आंटी ने टोस्ट पर बटर  लगाया, प्लेट  उसकी ओर  खिसकाई.

गपागप खा गया आदि. और की  इच्छा थी, लेकिन मांगे कैसे? सब दो पीस ही खा रहे थे. उसका घर होता तो मम्मी पहले ही चार ब्रेड देतीं.

फिर लंच के समय भी............

उसका मन हो रहा था कि  कुर्सी पर ही आलथी-पालथी  लगा के बैठ जाए लेकिन............

मन हो  रहा था कि चम्मच फेंक के , पूरी कटोरी की दाल चावल में उंड़ेल के, हाथ से   खा ले, जल्दी-जल्दी लेकिन..................

बहुत बंधा-बंधा सा महसूस कर रहा था आदि................मम्मी की  याद आ रही थी. पता नहीं उन्हें क्या हो गया?  अपने घर की  भी बहुत याद आ रही थी.  शाम होते-होते उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, न कम्प्यूटर, न वीडियो गेम न और कुछ......................

                                                 " आदि आओ बेटा....." पापा की आवाज़ सुन उछाल पड़ा आदि, जैसे बरसों बाद सुनी हो ये आवाज़. लगा कितने दिन हो गए, घर छोड़े...............

दौड़ता हुआ बाहर आया. मौली दी को बाय तक कहना भूल गया.........

घर पहुँच के मम्मी से लिपट गया आदि. कितना सुकून......................कितना सुख. न नहीं चाहिए उसे मौली का घर, मौली की मम्मी.

भैया चाय बना लाया था. पापा अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सुड़कने लगे. आदि मुस्कुराया. अपना कप उठाया, प्लेट में चाय डाली, और खूब जोर से सुड़क गया.

--

परिचय-

नाम- वंदना अवस्थी दुबे

शिक्षा- विज्ञान स्नातक, पुरातत्व विज्ञान में स्नातकोत्तर.

आकाशवाणी छतरपुर में अस्थाई उदघोषिका के रूप में छह वर्ष, और बाद में  दैनिक "देशबंधु " समाचार-पत्र में वरिष्ठ उपसंपादक के रूप में बारह वर्षों का कार्यानुभव. वर्तमान में स्वतन्त्र पत्रकारिता, लेखन और निजी माध्यमिक विद्यालय का संचालन.

पता- केयर पब्लिक स्कूल, मुख्त्यार गंज, सतना-म.प्र., पिन- 485001

COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. बाल-मन का बहुत ही सुंदर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है इस कहानी में
    वंदना एक बार फिर इस कहानी को पढ़ा तो उसी ताज़गी का अनुभव हुआ ,,मन को बल्कि अंतर्मन को स्पर्श करती हुई बेहतरीन कहानी के लिये बधाई और शुभकामनाएं भी
    रविशंकर जी का इसे प्रकाशित करने के लिये आभार

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  2. बाल मन को पढ़ लेना सबके बस की बात नहीं है , बंदना जी ने क्या चित्रण किया है . कहानी की आत्मा और उसकी गुणवत्ता निसंदेह उत्तम प्रभाव उत्पन्न करती है .

    जवाब देंहटाएं
  3. कहानी के लिए कुछ हट कर और अच्छा विषय चुना है .
    अंत तक खुद को मोली और आदि के साथ ही पाया.
    बहुत अच्छी लगी कहानी वंदना जी.
    शुभकामनाएँ.

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  4. kitni saralta se baalman ko samjh liyaa loved it

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कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -67- वंदना अवस्थी दुबे की कहानी : नहीं चाहिए आदि को कुछ...
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